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१० । ज्वालामुखी

डिग्री लेने ले बाद मैं नित्य लाइब्रेरी जाया करता। पत्रों या किताबों का अवलोकन करने के लिए नहीं। किताबों को तो मैंने छूने की कसम खा ली थी। जिस दिन गजट में अपना नाम देखा, उसी दिन मिल और कैंट को उठाकर ताक पर रख दिया। मैं केवल अँगरेज़ी पत्रों के {{वांटेड}} कालमों को देखा करता। जीवन-यात्रा की फ़िक़्र सवार थी। मेरे दादा या परदादा ने किसी अँगरेज़ को ग़दर के दिन में बचाया होता, अथवा किसी इलाके का ज़मींदार होता, तो कहीं {{नामिनेशन}} के लिए उद्योग करता। पर मेरे पास कोई सिफ़ारिश न थी। शोक! कुत्ते, बिल्लियों और मोटरों की माँग सबको थी। पर बी॰ ए॰ पास का कोई पुरसाँहाल न था। महीनों इसी तरह दौड़ते गुज़र गए, पर अपनी रुचि के अनुसार कोई जगह न नज़र आयी। मुझे अक्सर अपने बी॰ ए॰ होने पर क्रोध आता था। ड्राइवर, फायरमैन, मिस्त्री, ख़ानसामा या बाबर्ची होता, तो मुझे इतने दिनों तक बेकार न बैठना पड़ता।

एक दिन मैं चारपाई पर लेटा हुआ एक पत्र पढ़ रहा था कि मुझे एक माँग अपनी इच्छा के अनुसार दिखाई दी। किसी रईस को एक ऐसे प्राईवेट सेक्रेटरी की ज़रूरत थी, जो विद्वान्, रसिक, सहृदय और रूपवान हो। वेतन एक हज़ार मासिक! मैं उछल पड़ा। कहीं मेरा भाग्य उदय हो जाता और यह पद मुझे मिल जाता तो ज़िंदगी चैन से कट जाती। उसी दिन मैंने अपना विनय-पत्र अपने फ़ोटो के साथ रवाना कर दिया। पर अपने आत्मीय गणों में किसी से इसका ज़िक्र न किया कि कहीं लोग मेरी हँसी न उड़ाएँ। मेरे लिए ३० रु॰ मासिक भी बहुत थे। एक हज़ार कौन देगा? पर दिल से यह ख्याल दूर न होता। बैठे-बैठे शेखचिल्ली के मन्सूबे बाँधा करता। फिर होश में आकर अपने को समझाता कि मुझमें ऐसे ऊँचे पद के लिए कौन-सी योग्यता है। मैं अभी कालिज से निकला हुआ पुस्तकों का पुतला हूँ। दुनिया से बेखबर। इस पद के लिए एक-से-एक विद्वान्, अनुभवी पुरुष मुँह फैलाए बैठे होंगे। मेरे लिए कोई आशा नहीं। मैं रूपवान सही, सजीला सही, मगर ऐसे पदों के लिए केवल रूपवान होना काफ़ी नहीं होता। विज्ञापन में इसकी चर्चा करने से केवल इतना अभिप्राय होगा कि कुरूप आदमी की ज़रूरत नहीं, और यही उचित भी है। बल्कि बहुत सजीलापन तो ऊँचे पदों के लिए कुछ शोभा नहीं देता। मध्यम श्रेणी का तोंद भरा हुआ शरीर, फूले हुए गाल और गौरवयुक्त वाक्य-शैली, यह उच्च पदाधिकारियों के लक्षण हैं और मुझे इनमें से एक भी मयस्सर नहीं।

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इसी आशा और भय में एक सप्ताह गुज़र गया। और अब मैं निराश हो गया -- मैं भी कैसा ओछा हूँ कि एक बेसिर पैर की बात के पीछे ऐसा फूल उठा; इसी को लड़कपन कहते हैं। जहाँ तक मेरा ख़याल है, किसी दिल्लगीबाज़ ने आज के शिक्षित समाज की मूर्खता की परीक्षा करने के लिए यह स्वाँग रचा है। मुझे इतना भी न सूझा। मगर आठवें दिन प्रातःकाल तार के चपरासी ने मुझे आवाज़ दी। मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। लपका हुआ आया। तार खोलकर देखा, लिखा था -- स्वीकार है, शीघ्र आओ, ऐशगढ़।

मगर यह सुख सम्वाद पाकर मुझे वह आनंद न हुआ जिसकी आशा थी। मैं कुछ देर तक खड़ा सोचता रहा। किसी तरह विश्वास न आता था। ज़रूर किसी दिल्लगीबाज़ की शरारत है। मगर कोई मुजायका नहीं, मुझे भी इसका मुँह-तोड़ जवाब देना चाहिए। तार दे दूँ कि एक महीने की तनख़्वाह भेज दो। आप ही सारी कलई खुल जायगी। मगर फिर विचार किया, कहीं वास्तव में नसीब जागा हो, तो उद्दंडता से बना-बनाया खेल बिगड़ जायगा। चलो, दिल्लगी ही सही। जीवन में यह घटना भी स्मरणीय रहेगी। इस तिलिस्म को खोल ही डालूँ। यह निश्चय करके तार-द्वारा आने की सूचना दे दी और सीधे रेलवे स्टेशन पर पहुँचा।

