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ख़ून सफ़ेद

चैत का महीना था, लेकिन वे खलिहान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणस्थल बने हुए थे; जहाँ घरों से फाग और बसंत की अलाप सुनायी पड़ती, आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाए, ख़रीफ़ की फ़सल बो दी, लेकिन इंद्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गोचर भूमि में घास न उगी।

बादल आते, घटाएँ उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जायगा, परंतु वे आशा की नहीं, दुःख की घटाएँ थीं। किसानों ने बहुतेरे जप-तप किए, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाए, बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए, लेकिन इंद्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी। बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए, धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखाई देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बरतन गिरवी रखे, और अंत में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और जब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा, तब जन्मभूमि पर जान देनेवाले किसान बाल-बच्चों को लेकर मज़दूरी करने निकल पड़े। अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।

संध्या का समय था। जादोराय थका-माँदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला -- दरख़ास्त नामंज़ूर हो गई -- यह कहते-कहते वह आँगन में ज़मीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आँतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी -- गहने, कपड़े, बरतन, भाँड़े सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा। केवल तक़ावी का सहारा था, उसी के लिए दरख़ास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंज़ूर हो गई, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया

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देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए। पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलावे? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी? उसेने आज कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दुःख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है। घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीन-हीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।

हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रातःकाल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था, और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाइयों में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया, उसकी ओर दुःखभरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी।

दूसरे दिन यह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पुरुषों के चित्त से अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमानेवाला किसान भी मज़दूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हा पापी पेट, तू सब कुछ कर सकता है! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा ये सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं में छिप जाते हैं।

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प्रभात का समय था। वे दोनों विपत्ति के सताए घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिसपर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती थी। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से रास्ते में भेंट भी हुई, किंतु किसी ने इतना भी न पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।

जब ये लोग लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा, मीलों तक आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुःख के चिह्न झलक रहे थे।

बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके ज़ोर-ज़ोर से हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढाँचे, जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। मानो वह मरघट-भूमि थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्रें खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सबके सब ऐसे निराश और विवश होकर काम में लगे हुए थे, मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूरी रही है। इस आफ़त में न कोई किसी का मित्र था, न हितू। दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं, जिनका कर्त्ता मनुष्य है। प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रों की भाँति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वरप्रदत्त गुण कभी हमारा गला नहीं छोड़ता।

आठ दिन बीत गए थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग़ था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहचानी जाती थी। अब वह स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेरफेर से आज दोनों मज़दूर बने बैठे हैं।

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जादोराय ने बच्चे को ज़मीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुख़ार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया। देवकी ने धीरे से हिलाकर कहा -- बेटा! आँखें खोलो। देखो, साँझ हो गई।

साधो ने आँखें खोल दीं। बुख़ार उतर गया था। बोला -- क्या हम घर आ गए माँ?

घर की याद आ गई। देवकी की आँखें डबडबा आईं। उसने कहा -- नहीं बेटा! तुम अच्छे हो जाओगे, तो घर चलेंगे। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग़ है!

साधो माँ के हाथों के सहारे उठा और बोला -- माँ! मुझे बड़ी भूख लगी है, लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खाने को दोगी?

देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धरके बोली -- नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं तो मैं नरम-नरम रोटियाँ अभी बनाए देती हूँ।

साधी ने माँ की गोद में सिर रख लिया और बोला -- माँ! मैं न होता तो तुम्हें इतना दुःख तो न होता। यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। यह वही बेसमझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुःख और चिंता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुःखपूर्ण, कितना करुणाजनक व्यापार है!

इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिये हुए वहाँ आये। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और खेमे लदे हुए थे। दम के दम में वहाँ खेमे गड़ गए। सारे बाग़ में चहल-पहल नज़र आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ एक डेरे के नज़दीक जाकर खड़ा हो गया।

पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आई। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बैठा दिया और तब उसे बिसकुट और केले खाने को दिये। लड़के ने अपनी ज़िंदगी में इन स्वादिष्टि चीज़ों को कभी न देखा। बुख़ार की बेचैन करनेवाली भूख अलग मार रही थी। उसने ख़ूब मन भर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला -- तुम हमको रोज़ ऐसी चीज़ें खिलाओगे?

