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३। बेटी का धन

बेतवा नदी दो ऊँचे कगारों के बीच इस तरह मुँह छिपाए हुए थी, जैसे निर्मल हृदयों में साहस और उत्साह की मध्यम ज्योति छिपी रहती है। इसके एक कगार पर एक छोटा-सा गाँव बसा है, जो अपने भग्न जातीय चिह्नों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। जातीय गाथाओं और चिह्नों पर मर मिटनेवाले लोग इस भग्न स्थान पर बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा केवट सुक्खू चौधरी उन्हें उसकी परिक्रमा कराता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर के बैठक के मिटे हुए चिह्नों को दिखाता। वह उच्छ्वास लेकर रुँधे हुए गले से कहता, महाशय! एक वह समय था कि केवटों को मछलियों के इनाम में अशर्फ़ियाँ मिलती थीं। कहार महल में झाड़ू देते हुए अशर्फ़ियाँ बटोर ले जाते थे। बेतवा नदी रोज चढ़कर महाराज के चरण छूने आती थी। यह प्रताप और यह तेज था, परंतु आज इसकी यह दशा है। इन सुंदर उक्तियों पर किसी का विश्वास जमाना चौधरी के वश की बात न थी, पर सुननेवाले उसकी सहृदयता तथा अनुराग के ज़रूर कायल हो जाते थे।

सुक्खू चौधरी उदार पुरुष थे, परंतु जितना बड़ा मुँह था, उतना बड़ा ग्रास न था। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पौत्र-पौत्रियाँ थीं। लड़की केवल एक गंगाजली थी, जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था। चौधरी की यह सबसे पिछली संतान थी। स्त्री के मर जाने पर उसने इसको बकरी का दूध पिला-पिलाकर पाला था। परिवार में खानेवाले तो इतने थे, पर खेती सिर्फ़ एक हल की होती थी। ज्यों-त्यों कर निर्वाह होता था, परंतु सुक्खू की वृद्धावस्था और पुरातत्त्व-ज्ञान ने उसे गाँव में वह मान और प्रतिष्ठा प्रदान कर रक्खी थी, जिसे देखकर झगड़ू साहू मीतर ही भीतर जलते थे। सुक्खू सब गाँववालों के समक्ष, हाकिम से हाथ फेंक-फेंककर बातें करने लगता और खँडहरों को घुमा-फिराकर दिखाने लगता था, तो झगड़ू साहू, जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से क़रीब नहीं फटकते थे -- तड़प-तड़पकर रह जाते थे। अतः वे सदा उस शुभ अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे, जब सुक्खू पर अपने धन द्वारा प्रभुत्व जमा सकें।

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इस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगार के मारे गाँव वालों का नाकों दम था। उस साल जब जिला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरातन चिह्नों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँववालों की दुःख-कहानी उन्हें सुनायी। हाकिम से वार्तालाप करने में उसे तनिक भी मय न होता था। सुक्खू चौधरी को खूब मालूम था कि जीतनसिंह से रार मचाना सिंह के मुँह में सिर देना है। किंतु जब गाँववाले कहते थे कि चौधरी तुम्हारी ऐसे-ऐसे हाकिमों से मिताई है और हम लोगों को रात-दिन रोते कटता है, तो फिर तुम्हारी यह मित्रता किस दिन काम आवेगी? परोपकाराय सताम् विभूतयः। तब सुक्खू का मिजाज आसमान पर चढ़ जाता था। घड़ी भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता था। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका उत्तर माँगा। उधर झगड़ू साहू ने चौधरी के इस साहसपूर्ण स्वामीद्रोह की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी।

ठाकुर साहब जलकर आग हो गये। अपने कारिंदे से बक़ाया लगान की बही माँगी। संयोगवश चौधरी के जिम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो पैदावार कम हुई; उस पर गंगाजली का ब्याह करना पड़ा। छोटी बहू नथ की रट लगाए हुए थी, नई बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया था। लगान के लिए कुछ अधिक चिंता नहीं थी। वह इस अभिमान में भूला हुआ था कि जिस ज़बान में हाकिमों को प्रसन्न करने की शक्ति है, क्या यह ठाकुर साहब को अपना लक्ष्य न बना सकेगी? बूढ़े चौधरी इधर तो अपने गर्व में निश्चिंत थे और उधर उन पर बक़ाया लगान की नालिश ठुक गई। सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख़ पड़ गई। चौवरी को अपना जादू चलाने का अवसर न मिला।

