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५ । सेवा-मार्ग

तारा ने बारह वर्ष तक दुर्गा की तपस्या की। न पलँग पर सोयी, न केशों को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया। पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका मुख मुरझायी कली की भाँति था, नेत्र ज्योतिहीन, और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान। उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था। पर, यह लौ दिल से न जाती थी। यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनोद्देश। घर के लोग उसे पागल कहते। माता समझाती -- बेटी, तुझे क्या हो गया है? क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है? देख, तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती? तारा कहती -- माता, अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी, या यही इच्छा लिये हुए संसार से पयान कर जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।

इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गए और तब देवी प्रसन्न हुई। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाणमूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया, मंदिर में चिताकर्षक सुगंध फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी। देवी का उज्ज्वल रूप पूर्ण चंद्रमा की भाँति चमकने लगा। ज्योतिहीन नेत्र जगमगा उठे। होंठ खुल गए। आवाज़ आयी -- तारा, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ; माँग क्या वर माँगती है?

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तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था, जैसे प्रातःकाल के समय कंपित स्वर में किसी कृषक के गाने की ध्वनि। उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचारपूर्ण प्रकाश का आभास हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा -- भगवती, तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरी की; किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य वस्तुएँ प्रदान हों, जो इच्छाओं की सीमा और मेरी अभिलाषाओं का अंत है। मैं व ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे।

देवी ने मुस्कराकर कहा -- स्वीकृत है।

तारा -- वह धन, जो कालचक्र को भी लज्जित करे।

देवी ने मुस्कराकर कहा -- स्वीकृत है।

तारा -- वह सौंदर्य, जो अद्वितीय हो।

देवी ने मुस्कराकर कहा -- यह भी स्वीकृत है।

ताराकुँवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रभातकाल के समय उसकी आँखें, क्षण भर के लिए, झपक गईं। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ। उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे -- सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ। द्वार पर नौबत बज रही थी। उसके आनंददायक सुहावने शब्द आकाश में गूँज रहे थे। द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी थी। दासियाँ स्वर्णाभूषणों से लदी हुईं, सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं। तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ीं।

तारा ने देखा कि मेरा पलँग हाथी-दाँत का है। भूमि पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की ओर एक बड़ा सुंदर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। तारा ने उसमें अपना रूप देखा, चकित रह गई। उसका सुंदर रूप चंद्रमा को भी लज्जित करता था। दीवार पर अनेकानेक सुप्रसिद्ध चित्रकारों के मनोमोहक चित्र टँगे थे। पर, ये सबके सब तारा की सुंदरता के आगे तुच्छ थे। तारा को अपनी सुंदरता का गर्व हुआ। वह कई दासियों को लेकर बाटिका में गयी। वहाँ की छटा देखकर वह मुग्ध हो गई। वायु में गुलाब और केसर घुले हुए थे, रंग-बिरंग के पुष्प, वायु के मंद-मंद झोंकों से, मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने अधर-पल्लव से समानता करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। बाटिका के मध्य में एक बिल्लौर जटित हौज था। इसमें हंस और बत्तख किलोलें कर रहे थे। यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं। दासियों से पूछा। उन्होंने कहा -- श्रीमती, वे लोग पुराने घर में हैं। तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ। उसकी बहिनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रक्खूँगी और उनकी भलीभाँति सेवा करूँगी। पर, इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था। उसने घरवालों को स्नेहरहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गई, जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी।

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एकबारगी ज़ोर से धड़ाका हुआ; बिजली चमकी और बिजली की छटाओं में से एक ज्योतिस्वरूप नवयुवक निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा -- तुम कौन हो?

नवयुवक ने कहा -- श्रीमती, मुझे विद्युत सिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ।

उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे। आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। वह क्षणमात्र में उतरकर ताराकुँवरि के समीप ठहर गया। उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकलकर तारा के पदों को चूमा। तारा ने पूछा -- तुम कौन हो? उत्तर दिया -- श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह है। मैं श्रीमती का आज्ञाकरी सेवक हूँ।

वह अभी जाने भी न पाया था कि एकबारगी सारा महल ज्योति से प्रकाशमान हो गया। जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियाँ मिलकर चमक रही हैं। वायु सेवक हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दीख पड़ा। वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और ताराकुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक प्रकाशमय रूप का बालक, जिनके रूप से गंभीरता प्रकट होती थी, निकलकर तारा के सामने शिष्टभाव से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा -- तुम कौन हो? बालक ने उत्तर दिया -- श्रीमती, मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ।

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धनी लोग तारा के भय से थराने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपादृष्टि हो जाती, वह अपना अहोभाग्य समझता -- सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता।

एक दिन तारा अपनी आनंदवाटिका में टहल रही थी। अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनाई दिया। तारा विक्षिप्त हो गई। उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे, पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी। तारा ने गायक को बुला भेजा।