पूछने पर मालूम हुआ कि यह स्थान दक्खिन की ओर है। टाइमटेबिल में उसका वृत्तांत विस्तार के साथ लिखा हुआ था। स्थान अति रमणीय है, पर जलवायु स्वास्थ्यकर नहीं! हाँ, हृष्ट-पुष्ट नवयुवकों पर उसका असर शीघ्र नहीं होता। दृश्य बहुत मनोरम है, पर जहरीले जानवर बहुत मिलते हैं। यथासाध्य अँधेरी घाटियों में न जाना चाहिए। यह वृत्तांत पढ़कर उत्सुकता और भी बढ़ी। जहरीले जानवर हैं तो हुआ करें, कहाँ नहीं है। मैं अँधेरी घाटियों के पास भूलकर भी न जाऊँगा। आकर सफ़र का सामान ठीक किया और ईश्वर का नाम लेकर नियत समय पर स्टेशन की तरफ़ चला। पर अपने अलापी मित्रों से इसका कुछ ज़िक्र न किया, क्योंकि मुझे पूरा विश्वास था कि दो ही चार दिन में अपना-सा मुँह लेकर लौटना पड़ेगा।

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गाड़ी पर बैठा तो शाम हो गई। थी। कुछ देर तक तो सिगार और पत्रों से दिल बहलाता रहा। फिर मालूम नहीं, कब नींद आ गई। आँखें खुलीं और खिड़की से बाहर की तरफ़ झाँका तो उषाकाल का मनोहर दृश्य दिखाई दिया। दोनों ओर हरे वृक्षों से ढँकी हुई पर्वत-श्रेणियाँ, उन पर चरती हुई उजली-उजली गायें और भेड़ें सूर्य की सुनहरी किरणों में रँगी हुई बहुत सुंदर मालूम होती थीं। जी चाहता था कि कहीं मेरी कुटिया भी इन्हीं सुखद पहाड़ियों में होती, तो जंगल के फल खाता, झरनों का ताज़ा पानी पीता और आनंद के गीत गाता। यकायक दृश्य बदला; एक विस्तृत झील दिखाई दी, जिसमें कँवल खिले हुए थे। कहीं उजले-उजले पक्षी तैरते थे और कहीं छोटी-छोटी डोंगियाँ निर्बल आत्माओं के सदृश डगमगाती हुई चली जाती थीं। यह दृश्य भी बदला। पहाड़ियों के दामन में एक गाँव नज़र आया, झाड़ियों और वृक्षों से ढँका हुआ, मानो शांति और संतोष ने यहाँ अपना निवास-स्थान बनाया हो। कहीं बच्चे खेलते थे, कहीं गाय के बछड़े किलोल करते थे। फिर एक घना जंगल मिला। झुंड के झुंड हिरन दिखाई दिए, जो गाड़ी की हहकार सुनते ही चौकड़ियाँ भरते दूर भाग जाते थे। यह सब दृश्य स्वप्न के चित्रों के समान आँखों के सामने आते थे और एक क्षण में गायब हो जाते थे। इसमें एक अवर्णनीय शांति-दायिनी शोभा थी, जिससे हृदय में आकांक्षाओं के आवेग उठने लगते थे।

आख़िर ऐशगढ़ निकट आया। मैंने बिस्तर सँभाला। ज़रा देर में सिग्नल दिखाई दिया। मेरी छाती धड़कने लगी। गाड़ी रुकी। मैंने उतरकर इधर-उधर देखा, कुलियों को पुकारने लगा कि इतने में दो वरदी पहने हुए आदमियों ने आकर मुझे सादर सलाम किया और पूछा -- आप ॰॰॰ से आ रहे हैं न, चलिए मोटर तैयार है। मेरी बाछें खिल गईं। तब तक कभी मोटर पर बैठने का सौभाग्य न हुआ था। शान के साथ जा बैठा। मन में बहुत लज्जित था कि ऐसे फटेहाल क्यों आया, अगर जानता कि सचमुच सौभाग्य-सूर्य चमका है तो ठाठ-बाट से आता। ख़ैर, मोटर चली। दोनों तरफ़ मौलसरी के सघन वृक्ष थे। सड़क पर लाल बजरी बिछी हुई थी। सड़क हरे-भरे मैदान में किसी सुरम्य जल-धारा के सदृश बल खाती चली गई थी। दस मिनट भी न गुज़रे होंगे कि सामने एक शांतिमय सागर दिखाई दिया। सागर के उस पार पहाड़ी पर एक विशाल भवन बना हुआ था। भवन अभिमान से सिर उठाए हुए था, सागर संतोष से नीचे लेटा हुआ, सारा दृश्य काव्य, श्रृंगार और आमोद से भरा हुआ था।