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जिन लोगों के बढ़ावे में आकर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़-छाड़ की थी, उनका दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया। ठाकुर साहब के सहने और प्यादे गाँव में चील की तरह मँडराने लगे। उनके भय से किसी को चौधरी की परछाईं काटने का साहस न होता था। कचहरी यहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में ठौर-ठौर पानी, उमड़ी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी का निबाह नहीं, पैरों में बल नहीं, अतः अदमपैरवी में मुकदमा एकतरफ़ा फैसला हो गया।

कुर्की का नोटिस पहुँचा तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गए। सारी चतुराई भूल गई चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में कहता, क्या मेरे जीते ही जी घर मिट्टी में मिल जायगा। मेरे इन बैलों की सुंदर जोड़ी के गले में आह, क्या दूसरों का जुआ पड़ेगा? यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आतीं। वह बैलों से लिपटकर रोने लगता, परंतु बैलों की आँखों से क्यों आँसू जारी था? वे नाँद में मुँह क्यों नहीं डालते थे? क्या उनके हृदय पर भी अपने स्वामी के दुःख की चोट पहुँच रही थी!

फिर वह अपने झोपड़े को विकल नयनों से निहारकर देखता और मन में सोचता, क्या हमको इस घर से निकलना पड़ेगा? यह पूर्वजों की निशानी क्या हमारे जीते जी छिन जायगी?

कुछ लोग परीक्षा में दृढ़ रहते हैं और कुछ लोग इसकी हलकी आँच भी नहीं सह सकते। चौधरी अपनी खाट पर उदास पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को मनाया करता और उनका गुण गाया करता। उसकी चिंतादग्ध आत्मा को और कोई सहारा न था।

इसमें कोई संदेह न था कि चौधरी की तीनों बहुओं के पास गहने थे, पर स्त्री का गहना ऊख का रस है, जो पेरने ही से निकलता है। चौधरी जाति का ओछा, पर स्वभाव का ऊँचा था। उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते संकोच होता था। कदाचित् यह नीच विचार उसके हृदय में उत्पन्न ही नहीं हुआ था, किंतु तीनों बेटे यदि ज़रा भी बुद्धि से काम लेते तो बूढ़े को देवताओं की शरण लेने की आवश्यकता न होती। परंतु यहाँ तो बात ही निराली थी। बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस जटिल प्रश्न को विचित्र रूप से हल करने के मंसूबे बाँध रहे थे।

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मँझले झींगुर ने मुँह बनाकर कहा -- उँह! इस गाँव में क्या धरा है। जहाँ ही कमाऊँगा, वहीं खाऊँगा, पर जीतनसिंह की मूँछें एक-एक करके चुन लूँगा।

छोटे फक्कड़ ऐंठकर बोले -- मूँछें तुम चुन लेना! नाक मैं उड़ा दूँगा। नकटा बना घूमेगा।

इस पर दोनों खूब हँसे और मछली मारने चल दिए।

इस गाँव में एक बूढ़े ब्राह्मण भी रहते थे। मंदिर में पूजा करते और नित्य अपने यजमानों को दर्शन देने नदी पार जाते, पर खेवे के पैसे न देते। तीसरे दिन वह ज़मींदार के गुप्तचरों की आँख बचाकर सुक्खू के पास आये और सहानुभूति के स्वर में बोले -- चौधरी! कल ही तक मियाद है और तुम अभी तक पड़े-पड़े सो रहे हो। क्यों नहीं घर की चीज़ ढूँढ़-ढ़ाँढकर किसी और जगह भेज देते? न हो समधियाने पठवा दो। जो कुछ बच रहे, वही सही। घर की मिट्टी खोदकर थोड़े ही कोई ले जायगा।

चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर निहारकर बोला -- जो कुछ उसकी इच्छा है, वह होगा। मुझसे यह जाल न होगा।

इधर कई दिन की निरंतर भक्ति और उपासना के कारण चौधरी का मन शुद्ध और पवित्र हो गया था। उसे छल-प्रपंच से घृणा हो गई थी। पंडितजी जो इस काम में सिद्धहस्त थे, लज्जित हो गए।

परंतु चौधरी के घर के अन्य लोगों को ईश्वरेच्छा पर इतना भरोसा न था। धीरे-धीरे घर के बर्तन-भाँड़ खिसकाए जाते थे। अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया। रात को नाव लदी हुई जाती और उधर से खाली लौटती थी। तीन दिन तक घर में चूल्हा न जला। बूढ़े चौधरी के मुँह में अन्न की कौन कहे, पानी का एक बूँद भी न पड़ा। स्त्रियाँ भाड़ से चने भुनाकर चबातीं, और लड़के मछलियाँ भून-भूनकर उड़ाते। परंतु बूढ़े की इस एकादशी में यदि कोई शरीक था तो वह उसकी बेटी गंगाजली थी। यह बेचारी अपने बूढ़े बाप को चारपाई पर निर्जल छटपटाते देख, बिलख-बिलखकर रोती।

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लड़कों को अपने माता-पिता से वह प्रेम नहीं होता, जो लड़कियों को होता है। गंगाजली इस सोच-विचार में मग्न रहती कि दादा की किस भाँति सहायता करूँ। यदि हम सब भाई-बहन मिलकर जीतनसिंह के पास जाकर दया-भिक्षा की प्रार्थना करें तो वे अवश्य मान जायँगे; परंतु दादा को कब यह स्वीकार होगा। वह यदि एक दिन बड़े साहब के पास चले जायँ तो सब कुछ बात की बात में बन जाय। किंतु उनकी तो जैसे बुद्धि ही मारी गई है। इसी उधेड़-बुन में उसे एक उपाय सूझ पड़ा, कुम्हलाया हुआ मुखारविंद खिल उठा।

पुजारीजी सुक्खू चौधरी के पास से उठकर चले गए थे और चौधरी उच्च स्वर से अपने सोए हुए देवताओं को पुकार-पुकारकर बुला रहे थे। निदान गंगाजली उनके पास जाकर खड़ी हो गई। चौधरी ने उसे देखकर विस्मित स्वर में पूछा -- क्यों बेटी? इतनी रात गये क्यों बाहर आयी?

गंगाजली ने कहा -- बाहर रहना तो भाग्य में लिखा है, घर में कैसे रहूँ।

सुक्खू ने जोर से हाँक लगायी -- कहाँ गये तुम कृष्णमुरारी, मेरे दुःख हरो।

गंगाजली खड़ी थी, बैठ गई और धौरे से बोली -- भजन गाते ती आज तीन दिन हो गए। घर बचाने का भी कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला दोगे? हम लोगों को क्या पेड़ तले रखोगे?

चौधरी ने व्यथित स्वर से कहा -- बेटी, मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। भगवान् जो चाहेंगे, होगा। वेग चलो गिरधर गोपाल, काहे विलंब करो।

गंगाजली ने कहा -- मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूँ।

चौधरी उठकर बैठ गए और पूछा -- कौन उपाय है बेटी? गंगाजली ने कहा -- मेरे गहने झगड़ू साहू के यहाँ गिरों रख दो। मैंने जोड़ लिया है। देने भर के रुपये हो जायँगे।

चौधरी ने ठंढी साँस लेकर कहा -- बेटी! तुमको मुझसे यह बात कहते लाज नहीं आती। वेद-शास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुएँ का पानी पीना भी मना है। तुम्हारी ड्योढ़ी में भी पैर रखने का निषेध है। क्या तुम मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो?

गंगाजली उत्तर के लिए पहले ही से तैयार थी। बोली -- मैं उपने गहने तुम्हें दिये थोड़े ही देती हूँ। इस समय लेकर काम चलाओ, चैत में छुड़ा देना। चौधरी ने कड़ककर कहा -- यह मुझसे न होगा।

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गंगाजली उत्तेजित होकर बोली -- तुमसे यह न होगा तो मैं आप ही जाऊँगी। मुझसे घर की यह दुर्दशा नहीं देखी जाती।

चौधरी ने झुँझलाकर कहा -- बिरादरी में कौन मुँह दिखाऊँगा?