एक क्षण के अनंतर वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ शरीर में भस्म रमाए। उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकलता, जो हृदय के अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था। साधु आकर हौज के किनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शिष्ट-भाव नहीं दिखाया। आश्चर्य से इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली। उस रमणीय स्थान पर वह अपना सुर अलापने लगा। तारा का चित्र विचलित हो उठा। दिल में अपार अनुराग का संचार हुआ। मदमत्त होकर टहलने लगी।

साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गए। पानी में लहरें उठने लगीं। वृक्ष झूमने लगे। तारा ने उन चित्ताकर्षक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा। धीरे-धीरे चित्र प्रकट होने लगा। उसमें स्फूर्ति आयी। और तब, वह खड़ी होकर नृत्य करने लगी। तारा चौंक पड़ी। उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है। नहीं, मैं ही हूँ। मैं ही बीन की तान पर नृत्य कर रही हूँ। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार की अलभ्य वस्तुओं की रनी हूँ अथवा एक स्वर-चित्र! वह सिर धुनने लगी और मतवाली होकर साधु के पैरों से जा लगी। उसकी दृष्टि में एक आश्चर्य-जनक परिवर्तन हो गया। सामने के फले-फूले वृक्ष और तरंगें मारता हुआ हौज, और मनोहर कुंज सब लोप हो गए। केवल वही साधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वयं उसकी तालों पर थिरक रही थी। वह साधु अब प्रकाशमय तारा और अलौकिक सौंदर्य की मूर्ति बन गया था। जब मधुर अलाप बंद हुआ, तब तारा होश में आयी। उसका चित्त हाथ से जा चुका था। वह उस विवक्षण साधु के हाथों बिक चुकी थी।

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तारा बोली -- स्वामीजी! यह महल, यह धन, यह सुख और सौंदर्य सब आपके चरण-कमल पर निछावर है। इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीजिए।

साधु -- साधुओं को महल और धन का क्या काम? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता।

तारा -- संसार के सारे सुख आपके लिए उपस्थित हैं।

साधु -- मुझे सुखों की कामना नहीं।

तारा -- मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी। -- यह कहकर तारा ने आईने में अपने अलौकिक सौंदर्य की छटा देखी और उसके नेत्रों में चंचलता आ गई।

साधु -- नहीं ताराकुँवरि, मैं इस योग्य नहीं हूँ। -- यह कहकर साधु ने बीन उठाया और द्वार की ओर चला।

तारा का गर्व टूक-टूक हो गया। लज्जा से सिर झुक गया। वह मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। मन में सोचा, मैं धन में, ऐश्वर्य में, सौंदर्य में, जो अपनी समता नहीं रखती, एक साधु की दृष्टि में इतनी तुच्छ!!

तारा को अब किसी प्रकार चैन नहीं था। उसे अपना भवन, ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा। बस, साधु का एक चंद्रस्वरूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानों में गूँज रहा था। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने की आज्ञा दी। बहुत छानबीन के पश्चात् उसकी कुटी का पता लगा। तारा नित्यप्रति, वायुयान पर बैठकर साधु के पास जाती। कभी उस पर लाल, जवाहिर लुटाती, कभी रत्न और आभूषण की छटा दिखाती। पर साधु इससे तनिक भी विचलित न हुआ। तारा के मायाजाल का उस पर कुछ भी असर न हुआ।

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तब, ताराकुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रखकर बोली -- माता, तुमने सुझे संसार के सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किए। मैंने समझा था कि ऐश्वर्य में संसार को दास बना लेने की शक्ति है। पर मुझे अब ज्ञान हुआ कि प्रेम पर ऐश्वर्य, सौंदर्य और वैभव का कुछ भी अधिकार नहीं। अब एक बार मुझ पर फिर वही कृपादृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिए कि जिस निष्ठुर के प्रेम में मैं मरी जा रही हूँ, उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आवे -- उसकी आँखों में भी नींद हराम हो जाय, वह भी मेरे प्रेम-मद में चूर हो जाय।

देवी के होंठ खुले। वह मुस्करायी, उसके अधर-पल्लव विकसित हुए। बोली सुनायी दी -- तारा, मैं संसार के सार पदार्थ प्रदान कर सकती हूँ, पर स्वर्गसुख मेरी शक्ति से बाहर है। {प्रेम} स्वर्गसुख का मूल है।

तारा -- माता, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पड़ते हैं। बताइए, मैं अपने प्रीतम को कैसे पाऊँगी?

देवी -- उसका एक ही मार्ग है। पर है वह बहुत कठिन। भला, तुम उस पर चल सकोगी?

