p.108

११ । पशु से मनुष्य

दुर्गा माली डाक्टर मेहरा बार-एट ला के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये मासिक वेतन पाता था। उसके घर में स्त्री और दो-तीन छोटे बच्चे थे। स्त्री पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, उपले चुन लाते थे। किंतु इतना यत्न करने पर भी वे बहुत तकलीफ़ में रहते थे। दुर्गा, डाक्टर साहब की नज़र बचाकर बगीचे से फूल चुन लेता और बाज़ार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ़ किया करता। यही उसकी ऊपरी आमदनी थी। इससे नोन-तेल आदि का काम चल जाता था।

उसने कई बार डॉक्टर महोदय से वेतन बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, परंतु डाक्टर साहब नौकरों की वेतन-वृद्धि को छूत की बीमारी समझते थे, जो एक से अनेकों को ग्रस लेती है। वे साफ़ कह दिया करते कि, {{भाई, मैं तुम्हें बाँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा निर्वाह यहाँ नहीं होता, तो और कहीं चले जाओ। मेरे लिए मालियों का अकाल नहीं है।}} दुर्गा में इतना साहस न था कि वह लगी हुई रोज़ी छोड़कर नौकरी ढूँढ़ने निकलता। इससे अधिक वेतन पाने की आशा भी नहीं थी। इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने भाग्य को रोता था।

डाक्टर महोदय को बागवानी से विशेष प्रेम था। नाना प्रकार के फूल-पत्ते लगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पौधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि स्थानों से मँगवाकर लगाए थे। वृक्षों को फलों से लदे हुए देखकर हार्दिक आनंद होता था। अपने मित्रों के यहाँ गुलदस्ते और शाक-भाजी की डालियाँ तोहफ़े के तौर पर भिजवाते रहते थे। उन्हें फलों को आप खाने का शौक़ न था, पर मित्रों को खिलाने में उन्हें असीम आनंद प्राप्त होता था। प्रत्येक फल के मौसिम में मित्रों की दावत करते, और {पिकनिक पार्टियाँ} उनके मनोरंजन का प्रधान अंग थीं।

p.109

एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई मित्रों को आम खाने की दावत दी। मलीहाबादी में सुफेदे के फल ख़ूब लगे हुए थे। डाक्टर साहब इन फलों को प्रतिदिन देखा करते थे। ये पहले ही फले थे, इसलिए वे मित्रों से उनके मिठास और स्वाद का बखान सुनना चाहते थे। इस विचार से उन्हें वही आमोद था, जो किसी पहलवान को अपने पट्ठों के करतब दिखाने से होता है। इतने बड़े सुंदर और सुकोमल सुफेदे स्वयं उनकी निगाह से न गुज़रे थे। इन फलों के स्वाद का उन्हें इतना विश्वास था कि वे एक फल चखकर उनकी परीक्षा करना आवश्यक न समझते थे, प्रधानतः इसलिए कि एक फल की कमी एक मित्र को रसास्वादन से वंचित कर देगी।

संध्या का समय था, चैत का महीना। मित्रगण आकर बगीचे में हौज़ के किनारे कुरसियों पर बैठ थे। बर्फ़ और दूध का प्रबंध पहले ही से कर लिया गया था, पर अभी तक फल न तोड़े गए थे। डाक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखलाकर तब उन्हें तोड़ना चाहने थे, जिसमें किसी को यह संदेह न हो कि फल इनके बाग के नहीं हैं। जब सब सज्जन जमा हो गए, तब उन्होंने कहा -- आप लोगों को कष्ट होगा, पर ज़रा चलकर फलों को पेड़ में लटकते हुए देखिए। बड़ा ही मनोहर दृश्य है। गुलाब में भी ऐसी लोचन-प्रिय लाली न होगी। रंग से स्वाद टपका पड़ता है। मैंने इसकी कलम खास मलीहाबाद से मँगवाई थी और उसका विशेष रीति से पालन किया है।

