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ग़रीब की हाय

मुंशी रामसेवक भौंहें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले -- इस जीने से तो मरना भला है। मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिए जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता।

मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चरित्र की दुर्बलता उनके जीवन का आधार थी। वह नित्य मुंसिफ़ी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागज़ों का बस्ता खोले, एक टूटी-सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे। किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर क़ानूनी बहस वा मुक़दमे की पैरवी करते नहीं देखा। परंतु उन्हें सब लोग मुख़्तार साहब कहकर पुकारते थे। चाहे तूफ़ान आवे, पानी बरसे, ओले गिरें, पर मुख़्तार साहब वहाँ से टस से मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुंड के झुंड उनके साथ हो चले। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबमें प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है। इसे वकालत कहो, या मुख़्तारी, परंतु यह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने में हिचकते थे। मुंशीजी की क़ानूनदानी में कोई संदेह न था। परंतु पास के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। ख़ैर, जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था, नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किंतु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी।

विधवाएँ अपना रुपया उनके यहाँ अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार उनकी मुट्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभी क़र्ज़ ले लेते थे। भला बिना क़र्ज़ लिये किसी का काम चल सकता है? भोर की साँझ के क़रार पर रुपया लेते, पर साँझ कभी नहीं आती थी। सारांश, मुंशीजी क़र्ज़ लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल-प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुंशीजी के सुख-चैन में विघ्न डालते थे। क़ानून और अदालत का तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। परंतु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशीजी के हृदय पर बड़ी चोट लगती। इस प्रकार की दुर्घटनाएँ प्रायः होती रहती थीं। हर जगह ऐसे ओछे रहते हैं, जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही आनंद आता है। ऐसे ही लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुँह लग जाते थे। नहीं तो, एक कुँजड़िन की इतनी मजाल नहीं थी कि उनके आँगन में उन्हें बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके पुराने गाहक थे, बरसों तक उससे साग-भाजी ली थी। यदि दाम न दिया तो कुँजड़िन को संतोष करना चाहिए था। दाम जल्दी वा देर से मिल ही जाता। परंतु वह मुँहफट कुँजड़िन दो ही बरसों में घबरा गई, और उसने कुछ आने-पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया। झुंझलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गए तो इसमें उनका कुछ दोष न था।

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इसी गाँव में मूँगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। उसका पति बर्मा की काली पलटन में हवलदार था और लड़ाई में वही मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मूँगा को पाँच सौ रुपये मिले थे। विधवा स्त्री, जमाना नाज़ुक था, बेचारी ने ये सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिए और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से माँगकर अपना निर्वाह करती रही।

मुंशीजी ने यह कर्त्तव्य कोई वर्ष तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया। पर जब बूढ़ी होने पर भी मूँगा नहीं मरी और मुंशीजी को यह चिंता हुई कि शायद उसमें से आधी रक़म भी स्वर्ग-यात्रा के लिए नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा -- मूँगा! तुम्हें मरना है या नहीं? या साफ़-साफ़ कह दो कि मैं ही अपने मरने की फ़िक्र करूँ? उस दिन मूँगा की आँखें खुलीं, उसकी नींद टूटी, बोली -- मेरा हिसाब कर दो।

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हिसाब का चिट्ठा तैयार था। अमानत में अब एक कौड़ी बाक़ी न थी। मूँगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशीजी का हाथ पकड़ लिया और कहा -- अभी मेरे ढाई सौ रुपये तुमने दबा रखे हैं। मैं एक कौड़ी भी न छोड़ूँगी।

परंतु अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज़ है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता। अदालत में उसका कुछ ज़ोर न था। न लिख-पढ़ी थी, न हिसाब-किताब। हाँ, पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठी। कई गाँव के लोग इकट्ठे हुए। मुंशीजी नीयत और मामले के साथ थे! सभा में खड़े होकर पंचों से कहा --

भाइयो! आप सब लोग सत्यपरायण और कुलीन हैं। मैं आप सब साहबों का दास हूँ। आप सब साहबों की उदारता और कृपा से, दया और प्रेम से, मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है। क्या आप लोग सोचते हैं कि मैं इस अनाथिनी और विधवा स्त्री के रुपये हड़प कर गया हूँ?

