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९ । सचाई का उपहार

तहसीली मदरसा बराँव के प्रथमाध्यापक मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का कुछ व्यसन था। क्यारियों में भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं। दरवाज़ों पर लताएँ चढ़ा दी थीं। इससे मदरसे की शोभा अधिक हो गई थी। वह मिडिल कक्षा के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ़ करने में मदद लिया करते थे। अधिकांश लड़के इस काम को रुचिपूर्वक करते। इससे उनका मनोरंजन होता था। किंतु दरजे में चार-पाँच लड़के ज़मींदारों के थे। उनमें कुछ ऐसी दुर्जनता थी कि यह मनोरंजक कार्य भी उन्हें बेगार प्रतीत होता।

उन्होंने बाल्यकाल से आलस्य में जीवन व्यतीत किया था। अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था। वह हाथ से कोई काम करना निंदा की बात समझते थे। उन्हें इस बग़ीचे से घृणा थी। जब उनके काम करने की बारी आती, तो कोई-न-कोई बहाना करके उड़ जाते। इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को भी बहकाते और कहते -- वाह! पढ़ें फ़ारसी, बेचें तेल! यदि खुरपी कुदाल ही करना है तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या ज़रूरत? यहाँ पढ़ने आते हैं, कुछ मजूरी करने नहीं आते।

मुंशीजी इस अवज्ञा के लिए उन्हें कभी-कभी दंड दे देते थे। इससे उनका द्वेष और भी बढ़ता था। अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस पुष्प-वाटिका को विध्वंस करने का निश्चय किया।

दस बजे मदरसा लगता था, किंतु उस दिन वह आठ ही बजे आ गए, और बग़ीचे में घुसकर उसे उजाड़ने लगे। कहीं पौधे उखाड़ फेंके, कहीं क्यारियों को रौंद डाला, पानी की नालियाँ तोड़ डालीं, क्यारियों की मेंड़ें खोद डालीं। मारे भय के छाती धड़क रही थी कि कहीं कोई देखता न हो। लेकिन एक छोटी-सी फुलवारी को उजाड़ते कितनी देर लगती है! दस मिनिट में हरा-भरा बाग नष्ट हो गया। तब यह लड़के शीघ्रता से निकले, लेकिन दरवाज़े तक आये थे कि उन्हें अपने एक सहपाठी की सूरत दिखाई दी। यह एक दुबला-पतला, दरिद्र और चतुर लड़का था। उसका नाम बाज़बहादुर था। बड़ा गंभीर, शांत लड़का था। ऊधम पार्टी के लड़के उससे जलते थे। उसे देखते ही उनका रक्त सूख गया। विश्वास हो गया कि इसने ज़रूर देख लिया। यह मुंशीजी से कहे बिना न रहेगा। बुरे फँसे, आज कुशल नहीं है। यह राक्षस इस समय यहाँ क्या करने आया था! आपस में इशारे हुए। यह सलाह हुई कि इसे मिला लेना चाहिए।

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जगतसिंह उनका मुखिया था। आगे बढ़कर बोला -- बाजबहादुर! सबेरे कैसे आ गए? हमने तो आज तुम लोगों के गले की फाँसी छुड़ा दी। लाला बहुत दिक किया करते थे, यह करो, वह करो। मगर यार देखो, कहीं मुंशीजी से जड़ मत देना, नहीं तो लेने के देने पड़ जायँगे।

जयराम ने कहा -- कह क्या देंगे, अपने ही तो हैं। हमने जो कुछ किया है, वह सबके लिए किया है, केवल अपनी भलाई के लिए नहीं। चलो यार, तुम्हें बाज़ार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें।

बाजबहादुर ने कहा -- नहीं, मुझे आज घर पर पाठ याद करने का अवकाश नहीं मिला। यहीं बैठकर पढ़ूँगा!

जगतसिंह -- अच्छा, मुंशीजी से कहोगे तो न?

बाजबहादुर -- मैं स्वयं कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो?

जगतसिंह -- कह देना, मुझे नहीं मालूम।

बाजबहादुर -- यह झूठ मुझसे न बोला जायगा।

जयराम -- अगर तुमने चुगली खायी और हमारे ऊपर मार पड़ी, तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे।

बाजबहादुर -- हमने कह दिया कि चुगली न खायँगे, लेकिन मुंशीजी ने पूछा तो झूठ भी न बोलेंगे।

जयराम -- तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे।

बाजबहादुर -- इसका तुम्हें अधिकार है।

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दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग़ की यह दुर्दशा देखी तो क्रोध से आग हो गए। बाग़ के उजड़ने का इतना खेद न था, जितना लड़कों की शरारत का। यदि किसी साँड़ ने यह दुष्कृत्य किया होता तो वह केवल हाथ मलकर रह जाते। किंतु लड़कों के इस अत्याचार को सहन न कर सके। ज्यों ही लड़के दरजे में बैठ गए, वह तीवर बदले हुए आये और पूछा -- यह बाग़ किसने उजाड़ा है?

कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मिडिल कक्षा के पच्चीस विद्यार्थियों में कोई ऐसा न था, जो इस घटना को न जानता हो, किंतु किसी में यह साहस न था कि उठकर साफ़-साफ़ कह दे। सब सिर झुकाए मौन धारण किए बैठे थे।

मुंशीजी का क्रोध और भी प्रचंड हुआ। चिल्लाकर बोले -- मुझे विश्वास है कि यह तुम्हीं लोगों में किसी की शरारत है। जिसे मालूम हो स्पष्ट कह दे, नहीं तो मैं एक सिरे से पीटना शुरू करूँगा। फिर कोई यह न कहे कि हम निरपराध मारे गए।

एक लड़का भी न बोला। वही सन्नाटा!

मुंशी -- देवीप्रसाद तुम जनते हो?

देवी -- जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।

{शिवदास तुम जानते हो?}

{जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।}

{बाजबहादुर, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है?}

बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था। नेत्रों में साहस झलक रहा था। बोला -- जी हाँ!

मुंशीजी ने कहा -- शाबाश!

अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर रक्त-वर्ण आँखों से देखा और मन में कहा -- अच्छा!

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भवानीसहाय बड़े धैर्यवान मनुष्य थे। यथाशक्ति लड़कों को यातना नहीं देते थे। किंतु ऐसी दुष्टता का दंड देने में वह लेशमात्र भी दया न दिखाते थे। छड़ी मँगाकर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगाईं, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिह्न बना दिए।

बाजबहादुर से शरारत पार्टीवाले लड़के यों ही जला करते थे, आज उसकी सचाई के कारण उसके ख़ून के प्यासे हो गए। यंत्रणा में सहानुभूति पैदा करने की शक्ति होती है। इस समय दरजे के अधिकांश लड़के अपराधियों के मित्र हो रहे थे। उनमें षड्यंत्र रचा जाने लगा कि आज बाजबहादुर की ख़बर ली जाए। ऐसा मारो कि फिर मदरसे में मुँह न दिखावे। यह हमारे घर का भेदी है। दग़ाबाज़! बड़ा सच्चे की दुम बना है! आज इस सचाई का हाल मालूम हो जायगा। बेचारे बाजबहादुर को इस गुप्त-लीला की ज़रा भी ख़बर न थी। विद्रोहियों ने उसे अंधकार में रखने का पूरा यत्न किया था।

छुट्टी होने के बाद बाजबहादुर घर की तरफ़ चला। रास्ते में एक अमरूद का बाग़ था। वहाँ जगतसिंह और जयराम कई लड़कों के साथ खड़े थे। बाजबहादुर चौंका, समझ गया कि यह लोग मुझे छेड़ने पर उतारू हैं। किंतु बचने का कोई उपाय न था। कुछ हिचकता हुआ आगे बढ़ा। जगतसिंह बोला -- आओ लाला! बहुत राह दिखाई। आओ, सचाई का इनाम लेते जाओ।

बाजबहादुर -- रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो।

जयराम -- ज़रा सचाई का मज़ा तो चखते जाइए।

बाजबहादुर -- मैंने तुमसे कह दिया था कि जब मेरा नाम लेकर पूछेंगे तो मैं बता दूँगा।

जयराम -- हमने भी तो कह दिया था कि तुम्हें इस काम का इनाम दिये बिना न छोड़ेंगे।

यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ़ घूँसा तानकर बढ़ा। जगतसिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे। जयराम को छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा। शेष लड़के चारों तरफ़ खड़े होकर तमाशा देखने लगे। यह {{रिजर्व}} सेना थी, जो आवश्यकता पड़ने पर मित्रदल की सहायता के लिए तैयार थी। बाजबहादुर दुर्बल लड़का था। उसकी मरम्मत करने को वह तीन मज़बूत लड़के काफ़ी थे। सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षण भर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे।

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बाजबहादुर ने जब देखा कि शत्रुओं ने शस्त्र-प्रहार करना शुरू कर दिया तो उसने कनखियों से इधर-उधर देखा, तब तेज़ी से झपटकर शिवराम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली, और दो क़दम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला -- तुम मुझे सचाई का इनाम या सज़ा देनेवाले कौन होते हो?