मित्रगण उठे। डाक्टर साहब आगे-आगे चले -- रविशों के दोनों ओर गुलाब की क्यारियाँ थीं। उनकी छटा दिखाते हुए वे अंत में सुफेदे के पेड़ के सामने आ गए। मगर, आश्चर्य! वहाँ एक भी फल न था। डाक्टर साहब ने समझा, शायद यह वह पेड़ नहीं है। दो पग और आगे चले, दूसरा पेड़ मिल गया। और आगे बढ़े, तीसरा पेड़ मिला। फिर पीछे लौटे और एक विस्मित दशा में सुफेदे के वृक्ष के नीचे आकर रुक गए। इसमें संदेह नहीं कि वृक्ष यही है, पर फल क्या हुए? बीस-पचीस आम थे, एक का भी पता नहीं! मित्रों की ओर अपराधपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले -- आश्चर्य है कि इस पेड़ में एक भी फल नहीं है। आज सुबह मैंने देखा था, पेड़ फलों से लदा हुआ था। यह देखिए, फलों का डंठल है। यह अवश्य माली की शरारत है। मैं आज उसकी हड्डियाँ तोड़ दूँगा। उस पाजी ने मुझे कितना धोखा दिया! मैं बहुत लज्जित हूँ कि आप लोगों को व्यर्थ कष्ट हुआ। मैं सत्य कहता हूँ, इस समय मुझे जितना दुःख है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। ऐसे रँगीले, कोमल, कमनीय फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे। उनके यों लुप्त हो जाने से मेरे हृदय के टुकड़े हुए जाते हैं।

p.110

यह कहकर वे नैराश्य-वेदना से कुरसी पर बैठ गए। मित्रों ने सांत्वना देते हुए कहा -- नौकरों का सब जगह यही हाल है। यह जाति ही पाजी होती है। आप हम लोगों के कष्ट का खेद न करें। वह सुफेदे न सही, दूसरे फल सही।

एक सज्जन ने कहा -- साहब, मुझे तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं। सुफेदे, मोहनभोग, लँगड़े, बंबई, फजली, दशहरी इनमें कोई भेद ही नहीं मालूम होता। न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फ़र्क़ मालूम होता है।

दूसरे सज्जन बोले -- यहाँ भी वही हाल है। इस समय जो फल मिले, वही मँगवाइए। जो गये, उनका अफ़सोस क्या?

डाक्टर साहब ने व्यथित भाव से कहा -- आमों की क्या कमी है, सारा बाग भरा पड़ा है, ख़ूब शौक़ से खाइए और बाँधकर घर ले जाइए। वे हैं और किसलिए? पर वह रस और स्वाद कहाँ? आपको विश्वास न होगा, उन सुफेदों पर ऐसा निखार था कि सेव मालूम होते थे। सेव भी देखने में ही सुंदर होता है, उसमें वह रुचिवर्द्धक लालित्य, वह सुधामय मृदुता कहाँ! इस माली ने आज वह अनर्थ किया है कि जी चाहता है, नमकहराम को गोली मार दूँ। इस वक्त सामने आ जाय तो अधमुआ कर दूँ।

माली बाज़ार गया हुआ था। डाकटर साहब ने साईस से कुछ आम तुड़वाए, मित्रों ने आम खाए, दूध पिया और डाक्टर साहब को धन्यवाद देकर अपने-अपने घर की राह ली। लेकिन मिस्टर मेहरा वहाँ हौज़ के किनारे हाथ में हंटर लिये, माली की बाट जोहते रहे। आकृति से जान पड़ता था, मानो साक्षात् क्रोध मूर्तिमान हो गया था।

p.111

कुछ रात गए दुर्गा बाज़ार से लौटा। वह चौकन्नी आँखों से इधर-उधर कुछ देख रहा था। ज्यों ही उसने डाक्टर साहब को हौज़ के किनारे हाथ में हंटर लिये बैठे देखा, होश उड़ गए। समझ गया कि चोरी पकड़ ली गई। इसी भय से उसने बाज़ार में ख़ूब देर की थी। उसने समझा था, डाक्टर साहब कहीं सैर करने गए होंगे, मैं चुपके से कटहल के नीचे अपनी झोपड़ी में जा बैठूँगा। सबेरे कुछ पूछताछ भी हुई तो मुझे सफ़ाई देने का अवसर मिल जायगा। कह दूँगा, सरकार मेरे झोपड़े की तलाश ले लें, इस प्रकार मामला दब जाएगा। समय सफल चोर का सबसे बड़ा मित्र है। एक-एक क्षण उसे निर्दोष सिद्ध करता जाता है। किंतु जब वह रँगे हाथों पकड़ा जाता है, तब उसे बच निकलने की कोई राह नहीं रहती। रुधिर के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग़ बन सकते हैं, पर ताज़ा लोहू आप ही आप पुकारता है। दुर्गा के पैर थम गए, छाती धड़कने लगी। डाक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गई थी। अब उलटे पाँव लौटना व्यर्थ था।