पंचों ने एक स्वर से कहा -- नहीं, नहीं! आपसे ऐसा नहीं हो सकता।

रामसेवक -- यदि आप सब सज्जनों का विचार हो कि मैंने रुपये दबा लिये, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं। मैं धनाढ्य नहीं हूँ, न मुझे उदार होने का घमंड है। पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोगों की कृपा से किसी का मोहताज़ नहीं। क्या मैं ऐसा ओछा हो जाऊँगा कि एक अनाथिनी के रुपये पचा लूँ?

पंचों ने एक स्वर से फिर कहा -- नहीं-नहीं, आपसे ऐसा नहीं हो सकता।

मुँह देखकर टीका काढ़ा जाता है। पंचों ने मुंशीजी को छोड़ दिया। पंचायत उठ गई। मूँगा ने आह भरकर संतोष किया और मन में कहा -- अच्छा! यहाँ न लिया तो न सही, वहाँ कहाँ जायगा।

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अब कोई मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी। पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन से उसने काम करने की क़सम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपये की रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते उसे केवल एक काम था, और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। झोंपड़े के दरवाज़े पर बैठी हुई रात-दिन, उन्हें सच्चे मन से असीसा करती। बहुधा अपनी असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के भाव और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचंभे में आ जाते।

धीरे-धीरे मूँगा पगली हो चली। नंगे सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती। झोंपड़े के बदले अब वह मरघट पर नदी के किनारे खँडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आँखें पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पाँव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गाँव में निकल आती, तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। पुरुष करता-कर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था, तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप में जो कुछ कोर कसर रह गई थी, वह बेटे में पूरी हो गई थी। लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गाँव के काने और लँगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे। और गालियाँ खाने में तो शायद समुराल में आनेवाले दामाद को भी इतना आनंद न आता हो। वह मूँगा के पीछे तालियाँ बजाता, कुत्तों को साथ लिये हुए उस समय तक रहता, जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से निकल न जाती। रुपया-पैसा, होश-हवास खोकर उसे पगली की पदवी मिली। और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने आप घंटों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के मांस, हड्डी, चमड़े, आँखें, कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने-खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुँच जाती, तो वह रामसेवक की ओर मुँह करके ख़ूब चिल्लाकर और डरावने शब्दों में हाँक लगाती -- तेरा लहू पीऊँगी।

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प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज़ सुनकर स्त्रियाँ चौंक पड़ती थीं। परंतु इस आवाज़ से भयानक उसका ठठाकर हँसना था। मुंशीजी के लहू पीने की कल्पित ख़ुशी में वह ज़ोर से हँसा करती थी। इस ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दंडता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात को सुनकर लोगों का ख़ून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानो सैकड़ों उल्लू एक साथ हँस रहे हैं। मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे। न उन्हें दीवानी का डर था, न फ़ौजदारी का, परंतु मूँगा के इन डरावने शब्दों को सुन, वह भी सहम जाते। हमें मनुष्य के न्याय का डर न हो, परंतु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वभाव से रहता है। मूँगा का भयानक रात का घूमना रामसेवक के मन में कभी-कभी ऐसी हो भावना उत्पन्न कर देता -- उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में। उनकी स्त्री बड़ी चतुर थी। वह इनको इन सब बातों में प्रायः सलाह दिया करती थी। उन लोगों की भूल थी, जो लोग कहते थे कि मुंशीजी की जीभ पर सरस्वती विराजती हैं। वह गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था। बोलने में वह इतनी ही तेज़ थी जितना मुंशीजी लिखने में थे। और यह दोनों स्त्री-पुरुष प्रायः अपनी अवश दशा में सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए।

आधी रात का समय था। मुंशीजी नित्य नियम के अनुसार अपनी चिंता दूर करने के लिए शराब के दो-चार घूँट पीकर सो गए थे। यकायक मूँगा ने उनके दरवाज़े पर आकर ज़ोर से हाँक लगायी, {तेरा लहू पीऊँगी} और ख़ूब खिलखिलाकर हँसी।

मुंशीजी यह भयावना ठहाका सुनकर चौंक पड़े। डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे। कलेजा धक्-धक् करने लगा। दिल पर बहुत ज़ोर डालकर उन्होंने दरवाज़ा खोला , जाकर नागिन को जगाया। नागिन ने झुँझलाकर कहा -- क्या कहते हो? मुंशीजी ने दबी आवाज़ से कहा -- वह दरवाज़े पर आकर खड़ी है।

नागिन उठ बैठी -- क्या कहती है?

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{तुम्हारा सिर।}

{क्या दरवाज़े पर आ गयी?}

{हाँ, आवाज़ नहीं सुनती हो।}

नागिन मूँगा से नहीं, परंतु उसके ध्यान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वास था कि मैं बोलने में उसे ज़रूर नीचा दिखा सकती हूँ। सँभलकर बोली -- कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूँ। परंतु मुंशीजी ने मना किया।

दोनों आदमी पैर दबाए हुए ड्योढी में गये और दरवाज़े से झाँककर देखा, मूँगा की धुँधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी साँस तेज़ी से चलती सुनाई देती थी। रामसेवक के लहू और माँस की भूख में वह अपना लहू और माँस सुखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था; परंतु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता। हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुर्दे से डरते हैं। रात गुज़री। दरवाज़ा बंद था; पर मुंशीजी और नागिन ने बैठकर रात काटी। मूँगा भीतर नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज़ को कौन रोक सकता था? मूँगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज़ थी।

भोर को मुंशीजी बाहर निकले और मूँगा से बोले -- यहाँ क्यों पड़ी है?

मूँगा बोली -- तेरा लहू पीऊँगी।

नागिन ने बल खाकर कहा -- तेरा मुँह झुलस दूँगी।

पर नागिन के विष ने मूँगा पर कुछ असर न किया। उसने ज़ोर से ठहाका लगाया, नागिन खिसियानी-सी हो गई। हँसी के सामने मुँह बंद हो जाता है। मुंशीजी फिर बोले -- यहाँ से उठ जा।

{न उठूँगी।}

{कब तक पड़ी रहेगी?}

{तेरा लहू पीकर जाऊँगी।}

{मुंशीजी की प्रखर लेखनी का यहाँ कुछ ज़ोर न चला और नागिन की आग-भरी बातें यहाँ सर्द हो गईं। दोनों घर में जाकर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी। इस आपत्ति से कैसे छुटकारा होगा?

देवी आती है तो बकरे का ख़ून पीकर चली जाती है; पर यह डाइन मनुष्य का ख़ून पीने आयी है। वह ख़ून, जिसकी अगर एक बूँद भी कलम बनाने के समय निकल पड़ती थी, तो अठवारों और महीनों सारे कुनबे को अफ़सोस रहता, और यह घटना गाँव में घर-घर फैल जाती थी। क्या यही लहू पीकर मूँगा का सूखा शरीर हरा हो जायगा?

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गाँव में यह चर्चा फैल गई, मूँगा मुंशीजी के दरवाज़े पर धरना दिये बैठी है। मुंशीजी के अपमान में गाँववालों को बड़ा मज़ा आता था। देखते-देखते सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई। उस दरवाज़े पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी। मूँगा पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका बस चलता तो वह उसे कुएँ में ढकेल देता। इस तरह का विचार उठते ही रामगुलाम के मन में गुदगुदी समा गई, और वह बड़ी कठिनता से अपनी हँसी रोक सका! अहा! वह कुएँ में गिरती तो क्या मज़े की बात होती। परंतु यह चुड़ैल यहाँ से टलती ही नहीं, क्या करूँ? मुंशीजी के घर में एक गाय थी, जिसे खली, दाना और भूसा तो ख़ूब खिलाया जाता; पर वह सब उसकी हड्डियों में मिल जाता, उसका ढाँचा पुष्ट होता जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी में घोला और सबका सब बेचारी मूँगा पर उड़ेल दिया। उसके थोड़े बहुत छींटे दर्शकों पर भी डाल दिये। बेचारी मूँगा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े हुए। कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का दरवाज़ा है। यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है। जल्द भाग चलो, नहीं तो अबके इसमें बढ़कर खातिर की जायगी। इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घर में जाकर ख़ूब हँसा और तालियाँ बजायीं। मुंशीजी ने इस व्यर्थ की भीड़ को ऐसे सहज में और ऐसे सुंदर रूप से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोंकी। सब लोग तो चंपत हो गए, पर बेचारी मूँगा ज्यों की त्यों बैठी रह गई।