दोनों ओर से दाँव-पेंच होने लगे। बाजबहादुर था तो कमज़ोर, पर अत्यंत चपल और सतर्क, उस पर सत्य का विश्वास हृदय को और भी बलवान बनाए हुए था। सत्य चाहे सिर कटा दे, लेकिन क़दम पीछे नहीं हटाता। कई मिनट तक बाजबहादुर उछल-उछलकर वार करता और हटाता रहा। लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती ज़रा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। जब तक वह उसके हाथ में हरी तलवार रही, कोई उसके निकट आने की हिम्मत न करता था। निहत्था होने पर वह ठोकरों और घूँसों से जवाब देता रहा। भगर अंत में अधिक संख्या ने विजय पायी। बाजबहादुर की पसली में शिंवराम का एक घूँसा ऐसा पड़ा कि वह बेदम होकर गिर पड़ा। आँखें पथरा गईं और मूर्च्छा-सी आ गई। शत्रुओं ने यह दशा देखी तो उनके हाथों के तोते उड़ गए। समझे, इसकी जान निकल गई। बेतहाशा भागे।

कोई दस मिनिट के पीछे बाजबहादुर सचेत हुआ। कलेजे पर चोट लग गई। धाव ओछा पड़ा था, तिस पर भी खड़े होने की शक्ति न थी। साहस करके उठा और लँगड़ाता हुआ घर की ओर चला।

उधर यह विजयी दल भागते-भागते जयराम के मकान पर पहुँचा। रास्ते ही में दल तितर-बितर हो गया। कोई इधर से निकल भागा, कोई उधर से, कठिन समस्या आ पड़ी थी। जयराम के घर तक केवल तीन सुदृढ़ लड़के पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उनकी जान में जान आयी।

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जयराम -- कहीं मर न गया हो। मेरा घूँसा बैठ गया था।

जगतसिंह -- तुम्हें पसली में नहीं मारना था। अगर तिल्ली फट गई होगी तो न बचेगा!

जयराम -- यार, मैंने जान के थोड़े ही मारा था। संयोग ही था। अब बताओ, क्या किया जाय?

जगत -- करना क्या है, चुपचाप बैठे रहो।

जयराम -- कहीं मैं अकेला तो न फँसूँगा?

जगत -- अकेले कौन फँसेगा, सब साथ चलेंगे।

जयराम -- अगर बाजबहादुर मरा नहीं है, तो उठकर सीधे मुंशीजी के पास जायगा।

जगत -- और मुंशीजी कल हम लोगों की खाल अवश्य उधेड़ेंगे।

जयराम -- इसलिए मेरी सलाह है कि कल से मदरसे जाओ ही नहीं। नाम कटा के दूसरी जगह चले चलें, नहीं तो बीमारी का बहाना करके बैठे रहें। महीने दो महीने के बाद जब मामला ठंढा पड़ जायगा तो देखा जायगा।

शिवराम -- और जो परीक्षा होनेवाली है?

जयराम -- ओ हो! इसका तो ख़याल ही न था। एक ही महीना तो और रह गया है।

जगत -- तुम्हें अबकी ज़रूर वज़ीफ़ा मिलता।

जयराम -- हाँ, मैंने बहुत परिश्रम किया था। तो फिर?

जगत -- कुछ नहीं, तरक्की तो हो ही जायगी। वज़ीफ़े से हाथ धोना पड़ेगा।

जयराम -- बाजबहादुर के हाथ लग जायगा।

जगत -- बहुत अच्छा होगा। बेचारे ने मार भी तो खायी है।

दूसरे दिन मदरसा लगा। जगतसिंह, जयराम और शिवराम तीनों ग़ायब थे। वली मुहम्मद पैर में पट्टी बाँधे आये थे, लेकिन भय के मारे बुरा हाल था। कल के दर्शकगण भी थरथरा रहे थे कि कहीं हम लोग भी गेहूँ के साथ घुन की तरह न पिस जायँ। बाजबहादुर नियमानुसार अपने काम में लगा हुआ था। ऐसा मालूम होता था, मानो उसे कल की बातें याद ही नहीं हैं। किसी से उनकी चर्चा न की। हाँ, आज वह अपने स्वभाव के प्रतिकूल कुछ प्रसन्नचित देख पड़ता था। विशेषतः कल के योद्धाओं से वह अधिक हिला-मिला हुआ था। वह चाहता था कि यह लोग मेरी ओर से निःशंक हो जायँ। रात भर की विवेचना के पश्चात् उसने यही निश्चय किया था। और आज जब संध्या समय वह घर चला, तो उसे अपनी उदारता का फल मिल चुका था। उसके शत्रु लज्जित थे और उसकी प्रशंसा करते थे।