डाक्टर साहब उसे दूर से देखते ही उठे कि चलकर उसकी ख़ूब मरम्मत करूँ। लेकिन वकील थे, विचार किया कि इसका बयान लेना आवश्यक है। इशारे से निकट बुलाया और पूछा -- सुफेदे के पेड़ में कई आम लगे हुए थे। एक भी नहीं दिखाई देता। क्या हो गए?

दुर्गा ने निर्दोष भाव से उत्तर दिया -- हुज़ूर, अभी मैं बाज़ार गया हूँ, तब तक तो सब आम लगे हुए थे। इतनी देर में कोई तोड़ ले गया हो, तो मैं नहीं कह सकता।

डाक्टर -- तुम्हारा किस पर संदेह है?

दुर्गा -- सरकार, अब मैं किसे बताऊँ! इतने नौकर-चाकर हैं, न जाने किसकी नीयत बिगड़ी हो।

डाक्टर -- मेरा संदेह तुम्हारे ऊपर है, अगर तोड़कर रक्खे हों तो लाकर दे दो या साफ़-साफ़ कह दो कि मैंने तोड़े हैं, नहीं तो मैं बुरी तरह पेश आऊँगा।

चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता, जितना अपमान से। जब उसे सज़ा से बचने की कोई आशा नहीं रहती, उस समय भी वह अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता। वह अपराधी बनकर छूट जाने से निर्दोष बनकर दंड भोगना बेहतर समझता है। दुर्गा इस समय अपराध स्वीकार करके सज़ा से बच सकता था, पर उसने कहा -- हुज़ूर मालिक हैं, जो चाहें करें, पर मैंने आम नहीं तोड़े। सरकार ही बताएँ, इतने दिन मुझे आपकी ताबेदारी करते हो गए, मैंने एक पत्ती भी छुई है?

p.112

डाक्टर -- तुम क़सम खा सकते हो?

दुर्गा -- गंगा की क़सम, जो मैंने आमों को हाथ से छुआ भी हो।

डाक्टर -- मुझे इस क़सम पर विश्वास नहीं है। तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब क़सम खाकर कहो कि अगर मैंने तोड़े हों, तो मेरा लड़का मेरे काम न आये। तब मुझे विश्वास आवेगा।

दुर्गा -- हुज़ूर, साँच को आँच क्या, जो क़सम कहिए, खाऊँगा। जब मैंने काम ही नहीं किया, तो मुझ पर क़सम क्या पड़ेगी।

डाक्टर -- अच्छा; बातें न बनाओ, जाकर पानी लाओ।

डाक्टर महोदय मानव-चरित्र के ज्ञाता थे। सदैव अपराधियों से व्यहार रहता था। यद्यपि दुर्गा ज़बान से हेकड़ी की बातें कर रहा था, पर उसके हृदय में भय समाया हुआ था। वह अपने झोपड़े में आया, लेकिन लोटे में पानी लेकर जाने की हिम्मत न हुई। उसके हाथ थरथराने लगे। ऐसी घटनाएँ याद आ गईं, जिनमें झूठी गंगा उठानेवाले पर दैवी कोप का प्रहार हुआ था। ईश्वर के सर्वज्ञ होने का ऐसा मर्मस्पर्शी विश्वास उसे कभी नहीं हुआ था। उसने निश्चय किया {मैं झूठी गंगा न उठाऊँगा। यही न होगा, निकाल दिया जाऊँगा। नौकरी फिर कहीं न कहीं मिल जायगी और नौकरी भी न मिले तो मजूरी तो कहीं नहीं गयी है। कुदाल भी चलाऊँगा तो साँझ तक आध सेर आटे का ठिकाना हो जायगा।} वह धीरे-धीरे खाली हाथ डाक्टर साहब के सामने आकर खड़ा हो गया!

डाक्टर साहब ने कड़े स्वर से पूछा -- पानी लाया?