गंगाजली ने चिढ़कर कहा -- बिरादरी में कौन ढिंढोरा पीटने जाता है!

चौधरी ने फैसला सुनाया -- जगहँसाई के लिए मैं अपना धर्म न बिगाड़ूँगा।

गंगाजली बिगड़कर बोली -- मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे ऊपर मेरी हत्या पड़ेगी। मैं आज ही इस बेतवा नदी में कूद पड़ूँगी। तुमसे चाहे घर में आग लगते देखा जाय, पर मुझसे तो न देखा जायगा।

चौधरी ने ठंडी साँस लेकर कातर स्वर में कहा -- बेटी, मेरा धर्म नाश मत करो। यदि ऐसा ही है तो अपनी किसी भावज के गहने माँगकर लाओ।

गंगाजली ने गंभीर स्वर में कहा -- भावजों से कौन अपना मुँह नोचवाने जायगा? उनको फिकर होती तो क्या मुँह में दही जमा था, कहती नहीं?

चौधरी निरुत्तर हो गए। गंगाजली घर में जाकर गहनों की पिटारी लायी और एक-एक करके सब गहने चौधरी के अँगोछे में बौध दिए। चौधरी ने आँखों में आँसू भरकर कहा -- हाय राम, इस शरीर की क्या गति लिखी है! यह कहकर उठे। बहुत सम्हालने पर भी आँखों में आँसू न छिपे।

रात का समय था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे मार्ग को छोड़कर सुक्खू चौधरी गहनों की गठरी काँख में दबाए इस तरह चुपके-चुपके चल रहे थे, मानो पाप की गठरी लिये जाते हैं। जब वह झगड़ू साहू के मकान के पास पहुँचे तो ठहर गए, आँखें खूब साफ़ कीं, जिसमें किसी को यह न बोध हो कि चौधरी राता था।

झगड़ू साहू धागे की कमानी की एक मोटी ऐनक लगाए बहीखाता फैलाए हुक्का पी रहे थे, और दीपक के धुँधले प्रकाश में उन अक्षरों को पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा में लगे थे, जिनमें स्याही की किफ़ायत की गई थी। बार-बार ऐनक को साफ़ करते और आँख मलते, पर चिराग़ की बत्ती उसकाना या बाहरी बत्ती लगाना शायद इसलिए उचित नहीं समझते थे कि तेल का अपव्यय होगा। इसी समय सुक्खू चौधरी ने आकर कहा -- जै रामजी।

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झगड़ू साहू ने देखा। पहचानकर बोले -- जयराम चौधरी! कहो मुकदमे में क्या हुआ? यह लेन-देन बड़े झंझट का काम है। दिन भर सिर उठाने की छुट्टी नहीं मिलती।

चौधरी ने पोटली को खूब सावधानी से छिपाकर लापरवाही के साथ कहा -- अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। कल इजरायडिगरी होनेवाली है। ठाकुर साहब ने न जाने कब का बैर निकाला है। हमको दो-तीन दिन की भी मुहलत होती, तो डिगरी न जारी होने पाती। छोटे साहब और बड़े साहब दोनों हमको अच्छी तरह जानते हैं। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी किनारे घंटों बातें कीं, किंतु एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मुहलत नहीं, क्या करता? इस समय मुझे रुपयों की चिंता है।

झगड़ू साहू ने विस्मित होकर पूछा -- तुमको रुपयों की चिंता! घर में भरा है, वह किस दिन काम आवेगा? झगड़ू साहू ने यह व्यंग्यबाण नहीं छोड़ा था। वास्तव में उन्हें और सारे गाँव को विश्वास था कि चौधरी के घर में लक्ष्मी महारानी का अखंड राज्य है।