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हम सदर दरवाज़े पर पहुँचे, कई आदमियों ने दौड़कर मेरा स्वागत किया। इनमें एक शौकीन मुंशीजी थे, जो बाल सँवारे आँखों में सुरमा लगाए हुए थे। मेरे लिए जो कमरा सजाया गया था, उसके द्वार पर मुझे पहुँचाकर बोले -- सरकार ने फरमाया है, इस समय आप आराम मरें। संध्या समय मुलाकात कीजिएगा।

मुझे अब तक इसकी कुछ ख़बर न थी कि यह {सरकार} कौन हैं, न मुझे किसी से पूछने का साहस हुआ, क्योंकि अपने स्वामी के नाम तक से अनभिज्ञ होने का परिचय नहीं देना चाहता था। मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा स्वामी बड़ा सज्जन मनुष्य था। मुझे इतने आदर-सत्कार की कदापि आशा न थी। अपने सुसज्जित कमरे में जाकर जब मैं एक आराम-कुरसी पर बैठा तो हर्ष से विह्वल हो गया। पहाड़ियों की तरफ़ से शीतल वायु के मंद-मंद झोंके आ रहे थे। सामने छज्जा था। नीचे झील थी, साँप के केंचुले के सदृश, छाया और प्रकाश से पूर्ण, और मैं, जिसे भाग्यदेवी ने सदैव अपना सौतेला लड़का समझा था, इस समय जीवन में पहली बार निर्विघ्न आनंद का सुख उठा रहा था।

तीसरे पहर उन्हीं शौकीन मुंशीजी ने आकर इत्तला दी कि सरकार ने याद किया है। मैंने इस बीच में बाल बना लिए थे। तुरत अपना सर्वोत्तम सूट पहना और मुंशीजी के साथ सरकार की सेवा में चला। इस समय मेरे मन में यह शंका उठ रही थी कि कहीं मेरी बातचीत से स्वामी असंतुष्ट न हो जायँ और उन्होंने मेरे विषय में जो विचार स्थिर किए हों, उनमें कोई अंतर न पड़ जाय। तथापि मैं अपनी योग्यता का परिचय देने के लिए ख़ूब तैयार था। हम कई बरामदों से होते हुए अंत में सरकार के कमरे के दरवाज़े पर पहुँचे। रेशमी परदा पड़ा हुआ था। मुंशीजी ने परदा उठाकर मुझे इशारे से बुलाया। मैंने काँपते हुए हृदय से कमरे में क़दम रक्खा और आश्चर्य से चकित हो गया। मेरे सामने सौंदर्य की ज्वाला दीप्तिमान थी।

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फूल भी सुंदर है और दीपक भी सुंदर है। फूल में ठंडक और सुगंधि है, दीपक में प्रकाश और उद्दीपन। फूल पर भ्रमर उड़-उड़कर उसका रस लेता है, दीपक पर पतंग जलकर राख हो जाता है। मेरे सामने कारचोबी मसनद पर जो सुंदरी विराजमान थी, वह सौंदर्य की प्रकाशमय ज्वाला थी। फूल की पंखड़ियाँ हो सकती हैं, ज्वाला को विभक्त करना असंभव है। उसके एक-एक अंग की प्रशंसा करना ज्वाला को काटना है। वह नख-शिख एक ज्वाला थी, वही दीपन, वही चमक, वही लालिमा, वही प्रभा। कोई चित्रकार प्रतिभा सौंदर्य का इससे अच्छा चित्र नहीं खींच सकता था। रमणी ने मेरी तरफ़ वात्सल्य दृष्टि से देखकर कहा -- आपको सफ़र में कोई विशेष कष्ट तो नहीं हुआ?

मैंने सँभलकर उत्तर दिया -- जी नहीं, कोई कष्ट नहीं हुआ।

रमणी -- यह स्थान पसंद आया?

मैंने साहसपूर्ण उत्साह के साथ जवाब दिया -- ऐसा सुंदर स्थान पृथ्वी पर न होगा। हाँ, गाइड बुक देखने से विदित हुआ कि यहाँ का जलवायु जैसा सुखद प्रकट होता है, यथार्थ में वैसा नहीं, विषैले पशुओं की भी शिकायत थी।

यह सुनते ही रमणी का मुखसूर्य कांतिहीन हो गया। मैंने तो यह चर्चा इसलिए कर दी थी जिससे प्रकट हो जाय कि यहाँ आने में मुझे भी कुछ त्याग करना पड़ा है। पर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस चर्चा से उसे कोई विशेष दुःख हुआ। पर क्षण भर में सूर्य मेघमंडल से बाहर निकल आया, बोली -- यह स्थान अपनी रमणीयता के कारण बहुधा लोगों की आँखों में खटकता है। गुण का निरादर करनेवाले सभी जगह होते हैं। और यदि जलबायु कुछ हानिकार हो भी तो आप जैसे बलवान मनुष्य को इसकी क्या चिंता हो सकती है! रहे विषैले जीव-जंतु, वह आपके नेत्रों के सामने विचर रहे हैं। अगर मोर, हिरन और हंस विषैले जीव हैं, तो निस्संदेह यहाँ विषैले जीव बहुत हैं।

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मुझे संशय हुआ कि कहीं मेरे कथन से उसका चित्त खिन्न न हो गया हो; गर्व से बोला -- गाइड बुकों पर विश्वास करना सर्वथा भूल है।