दुर्गा -- हुज़ूर, मैं गंगा न उठाऊँगा।

डाक्टर -- तो तुम्हारा आम तोड़ना साबित है!

p.113

दुर्गा -- अब सरकार जो चाहें, समझें। मान लीजिए, मैंने ही आम तोड़े तो आपका गुलाम ही तो हूँ। रात-दिन ताबेदारी करता हूँ, बाल-बच्चे आमों के लिए रोवें तो कहाँ जाऊँ? अबकी जान बकसी जाय, फिर ऐसा कसूर न होगा।

डाक्टर महोदय इतने उदार न थे! उन्होंने यही बड़ा उपकार किया कि दुर्गा को पुलिस के हवाले न किया और हंटर ही लगाए। उसकी इस धार्मिक श्रद्धा ने उन्हें कुछ नर्म कर दिया था, मगर ऐसे दुर्बल हृदय मनुष्य को अपने यहाँ रखना असंभव था। उन्होंने उसी क्षण दुर्गा को जवाब दे दिया और उसकी आधे महीने की बाकी मजूरी जब्त कर ली।

कई मास के पश्चात् एक दिन डाक्टर मेहरा बाबू प्रेमशंकर के बाग की सैर करने गये। वहाँ से कुछ अच्छी-अच्छी कलमें लाना चाहते थे। प्रेमशंकर को भी बागवानी से प्रेम था और दोनों मनुष्यों में यही एक समानता थी, अन्य सभी विषयों में एक दूसरे से भिन्न थे। प्रेमशंकर बड़े संतोषी, सरल, सहृदय मनुष्य थे। वे कई साल अमेरिका रह चुके थे! वहाँ उन्होंने कृषि-विज्ञान का ख़ूब अध्ययन किया था और यहाँ आकर इस वृत्ति को अपनी जीविका का आधार बना लिया था। मानव-चरित्र और वर्तमान सामाजिक संगठन के विषय में उनके विचार विचित्र थे। इसीलिए शहर के सभ्य समाज में लोग उनकी उपेक्षा करते थे और उन्हें झक्की समझते थे। इसमें संदेह नहीं कि उनके सिद्धातों से लोगों को एक प्रकार की दार्शनिक सहानुभूति थी, पर उनके क्रियात्मक होने के विषय में उन्हें बड़ी शंका थी। संसार कर्मक्षेत्र है, मीमांसा-क्षेत्र नहीं। यहाँ सिद्धांत सिद्धांत ही रहेंगे, उनका प्रत्यक्ष घटनाओं से संबंध नहीं।

डाक्टर साहब बगीचे में पहुँचे तो उन्होंने प्रेमशंकर को क्यारियों में पानी देते हुए पाया। कुएँ पर एक मनुष्य खड़ा पंप से पानी निकाल रहा था। मेहरा ने उसे तुरंत ही पहचान लिया। वह दुर्गा माली था। डाक्टर साहब के मन में उस समय दुर्गा के प्रति एक विचित्र ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ। जिस नराधम को उन्होंने दंड देकर अपने यहाँ से अलग कर दिया था, उसे नौकरी क्यों मिल गई? यदि दुर्गा इस वक्त फटेहाल रोनी सूरत बनाए दिखाई देता, तो डाक्टर साहब को उस पर दया आ जाती। वे संभवतः उसे कुछ इनाम देते और प्रेमशंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते। उनकी प्रकृति में दया थी और अपने नौकरों पर उनकी कृपादृष्टि रहती थी। परंतु उनकी इस कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी। इस कृपा का आधार न्याय नहीं, दीन-पालन है। दुर्गा ने उन्हें देखा, कुएँ पर खड़े-खड़े सलाम किया और फिर अपने काम में लग गया। उसका यह अभिमान डा॰ साहब के हृदय में भाले की भाँति चुभ गया। उन्हें यह विचारकर अत्यंत क्रोध आया कि मेरे यहाँ से निकलना इसके लिए हितकर हो गया। उन्हें अपनी सहृदयता पर जो घमंड था, उसे बड़ा आघात लगा। प्रेमशंकर ज्यों ही उनसे हाथ मिलाकर उन्हें क्यारियों की सैर कराने लगे, त्योंही डाक्टर साहब ने उनसे पूछा -- यह आदमी आपके यहाँ कितने दिनों से है?