चौधरी का रंग बदलने लगा। बोले -- साहुजी! रुपया होता तो किस बात की चिंता थी? तुमसे कौन छिपाव है। आज तीन दिन से घर में चूल्हा नहीं जला, रोना-पीटना पड़ा है। अब तो तुम्हारे बसाए बसूँगा। ठाकुर साहब ने तो उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी।

झगड़ू साहु जीतनसिंह को ख़ुश रखना ज़रूर चाहते थे, पर साथ ही चौधरी को भी नाख़ुश करना मंज़ूर न था। यदि सूद-दरसूद छोड़कर मूल तथा ब्याज सहज वसूल हो जाय, तो उन्हें चौधरी पर मुफ़्त का एहसान लादने में कोई आपत्ति न थी। यदि चौधरी के अफ़सरों की जान-पहचान के कारण साहू जी का टेक्स से गला छुट जाय, तो अनेकों उपाय करने -- अहलकारों को मुट्ठी गरम करने -- पर भी नित्य प्रति उनके तोंद की तरह बढ़ता ही जा रहा था तो क्या पूछना! बोले -- क्या कहें चौधरीजी, ख़र्च के मारे आजकल हम भी तबाह हैं। लहने वसूल नहीं होते। टैक्स का रुपया देना पड़ा। हाथ बिलकुल खाली हो गया। तुम्हें कितना रुपया चाहिए?

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चौधरी ने कहा -- सौ रुपये की डिगरी है। ख़र्च-बर्च मिलाकर दो सौ के लगभग समझो।

झगड़ू अब अपने दाँव खेलने लगे। पूछा -- तुम्हारे लड़कों ने तुम्हारी कुछ भी मदद न की। वह सब भी तो कुछ न कुछ कमाते ही हैं।

साहुजी का यह निशाना ठीक पड़ा -- लड़कों की लापरवाही से चौधरी के मन में जो कुत्सित भाव भरे थे, वह सजीव हो गए। बोले -- भाई, लड़के किसी काम के होते तो यह दिन क्यों देखना पड़ता। उन्हें तो अपने भोग-विलास से मतलब। घर-गृहस्थी का बोझ तो मेरे सिर पर है। मैं इसे जैसे चाहूँ, सँभालूँ उनसे कुछ सरोकार नहीं, मरते दम भी गला नहीं छूटता! मरूँगा तो सब खाल में भूसा भराकर रख छोड़गे। {गृह कारज नाना जंजाला।}

झगड़ू ने तीसरा तीर मारा -- क्या बहुओं से भी कुछ न बन पड़ा?

चौधरी ने उत्तर दिया -- बहू-बेटे सब अपनी-अपनी मौज में मस्त हैं। मैं तीन दिन तक द्वार पर बिना अन्न-जल के पड़ा था, किसी ने बात भी नहीं पूछी। कहाँ की सलाह, कहाँ की बातचीत। बहुओं के पास रुपये न हों, पर गहने तो हैं और वे भी मेरे बनाए हुए। इस दुर्दिन के समय यदि दो-दो थान उतार देतीं तो क्या मैं छुड़ा न देता? सदा यही दिन थोड़े ही रहेंगे।

झगड़ू समझ गए कि यह महज़ ज़बान का सौदा है और वह ज़बान का सौदा भूलकर भी न करते थे। बोले -- तुम्हारे घर के लोग भी अनूठे हैं। क्या इतना भी नहीं जानते कि बूढ़ा रुपये कहाँ से लावेगा? अब समय बदल गया। या तो कुछ जायदाद लिखो या गहने गिरों रक्खो तब जाकर रुपया मिले। इसके बिना रुपये कहाँ? इसमें भी जायदाद में सैकड़ों बखेड़े पड़े हैं। सुभीता गिरों रखने में ही है। हाँ, तो जब घरवालों को कोई इसकी फिक्र नहीं तो तुम क्यों व्यर्थ जान देते हो। यही न होगा कि लोग हँसेंगे, सो यह लाज कहाँ तक निबाहोगे?