दोपहर हुई। मूँगा ने कुछ नहीं खाया। साँझ हुई। हज़ार कहने-सुनने से भी उसने खाना नहीं खाया। गाँव के चौधरी ने बड़ी ख़ुशामद की। यहाँ तक कि मुंशीजी ने हाथ तक जोड़े, पर देवी प्रसन्न न हुई। निदान मुंशीजी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे कि रूठनेवाले को भूख आप ही मना लिया करती है। मूँगा ने यह रात भी बिना दाना-पीना के काट दी। लालाजी और ललाइन ने आज फिर जाग-जागकर भोर किया। आज मूँगा की ग़रज़ और हँसी बहुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालों ने समझा, बला टली। सबेरा होते ही जो दरवाज़ा खोलकर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी, मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और उसके प्राणपखेरू उड़ चुके हैं। वह इस दरवाज़े पर मरने ही आयी थी। जिसने उसके जीवन की जमा-पूँजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी। अपने शरीर की मिट्टी तक उसकी भेंट कर दी। धन से मनुष्य को कितना प्रेम होता है। धन अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारा होता है, विशेषकर बुढ़ापे में। ऋण चुकाने के दिन ज़्यों-ज़्यों पास आते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है।

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यह कहना यहाँ व्यर्थ है कि गाँव में इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक कैसे अपमानित हुए! छोटे-छोटे-से गाँव में ऐसी असाधारण घटना होने पर जितनी हलचल हो सकती, उससे अधिक ही हुई। मुंशीजी का अपमान जितना होना चाहिए था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया।

अब गाँव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने या उन्हें छूने का रवादार न था। यदि किसी घर में कोई गाय खूँटे पर मर जाती है, तो वह आदमी महीनों द्वार-द्वार भीख माँगता फिरता है। न नाई उसकी हजामत बनावे, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए। यह गोहत्या का प्रायश्चित्त! ब्रह्महत्या का दंड तो इससे भी कड़ा है और इनमें अपमान भी बहुत है। मूँगा यह जानती थी और इसीलिए इस दरवाज़े पर आकर मरी थी। वह जानती थी कि मैं जीते-जी जो कुछ नहीं कर सकती, मरकर उससे बहुत कुछ कर सकती हूँ। गोबर का उपला जब जलकर खाक हो जाता है, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते हैं। पत्थर का ढेला आग में जलकर आग से अधिक तीखा और मारक हो जाता है।

मुंशी रामसेवक क़ानूनदाँ थे। क़ानून ने उन पर कोई दोष नहीं लगाया था। मूँगा किसी क़ानूनी दफ़ा के अनुसार नहीं मरी थी। ताज़ीरात हिंद में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था। इसलिए जो लोग उनसे प्रायश्चित्त करवाना चाहते थे, उनकी भारी भूल थी। कुछ हर्ज़ नहीं, कहार पानी न भरे न सही, वह आप पानी भर लेंगे। अपना काम करने में भला लाज ही क्या? बला से नाई बाल न बनावेगा। हजामत बनाने का काम ही क्या है? दाढ़ी बहुत सुंदर वस्तु है। दाढ़ी मर्द की शोभा और सिंगार है। और जो फिर बोलों से ऐसी घिन होगी, तो एक-एक आने में तो अस्तुरे मिलते हैं। धोबी कपड़े न धोवेगा, इसकी भी कुछ परवाह नहीं। साबुन तो गली-गली कौंड़ियों के मोल आता है। एक बट्टी साबुन में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ़ हो जाते हैं जैसे बगुले के पर। धोबी क्या खाकर ऐसा साफ़ कपड़ा धोवेगा? पत्थर पर पटक-पटककर कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है। आप पहने, दूसरे को भाड़े पर पहनावे, भट्ठी में चढ़ावे, रेह में भिगावे -- कपड़ों की तो दुर्गत कर डालता है। जभी तो कुरते दो-तीन साल से अधिक नहीं चलते। नहीं तो दादा हर पाँचवें बरस दो अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे। मुंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने दिन भर तो यों ही कहकर अपने मन को समझाया। साँझ होते ही उनकी तर्कनाएँ शिथिल हो गईं।