p.114

प्रमशंकर -- यही छह या सात महीने होंगे।

डाक्टर -- कुछ नोच-खसोट तो नहीं करता? यह मेरे यहाँ माली था। इसके हथलपकेपन से तंग आकर मैंने इसे निकाल दिया था। कभी फूल तोड़ कर बेच लाता, कभी पौधे उखाड़ ले जाता, और फलों का कहना ही क्या? वे इसके मारे बचते ही न थे। एक बार मैंने मित्रों की दावत की थी। मलीहाबादी सुफेदे में ख़ूब फल लगे हुए थे। जब सब आकर बैठ गए और मैं उन्हें फल दिखाने के लिए ले गया तो सारे फल गायब! कुछ न पूछिए, उस घड़ी कितनी भद्द हुई! मैंने उसी क्षण इन महाशय को दुतकार बतायी। बड़ा ही दग़ाबाज़ आदमी है, और ऐसा चुतर है कि इसको पकड़ना मुश्किल है। कोई वकीलों ही जैसा काइयाँ आदमी हो, तो इसे पकड़ सकता है। ऐसी सफ़ाई और ढिठाई से ढुलकता है कि इसका मुँह देखते रह जाइए। आपको भी तो कभी चरका नहीं दिया?

प्रेमशंकर -- जी नहीं, कभी नहीं। मुझे इसने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया। यहाँ तो ख़ूब मेहनत करता है, यहाँ तक कि दोपहर की छुट्टी में भी आराम नहीं करता। मुझे तो इस पर इतना भरोसा हो गया कि सारा बगीचा इस पर छोड़ रक्खा है। दिन भर में जो कुछ आमदनी होती है, वह शाम को मुझे दे देता है और कभी एक पाई का भी अंतर नहीं पड़ता।

p.115

डाक्टर -- यही तो इसका कौशल है कि आपको उलटे छुरे से मूँड़े, और आपको ख़बर भी नहीं। आप इसे वेतन क्या देते हैं?

प्रेमशंकर -- यहाँ किसी को वेतन नहीं दिया जाता। सब लोग लाभ में बराबर के साझेदार हैं। महीने भर में आवश्यक व्यय के पश्चात् जो कुछ बचता है, उसमें से १० रु॰ प्रति सैकड़ा धर्मखाते में डाल दिया जाता है, शेष रुपये समान भागों में बाँट दिये जाते हैं। पिछले महीने में १४० रु॰ की आमदनी हुई थी। मुझे मिलाकर यहाँ सात आदमी हैं। २० रु॰ हिस्से में पड़े। अबकी नारंगियाँ ख़ूब हुई हैं, मटर की फलियों, गन्ने, गोभी आदि से अच्छी आमदनी हो रही है। ४० रु॰ से कम न पड़ेंगे।

डाक्टर मेहरा ने आश्चर्य से पूछा -- इतने में आपका काम चल जाता है?

प्रेमशंकर -- जी हाँ, बड़ी सुगमता से। मैं इन्हीं आदमियों के-से कपड़े पहनता हूँ, इन्हीं का-सा खाना खाता हूँ और मुझे कोई दूसरा व्यसन नहीं है। यह २० रु॰ मासिक उन औषधियों का ख़र्च है, जो गरीबों को दी जाती हैं। ये रुपये संयुक्त आय से अलग कर लिए जाते हैं, किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। यह साइकिल जो आप देखते हैं, संयुक्त-आय से ही ली गई है। जिसे ज़रूरत होती है, इस पर सवार होता है। मुझे ये सब अधिक कार्य-कुशल समझते हैं और मुझ पर पूरा विश्वास रखते हैं। बस, मैं इनका मुखिया हूँ। जो कुछ सलाह देता हूँ, उसे सब मानते हैं। कोई भी यह नहीं समझता कि मैं किसी का नौकर हूँ। सबके सब अपने को साझेदार समझते हैं और जी तोड़कर मिहनत करते हैं। जहाँ कोई मालिक होता है और दूसरा उनका नौकर, तो उन दोनों में तुरंत द्वेष पैदा हो जाता है। मालिक चाहता है कि इससे जितना काम लेते बने, लेना चाहिए। नौकर चाहता है कि मैं कम से कम काम करूँ। उसमें स्नेह या सहानुभूति का नाम तक नहीं होता। दोनों यथार्थ में एक दूसरे के शत्रु होते हैं। इस प्रतिद्वंद्विता का दुष्परिणाम हम और आप देख ही रहे हैं। मोटे और पतले आदमियों के पृथक्-पृथक् दल बन गए हैं और उनमें घोर संग्राम हो रहा है। काल-चिन्हों से ज्ञात होता है कि यह प्रतिद्वंद्विता अब कुछ ही दिनों की मेहमान है। इसकी जगह अब सहकारिता का आगमन होनेवाला है। मैंने अन्य देशों में इस घातक संग्राम के दृश्य देखे हैं और मुझे उनसे घृणा हो गई है। सहकारिता ही हमें इस संकट से मुक्त कर सकती है।

