p.067

७ । बलिदान

मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज़्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटिबिल हो गए हैं, उनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मँगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कोई कल्लू कहे तो आँखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचंद्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार ख़ूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमद ने उसे मटियामेट कर दिया। धीरे-धीरे कारख़ाना टूट गया, ज़मीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो एक तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता था, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। परंतु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब थी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल में अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इन पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर, सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा ज़मीन है। केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।

लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उसके सामने मुँह नहीं खोल सकते।

हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी। वह बीमार ज़रूर पड़ता, कुआर मास में मलेरिया से कभी न बचता था। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही चंगा हो जाता था। इस वर्ष भी कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो हो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवा न की। परंतु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया; पर हरखू चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की ज़रूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम के सीखें पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़; पर इन औषधियों फ़ायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के से कोई दिन आ गए।

p.068

एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गये, बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम-नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा -- बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते? हरखू ने उदासिन भाव से कहा -- तो लेते आना।

दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा -- बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े ही है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे।

हरखू ने उसी मंद भाव से कहा -- तो लेते आना। लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर उसे देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से। न मंगलसिंह ने ख़बर ली; न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने। हरखू दालान में खाट पर पड़ा हरता। मंगलसिंह कभी नज़र आ जाते तो कहता -- भैया, वह दवा नहीं लाये? मंगलसिंह कतराकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते तो उनसे भी यही प्रश्न करता; लेकिन वह भी नज़र बचा लेता। या तो उसे यह सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को जान से भी प्रिय समझता था, अथवा वह जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनों-दिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूम-धाम से निकाला। क्रिया-कर्म बड़े हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया।

बेला में होली न मयायी गई, न अबीर और गुलाब उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियाँ बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते ज़रूर थे कि इस वुड्ढे को आज ही मरना था, दो-चार दिन बाद मरता।

p.069

लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक़ में आनंद मनाता। वह शहर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी के रोने-पीटने की आवाज़ हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।

हरखू के खेत गाँववालों की नज़र पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा ज़मीन कुएँ के निकट, खाद्-पाँस से लदी हुई मेड़ बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नज़राने की बड़ी-बड़ी रक़में पेश हो रही थीं। कोई साल भर का लगान पेशगी देने पर तैयार था, कोई नज़राने की दूनी रक़म का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था; लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी का हक़ सबसे ज़्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नज़राना दे तो खेत उसी को देने चाहिए। अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत हो गया और चैत का महीना भी समाप्त होने आया, तब ज़मींदार साहिब ने गिरधारी को बुलाया और उससे पूछा -- खेतों के बारे में क्या कहते हो? गिरधारी ने रोकर कहा -- उन्हीं खेतों ही का आसरा है। जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा।

ओंकारनाथ -- नहीं, ज़रूर जोतो, खेत तुम्हारे हैं। मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता हूँ। हरखू ने उन्हें बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक़ है। लेकिन तुम देखते हो, अब ज़मीन की दर कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे १० रु॰ मिल रहे हैं। और नज़राने के रुपये सौ अलग। तुम्हारे साथ रिआयत करके लगान वही रखता हूँ; पर नज़राने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।

गिरधारी -- सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गई। अनाज खलिहान में है। लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई है। रुपये कहाँ से लाऊँ?

p.070

ओंकारनाथ -- यह सच है, लेकिन मैं इससे ज़्यादा रिआयत नहीं कर सकता।

गिरधारी -- नहीं सरकार, ऐसा न कहिए, नहीं तो हम बिना मारे मर जायँगे। आप बड़े होकर कहते हैं तो मैं बैल-बधिया बेंचकर पचास रुपया कर सकता हूँ। इससे बेशी की हिम्मत नहीं पड़ती।