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अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई की। जैसे-जैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था। बाहर का दरवाज़ा भूल से खुला रह गया था, पर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि जाकर बंद तो कर आवे। निदान नागिन ने हाथ में दिया लिया, मुंशीजी ने कुल्हाड़ा, रामगुलाम ने गँड़ासा, इस ढंग से तीनों चौंकते-हिचकते दरवाज़े पर आये। यहाँ मुंशीजी ने बड़ी बहादुरी से काम लिया। उन्होंने निधड़क दरवाज़े से बाहर निकलने की कोशिस की। काँपते हुए, पर ऊँची आवाज़ में नागिन से बोले -- तुम व्यर्थ डरती हो, वह क्या यहाँ बैठी है? पर उनकी प्यारी नागिन ने उन्हें अंदर खींच लिया और झुँझलाकर बोली -- तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं। यह दंगल जीतकर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आये और खाना पकने लगा।

परंतु मूँगा उनकी आँखों में घुसी हुई थी। अपनी परछाईं को देखकर मूँगा का भय होता था। अंधेरे कोनों में मूँगा बैठी मालूम होती थी। वही हड्डियों का ढाँचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आँखें, मूँगा का नखशिख दिखाई देता था। इसी कोठरी में आटे-दाल कई मटके रखे हुए थे, वहीं कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन किया (मटकों ने कभी अनाज की सूरत नहीं देखी थी, पर सारे गाँव में मशहूर था कि इस घर के चूहे ग़ज़ब के डाकू हैं) तो वह उन दोनों की खोज में, जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ इस चिथड़े के नीचे आ निकला। कपड़े में खड़खड़ाहट हुई। फैले हुए चिथड़े मूँगा की पतली टाँगे बन गईं, नागिन देखकर झिझकी और चीख उठी। मुंशीजी बदहवास होकर दरवाज़े की ओर लपके, रामगुलाम दौड़ कर इनकी टाँगों से लिपट गया। चूहा बाहर निकल आया। उसे देखकर इन लोगों के होश ठिकाने हुए। अब मुंशीजी साहस करके मटके की ओर चले। नागिन ने कहा -- रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मरदानगी।

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मुंशीजी अपनी प्रिया नागिन के इस अनादर पर बहुत बिगड़े -- क्या तुम समझती हो, मैं डर गया? भला डर की क्या बात थी! मूँगा मर गई। क्या वह बैठी है? मैं कल नहीं दरवाज़े के बाहर निकल गया था -- तुम रोकती रहीं, मैं न माना।

मुंशीजी की इस दलील ने नागिन को निरुत्तर कर दिया। कल दरवाज़े के बाहर निकल जाना या निकलने की कोशिश करना साधारण काम न था। जिसके साहस का ऐसा प्रमाण मिल चुका है, उसे डरपोक कौन कह सकता है? यह नागिन की हठधर्मी थी।

खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आये; परंतु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा; बातें करते थे, दिल को बहलाते थे। नागिन ने राजा हरदौल और रानी सारंधा की कहानियाँ कहीं। मुंशीजी ने फ़ौजदारी के कई मुक़दमों का हाल कह सुनाया। परंतु तो भी इन उपायों से भी मूँगा की मूर्ति उनकी आँखों के सामने से न हटती थी। ज़रा भी खटखटाहट होती कि तीनों चौंक पड़ते। इधर पत्तियों में सनसनाहट हुई कि उधर तीनों के रोंगटे खड़े हो गए! रह-रहकर एक धीमी आवाज़ धरती के भीतर से उनके कानों में आती थी -- {तेरा लहू पीऊँगी।}

आधी रात को नागिन नींद से चौंक पड़ी। वह इन दिनों गर्भवती थी। लाल-लाल आँखोंवाली, तेज़ और नोकीले दाँतोंवाली मूँगा उनकी छाती पर बैठी हुई जान पड़ती थी। नागिन चीख उठी। बावली की तरह आँगन में भाग आई और यकायक धरती पर चित्त गिर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आँखें न खुलीं। अंधों की तरह दरवाज़ा टटोलते रहे। बहुत देर के बाद उन्हें दरवाज़ा मिला। आँगन में आये। नागिन ज़मीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाये, पर रात भर उसने आँखे न खोलीं। भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर में ज्वर हो आया। बदन लाल तवा-सा हो गया। साँझ होते-होते उसे सन्निपात हो गया और आधी रात के समय जब संसार में सन्नाटा छाया हुआ था, नागिन इस संसार से चल बसी। मूँगा के डर ने उसकी जान ली। जब तक मूँगा जीता रही, वह नागिन की फुफकार से सदा डरती रही। पगली होने पर भी उसने कभी नागिन का सामना नहीं क्या; पर अपनी जान देकर उसने आज नागिन की जान ली। भय में बड़ी शक्ति है। मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है।

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रात बीत गई। दिन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी नागिन की लाश उठाने को आता न दिखाई दिया। मुंशी जी घर-घर घूमे, पर कोई न निकला। भला, हत्यारे के दरवाज़े पर कौन जाय? हत्यारे की लाश कौन उठावे? इस समय मुंशी जी का रोब-दाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी क़ानूनी प्रतिभा एक भी काम न आई। चारों ओर से हारकर मुंशीजी फिर अपने घर आये। यहाँ उन्हें अंधकार ही अंधकार दीखता था। दरवाज़े तक तो आये, पर भीतर पैर नहीं रखा जाता था। न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूँगा थी, भीतर नागिन। जी को कड़ा करके हनुमान-चालीसा का पाठ करते हुए घर में घुसे। उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे। उसका अनुमान करना कठिन है। घर में लाश पड़ी हुई; न कोई आगे, न पीछे। दूसरा ब्याह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन में तो पचासवाँ लगा है; पर ऐसी सुयोग्य और मीठी बोलनेवाली स्त्री कहाँ मिलेगी? अफ़सोस! अब तगादा करनेवालों से बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरुत्तर करेगा? लेन-देन का हिसाब-किताब औन इतनी ख़ूबी से करेगा? किसकी कड़ी आवाज़ तीर की तरह तगादे-दारों की छाती में चुभेगी? वह नुक़सान अब पूरा नहीं हो सकता। दूसरे दिन मुंशीजी लाश को एक ठेलेगाड़ी पर लादकर गंगाजी की तरफ़ चले।

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शव के साथ जानेवालों की संख्या कुछ भी न थी। एक स्वयं मुंशीजी, दूसरे उनके पुत्ररत्न रामगुलामजी! इस बेइज़्ज़ती से मूँगा की लाश भी नहीं उठी थी।

मूँगा ने नागिन की जान लेकर भी मुंशीजी का पिंड न छोड़ा। उनके मन में हर घड़ी मूँगा की मूर्ति विराजमान रहती थी। कहीं रहते, उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था। यदि दिल-बहलाव का कोई उपाय होता, तो शायद वह इतने बेचैन न होते, पर गाँव का एक पुतला भी उनके दरवाज़े की ओर न झाँकता था। बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते। सोच और क्रोध, चिंता और भय, इतने शत्रुओं के सामने एक दिमाग़ कब तक ठहर सकता था? विशेषकर वह दिमाग़, जो रोज़ क़ानून की बहसों में ख़र्च हो जाता था।

अकेले क़ैदी की तरह उनके दस-बारह दिन तो ज्यों-त्यों कर कटे। चौदहवें दिन मुंशीजी ने कपड़े बदले और बोरिया-बस्ता लिये हुए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था। जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे। मेरी मातमपुर्सी करेंगे। मैं आँसुओं की दो-चार बूँदें गिरा दूँगा। फिर बैनामों, रेहननामों और सुलहनामों की भरमार हो जायगी। मुट्ठी गरम होगी। शाम को ज़रा नशे-पानी का रंग जम जायगा, जिसके छूट जाने से जी और भी उचाट रहा था। इन्हीं विचारों में मग्न मुंशीजी कचहरी पहुँचे।

पर जहाँ रेहननामों की भरमार और बैनामों की बाढ़ और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले निराशा की रेतीली भूमि नज़र आयी। बस्ता खोले घंटों बैठे रहे, पर कोई नज़दीक भी न आया। किसी ने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं! नये मुवक्किल तो ख़ैर, बड़े-बड़े पुराने मुवक्किल, जिनका मुंशीजी से कई पीढ़ियों से सरोकार था, आज उनसे मुँह छिपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जिसकी मुंशीजी हँसी उड़ाते थे, और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, आज गोपियों में कन्हैया बना हुआ था। वाह रे भाग्य! मुवक्किल यों मुँह फेरे चले जाते हैं, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं। दिन भर कचहरी की खाक छानने के बाद मुंशीजी घर चले। निराशा और चिंता में डूबे हुए ज्यों-ज्यों घर के निकट आते थे, मूँगा का चित्र सामने आता जाता था। यहाँ तक कि जब घर का द्वार खोला और दो कुत्ते, जिन्हें रामगुलाम ने बंद रखा था, झपटकर बाहर निकले तो मुंशीजी के होश उड़ गए, एक चीख मारकर ज़मीन पर गिर पड़े।

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मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्ति का नहीं। प्रेम चिंता, निराशा, हानि, यह सब मन को अवश्य दुःखित करते हैं, पर यह हवा के हलके झोंके हैं और भय प्रचंड आँधी है। मुंशीजी पर इसके बाद क्या बीती, मालूम नहीं। कई दिनों तक लोगों ने उन्हें कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाए हुए लौटते देखा। कचहरी जाना उनका कर्त्तव्य था, और यद्यपि वहाँ मुवक्किलों का अकाल था, तो भी तगादे वालों से गला छुड़ाने और उनको भरोसा दिलाने के लिए अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद कई महीने तक देख न पड़े। बद्रीनाथ चले गए।

एक दिन गाँव में एक साधु आया। भभूत रमाए, लंबी जटाएँ, हाथ में कमंडल। उसका चेहरा मुंशी रामसेवक से बहुत मिलता-जुलता था। बोल-चाल में भी अधिक भेद न था। वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठा रहा। उसी रात को मुंशी रामसेवक के घर से धुआँ उठा, फिर आग की ज्वाला दीखने लगी और आग भड़क उठी। गाँव के सैकड़ों आदमी दौड़े। आग बुझाने के लिए नहीं, तमाशा देखने के लिए। एक ग़रीब की हाय में कितना प्रभाव है। रामगुलाम मुंशीजी के ग़ायब हो जाने पर अपने मामा के यहाँ चला गया और वहाँ कुछ दिनों रहा। पर वहाँ उसकी चाल-ढाल किसी को पसंद न आयी।

एक दिन उसने किसी के खेत में मूली नोची। उसने दो-चार धौल लगाए। उस पर वह इस कदर बिगड़ा कि जब उसके चने खलिहान में आये तो उसने आग लगा दी। सारा का सारा खलिहान जलकर खाक हो गया। हज़ारों रुपयों का नुक़सान हुआ। पुलिस ने तहक़ीक़ात की, रामगुलाम पकड़ा गया। इसी अपराध में वह चुनार के रिफ़ार्मेटरी स्कूल में मौजूद है।