इस वाक्य से सुंदरी का हृदय खिल गया, बोली -- आप स्पष्टवादी मालूम होते हैं और यह मनुष्य का एक उच्च गुण है। मैं आपका चित्र देखते ही इतना समझ गई थी। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इस पद के लिए मेरे पास एक लाख से अधिक प्रार्थना-पत्र आये थे। कितने ही एम॰ ए॰ थे, कोई डी॰ एस-सी॰ था, कोई जर्मनी से पी-एच॰ डी॰ की उपाधि प्राप्त किए हुए था, मानो यहाँ मुझे किसी दार्शनिक विषय की जाँच करानी थी। मुझे अबकी यह अनुभव हुआ कि देश में उच्चशिक्षित मनुष्यों की इतनी भरमार है। कई महाशयों ने स्वरचित ग्रंथों की नामावली लिखी थी, मानो देश में लेखकों और पंडितों ही की आवश्यकता है। काल-गति का लेशमात्र भी परिचय नहीं है। प्राचीन धर्मकथाएँ अब केवल अंधभक्तों के रसास्वादन के लिए ही हैं, उनसे और कोई लाभ नहीं है। यह भौतिक उन्नति का समय है। आज-कल लोग भौतिक सुख पर अपने प्राण अर्पण कर देते हैं। कितने ही लोगों ने अपने चित्र भी भेजे थे। कैसी-कैसी विचित्र मूर्त्तियाँ थीं, जिन्हें देखकर घंटों हँसिए। मैंने उन सभों को एक अलबम में लगा लिया है और अवकाश मिलने पर जब हँसने की इच्छा होती है, तो उन्हें देखा करती हूँ। मैं उस विद्या को रोग समझती हूँ, जो मनुष्य को वनमानुष बना दे। आपका चित्र देखते ही आँखें मुग्ध हो गईं, तत्क्षण आपको बुलाने को तार दे दिया।

मालूम नहीं क्यों, अपने गुणस्वभाव की प्रशंसा की अपेक्षा हम अपने बाह्य गुणों की प्रशंसा से अधिक संतुष्ट होते हैं और एक सुंदरी के मुखकंठ से तो वह चलते हुए जादू के समान है। बोला -- यथासाध्य आपको मुझसे असंतुष्ट होने का अवसर न मिलेगा।

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सुंदरी ने मेरी ओर प्रशंसापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा -- इसका मुझे पहले ही से विश्वास है। आइए, अब कुछ काम की बातें हो जायँ। इस घर को आप अपना ही समझिए और संकोच छोड़कर आनंद से रहिए। मेरे भक्तों की संख्या बहुत है। वह संसार के प्रत्येक भाग में उपस्थित हैं और बहुधा मुझसे अनेक प्रकार की जिज्ञासा किया करते हैं। उन सबको मैं आपके सुपुर्द करती हूँ। आपको उनमें भिन्न-भिन्न स्वभाव के मनुष्य मिलेंगे। कोई मुझसे सहायता माँगता है, कोई मेरी निंदा करता है, कोई सराहता है, कोई गालियाँ देता है। इन सब प्राणियों को संतुष्ट रखना आपका काम है। देखिए, यह आज के पत्रों का ढेर है। एक महाशय कहते हैं, बहुत दिन हुए आपकी प्रेरणा से मैं अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का अधिकारी बन बैठा था। अब उनका पुत्र वयस प्राप्त कर चुका है और मुझसे अपने पिता की जायदाद लौटाना चाहता है। इतने दिनों तक उस संपत्ति का उपभोग करने के पश्चात् अब उसका हाथ से निकलना अखर रहा है, आपकी इस विषय में क्या सम्मति है? इनको उत्तर दीजिए कि इस कूटनीति से काम लो, अपने भतीजे को कपट प्रेम से मिला लो और जब वह निःशंक हो जाय तो उससे एक सादे स्टांप पर हस्ताक्षर करा लो। इसके पीछे पटवारी और अन्य कर्मचारियों की मदद से इसी स्टांप पर जायदाद का बैनामा लिखा लो। यदि एक लगाकर दो मिलते हों तो आगापीछा भत करो।

यह उत्तर सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। नीति-ज्ञान को धक्का-सा लगा। सोचने लगा, यह रमणी कौन है और क्यों ऐसे अनर्थ का परामर्श देती है। ऐसे खुल्लम-खुल्ला तो कोई वकील भी किसी को यह राय न देगा। उसकी ओर संदेहात्मक भाव से देखकर बोला -- यह तो सर्वथा न्याय-विरुद्ध प्रतीत होता है।

कामिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली -- न्याय की आपने भली कही! यह केवल धर्मांध मनुष्यों के मन का समझौता है, संसार में इसका अस्तित्व नहीं। बाप ऋण लेकर मर जाय, लड़का कौड़ी-कौड़ी भरे। विद्वान् लोग इसे न्याय कहते हैं, मैं घोर अत्याचार समझती हूँ। इस न्याय के परदे में गाँठ के पूरे महाजन की हेकड़ी साफ़ झलक रही है। एक डाकू किसी भद्र पुरुष के घर में डांका मारता है, लोग उसे पकड़कर कैद कर देते हैं। धर्मात्मा लोग इसे भी न्याय कहते हैं, किंतु यहाँ भी वही धन और अधिकार की प्रचंडता है। भद्र पुरुष ने कितने ही घरों को लूटा, कितनों ही का गला दबाया और इस प्रकार धन संचय किया, किसी को भी उन्हें आँख दिखाने का साहस न हुआ। डाकू ने जब उनका गला दबाया, तो वह अपने धन और प्रभुत्व के बल से उस पर वज्रप्रहार कर बैठे। मैं इसे न्याय नहीं कहती। संसार में धन, छल, कपट, धूर्त्तता का राज्य है, यही जीवन-संग्राम है। यहाँ प्रत्येक साधन, जिससे हमारा काम निकले, जिससे हम अपने शत्रुओं पर विजय पा सकें, न्यायानुकूल और उचित है। धर्म-युद्ध के दिन अब नहीं रहे। यह देखिए, यह एक दूसरे सज्जन का पत्र है। वह कहते हैं, मैंने प्रथम श्रेणी में एम॰ ए॰ पास किया, प्रथम श्रेणी में कानून की परीक्षा पास की, पर अब कोई मेरी बात भी नहीं पूछता। अब तक यह आशा थी कि योग्यता और परिश्रम का अवश्य ही कुछ फल मिलेगा, पर तीन साल के अनुभव से ज्ञात हुआ कि यह केवल धार्मिक नियम है। तीन साल में घर की पूँजी भी खा चुका। अब विवश होकर आपकी शरण लेता हूँ। मुझ हतभाग्य मनुष्य पर दया कीजिए और मेरा बेड़ा पार लगाइए। इनको उत्तर दीजिए कि जाली दस्तावेजें बनवाइए और झूठे दावे चलाकर उनकी डिगरी करा लीजिए। थोड़े ही दिनों में आपका क्लेश निवारण हो जायगा। यह देखिए, एक सज्जन और कहते हैं, लड़की सयानी हो गई है, जहाँ जाता हूँ, लोग दायज की गठरी माँगते हैं। यहाँ पेट की रोटियों का भी ठिकाना नहीं, किसी तरह भलमनसी निभा रहा हूँ, चारों ओर निंदा हो रही है, जो आज्ञा हो, उसका पालन करूँ। उन्हें लिखिए, कन्या का विवाह किसी बुड्ढे खुर्राट सेठ से कर दीजिए। वह दायज लेने की जगह कुछ उलटे और दे जायगा। अब आप समझ गए होंगे कि ऐसे जिज्ञासुओं को किस ढंग से उत्तर देने की आवश्यकता है। उत्तर संक्षिप्त होना चाहिए, बहुत टीका-टिप्पणी व्यर्थ होती है। अभी कुछ दिनों तक आपको यह काम कठिन जान पड़ेगा, पर आप चतुर मनुष्य हैं, शीघ्र ही आपको इस काम का अभ्यास हो जायगा। तब आपको मालूम होगा कि इससे सहज और कोई काम नहीं है। आपके द्वारा सैकड़ों दारुण दुख भोगनेवालों का कल्याण होगा और वह आजन्म आपका यश गाएँगे।

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मुझे यहाँ रहते एक महीन से अधिक हो गया, पर अब तक मुझ पर यह रहस्य न खुला कि यह सुंदरी कौन है? मैं किसका सेवक हूँ? इसके पास इतना अतुल धन, ऐसी-ऐसी विलास की सामग्रियाँ कहाँ से आती हैं? जिधर देखता था, ऐश्चर्य ही का आडंबर दिखाई देता था। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी, मानो किसी तिलिस्म में आ फँसा हूँ। इन जिज्ञासुओं का इस रमणी से क्या संबंध है, यह भेद भी न खुलता था। मुझे नित्य उससे साक्षात् होता था, उसके सम्मुख आते ही मैं अचेत-सा हो जाता था। उसकी चितवनों में एक प्रबल आकर्षण था, जो मेरे प्राणों को खींच लिया करता था। मैं वाक्य-शून्य हो जाता, केवल छुपी हुई आँखों से उसे देखा करता था। पर मुझे उसकी मृदुल मुसकान और रसमयी आलोचनाओं तथा मधुर, काव्यमय भावों में प्रेमानंद की जगह एक प्रबल मानसिक अशांति का अनुभव होता था। उसकी चितवनें केवल हृदय को वाणों के समान छेदती थीं, उसके कटाक्ष चित्त को व्यस्त करते थे। शिकारी अपने शिकार को खेलाने में जो आनंद पाता है, वही उस परम सुंदरी को मेरी प्रेमातुरता में प्राप्त होता था। वह एक सौंदर्य-ज्वाला जलाने के सिवाय और क्या कर सकता है? तिस पर भी पतंग की भाँति उस ज्वाला पर अपने को समर्पण करना चाहता था। यही आकांक्षा होती थी कि उस पदकमलों पर सिर रखकर प्राण दे दूँ। यह केवल एक उपासक की भक्ति थी, काम और वासना से शून्य।