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पादरी साहब इस भोलेपन पर मुस्कुराके बोले -- मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीज़ें हैं। इसपर साधोराय ने कहा -- अब मैं रोज़ तुम्हारे पास आऊँगा। माँ के पास ऐसी अच्छी चीज़ें कहाँ? वह तो मुझे चने की रोटियाँ खिलाती है।

उधर देवकी ने रोटियाँ बनायीं और साधो को पुकारने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा -- मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीज़ें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।

देवकी ने कहा -- मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियाँ बनाई हैं। आओ, तुम्हें खिलाऊँ।

साधो बोला -- अब मैं न खाऊँगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज़ अच्छी-अच्छी चीज़ें खिलाऊँगा। मैं अब उनके साथ रहा करूँगा।

माँ ने समझा कि लड़का हँसी कर रहा है। उसे छाती से लगाकर बोली -- क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे? देखो, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ।

साधो तुतलाकर बोला -- तुम तो मुझे रोज़ चने की रोटियाँ दिया करती हो। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलावेंगे। यह कहकर वह फिर खेमे की ओर भागा और रात को वहीं सो रहा।

पादरी मोहनदास का पड़ाव कहाँ तीन दिन रहा। साधो दिन भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुख़ार जाता रहा। वह भोले-भाले किसान यह देखकर साहब को आशीर्वाद देने लगे। लड़का भला-चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली।

चौथे दिन, रात को ही वहाँ से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी तो साधो का वहाँ पता न था। उसने समझा, कहीं टपके ढूँढ़ने गया होगा, किंतु थोड़ी देर देखकर उसने जादोराय से कहा -- लल्लू यहाँ नहीं है। उसने भी यही कहा -- यहीं कहीं टपके ढूँढ़ता होगा।

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लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक़्त हुआ तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा -- तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिये आता हूँ।

जादोराय ने आस-पास के सब बाग़ों को छाने डाला और अंत में जब दस बज गए तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देखकर देवकी ढाढ़ें मार कर रोने लगी।

फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि साहब ने उस पर कोई मंत्र डालकर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ संदेह था। बच्चा इतनी दूर अनजान रास्ते पर अकेले नहीं आ सकता। फिर दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े की टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहाँ तक कि वे एक सड़क पर जा पहुँचे। वहाँ गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोड़े के टाप भी एक झाड़ी की तरफ़ जा कर ग़ायब हो गए। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गई थी। दोनों धूप के मारे बेचैन और निराशा से पागल हो रहे थे। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया।

जब ज़रा धूप की तेज़ी कम हुई, तो दोनों फिर आगे चले। किंतु अब आशा की जगह निराशा साथ थी। घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुंधला निशान ग़ायब हो गया था।

शाम हो गई। इधर-उधर गायों-बैलों के झुंड निर्जीव से पड़े दिखाई देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हारकर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैने का एक जोड़ा बसेरा लिए था। उनका नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फँस गया था। दोनों दिन भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश होकर बैठ रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखाई देती थी, इसलिए वे बेचैन थे।

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तीन दिन तक ये दोनों अपने खोए हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने से भेंट नहीं, प्यास से बेचैन होते तो दो-चार घूँट पानी गले के नीचे उतार लेते।

आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुःख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैरों के निशान देखते, तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगती थीं।

लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट से दूर लिए जाता था।

इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गए। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गई। चारों ओर रामराज्य दिखाई देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरह अपनी निर्दयता न दिखाई और न ज़मीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज से ढेकियाँ भर चलीं। उजड़े हुए गाँव बस गए। मज़दूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद की तलाश में नज़रें दौड़ाने लगे। वही चैत के दिन थे, खलिहानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाज़े पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट बना रहता था। दरजी को सिर उठाने की फ़ुरसत न थी। इधर-उधर दरवाज़ों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों को अजीर्ण हो रहा था।