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चौधरी ने उत्यंत विनीत होकर कहा -- साहुजी, यही लाज तो मारे डालती है। तुमसे क्या छिपा है। एक वह दिन था कि हमारे दादा-बाबा महाराज की सवारी के साथ चलते थे और अब एक दिन यह कि घर की दोवार तक बिकने की नौबत आ गई। कहीं मुँह दिखाने को भी जी नहीं चाहता। यह लो गहनों की पोटली। यदि लोकलाज न होती तो इसे लेकर कभी यहाँ न आता, परंतु यह अधर्म इसी लाज निबाहने के कारण करना पड़ा है।

झगड़ू साहु ने आश्चर्य में होकर पूछा -- यह गहने किसके हैं? चौधरी ने सिर झुकाकर बड़ी कठिनता से कहा -- मेरी बेटी गंगाजली के।

झगड़ू साहु स्तंभित हो गये। बोले -- अरे! राम-राम।

चौधरी ने कातर स्वर में कहा -- डूब मरने को जी चाहता है।

झगड़ू ने बड़ी धार्मिकता के साथ स्थिर होकर कहा -- शास्त्र में बेटी के पाँव का पेड़ देखना मना है।

चौधरी ने दीर्घ निःश्वास छोड़कर करुण स्वर में कहा -- न जाने नारायण कब मौत देंगे। भाई की तीन लकड़ियाँ ब्याहीं। कभी भूलकर भी उनके द्वार का मुँह नहीं देखा। परमात्मा ने अब तक तो टेक निबाही है, पर अब न जाने मिट्टी की क्या दुर्दशा होनेवाली है।

झगड़ू साहु {लेखा जौ-जौ बखशीश सौ-सौ} के सिद्धांत पर चलते थे। सूद की एक कौड़ी भी छोड़ना उनके लिए हराम था। यदि एक महीने का एक दिन भी लग जाता तो पूरे महीने का सूद वसूल कर लेते। परंतु नवरात्र में नित्य दुर्गापाठ करवाते थे। पितृपक्ष में रोज ब्राह्मणों को सीधा बाँटते थे। बनियों की धर्म में बड़ी निष्ठा होती है। यदि कोई दीन ब्राह्मण लड़की ब्याहने के लिए उनके सामने हाथ पसारता तो वह खाली हाथ न लौटता, भीख माँगनेवाले ब्राह्मणों को चाहे वह कितने ही संडे-मुसंडे हों, उनके दरवाजे पर फटकार नहीं सुननी पड़ती थी। उनके धर्म-शास्त्र में कन्या के गाँव के कुएँ का पानी पीने से प्यासों मर जाना अच्छा था। वह स्वयं इस सिद्धांत के भक्त थे और इस सिद्धांत के अन्य पक्षपाती उनके लिए महामान्य देवता थे। वे पिघल गए। मन में सोचा, यह मनुष्य तो कभी ओछे विचारों को मन में नहीं लाया। निर्दय काल की ठोकर से अधर्म मार्ग पर उतर आया है, तो उसके धर्म की रक्षा करना हमारा कर्तव्य-धर्म है। यह विचार मन में आते ही झगड़ू साहु गद्दी से मसनद के सहारे उठ बैठे और दृढ़ स्वर से कहा -- वही परमात्मा जिसने अब तक तुम्हारी टेक निबाही है, अब भी निबाहेंगे। लड़की के गहने लड़की को दे दो। लड़की जैसी तुम्हारी है, वैसी मेरी भी है। यह लो रुपये। आज काम चलाओ। जब हाथ में रुपये आ जायँ, दे देना।

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चौधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। उसे अपने भावों की धुन में कृष्ण भगवान् की मोहिनी मूर्त्ति सामने विराजमान दिखाई दी। वही झगड़ू जो सारे गाँव में बदनाम था, जिसकी उसने खुद कई बार हाकिमों से शिकायत की थी, आज साक्षात् देवता जान पड़ता था। रुँधे हुए कंठ से गद्गद् हो बोला -- झगड़ू, तुमने इस समय मेरी बात, मेरी लाज, मेरा धर्म, कहाँ तक कहूँ, मेरा सब कुछ रख लिया। मेरी नाव पार लगा दी। कृष्ण मुरारी तुम्हारे इस उपकार का फल देंगे और मैं तुम्हारा गुण जब तक जीऊँगा, गाता रहूँगा।