कभी-कभी जब वह संध्या-समय अपने मोटर-बोट पर बैठकर सागर की सैर करती, तो ऐसा जान पड़ता था, मानो चंद्रमा आकाश-लालिमा में तैर रहा है। मुझे इस दृश्य में अनुपम सुख प्राप्त होता था।

मुझे अब अपने नियत कार्यों में ख़ूब अभ्यास हो गया था। मेरे पास प्रति दिन पत्रों का एक पोथा पहुँच जाता था। मालूम नहीं, किस डाक से आता था। लिफ़ाफ़ों पर कोई मोहर न होती थी। मुझे इन जिज्ञासुओं में बहुधा वह लोग मिलते थे, जिनका मेरी दृष्टि में बड़ा आदर था, कितने ही ऐसे महात्मा थे, जिनमें मुझे श्रद्धा थी। बड़े-बड़े विद्वान् लेखक और अध्यापक, बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान रईस, यहाँ तक कि कितने ही धर्म के आचार्य, नित्य अपनी रामकहानी सुनाते थे। उनकी दशा अत्यंत करुणाजनक थी। वह सबके सब मुझे रँगे हुए सियार दिखाई देते थे। जिन लेखकों को मैं अपनी भाषा का स्तंभ समझता था, उनसे घृणा होने लगी। वह केवल उचक्के थे, जिनकी सारी कीर्ति चोरी, अनुवाद और कतर-ब्यौंत पर निर्भर थी। जिन धर्म के आचार्यों को मैं पूज्य समझता था, वह स्वार्थ, तृष्णा और घोर नीचता के दलदल में फँसे हुए दिखाई देते थे। मुझे धीरे-धीरे यह अनुभव हो रहा था कि संसार की उत्पत्ति से अब तक, लाखों शताब्दियाँ बीत जाने पर भी, मनुष्य वैसा क्रूर, वैसा ही वासनाओं का गुलाम बना हुआ है; बल्कि उस समय के लोग सरल प्रकृति के कारण इतने कुटिल, दुराग्रहों में इतने चालाक न होते थे।

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एक दिन संध्या समय उस रमणी ने मुझे बुलाया। मैं अपने घमंड में यह समझता था कि मेरे बाँकपन का कुछ न कुछ असर उस पर भी होता है। अपना सर्वोत्तम सूट पहना, बाल सँवारे और विरक्त भाव से जाकर बैठ गया। यदि वह मुझे अपना शिकार बनाकर खेलती थी, तो मैं भी शिकार बनकर उसे खेलाना चाहता था।

ज्यों ही मैं पहुँचा, उस लावण्यमयी ने मुस्कराकर मेरा स्वागत किया, पर मुखचंद्र कुछ मलिन था। मैंने अधीर होकर पूछा -- सरकार का जी तो अच्छा है?

उसने निराश भाव से उत्तर दिया -- जी हाँ, एक महीने से एक कठिन रोग में फँस गई हूँ। अब तक किसी भाँति अपने को सँभाल सकी हूँ, पर अब रोग असाध्य होता जाता है। उसकी औषधि एक निर्दय मनुष्य के पास है। वह मुझे प्रतिदिन तड़पते देखता है, पर उसका पाषाण हृदय ज़रा भी नहीं पसीजता।

मैं इशारा समझ गया। सारे शरीर में एक बिजली-सी दौड़ गई। साँस बड़े वेग चलने लगी। एक उन्मत्तता का अनुभव होने लगा। निर्भय होकर बोला -- संभव है, जिसे आपने निर्दय समझ रखा हो, वह भी आपको ऐसा ही समझता हो और भय से मुँह खोलने का साहस न कर सकता हो।

सुंदरी ने कहा -- तो कोई ऐसा उपाय बतलाइए जिससे दोनों ओर की आग बुझे। प्रियतम! अब मैं अपने हृदय की दहकती हुई विरहाग्नि को नहीं छिपा सकती। मेरा सर्वस्व आपकी भेंट है। मेरे पास वह ख़ज़ाने हैं, जो कभी खाली न होंगे। मेरे पास वह साधन हैं, जो आपको कीर्ति के शिखर पर पहुँचा देंगे। मैं समस्त संसार को आपके पैरों पर झुका सकती हूँ। बड़े-बड़े सम्राट् भी मेरी आज्ञा को नहीं टाल सकते। मेरे पास वह मंत्र है, जिससे मैं मनुष्य के मनोवेगों को क्षणामात्र में पलट सकती हूँ। आइए, मेरे हृदय से लिपटकर इस दाहक्रांति को शांत कीजिए।

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रमणी के चेहरे पर जलती हुई आग की-सी कांति थी। वह दोनों हाथ फैलाए कामोन्मत्त होकर मेरी ओर बढ़ी। उसकी आँखों से आग की चिनगारियाँ निकल रही थीं। परंतु जिस प्रकार अग्नि से पारा दूर भागता है, उसी प्रकार मैं भी उसके सामने से एक कदम पीछे हट गया। उसकी इस प्रेमातुरता से मैं भयभीत हो गया, जैसे कोई निर्धन मनुष्य किसी के हाथों सोने की ईंट लेते हुए भयभीत हो जाय। मेरा चित्त एक अज्ञात शंका से काँप उठा। रमणी ने मेरी ओर अग्निमय नेत्रों से देखा, मानो किसी सिंहनी के मुँह से उसका आहार छिन जाय और सरोष होकर बोली -- यह भीरुता क्यों?

मैं -- मैं आपका एक तुच्छ सेवक हूँ, इस महान् आदर का पात्र नहीं।

रमणी -- आप मुझसे घृणा करते हैं?

मैं -- यह आपका मेरे साथ अन्याय है। मैं इस योग्य भी तो नहीं कि आपके तलुवों को आँखों से लगाऊँ। आप दीपक हैं, मैं पतंग हूँ; मेरे लिए इतना ही बहुत है।

रमणी नैराश्यपूर्ण क्रोध के साथ बैठ गई और बोली -- वास्तव में आप निर्दयी हैं, मैं ऐसा न समझती थी। आपमें अभी तक अपनी शिक्षा के कुसंस्कार लिपटे हुए हैं, पुस्तकों और सदाचार की बेड़ी आपके पैरों से नहीं निकली।

मैं शीघ्र ही अपने कमरे में चला आया और चित्त के स्थिर होने पर जब मैं इस घटना पर विचार करने लगा, तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं अग्निकुंड में गिरते-गिरते बचा। कोई गुप्त शक्ति मेरी सहायक हो गई। यह गुप्त शक्ति क्या थी?

मैं जिस कमरे में ठहरा हुआ था, उसके सामने झील के दूसरी तरफ़ एक छोटा-सा झोपड़ा था। उसमें एक वृद्ध पुरुष रहा करते थे। उनकी कमर झुक गई थी, पर चेहरा तेजमय था। वह कभी-कभी इस महल में आया करते थे। रमणी न जाने क्यों उनसे घृणा करती थी, मन में उनसे कुछ डरती थी। उन्हें देखते ही घबरा जाती, मानो किसी असमंजस में पड़ी हुई है, उसका मुख फीका पड़ जाता, जाकर अपने किसी गुप्त स्थान में मुँह छिपा लेती, झुझे उसकी यह दशा देखकर कौतूहल होता था। कई बार उसने मुझसे उनकी चर्चा की थी; पर अत्यंत अपमान के भाव से वह मुझे उनसे दूर-दूर रहने का उपदेश दिया करती, और यदि कभी मुझे उनसे बातें करते देख लेती, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते थे, कई-कई दिनों तक मुझसे खुलकर न बोलती थी।

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उस रात को मुझे देर तक नींद नहीं आयी। उधेड़बुन में पड़ा हुआ था। कभी जी चाहता, आओ आँख बंद करके प्रेम-रस पान करें। संसार के पदार्यों का सुख भोगें, जो कुछ होगा देखा जायगा। जीवन में ऐसे दिव्य अवसर कहाँ मिलते हैं, फिर आप ही आप मन कुछ खिंच जाता था, घृणा उत्पन्न हो जाती थी।

रात के दस बजे होंगे कि हठात् मेरे कमरे का द्वार आप ही आप खुल गया और वही तेजस्वी पुरुष अंदर आये। यद्यपि मैं अपनी स्वामिनी के भय से उनसे बहुत कम मिलता था, पर उनके मुख पर ऐसी शांति थी और उनके भाव ऐसे पवित्र तथा कोमल थे कि हृदय में उनके सत्संग की उत्कंठा होती थी। मैंने उनका स्वागत किया और लाकर एक कुरसी पर बैठा दिया। उन्होंने मेरी ओर दयापूर्ण भाव से देखकर कहा -- मेरे आने से तुम्हें कष्ट तो नहीं हुआ!

मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया -- आप जैसे महात्माओं का दर्शन मेरे सौभाग्य की बात है।

महात्माजी निश्चिंत होकर बोलेः -- अच्छा तो सुनो और सचेत हो जाओ, मैं तुम्हें यही चेतावनी देने के लिए आया हूँ। तुम्हारे ऊपर एक घोर विपत्ति आनेवाली है। तुम्हारे लिए इस समय इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है यहाँ से चले जाओ। मेरी बात न मानोगे तो जीवन पर्यत कष्ट झेलोगे और इस माया-जाल से कभी मुक्त न हो सकोगे। मेरा झोपड़ा तुम्हारे सामने था। मैं भी कभी-कभी यहाँ आया करता था, पर तुमने मुझसे मिलने की आवश्यकता न समझी। यदि पहले ही दिन तुम मुझसे मिलते तो सहस्रों मनुष्यों का सर्वनाश करने के अपराध से बच जाते। निःसंदेह यह तुम्हारे पूर्व कर्मों का फल था, जिसने आज तुम्हारी रक्षा की। अगर यह पिशाचिनी एक बार तुमसे प्रेमालिंगन कर लेती, तो फिर तुम उसी दम उसके अजायबख़ाने में भेज दिए जाते। वह जिस पर रीझती है, उसकी वही गत बनाती है। यही उसका प्रेम है। चलो, ज़रा इस अजायबख़ाने की सैर करो, तब तुम समझोगे कि आज तुम किस आफ़त से बचे।