p.116

डाक्टर -- तो यह कहिए कि आप {सोशलिस्ट} हैं।

प्रेमशंकर -- जी नहीं, मैं {सोशलिस्ट} या {डिमाक्रेट} कुछ नहीं हूँ। मैं केवल न्याय और धर्म का दीन सेवक हूँ। मैं निःस्वार्थ सेवा को विद्या से श्रेष्ठ समझता हूँ। मैं अपनी आत्मिक और मानसिक-शक्तियों को, बुद्धि सामर्थ्य को, धन और वैभव का गुलाम नहीं बनाना चाहता। मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं। विद्या का धर्म है-आत्मिक उन्नति का फल उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता और दयाशीलता। जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए, जो हमें भोगविलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं, भ्रष्टता है। अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फँस जायँ तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है। हमने विद्या और बुद्धि-बल को विभूति-शिखर पर चढ़ने का मार्ग बना लिया। वास्तव में वह सेवा और प्रेम का साधन था। कितनी विचित्र दशा है कि जो जितना ही बड़ा विद्वान् है, वह उतना ही बड़ा स्वार्थसेवी है। बस, हमारी सारी विद्या और बुद्धि, हमारा सारा उत्साह और अनुराग, धनलिप्सा में ग्रसित है। हमारे प्रोफेसर साहब एक हज़ार से कम वेतन पाएँ, तो उनका मुँह ही नहीं सीधा होता। हमारे दीवान और माल के अधिकारी लोग दो हज़ार मासिक पाने पर भी अपने भाग्य को रोया करते हैं। हमारे डाक्टर साहब चाहते हैं कि मरीज़ मरे या जिए, मेरी फ़ीस में बाधा न पड़े, और वकील साहब (क्षमा कीजिएगा) ईश्वर से मनाया करते हैं कि ईर्ष्या और द्वेष का प्रकोप हो और मैं सोने की दीवार खड़ी कर लूँ। {समय धन है} इसी वाक्य को हम ईश्वर-वाक्य समझ रहे हैं। इन महान् पुरुषों में से प्रत्येक व्यक्ति सैकड़ों नहीं, हज़ारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं और फिर भी उसे जाति का भक्त बनने का दावा है। वह अपने स्वजाति-प्रेम का बड़ा डंका बजाता फिरता है। पैदा दूसरे करें, पसीना दूसरे बहाएँ, खाना और मूँछों पर ताव देना इनका काम है। मैं समस्त शिक्षित समुदाय को केवल निकम्मा ही नहीं, वरन् अनर्थकारी भी समझता हूँ।

p.117

डाक्टर साहब ने बहुत धैर्य से काम लेकर पूछा -- तो क्या आप चाहते हैं कि हम सबके सब मजूरी करें?

प्रेमशंकर -- जी नहीं, हालाँकि ऐसा हो तो इससे मनुष्य-जाति का बहुत उपकार हो। मुझे जो आपत्ति है, वह केवल दशाओं में इस अन्यायपूर्ण समता से है। यदि एक मजूर पाँच रुपया में अपना निर्वाह कर सकता है, तो एक मानसिक काम करनेवाले प्राणी के लिए इसंसे दुगुनी-तिगनी आय काफ़ी होनी चाहिए और यह अधिकता इसलिए कि उसे कुछ उत्तम भोजन-वस्त्र तथा सुख की आवश्यकता होती है। मगर पाँच और पाँच हज़ार, पचास और पचास हज़ार का अस्वाभाविक अंतर क्यों हो? इतना ही नहीं, हमारा समाज पाँच और पाँच लाख के अंतर का भी तिरस्कार नहीं करता; वरन् उसकी और भी प्रशंसा करता है। शासन-प्रबंध, वकालत, चिकित्सा, चित्र-रचना, शिक्षा, दलाली, व्यापार, संगीत और इसी प्रकार की सैकड़ों अन्य कलाएँ शिक्षित समुदाय की जीवनवृत्ति बनी हुई हैं। पर इनमें से एक भी धनोपार्जन नहीं करतीं। इनका आधार दूसरों की कमाई पर है। मेरी समझ में नहीं आता कि वह उद्योग-धंधे, जो जीवन की सामग्रियाँ पैदा करते हैं, जिन पर जीवन का अवलंबन है, क्यों उन पेशों से नीचे समझे जायँ, जिनका काम केवल मनोरंजन या अधिक से अधिक धनोपार्जन में सहायता करना है। आज सारे वकीलों को देशनिकाला हो जाय, सारे अधिकारीवर्ग लुप्त हो जायँ और सारे दलाल स्वर्ग को सिधारें, तब भी संसार का काम चलता रहेगा, बल्कि और भी सरलता से। किसान भूमि जोतेंगे, जुलाहे कपड़े बुनेंगे, बढ़ई, लोहार, राज, चर्मकार, सबके सब पूर्ववत् अपना-अपना काम करते रहेंगे। उनकी पंचायतें उनके झगड़ों का निबटारा करेंगी। लेकिन यदि किसान न हों, तो सारा संसार क्षुधा-पीड़ा से व्याकुल हो जाय। परंतु किसान के लिए पाँच रु॰ बहुत समझा जाता है और वकील साहब या डाक्टर साहब के पाँच हज़ार भी काफ़ी नहीं।

डाक्टर -- आप अर्थ-शास्त्र के उस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को भूल जाते हैं जिसे श्रम-विभाजन (Division of Labour) कहते हैं। प्रकृति ने प्राणियों को भिन्न-भिन्न शक्तियाँ प्रदान की हैं और उनके विकास के लिए भिन्न-भिन्न दशाओं की आवश्यकता है।

p.118

प्रेमशंकर -- मैं यह कब कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य मजूरी करने पर मजबूर किया जाय! नहीं, जिसे परमात्मा ने विचार की शक्ति दी है, वह शास्त्रों की बिवेचना करे। जो भावुक हो, वह काव्य की रचना करे। जो अन्याय से घृणा करता हो, वह वकालत करे। मेरा कथन केवल यह है कि भिन्न कार्यों की हैसियत में इतना अंतर न रहना चाहिए। मानसिक और औद्योगिक कामों में इतना फ़र्क़ न्याय के विरुद्ध है। यह प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल ज्ञात होता है कि आवश्यक और अनिवार्य कार्यों पर अनावश्यक और अनिवार्य कार्यों की प्रधानता हो। अतिपय सज्जनों का मत है कि इस साम्य से गुणी लोगों का अनादर होगा और संसार को उनके सद्विचारों और सद्कार्यों से लाभ न पहुँच सकेगा। किंतु वे भूल जाते हैं कि संसार के बड़े से बड़े पंडित, बड़े से बड़े कवि, बड़े से बड़े आविष्कारक, बड़े से बड़े शिक्षक धन और प्रभुता के लोभ से मुक्त थे। हमारे अस्वाभाविक जीवन का एक कुपरिणाम यह भी है कि हम बलात् कवि और शिक्षक बन जाते हैं! संसार में आज अगणित लेखक और कवि, वकील और शिक्षक उपस्थित हैं। वे सबके सब पृथ्वी पर भार-रूप हो रहे हैं। जब उन्हें मालूम होगा कि इन {दिव्य} कलाओं में कुछ लाभ नहीं है, तो वही लोग कवि होंगे, जिन्हें कवि होना चाहिए! संक्षेप में कहना यही है कि धन की प्रधानता ने हमारे समस्त समाज को उलट-पलट दिया है।

डाक्टर मेहरा अधीर हो गए, बोले -- महाशय, समाज-संगठन का यह रूप देव-लोक के लिए चाहे उपयुक्त हो, पर भौतिक संसार के लिए और इस भौतिक काल में वह कदापि उपयोगी नहीं हो सकता।

प्रेमशंकर -- केवल इसी कारण से अभी तक धनवानों का, ज़मींदारों का और शिक्षित समुदाय का प्रभुत्व जमा हुआ है। पर इसके पहले भी, कई बार इस प्रभुत्व को धक्का लग चुका है, और चिह्नों से ज्ञात होता है कि निकट भविष्य में फिर इसकी पराजय होनेवाली है। कदाचित् यह हार निर्णायात्मक होगी। समाज का चक्र साम्य से आरंभ होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है। एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व और वाणिज्य-प्राबल्य, उसकी मध्यवर्ती दशाएँ हैं। वर्तमान चक्र ने मध्यवर्ती दशाओं को भोग लिया है और वह अपने अंतिम स्थान के निकट आता जाता है। किंतु हमारी आँखें अधिकार और प्रभृता के मद में ऐसी भरी हुई हैं कि हमें आगे-पीछे कुछ नहीं सूझता। चारों ओर से जनतावाद का घोर नाद हमारे कानों में आ रहा है, पर हम ऐसे निश्चिंत हैं, मानो वह साधारण मेध की ग़रज़ है। हम अभी तक उन्हीं विद्याओं और कलाओं में लीन हैं, जिनका आश्रय दूसरों की मेहनत है। हमारे विद्यालयों की संख्या बढ़ती है, हमारे वकीलखाने में पाँव रखने को जगह बाकी नहीं, गली-गली फोटो स्टूडियो खुल रहे हैं, डाक्टरों की संख्या मरीजों से भी अधिक हो गई है, पर अब भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं। हम इस अस्वाभाविक जीवन, इस सभ्यता के तिलिस्म से बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करते। हम शहरों में कार-खाने खोलते फिरते हैं, इसलिए कि मज़दूरों की मेहनत से मोटे हो जायँ। ३० रु॰ और ४० रु॰ सैकड़े लाभ की कल्पना करके फूले नहीं समाते, पर ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि किसी शिक्षित सज्जन ने कपड़ा बुनना या ज़मीन जोतना शुरू किया हो। यदि कोई दुर्भाग्यवश ऐसा करे भी तो उसकी हँसी उड़ाई जाती है। हम उसी को मान-प्रतिष्ठा के योग्य समझते हैं, जो तकिया-गद्दी लगाए बैठा रहे, हाथ-पैर न हिलाए और लेनदेन पर, सूद बट्टे पर लाखों के वारे-न्यारे करता हो ॰॰॰॰॰॰॰॰।

p.119

यही बातें हो रही थीं कि दुर्गा माली एक डाली में नारंगियाँ, गोभी के फूल, अमरूद, मटर की फलियाँ आदि सजाकर लाया और उसे डॉक्टर साहब के सामने रख दिया। उसके चेहरे पर एक प्रकार का गर्व था, मानो उसकी आत्मा जागरित हो गई है। वह डाक्टर साहब के समीप एक मोटे मोढ़े पर बैठ गया और बोला -- हुज़ूर को कैसी कलमें चाहिए? आप बाबूजी को एक चिट पर उनके नाम लिखकर दे दीजिए। मैं कल आपके मकान पहुँचा दूँगा। आपके बाल-बच्चे तो अच्छी तरह हैं?

डाक्टर साहब ने कुछ सकुचाकर कहा -- हाँ, लड़के अच्छी तरह हैं। तुम यहाँ अच्छी तरह हो?

दुर्गा -- जी हाँ, आपकी दया से बहुत आराम से हूँ।

डाक्टर साहब उठकर चले। प्रेमशंकर उन्हें विदा करने साथ-साथ फाटक तक आये। डाक्टर साहब मोटर पर बैठे तो मुस्कराकर प्रेमशंकर से बोले -- मैं आपके सिद्धांतों का कायल नहीं हुआ, पर इसमें संदेह नहीं कि आपने एक पशु को मनुष्य बना दिया। यह आपके सत्संग का फल है। लेकिन क्षमा कीजिएगा, मैं फिर भी कहूँगा कि आप इससे होशियार रहिएगा। {यूजेनिक्स} (सुप्रजनन-शास्त्र) अभी तक किसी ऐसे प्रयोग का आविष्कार नहीं कर सका है, जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे!

p.120