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८ । बोध

पंडित चंद्रधर ने एक अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किंतु सद पछताया करते कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे। यदि किसी अन्या विभाग में नौकर होते, तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। वह भी इधर आये, उधर ग़ायब। न खाने का सुख, न पहनने का आराम। हमसे तो मजूर ही भले।

पंडितजी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे। एक ठाकुर अतिबलसिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबुल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहेनवीस थे। इन दोनों आदमियों का वेतन पंडित से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैन से गुज़रती थी। संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियों के पास टहलुवे थे। घर में कुरसियाँ, मेज़ें, फ़र्श आदि सामग्रियाँ मौजूद थीं। ठाकुर साहब शाम को आराम कुरसी पर लेट जाते और ख़ुशबूदार खमीरा पीते। मुंशीजी को शराब-कबाब का व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल की बोतल साफ़ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते। सारे मुहल्ले में उनका रोबदाब था। उन दोनों महाशयों को आते-जाते देखकर बनिये उठकर सलाम करते। उनके लिए बाज़ार में अलग भाव था। चार पैसे की चीज़ टके में लाते। लकड़ी-ईंधन मुफ़्त में मिलता।

पंडितजी उनके ठाट-बाट को देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य को कोसते। वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का। साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, तिस पर भी ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग पंडितजी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियाँ। किंतु इसके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती। ठाकुर साहब कहते, पंडितजी! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, ज़रा इनकी ख़बर लेते रहिए। मुंशीजी कहते, यह लड़के आवारा हुए जाते हैं, ज़रा इनका ख़्याल रखिए। यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थीं, मानो पंडितजी उनके गुलाम हैं। पंडितजी को यह व्यवहार असह्य था, किंतु इन लोगों को नाराज़ करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते। केवल इतना ही नहीं, बाज़ार से चीज़ें भी सस्ती लाते। इसलिए बेचारे इस अनीति को विष की घूँट के समान पीते।

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इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किए थे। प्रार्थना-पत्र लिखे, अफ़सरों की ख़ुशामदें कीं, पर आशा पूरी न हुई। अंत में हारकर बैठ रहे। हाँ, इतना था कि अपने काम में त्रुटि न होने देते। ठीक समय पर जाते, देर करके आते, मन लगाकर पढ़ाते। इससे उनके अफ़सर लोग ख़ुश थे। साल में कुछ इनाम देते और वेतन वृद्धि का जब कभी अवसर आता, उनका विशेष ध्यान रखते। परंतु इस विभाग की वेतन-वृद्धि ऊसर की खेती है। बड़े भाग्य से हाथ लगती है। बस्ती के लोग उनसे संतुष्ट थे। लड़कों की संख्या बढ़ गई थी और पाठशाला के लड़के भी उन पर जान देते थे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता, कोई उनकी बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ लाता। पंडित जी इसी को बहुत समझते थे।

एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबल सिंह ने श्री अयोध्याजी की यात्रा की सलाह की। दूर की यात्रा थी। हफ़्तों पहले से तैयारियाँ होने लगीं। बरसात के दिन, सपरिवार जाने में अड़चन थी; किंतु स्त्रियाँ किसी भाँति भी न मानती थीं। अंत में विवश होकर दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली और अयोध्याजी चले। पंडितजी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया। मेले-ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं। पंडितजी असमंजस में पड़े, परंतु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इनकार न कर सके और अयोध्याजी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पाकर न रुक सके।

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बिल्हौर से एक बजे रात को गाड़ी छूटती थी। यह लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे। जिस समय गाड़ी आयी, चारों ओर भगदड़-सी पड़ गई -- हज़ारों यात्री जा रहे थे। उस उतावली में मुंशीजी पहले निकल गए। पंडितजी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफत में कौन किसका रास्ता देखता है।

गाड़ियों में जगह की बड़ी कमी थी, परंतु जिस कमरे में ठाकुर साहब थे, उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जायें तो जगह निकल आये। उन्होंने एक मनुष्य से डाँटकर कहा -- उठ बैठो, जी देखते नहीं, हम लोग खड़े हैं।

मुसाफ़िर लेटे-लेटे बोला -- क्यों उठ बैठें जी? कुछ तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है?

ठाकुर -- क्या तुमने किराया नहीं दिया है?

मुसाफ़िर -- जिसे किराया दिया हो, उससे जाकर जगह माँगो।

ठाकुर -- ज़रा होश की बातें करो। इस डब्बे में दस यात्रियों के बैठने की आज्ञा है।

मुसाफ़िर -- यह थाना नहीं है, ज़रा ज़बान सँभालकर बातें कीजिए।

ठाकुर -- तुम कौन हो जी?