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यह कहकर महात्माजी ने दीवार में एक बटन दबाया। तुरंत एक दरवाज़ा निकल आया। यह नीचे उतरने की सीढ़ी थी। महात्मा उसमें घुसे और मुझे भी बुलाया। घोर अंधकार में कई कदम उतरने के बाद एक बड़ा कमरा नज़र आया। उसमें एक दीपक टिमटिमा रहा था। वहाँ मैंने जो घोर, वीभत्स और हृदय-विदारक दृश्य देखे, उनका स्मरण करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इटली के अमर कवि {{डैन्टी}} ने नरक का जो दृश्य दिखाया है, उससे कहीं भयावह, रोमांचकारी तथा नारकीय दृश्य मेरी आँखों के सामने उपस्थित था। सैकड़ों विचित्र देहधारी नाना प्रकार की अशुद्धताओं में लिपटे हुए, भूमि पर पड़े कराह रहे थे। उनके शरीर मनुष्य के-से थे, लेकिन चेहरों का रूपांतर हो गया था। कोई कुत्ते से मिलता था, कोई गीदड़ से, कोई बनबिलाव से, कोई साँप से। एक स्थान पर एक मोटा स्थूल मनुष्य एक दुर्बल, शक्तिहीन मनुष्य के गले में मुँह लगाए उसका रक्त चूस रहा था। एक ओर दो गिद्ध की सूरतवाले मनुष्य एक सड़ी हुई लाश पर बैठे उसका मांस नोच रहे थे। एक जगह एक अजगर की सूरत का मनुष्य एक बालक को निगलना चाहता था, पर बालक उसके गले में अटका हुआ था। दोनों ही ज़मीन पर पड़े छटपटा रहे थे। एक जगह मैंने एक अत्यंत पैशाचिक घटना देखी। दो नागिन की सूरतवाली स्त्रियाँ एक भेड़िए की सूरतवाले मनुष्य के गले में लिपटी हुई उसे काट रही थीं। वह मनुष्य घोर वेदना से चिल्ला रहा था। मुझसे अब और न देखा गया। तुरंत वहाँ से भागा और गिरता-पड़ता अपने कमरे में आकर दम लिया। महात्माजी मेरे साथ चले आए। जब मेरा चित्त शांत हुआ तो उन्होंने कहा -- तुम इतनी जल्द घबरा गए, अभी तो इस रहस्य का एक भाग भी नहीं देखा। यह तुम्हारी स्वामिनी के विहार का स्थान है और यही उनके पालतू जीव हैं। इन जीवों के पिशाचा-भिनय देखने में उनका विशेष मनोरंजन होता है। यह सभी मनुष्य किसी समय तुम्हारे ही समान प्रेम और प्रमोद के पात्र थे, पर उनकी यह दुगर्ति हो रही है। अब तुम्हें मैं यही सलाह देता हूँ कि इसी दम यहाँ से भागो, नहीं तो रमणी के दूसरे वार से कदापि न बचोगे।

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यह कहकर वह महात्मा अदृश्य हो गए। मैंने भी अपनी गठरी बाँधी और अर्धरात्रि के सन्नाटे में चोरों की भाँति कमरे से बाहर निकला। शीतल, आनंदमय समीर चल रही थी, सामने के सागर में तारे छिटक रहे थे, मेंहदी की सुगंधि उड़ रही थी। मैं चलने को तो चला, पर संसार-सुख-भोग का ऐसा सुअवसर छोड़ते हुए दुःख होता था। इतना देखने और महात्मा के उपदेश सुनने पर भी चित्त उस रमणी की ओर खिंचता था। मैं कई बार चला, कई बार लौटा; पर अंत में आत्मा ने इंद्रियों पर विजय पायी। मैंने सीधा मार्ग छोड़ दिया और झील के किनारे-किनारे गिरता-पड़ता, कीचड़ में फँसता, सड़क तक आ पहुँचा। यहाँ आकर मुझे एक विचित्र उल्लास हुआ, मानो कोई चिड़िया बाज के चंगुल से छूट गई हो।

यद्यपि मैं एक मास के बाद लौटा था, पर अब जो देखा तो अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था। कमरे में ज़रा भी गर्द या धूल न थी। मैंने लोगों से इस घटना की चर्चा की, तो लोग ख़ूब हँसे और मित्रगण तो अभी तक मुझे {{प्राइवेट सेक्रेटरी}} कहकर बनाया करते हैं। सभी कहते हैं कि मैं एक मिनट के लिए भी कमरे से बाहर नहीं निकला, महीना भर गायब रहने की तो बात ही क्या! इसलिए अब मुझे भी विवश होकर यही कहना पडता है कि शायद मैंने कोई स्वप्न देखा हो। कुछ भी हो, परमात्मा को कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ कि मैं उस पापकुंड से बचकर निकल आया। वह चाहे स्वप्न ही हो, पर मैं उसे अपने जीवन का एक वास्तविक अनुभव समझता हूँ, क्योंकि उसने सदैव के लिए मेरी आँखें खोल दीं।