ओंकारनाथ चिढ़कर बोले -- तुम समझते होगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंसी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुज़रती है, हमीं जानते हैं। कहीं यह चंदा, कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं। जिसे डाली न दो, वही मुँह फुलाता है। जिन चीज़ों के लिए लड़के तरसकर रह जाते हैं, उन्हें बाहर मँगाकर डालियों में सजाता हूँ। उस पर कभी कानूनगो आ गए, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया। सब मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हज़ार-बारह सौ मोदी को इसी रसद खुराक के मद में देने पड़ते हैं। यह सब कहाँ से आवे? बस, यही जी चाहता है कि छोड़कर निकल जाऊँ। लेकिन हमें तो परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सताकर लें और दूसरे को रो-रोकर दें, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी रिआयत कर रहा हूँ। लेकिन तुम इतनी रिआयत पर भी ख़ुश नहीं होते तो हरि इच्छा। नज़राने में एक पैसे की भी रिआयत न होगी। अगर एक हफ़्ते के अंदर रुपये दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं तो नहीं; मैं कोई दूसरा प्रबंध कर दूँगा।

गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। १०० रु॰ का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था। सोचने लगा -- अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही लेकर क्या करूँगा? घर बेचूँ तो यहाँ लेनेवाला ही कौन है? और फिर बाप-दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर २५ रु॰ या ३० रु॰ से अधिक न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है? अभी बनिये के ५० रु॰ सिर पर चढ़े हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं हैं, नहीं उन्हीं को बेचता। ले-देकर एक हँसली बनवाई थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती। हाय! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रक्खीं, जिसकी मेड़ें बनायीं, उसका मज़ा अब दूसरा उठाएगा।

p.071

ये खेत गिरधारी के जीवन के अंश हो गए थे। उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त से रँगी हुई थी! उनका एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो गया था!

उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसों था, कोई बाइसो था, कोई नालेवाला, कोई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस तरह करता, मानो वे सजीव हैं, मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मन की मिठाइयाँ, सारे हवाई किले इन्हीं खेतों पर अवलंबित थे। इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। और वे ही अब हाथ से निकले जाते हैं, वह घबड़ाकर घर से निकल जाता और घंटों उन्हीं खेतों के मेड़ों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा हो। इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने १०० रु॰ नज़राने देकर १० रु॰ बीघे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक क्षण के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलख-बिलख रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मलूम होता था, मानो हरखू आज ही मरा।

लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी और उसकी स्त्री को ख़ूब लथेड़ा -- कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं! देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ। पड़ोसियों ने उसका पक्ष किया, सब तो हैं, आपस में यह चढ़ा-ऊपरी नहीं करना चाहिए। नारायण ने धन दिया है, तो क्या ग़रीबों को कुचलते फिरेंगे। सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चित्त शांत हो गया। किंतु वही वायु, जो पानी में लहरें पैदा करती है, वृक्षों को जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती।

p.072

इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा? अब यह जीवन कैसे कटेगा? ये लड़के किसके द्वार पर जायँगे? मज़दूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था, पर मान था। नाई, बढ़ई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार, ये सब उलका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ! अब कौन उसकी बात पूछेगा! कौन उसके द्वार पर जावेगा? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक़ नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की ग़ुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे, कौन बैलों को नाद में लगावेगा? वह दिन अब कहाँ, जब गीत गा-गाकर हल चलाता था? चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर ज़रा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था। अब अनाज के टोकरे भर-भरकर कौन लावेगा?

अब खत्ते कहाँ? बखार कहाँ? यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। गाँव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नज़र में गिर गया हूँ।

p.073

अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया-क्रर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये, तो उसे बहुत दुःख होता। वह अपने उस काम पर ज़रा भी न पछताता। मेरे भाग्य में जो लिखा है वह होगा; पर दादा के ऋण से तो उऋण हो गया। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में चार बार खिलाकर खाया। क्या मरने के पीछे उन्हें पिंडे-पानी को तरसाता?