जादोराय के दिन भी फिरे। उसके घर पर छप्पर की जगह खपरैल हो गया है। दरवाज़े पर अच्छे बैलों की जोड़ी बँधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाज़ार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल भी सफ़ेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गाँव की बूढ़ी औरतों में होने लगी है। व्यावहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है, तो वहाँ की बहुएँ भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु-वाक्य, तीव्र आलोचना की सारे गाँव में धाक बँधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते, लेकिन गहनों के बारे में वह इतनी उसासीन नहीं है।

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उनके जीवन का दूसरा भाग इससे कम उज्जवल नहीं। उनकी दो संतान हैं। लड़का माधोसिंह अब खेती-बारी के काम में बाप की मदद करता है। लड़की का नाम शिवगौरी है। वह भी माँ को चक्की पीसने में सहायता दिया करती है और ख़ूब गाती है। बर्तन धोना उसे पसंद नहीं, लेकिन चौका लगाने में निपुण है। गुड़ियों के ब्याह करने से उसका जी अभी नहीं भरता। आये दिन गुड़ियों के विवाह होते रहते हैं। हाँ, इनमें किफ़ायत का पूरा ध्यान रहता है। खोए हुए साधो की याद अभी तक बाक़ी है। उसकी चर्चा नित्य हुआ करती है और कभी बिना रुलाए नहीं रहती। देवकी कभी-कभी सारे दिन उस लाड़ले बेटे की सुध में अधीर रहा करती है।

साँझ हो गई थी। बैल दिन भर के थके-माँदे सिर झुकाए चले आते थे। पुजारी ने ठाकुरद्वारे में घंटा बजाना शुरू किया। आजकल फ़सल के दिन हैं। रोज़ पूजा होती है। जादोराय खाट पर बैठ नारियल पी रहे थे। शिवगौरी रास्ते में खड़ी उन बैलों को कोस रही थी, जो उसके भूमिस्थ विशाल भवन का निरादर करके उसे रौंदते चले जाते थे। घड़ियाल और घंटे की आवाज़ सुनते ही जादोराय भगवान् का चरणामृत लेने के लिए उठे ही थे कि उन्हें अकस्मात् एक नवयुवक दिखाई पड़ा, जो भूँकते हुए कुत्तों को दुतकारता, बाइसिकल को आगे बढ़ाता हुआ चला आ रहा था। उसने उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। जादोराय ने ग़ौर से देखा और तब दोनों एक दूसरे से लिपट गए। माधो भौंचक होकर बाइसिकल को देखने लगा। शिवगौरी रोती हुई घर में भागी और देवकी से बोली -- दादा को साहब ने पकड़ लिया है। देवकी घबरायी हुई बाहर आयी। साधो उसे देखते ही उसके पैरों पर गिर पड़ा। देवकी लड़के को छाती से लगाकर रोने रगी। गाँव के मर्द, औरतें और बच्चे सब जमा हो गए। मेला-सा लग गया।

साधो ने अपने माता-पिता से कहा -- मुझ अभागे से जो कुछ अपराध हुआ हो, उसे क्षमा कीजिए। मैंने अपनी नादानी से स्वयं बहुत कष्ट उठाए और आप लोगों को भी दुःख दिया, लेकिन अब मुझे अपनी गोद में लीजिए।

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देवकी ने रोकर कहा -- जब तुम हमको छोड़कर भागे थे तो हम लोग तुम्हें तीन दिन तक, बेदाना-पानी के ढूँढ़ते रहे, पर जब निराश हो गए, तब अपने भाग्य को रोकर बैठ रहे। तब से आज तक कोई ऐसा दिन न गया होगा कि तुम्हारी सुधि न आयी हो। रोते-रोते एक युग बीत गया, अब तुमने ख़बर ली है। बताओ बेटा! उस दिन तुम कैसे भागे और कहाँ जाकर रहे?

साधो ने लज्जित होकर उत्तर दिया -- माताजी, अपना हाल क्या कहूँ? मैं पहर रात रहे, आपके पास से उठकर भागा। पादरी साहब के पड़ाव का पता शाम ही को पूछ लिया था। बस, पूछता हुआ दोपहर को उनके पास पहुँच गया। साहब ने मुझे पहले समझाया कि अपने घर लौट जाओ, लेकिन जब मैं किसी तरह राज़ी न हुआ तो उन्होंने मुझे पूना भेज दिया। मेरी तरह वहाँ सैकड़ों लड़के थे। वहाँ बिस्कुट और नारंगियों का भला क्या ज़िक्र! जब मुझे आप लोगों की याद आती, मैं अक्सर रोया करता। मगर बचपन की उम्र थी, धीरे-धीरे उन्हीं लोगों से हिल-मिल गया। हाँ, जब से कुछ होश हुआ और अपना-पराया समझने लगा हूँ, तब से अपनी नादानी पर हाथ मलता रहा हूँ। रात-दिन आप लोगों की रट लगी हुई थी। आज आप लोगों के आशीर्वाद से यह शुभ दिन देखने को मिला। दूसरों में बहुत दिन काटे, बहुत दिनों तक अनाथ रहा। अब मुझे अपनी सेवा में रखिए। मुझे अपनी गोद में लीजिए। मैं प्रेम का भूखा हूँ। बरसों से मुझे जो सौभाग्य नहीं मिला, वह अब दीजिए।

गाँव के बहुत से बूढ़े जमा थे। उनमें से जगतसिंह बोले -- तो क्यों बेटा, तुम इतने दिनों तक पादरियों के साथ रहे! उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा?

साधो ने सिर झुकाकर कहा -- जी हाँ, यह तो उनका दस्तूर ही है।

जगतसिंह ने जादोराय की तरफ़ देखकर कहा -- यह बड़ी कठिन बात है।

साधो बोला -- बिरादरी मुझे जो प्रायश्चित बतलावेगी, मैं उसे करूँ गा। मुझसे जो कुछ बिरादरी का अपराध हुआ है, नादानी से हुआ है लेकिन मैं उसका दंड भोगने के लिए तैयार हूँ।

जगतसिंह ने फिर जादोराय की तरफ़ कनखियों से देखा और गंभीरता से बोले -- हिंदू धर्म ऐसा कभी नहीं हुआ है। यों तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के हो, मगर बिरादरी कभी इस काम में शरीक न होगी। बोलो जादोराय, क्या कहते हो, कुछ तुम्हारे मन की भी तो सुन लें।

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जादोराय बड़ी द्विविधा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीति थी, दूसरी ओर बिरादरी का भय मारे डालता था। जिस लड़के के लिए रोते-रोते आँखें फूट गईं, आज वही सामने खड़ा, आँखों में आँसू भरे कहता है, पिता जी! मुझे अपनी गोद में लीजिए और मैं पत्थर की तरह अचल खड़ा हूँ। शोक! इन निर्दयी भाइयों को किस तरह समझाऊँ, क्या करूँ, क्या न करूँ।

लेकिन माँ की ममता उमड़ आयी, देवकी से न रहा गया। उसने अधीर होकर कहा -- मैं अपने लाल को अपने घर रखूँगी और कलेजे से लगाऊँगी। इतने दिनों के बाद मैंने उसे पाया है, अब उसे नहीं छोड़ सकती।

जगतसिंह रुष्ट होकर बोले -- चाहे बिरादरी छूट ही क्यों न जाय?

देवकी ने भी गरम होकर जवाब दिया -- हाँ, चाहे बिरादरी छूट ही जाय। लड़के-बालों ही के लिए आदमी आड़ पकड़ता है। जब लड़का ही न रहा तो भला बिरादरी किस काम आवेगी?

इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आँखें निकालकर बोले -- ठकुराइन! बिरादरी की तो तुम ख़ूब मर्यादा करती हो। लड़का चाहे किसी रास्ते पर जाय, लेकिन बिरादरी चूँ तक न करे! ऐसी बिरादरी कहीं और होगी! हम साफ़-साफ़ कहे देते हैं कि अगर यह लड़का तुम्हारे घर में रहा, तो बिरादरी भी बता देगी कि वह क्या कर सकती है?

जगतसिंह कभी-कभी जादोराय से रुपये उधार लिया करते थे। मधुर स्वर से बोले -- भाभी! बिरादरी थोड़े ही कहती है कि तुम लड़के को घर से निकाल दो। लड़का इतने दिनों के बाद घर आया है, हमारे सिर आँखों पर रहे। बस, ज़रा खाने-पीने और छूत-छात का बचाव बना रहना चाहिए। बोलो जादो भाई! अब बिरादरी को कहाँ तक दबाना चाहते हो?

जादोराय ने साधो की तरफ़ करुणा-भरे नेत्रों से देखकर कहा -- बेटा! जहाँ तुमने हमारे साथ इतना सलूक किया है, वहाँ जगत भाई की इतनी कही और मान लो।

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साधो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में कहा -- क्या मान लूँ? यही कि अपनों में ग़ैर बनकर रहूँ, अपमान सहूँ, मिट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाय! न, यह मेरा किया न होगा, मैं इतना निर्लज्ज नहीं हूँ। जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक़्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाय, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं। चिढ़कर बोले -- इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी।

साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ी। बोला -- आपका लड़का हूँ। आपके लड़के की तरह रहूँगा। आपके प्रेम और भक्ति की प्रेरणा मुझे यहाँ तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूँ। अगर यह नहीं है तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से भाग जाऊँ। जिनका ख़ून सफ़ेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है।

देवकी ने रोकर कहा -- लल्लू, मैं तुम्हें अब न जाने दूँगी।

साधो की आँखें भर आयीं, पर मुस्कुराकर बोला -- मैं तो तेरी थाली में खाऊँगा।

देवकी ने उसे ममता और प्रेम की दृष्टि से देखकर कहा -- मैंने तो तुझे छाती से दूध पिलाया है, तू मेरी थाली में खायगा तो क्या? मेरा बेटा ही तो है, कोई और तो नहीं हो गया!

साधो इन बातों को सुनकर मतवाला हो गया। इनमें कितना स्नेह, कितना अपनापन था। बोला -- माँ, आया तो मैं इसी इरादे से था कि अब कहीं न जाऊँगा, लेकिन बिरादरी ने मेरे कारण यदि तुम्हें जाति-च्युत कर दिया तो मुझसे न सहा जायगा। मुझसे इन गँवारों का कोरा अभिमान न देखा जायगा, इसलिए इस वक़्त मुझे जाने दो। जब मुझे अवसर मिला करेगा, तुम्हें देख जाया करूँगा। तुम्हारा प्रेम मेरे चित्त से नहीं जा सकता। लेकिन यह असभ्भव है कि मैं इस घर में रहूँ और अलग खाना खाऊँ, अलग बैठूँ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।

देवकी घर में से पानी लायी। साधो हाथ-मुँह धोने लगा। शिवगौरी ने माँ का इशारा पाया, तो डरते-डरते साधो के पास गयी। साधो ने आदरपूर्वक दंडवत की। साधो ने पहले उन दोनों को आश्चर्य से देखा, फिर अपनी माँ को मुस्कुराते देखकर समझ गया। दोनों लड़कों को छाती से लगा लिया और तीनों भाई-बहिन प्रेम से हँसने-खेलने लगे। माँ खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी।

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जलपान करके साधो ने बाइसिकल संभाली और माँ-बाप के सामने सिर झुकाकर चल खड़ा हुआ। वहीं, जहाँ से तंग होकर आया था, उसी क्षेत्र में, जहाँ कोई अपना न था!

देवकी फूट-फूटकर रो रही थी और जादोराय आँखों में आँसू भरे, हृदय में एक ऐंठन-सी अनुभव करता हुआ सोचता था, हाय! मेरे लाल, तू मुझसे अलग हुआ जाता है। ऐसा योग्य और होनहार लड़का हाथ से निकला जाता है और केवल इसलिए कि अब हमारा ख़ून सफ़ेद हो गया है।