मुसाफ़िर -- हम वही हैं, जिस पर आपने ख़ुफ़िया फ़रोसी का अपराध लगाया था और जिसके द्वार से आप नक़्द २५ रु॰ लेकर टले थे।

ठाकुर -- अहा! अब पहचाना। परंतु मैंने तो तुम्हारे साथ रियायत की थी। चालान कर देता तो तुम सज़ा पा जाते।

मुसाफ़िर -- और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रियायत की कि गाड़ी में खड़ा रहने दिया। ढकेल देता तो तुम नीचे जाते और तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता।

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इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री ज़ोर से ठट्ठा मारकर हँसा और बोला -- और क्यों दारोगा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते?

ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे। सोचते थे, अगर थाने में होता तो इनकी ज़बान खींच लेता, पर इस समय बुरे फँसे थे। वह बलवान मनुष्य थे, पर यह दोनों मनुष्य भी हट्टे-कट्टे देख पड़ते थे।

ठाकुर -- संदूक़ नीचे रख दो, बस जगह हो जाय।

दूसरा मुसाफ़िर बोला -- आप ही क्यों न नीचे बैठ जायँ। इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है। यह थाना थोड़े ही है कि आपके रोब में फ़र्क़ पड़ जायगा।

ठाकुर साहब ने उसकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा -- क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है?

{जी हाँ, मैं तो आपके ख़ून का प्यासा हूँ।}

{मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी।}

दू॰ मु॰ -- आपने मेरी सूरत न देखी होगी, पर आपके डंडे ने देखी है। इसी कल के मेले में आपने मुझे कई डंडे लगाए। मैं चुपचाप तमाशा देखता था, पर आपने आकर मेरा कचूमर निकाल लिया। मैं चुप रह गया, पर घाव दिल पर लगा हुआ है। आज उसकी दवा मिलेगी।

यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिया और द्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडितजी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मार-पीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकालकर दूसरे करमे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा-उठाकर ज़मीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे, तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफ़ार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजिन ने सीटी दी, जाकर गाड़ी में बैठ गए।

उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुज़ारी। ज़रा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी। प्रत्येक स्टेशन पर कोयल-पानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचन-क्रिया में विध्न पड़ गया। एक बार उलटी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़ी मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने की भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी तरह ज़ब्त किया। आगे चलकर विवश हो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़े। प्लेटफ़ार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा, परंतु जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गई। गाड़ी चल दी। दरोगाजी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े। समझ गए कि हज़रत आज ज़्यादा चढ़ा गए। देखा तो मुंशीजी की दशा बिगड़ गई थी। ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका हुआ। स्टेशन मास्टर ने यह हाल देखा तो समझे, हैज़ा हो गया है। हुक़्म दिया, रोगी को अभी बाहर ले जाओ। विवश होकर लोग मुंशीजी को एक पेड़ के नीचे उठा लाए। उनकी पत्नी रोने लगी। हकीम-डाक्टर की तलाश हुई। पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ़ से वहाँ एक छोटा-सा अस्पताल है। लोगों की जान में जान आयी। किसी से यह भी मालूम हुआ कि डाक्टर साहब बिल्हौर के रहनेवाले हैं। ढाढ़स बँधा। दरोगा जी अस्पताल दौड़े। डाक्टर साहब से सारा समाचार कह सुनाया और कहा -- आप चलकर ज़रा उन्हें देख तो लीजिए।

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डाक्टर का नाम था चोखेलाल। कंपौंडर थे, लोग आदर से डाक्टर कहा करते थे। सब वृत्तांत सुनकर रुखाई से बोले -- सबेरे के समय मुझे बाहर जाने की आज्ञा नहीं है।

दारोगा -- तो क्या मुंशीजी को यहीं लायें?

चोखेलाल -- हाँ, आपका जी चाहे, लाइए।

दारोगाजी ने दौड़-धूपकर एक डोली का प्रबंध किया। मुंशीजी को लाद कर अस्पताल लाये। ज्योंही बरामदे में पैर रखा, चोखेलाल ने डाँटकर कहा -- हैज़े (विसूचिका) के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं है।

बैजनाथ अचेत तो थे नहीं, आवाज़ सुनी, पहचाना, धीरे से बोले -- अरे, यह तो बिल्हौर ही के हैं -- भला-सा नाम है। तहसील में आया-जाया करते हैं।

{क्यों महाशय! मुझे पहचानते हैं?}

चोखेलाल -- जी हाँ, ख़ूब पहचानता हूँ।

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बैजनाथ -- पहचानकर भी इतनी निठुरता! मेरी जान निकल रही है। ज़रा देखिए, मुझे क्या हो गया?

चोखे -- हाँ, यह सब कर दूँगा और मेरा काम ही क्या है? फ़ीस?

दारोगाजी -- अस्पताल में कैसी फ़ीस जनाबमन?

चोखे -- वैसे ही जैसी इन मुंशीजी ने मुझसे वसूल की थी जनाबमन।

दारोगाजी -- आप क्या कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता।

चोखे -- मेरा घर बिल्हौर में है। वहाँ मेरी थोड़ी-सी ज़मीन है। साल में दो बार उसकी देख-भाल को जाना पड़ता है। जब तहसील में लगान करने जाता हूँ, मुंशीजी डाँटकर अपना हक़ वसूल कर लेते हैं। न दूँ तो शाम तक खड़ा रहना पड़े। स्याहा न हो। फिर जनाब, कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। मेरी फ़ीस दस रुपये निकालिए। देखूँ, दवा दूँ, तो अपनी राह लीजिए।

दारोगा -- दस रुपये!!

चोखे -- जी हाँ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज़।

दारोगाजी विवश हो गए। बैजनाथ की स्त्री से रुपये माँगे। तब उसे अपने बक्स की याद आयी। छाती पीट ली। दारोगाजी के पास भी अधिक रुपये नहीं थे, किसी तरह दस रुपये निकालकर चोखेलाल को दिये -- उन्होंने दवा दी। दिन भर कुछ फ़ायदा न हुआ। रात को दशा सँभली। दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई। मुंशियाइन का एक गहना जो २० रु॰ से कम का न था; बाज़ार में बेचा गया, तब काम चला। शाम तक मुंशीजी चंगे हुए। रात को गाड़ी पर बैठकर ख़ूब गालियाँ दीं।

श्री अयोध्याजी में पहुँचकर स्थान की खोज हुई। पंडों के घर जगह न थी। घर-घर में आदमी भरे हुए थे। सारी बस्ती छान मारी, पर कहीं ठिकाना न मिला। अंत में यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिए। किंतु जिस पेड़ के नीचे जाते थे, वहीं यात्री पड़े मिलते। खुले मैदान में रेत पर पड़े रहने के सिवा और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बिस्तरे बिछाए और लेटे। इतने में बादल घिर आए। बूँदें गिरने लगीं। बिजली चमकने लगी। गरज से कान के परदे फटे जाते थे। लड़के रोते थे। स्त्रियों के कलेजे काँप रहे थे। अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जायें कहाँ?

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अकस्मात् एक मनुष्य नदी की तरफ़ से लालटेन लिये आता हुआ दिखाई दिया -- वह निकट पहुँच गया, तो पंडितजी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई, किंतु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले -- क्यों भाई साहब, यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए जगह न मिलेगी?

वह मनुष्य रुक गया। मंडितजी की ओर ध्यान से देखकर बोला -- आप पंडित चंद्रधर तो नहीं है?

पंडितजी प्रसन्न होकर बोले -- जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं?

उस मनुष्य ने सादर पंडितजी के चरण छुए और बोला -- मैं आपका पुराना शिष्य हूँ। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर में डाक-मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था।

पंडितजी की स्मृति जागी, बोले -- ओहो तुम्हीं हो कृपाशंकर! तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे। कोई आठ-नौ साल हुए होंगे।

कृपा -- जी हाँ, नवाँ साल था। मैंने वहाँ से आकर इन्ट्रेंस पास किया, अब यहाँ म्युनिसिपिल्टी में नौकर हूँ। कहिए, आप तो अच्छी तरह रहे? सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गए।

पंडित -- मुझे भी तुमसे मिलकर बड़ा आनंद हुआ। तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं?

कृपा -- उनका तो देहांत हो गया। माता साथ हैं। आप यहाँ कब आये?

पंडित -- आज ही आया हूँ। पंडों के घर जगह न मिली। विवश होकर यहीं रात काटने की ठहरी।

कृपा -- बाल-बच्चे भी साथ हैं?

पंडित -- नहीं, मैं तो अकेले ही आया हूँ। पर मेरे साथ दरोगाजी और सियाहेनवीस साहब हैं -- उनके बाल-बच्चे भी साथ हैं।

कृपा -- कुल कितने मनुष्य होंगे?

पंडित -- हैं तो दस, किंतु थोड़ी-सी जगह में निर्वाह कर लेंगे।

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कृपा -- नहीं साहब, बहुत-सी जगह लीजिए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए। मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।

कृपाशंकर ने कई कुली बुलाए। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। साफ़-सुथरा घर था। नौकर ने चटपट चारपाइयाँ बिछा दीं। घर में पूरियाँ पकने लगीं। कृपाशंकर हाथ बाँधे सेवक की भाँति दौड़ता था। हृदयोल्लास से उसका मुख-कमल चमक रहा था। उसकी विनय और नम्रता ने सबको मुग्ध कर लिया।

और सब लोग तो खा-पीकर सोए, किंतु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आयी। उनकी विचार-शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखाई देती थी।

पंडितजी ने आज शिक्षक का गौरव समझा। उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई।

यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे। किसी बात का कष्ट न हुआ। कृपाशंकर ने उनके साथ जाकर प्रत्येक धाम का दर्शन कराया।

तीसरे दिन जब लोग चलने लगे, तो वह स्टेशन तक पहुँचाने आया। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो उसने सजल नेत्रों से पंडितजी के चरण छुए और बोला -- कभी-कभी इस सेवक को याद करते रहिएगा।

पंडितजी घर पहुँचे, तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया था। उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की।