इस प्रकार तीन मास बीत गए और असाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आयीं, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर आता, अपने हलों को निकाल-निकाल देखता; इसकी मुठिया टूट गई है; इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है। यह देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला -- रज्जू, मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं, चलो बना दो। रज्जूने उसकी ओर करुण भाव से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को होश आ गया, नींद से चौंक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आँखें भर आईं। चुपचाप घर चला आया।

गाँव के चारों ओर हलचल मची हुई थी। कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई ज़मींदार के चौपाल से धान के बीज लिये आता था, कहीं सलाह होती थी, किस खेत में क्या बोना चाहिए, कहीं चर्चा होती थी कि पानी बहुत बरस गया, दो-चार चिन ठहरकर बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था।

एक दिन संध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले -- गोईं को बाँधकर कब तक खिलाओगे? निकाल क्यों नहीं देते?

गिरधारी ने मलिन-भाव से कहा -- हाँ, कोई गाहक आवे तो निकाल दूँ।

मंगलसिंह -- एक गाहक तो हमीं हैं, हमीं को दे दो।

गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरजकर बोला -- गिरधर, तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं, वैसा कहो। तीन महीने से हीला-हवाला करते चले आते हो। अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठे रहें?

p.074

गिरधारी ने दीनता से कहा -- साह, जैसे इतने दिनों माने हो, आज और मान जाओ। कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।

मंगल और तुलसी ने इशारे से बातें कीं और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया। तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला -- तुम इन्हें ले लो तो घर के घर ही में रह जायँ। कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा।

मंगल -- मुझे अभी तो ऐसा कोई काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा।

गिरधारी -- मुझे तुलसी के रुपये देने हैं; नहीं तो खिलाने को तो भूसा है।

मंगल -- यह बड़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दे।

सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया। कार्य-कुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का यह अच्छा अवसर मिला। ८० रु॰ की जोड़ी ६० रु॰ में ठीक कर ली।

गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी कि खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह! यह मेरे खेतों के कमानेवाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करनेवाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छाँटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिंता अपने खाने से ज़्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा घर दिन भर हरियाली उखाड़ा करता था। ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझे विदा हो रहे हैं।

जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर ख़ूब फूट-फूटकर रोया। जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दालान में खड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था।

p.075

रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। प्रातःकाल सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी चढ़ आया और वह न लौटा तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगे, पर गिरधारी का पता न चला।

संध्या हो गई। अँधेरा छा रहा था। सुभागी ने दिया जलाकर गिरधारी के सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर ताक रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई। सुभागी का हृदय धड़क उठा। वह दौड़कर बाहर आयी, और इधर-उधर ताकने लगीं। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाद के पास सिर झुकाए खड़ा है।

सुभागी बोल उठी -- घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो? आज सारे दिन कहाँ रहे? यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली। गिरधारी ने कुछ उत्तर न दिया। वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर ग़ायब हो गया। सुभागी चिल्लायी और मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।

दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने खेत पर पहुँचे; अभी कुछ अँधेरा था। बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है -- वही मिर्जई, वही पगड़ी, वही सोंटा।

कालिकादीन ने कहा -- अरे गिरधारी! मरदे आदमी, तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है। कहाँ से आ रहे हो? -- यह क्हते हुए बैलों को छोड़कर गिरधारी की ओर चले, गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछेवाले कुएँ में कूद पड़ा। कालिकादीन ने चीख मारी और हल-बैल वहीं छोड़ कर भागा। सारे गाँव में शोर मच गया। लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे। कालिकादीन को गिरधारीवाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी।

गिरधारी को ग़ायब हुए छः महीने बीत चुके हैं। उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्ठे पर काम करता है और २० रु॰ महीना घर आता है। अब वह कमीज़ और अंग्रेज़ी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है; लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं। वह अब मजूरा है। सुभागी अब पराये गाँव में आये हुए कुत्ते की भाँति दबकती फिरती है। वह अब पँचायत में नहीं बैठती। वह अब मजूर की माँ है।

p.076

कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफ़ा दे दिया है, क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ़ मँडराया करता है। अँधेरा होते ही वह मेड़ पर आकर बैठ जाता है और कभी-कभी रात को उधर उसके रोने की आवाज़ सुनाई देती है। वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं। उसे केवल अपने खेतों को देखकर संतोष होता है। दिया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है।

लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जायँ, लेकिन गाँव के लोग अब उन खेतों का नाम लेते डरते हैं।