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मगर वह तीनों अपराधी दूसरे दिन भी न आये। तीसरे दिन भी उनका कहीं पता न था। वह घर से मदरसे को चलते, लेकिन देहात की तरफ़ निकल जाते। वहाँ दिन भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली-डंडे खेलते। शाम को घर चले आते।

उन्होंने यह पता तो लगा लिया था कि इस समर के अन्य सभी योद्धागण मदरसे आते हैं और मुंशीजी उनसे कुछ नहीं बोलते, किंतु चित्त से शंका दूर न होती थी। बाजबहादुर ने ज़रूर कहा होगा। हम लोगों के जाने की देर है। गये और बेभाव की पड़ी। यही सोचकर मदरसे आने का साहस न कर सकते।

चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए। इतने में बाजबहादुर आता हुआ दिखाई दिया। इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ, परंतु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बँध गई। यह लोग अभी बोलने भी न पाए थे कि बाजबहादुर ने कहा -- क्यों मित्रो, तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते? तीन दिन से गैरहाज़िरी हो रही है।

जगत -- मदरसे क्या जायँ, जान भारी पड़ी है? मुंशीजी एक हड्डी भी न छोड़ेंगे।

बाजबहादुर -- क्यों, वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो जाते हैं, मुंशीजी ने किसी से भी कुछ कहा?

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जयराम -- तुमने उन लोगों को छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे! तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी होंगी।

बाज॰ -- आज मदरसे चलकर इसकी परीक्षा ही कर लो।

जगत -- यह झाँसे रहने दीजिए। हमें पिटवाने की चाल है।

बाज॰ -- तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता? उस दिन सच्चाई की सज़ा दी थी, आज झूठ का इनाम दे देना।

जयराम -- सच कहते हो, तुमने शिकायत नहीं की?

बाज॰ -- शिकायत की कौन बात थी! तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हें मारा। अगर तुम्हार घूँसा न पड़ता तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगाकर दम लेता। आपस के झगड़ों की शिकायत करने की मेरी आदत नहीं है।

जगत -- चलूँ तो यार, लेकिन विश्वास नहीं आता। तुम हमें झाँसे दे रहे हो, वहाँ कचूमर निकलवा लोगे।

बाज॰ -- तुम जानते हो, झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है।

यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसी विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया। बाजबहादुर के चले आने के पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे। अंत में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए।

ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गए, किंतु चित्त में आशंकित थे। चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।

मुंशीजी कमरे में आये। लड़कों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। उन्होंने तीनों मित्रों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा -- तुम लोग तीन दिन से गैरहाज़िर हो। देखो, दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं, उन्हें नक़ल कर लो।

फिर पढ़ाने में मग्न हो गए!

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आध घंटे का अवकाश मिला, तो तीनों मित्र और उनके सहयोगी जमा होकर बातें करने लगे।

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जयराम -- हम तो जान पर खेलकर मदरसे आये थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी।

वलीमुहम्मद -- मुझे तो ऐसा मालूम होता है, वह आदमी नहीं, देवता है। यह आँखों देखी बात न होती तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता।

जगत -- भलमनसी इसी को कहते हैं। हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया।

दुर्गा -- चलो, उससे क्षमा माँगें।

जयराम -- हाँ, यह तुम्हें ख़ूब सूझी। आज ही।

जब मदरसा बंद हुआ तो दरजे के सब लड़के मिलकर बाजबहादुर के पास गये। जगतसिंह उनका नेता बनकर बोला -- भाई साहेब! हम सब-के-सब तुम्हारे अपराधी हैं। तुम्हारे साथ हम लोगों ने जो अत्याचार किया है, उस पर हम हृदय से लज्जित हैं। हमारा अपराध क्षमा करो। तुम सज्जनता की मूर्ति हो, हम लोग उजड्ड, गँवार और मूर्ख हैं; हमें अब क्षमा प्रदान करो।

बाजबहादुर की आँखों से आँसू भर आए, बोला -- मैं पहले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी वही समझता हूँ। भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी?

सब-के-सब उसके गले मिले। इसकी चर्चा सारे मदरसे में फैल गई। सारा मदरसा बाजबहादुर की पूजा करने लगा। वह अपने मदरसे का मुखिया, नेता और सिरमौर बन गया।

पहले उसे सचाई का दंड मिला, अबकी सचाई का उपहार मिला।