तारा -- वह कितना ही कठिन हो, मैं उस मार्ग का अवलंबन अवश्य करूँगी।

देवी -- अच्छा तो सुनो, वह सेवा-मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है।

तारा ने अपने बहुमूल्य आभूष्णों और रंगीन वस्त्रों को उतार दिया। दासियों से विदा हुई। राजभवन को त्याग दिया, अकेले, नंगे पैर साधु की कुटी में चली आयी और सेवा-मार्ग का अवलंबन किया।

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वह कुछ रात रहे उठती। कुटी में झाड़ू देती। साधु के लिए गंगा से जल लाती। जंगलों से पुष्प चुनती। साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती। जंगली फूल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर साधु के सम्मुख रखती। साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्ते के कंकड़ चुनती। उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए। गंगा से पानी लाकर सींचती। उन्हें हरा-भरा देखकर प्रसन्न होती। उसने मदार की रुई बटोरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किए तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता था। हाथों में गट्ठे पड़ गए। पैर काँटों से चलनी हो गए। धूप से कोमल गात मुरझा गया; पर उसके हृदय में अब स्वार्थ और गर्व का शासन न था। वहाँ अब प्रेम का राज था; वहाँ अब उस सेवा की लगन थी, जिससे कलुषता की जगह आनंद का स्रोत बहता है और काँटे पुष्प बन जाते हैं; जहाँ अश्रु-धारा की जगह नेत्रों से अमृतजल की वर्षा होती और दुःख-विलाप की जगह आनंद के राग निकलते हैं, जहाँ पत्था रुई से ज़्यादा कोमल हैं और शीतल वायु से भी मनोहर। तारा भूल गई कि मैं सौंदर्य में अद्वितीय हूँ। धन-विलासिनी तारा अब केवल प्रेम की दासी थी।

साधु को वन के खगों और मृगों से प्रेम था। वे कुटी के पास एकत्रित हो जाते। तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद लेकर उनका दुलार करती। विषधर साँप और भयानक जंतु उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गए।

बहुधा रोगी मनुष्य साधु के पास आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियों की सेवा-शुश्रूषा करती, जंगल से जड़ी-बूटियाँ ढूँढ़ लाती, उनके लिए औषधि बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी।

इस प्रकार कि तने ही वर्ष बीत गए। गर्मी के दिन थे, पृथ्वी तवे की तरह जल रही थी। हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे। गंगा गर्मी से सिमट गई थी। तारा को पानी लेने के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता। उसका कोमल अंग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते। इसी दशा में एक दिन वह हताश होकर एक वृक्ष के नीचे क्षण भर दम लेने के लिए बैठ गई। उसके नेत्र बंद हो गए। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्टि से मुझे देख रही है। तारा ने दौड़कर उनके पदों को चूमा।

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देवी ने पूछा -- तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई?

तारा -- हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई।

देवी -- तुझे प्रेम मिल गया?

तारा -- नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया। मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल गया। मुझे ज्ञान हुआ कि प्रेम सेवा का चाकर है। सेवा के सामने सिर झुकाकर अब मैं प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती। अब मुझे किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं। सेवा ने मुझे प्रेम, आदर, सुख -- सबसे निवृत्त कर दिया।

देवी इस बार मुस्कुरायी नहीं। उसने तारा को हृदय से लगाया और दृष्टि से ओझल हो गई।

संध्या का समय था। आकाशा में तारे ऐसे चमकते थे, जैसे कमल पर पानी की बूँदें। वायु में चित्ताकर्षक शीतलता आ गई थी। तारा एक वृक्ष के नीचे खड़ी चिड़ियों को दाना चुगाती थी कि यकायक साधु ने आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और बोला -- तारा, तुमने मुझे जीत लिया। तुम्हारा ऐश्वर्य, धन और सौंदर्य जो कुछ न कर सका, वह तुम्हारी सेवा ने कर दिखाया। तुमने मुझे अपने प्रेम में आसक्त कर लिया। अब मैं तुम्हारा दास हूँ। बोलो, तुम मुझसे क्या चाहती हो? तुम्हारे संकेत पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए प्रस्तुत हूँ।

तारा -- स्वामीजी, मुझे अब कोई इच्छा नहीं। मैं केवल सेवा की आज्ञा चाहती हूँ।

साधु -- मैं दिखा दूँगा कि योग साधकर भी मनुष्य का हृदय निर्जीव नहीं होता। मैं भँवरे के सदृश तुम्हारे सौंदर्य पर मँडराऊँगा। पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा। हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव-नदी की सैर करेंगे, प्रेम-कुंजों में बैठकर प्रेम-चर्चा करेंगे और आनंद के मनोहर राग गावेंगे।

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तारा ने कना -- स्वामीजी, सेवा-मार्ग पर चलकर मैं अब अभिलाषाओं से पूरी हो गई। अब हृदय में और कोई इच्छा शेष नहीं है।

साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिया।