p.280

लोकमत का सम्मान

बेचू धोबी को अपने गाँव और घर से उतना ही प्रेम था, जितना प्रत्येक मनुष्य को होता है। उसे रूखी-सूखी और आधे पेट खाकर भी अपना गाँव समग्र संसार से प्यारा था। यदि उसे वृद्धा किसान स्त्रियों की गालियाँ खानी पड़ती थीं तो बहुओं से {बेचू दादा} कहकर पुकारे जाने का गौरव भी प्राप्त होता था। आनंद और शोक के प्रत्येक अवसर पर उसका बुलावा होता था, विशेषतः विवाहों में तो उसकी उपस्थिति वर और वधू से कम आवश्यक न थी। उसकी स्त्री घर में पूजी जाती थी, द्वार पर बेचू का स्वागत होता था। वह पेशवाज पहने कमर में घंटियाँ बाँधे साजिंदों को साथ लिये एक हाथ मृदंग और दूसरा अपने कान पर रखकर जब तत्काल रचित विरहे और बोल कहने लगता, तो आत्मसम्मान से उसकी आँखें उन्मत्त हो जाती थीं। हाँ, धेले पर कपड़े धोकर भी वह अपनी दशा से संतुष्ट रह सकता था, किंतु जमींदार के नौकरों की क्रूरता और अत्याचार कभी-कभी इतने असह्य हो जाते थे कि उसका जि गाँव छोड़कर भाग जाने को चाहने लगता था। गाँव में कारिंदा साहब के अतिरिक्त पाँच-छह चपरासी थे। उनके सहवासियों की संख्या कम न थी। बेचू को इन सज्जनों के कपड़े मुफ़्त धोने पड़ते थे। उसके पास इस्तरी न थी। उनके कपड़ों पर इस्तरी करने के लिए उसे दूसरे-दूसरे गाँव के धोबियों की चिरौरी करनी पड़ती थी। अगर कभी बिना इस्तरी किए ही कपड़े ले जाता तो उसकी शामत आ जाती थी। मार पड़ती, घंटों चौपाल के सामने खड़ा रहना पड़ता, गालियों की वह बौछार पड़ती कि सुननेवाले कानों पर हाथ रख लेते, उध गुजरनेवाली स्त्रियाँ लज्जा से सिर झुका लेतीं।

जेठ का महीना था। आस-पास की ताल-तलैयाँ सब सूख गई थीं। बेचू को पहर रात रहते दूर के एक ताल पर जाना पड़ता था। यहाँ भी धोबियों की ओसरी बँधी हुई थी। बेचू की ओसरी पाँचवें दिन पड़ती थी। पहर रात रहे, लादी लादकर ले जाता। मगर जेठ की धूप में ९-१० बजे के बाद खड़ा न हो सकता। आधी लादी भी न धुल पाती, बिना धुले कपड़े समेटकर घर चला आता। गाँव के सरल जजमान उसकी विपत्ति-कथा सुनकर शांत हो जाते थे; न कोई गालियाँ देता, न मारने दौड़ता। जेठ की धूप में उनहें भी पुर चलाना और खेत गोड़ना पड़ता था। अपने पैरों में बिवाय फटी थी, उसकी पीर जानते थे। परंतु कारिंदा महाशय को प्रसन्न करना इतना सहज न था। उनके आदमी नित्य बेचू के सिर पर सवार रहते थे। वह बड़ी गंभीरता से कहते -- {तू एक एक अठवारे तक कपड़े नहीं लाता, क्या यह भी कोई जोड़े के दिन हैं? आजकल पसीने से दूसरे दिन कपड़े मैले हो जाते हैं, कपड़ों से बू आने लगती है और तुझे कुछ भी परवाह नहीं रहती।} बेचू हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह उन्हें मनाता रहता था, यहाँ तक कि एक बार उसे बातें करते ९ दिन हो गए और कपड़े तैयार न हो सके। धुल हो गए थे, पर इस्तरी न हुई थी। अंत में विवश होकर बेचू दसवें दिन कपड़े लेकर चौपाल पहुँचा। मारे डर के पैर आगे न उठते थे। कारिंदा साहब उसे देखते ही क्रोध से लाल हो गए। बोले -- क्यों बे पाजी, तुझे गाँव में रहना है कि नहीं?

p.281

बेचू ने कपड़ों की गठरी तख्त पर रख दी और बोला -- क्या करूँ सरकार, कहीं भी पानी नहीं है और न मेरे इस्तरी है।

कारिंदा -- पानी तेरे पास नहीं है और सारी दुनिया में है। अब तेरा इलाज इसके सिवाय और कुछ नहीं है कि गाँव से निकाल दूँ। शैतान, दाई से पेट छिपाने चला है, कपड़े दूसरों को बारात करने के लिए देता है, उस पर बहाने बताता है, पानी नहीं, इस्तरी नहीं।

बेचू -- मालिक, गाँव आपका है, चाहे रहने दें, चाहे निकाल दें, लेकिन यह कलंक न लगाएँ, इतनी उमिर आप ही लोगों की खिदमत करते हो गई, पर जाहे कितनी ही भूल-चूक हुई हो, कभी नीयत बद नहीं हुई! अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने कभी ग्राहकों के साथ ऐसी चाल चली है तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यह दस्तूर शहर के धोबियों का है।

निरंकुशता का तर्क से विरोध है। कारिंदा साहब ने कुछ और अपशब्द कहे। बेचू ने भी न्याय और दया की दुहाई दी। फल यह हुआ कि उसे आठ दिन हल्दी और गुड़ पीना पड़ा। नवें दिन उसने सब गाहकों के कपड़े जैसे-तैसे धो दिए, अपना बोरिया-बँधना सँभाला और बिना किसी से कुछ कहे-सुने रात को पटने की राह ली। अपने पुराने गाहकों से विदा होने के लिए जितने धैर्य की ज़रूरत थी, उससे वह वंचित था।

p.282

बेचू शयर में आया तो ऐसा जान पड़ा कि मेरे लिए पहले से हि जगह खाली थी। उसे केवल एक कोठरी किराये पर लेनी पड़ी और काम चल निकला। पहले तो वह किराया सुनकर चकराया। देहात में तो उसे महीने भर में इतनी धुलाई भी न मिलती थी, पर जब धुलाई की दर मालूम हुई तो किराये की अखर मिट गई। एक ही महीने में ग्राहकों की संख्या उसकी गणना-शक्ति से अधिक हो गई। यहाँ पानी की कमी न थी। वह वादे का पक्का था। अभी नागरिक-जीवन के कुसंस्कारों से मुक्त था। कभी-कभी उसकी एक दिन की मजदूरी देहात की वार्षिक आय से बढ़ जाती थी।

लेकिन तीन ही चार महीने में उसे शहर की हवा लगने लगी। पहले नारियल पीता था; अब एक गुड़गुड़ी लाया। नंगे पाँव जूते से वेष्टित हो गए और मोटे अनाज से पाचन क्रिया में विघ्न पड़ने लगा। पहले कभी-कभी तीज-त्योहार के दिन शराब पी लिया करता था, अब थकान मिटाने के लिए नित्य उसका सेवन होने लगा। स्त्री को आभूषणों की चाट पड़ी। और धोबिनें बन-ठनकर निकलती हैं, मैं किससे कम हूँ। लड़के खोंचे पर लट्टू हुए, हलवे और मूँगफली की आवाज़ सुनकर अधीर हो जाते। उधर मकान के मालिक ने किराया बढ़ा दिया; भूसा और खली भी मोतियों के मोल बिकती थी, लादी के दोनों बैलों का पेट भरने में एक खासी रकम निकल जाती थी। अतएव पहले के महीनों में जो बचत हो जाती थी, वह अब गायब हो गई। कभी-कभी खर्च का पलड़ा भारी हो जाता; लेकिन किफायत करने की कोई विधि समझ में न आती थी। निदान स्त्री ने बेचू की नज़र बचाकर गाहकों के कपड़े पछाई देने शुरू किए। बेचू को यह बात मालूम हुई तो बिगड़कर बोला -- अगर मैंने फिर यह शिकायत सुनी तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसी इलजाम पर तो मैंने बाप-दादे का गाँव छोड़ दिया। यहाँ से भी निकालना चाहती है क्या?

p.283

स्त्री ने उत्तर दिया -- तुम्हीं से तो एक दिन भी दारू के बिना नहीं रहा जाता। मैं क्या पैसे लाकर लुटाती हूँ। जो खर्च लगे वह देते जाओ। मुझे इससे कुछ मिठाई थोड़े ही मिलती है?

पर शनैः-शनैः नैतिक ज्ञान ने आवश्यकता के सामने सिर झुकाना शुरू किया। एक बार उसे कई दिन तक ज्वर आया। स्त्री उसे डोली पर बिठाकर वैद्यजी के यहाँ ले गई। वैद्यजी ने नुसखा लिख दिया। घर में पैसे न थे। बेचू स्त्री को कातर नेत्रों से देखकर बोला -- तो क्या होगा? दवा मँगानी ही है?

स्त्री -- जो कहो वह करूँ।

बेचू -- किसी से उधार न मिलेगा?

स्त्री -- सबसे तो उधार ले चुकी। मुहल्ले में राह चलना मुश्किल है। अब किससे लूँ? अकेले जितना काम हो सकता है, करती हूँ। अब छाती फाड़के मर थोड़ी ही जाऊँगा? कुछ पैसे ऊपर से मिल जाते थे, लेकिन तुमसे उसकी मनाही कर दी है। तो मेरा क्या बस है? दो दिन से बैल भूखे खड़े हैं। दो रुपये हों तो इनका पेट भरे।

बेचू -- अच्छा, जो तेरे जी में आये कर, किसी तरह काम तो चला। मुझे मालूम हो गया कि शहर में अच्छी नीयतवाले आदमी का निर्वाह नहीं हो सकता।

उस दिन से यहाँ अन्य धोबियों की नीति का व्यवहार होने लगा।

बेचू के पड़ोस में एक वकील के मुहर्रिर मुंशी दाताराम रहा करते थे। बेचू कभी-कभी अवकाश के समय उनके पास जा बैठता। पड़ोस की बात थी, धुलाई का कोई हिसाब-किताब न था। मुंशीजी बेचू की ख़ातिर करते, अपनी चिलम उतारकर उसकी तरफ़ बढ़ा देते, कभी घर में कोई अच्छी चीज़ पकती तो बेचू के लड़कों के लिए भेजवा देते। हाँ, इसका विचार रखते थे कि इन सत्कारों का मूल्य धुलाई के पैसे से बढ़ने न पाए।

गर्मियों के दिन थे, बरातों की धूम थी। मुंशीजी को एक बरात में शरीक होना था। गुड़गुड़ी के लिए पेचवान बनवाया, रोगनी चिलम लाए, सलेमशाही जूते खरीदे, अपने वकील साहब के घर से एक कालीन मँगनी लाये, अपने मित्र से सोने की अँगूठी और बटन लिये। इन सामग्रियों से एकत्रित करने में ज़्यादा कठिनाई न पड़ी, किंतु कपड़े मँगनी लेते हुए शर्म आती थी। बरात के योग्य कपड़े बनवाने की गुंजाइश न थी। तनजेब के कुरते, रेशमी अचकन, नैन-सुख का चुन्नटदार पायजामा, बनारसी साफ़ा बनवाना आसान न था। खासी रकम लगती थी। रेशमी किनारे की धोतियाँ और काशी सिल्क की चादर खरीदनी भी कठिन समस्या थी। कई दिनों तक बेचारे इसी चिंता में पड़े रहे। अंत में बेचू के सिवाय और कोई इस चिंता का निवारण करनेवाला न दिखाई दिया। संध्या समय जब बेचू उनके पास आकर बैठा तो बड़ी नम्रता से बोले -- {{बेचू, एक बरात में जाना था। और सब सामान तो मैंने जमा कर लिए हैं, मगर कपड़े बनवाने में झंझट है। रुपयों की तो कोई चिंता नहीं, तुम्हारी दया से हाथ कभी खाली नहीं रहता। पेशा भी ऐसा कि जो कुछ मिल जाय, वह थोड़ा है। एक न एक आँख का अंधा, गाँठ का पूरा नित्य फँसा ही रहता है, पर जानते हो, आजकल लग्न की तेजी है। दरजियों को सिर उठाने की फुरसत नहीं, दूनी सिलाई लेते हैं, तिस पर भी महीनों दौड़ाते हैं। अगर तुम्हारे यहाँ मेरे लायक कपड़े हों तो दो-तीन दिन के लिए दे दो, किसी तरह सिर से यह बला टले। नेवता दे देने में किसी का क्या खर्च होता है, बहुत किया तो पत्र छपवा लिये, लेकिन लोग यह नहीं सोचते कि बरातियों को कितनी तैयारियाँ करनी पड़ती हैं, क्या-क्या कठिनाइयाँ पड़ती हैं। अगर बिरादरी में यह रिवाज हो जाता कि जो महाशय निमंत्रण भेजें, वही उसके लिए सब सामान भी जुटाएँ तो लोग इतनी बेपरवाही से नेवते न दिया करते। तो बोलो -- इतनी मदद करोगे न?}}

p.284

बेचू ने मुरौवत में पड़कर कहा -- मुंशीजी, आपके लिए किसी बात से इनकार थोड़ी ही है। लेकिन बात यह है कि आजकल लगन की तेजी से सभी गाहक अपने-अपने कपड़ों की जल्दी मचा रहे हैं, दिन में दो-तीन बेर आदमी भेजते हैं। ऐसा न हो, इधर आपको कपड़े दे दूँ, उधर कोई जल्दी मचाने लगे।

मुंशीजी -- अजी, दो-तीन दिन के लिए टालना कौन बड़ा काम है। तुम चाहो तो हफ़्तों टाल सकते हो, अभी भट्ठी नहीं दी, अभी इस्तरी नहीं हुई, घाट बंद है। तुम्हारे पास बहानों की क्या कमी है। पड़ोस में रहकर मेरी खातिर से इतना भी न करोगे?

बेचू -- नहीं मुंशीजी, आपके लिए जान हाज़िर है। चलिए, कपड़े पसंद कर लीजिए तो मैं उन पर और एक बेर इस्तरी करके ठीक कर दूँ। यही न होगा, गाहकों की घुड़कियाँ खानी पड़ेंगी। दो-चार गाहक टूट भी जायँगे तो कौन गम है!

p.285

मुंशी दाताराम ठाट से बारात में पहुँचे। वहाँ उनके बनारसी साफ़े, रेशमी अचकन और रेशमी चादर ने ऐसा रंग जमाया कि लोग समझने लगे, यह कोई बड़े रईस हैं। बेचू भी उनके साथ हो लिया था। मुंशीजी उसकी बड़ी खातिर कर रहे थे। उसे एक बोतल शराब दिला दी, भोजन करने गये तो एक पत्तल उसके वास्ते भी लेते आए। बेचू के बदले उसे चौधरी कहकर पुकारते थे। यह सारा ठाट-बाट उसी की बदौलत जो था।

आधी रात गुज़र चुकी थी। महफिल उठ गई थी। लोग सोने की तैयारियाँ कर रहे थे। बेचू मुंशीजी की चारपाई के पास एक चादर ओढ़े पड़ा था। मुंशीजी ने कपड़े उतारे और बड़ी सावधानी से अलगनी पर लटका दिए। हुक्का तैयार था, लेटकर पीने लगे कि अकस्मात् साजिंदों में एक अताई आकर सामने खड़ा हो गया और बोला -- कहिए हज़रत, यह अचकन और साफ़ा आपने कहाँ पाया?

मुंशीजी ने उसकी ओर सशंक नेत्रों से देखकर कहा -- इसका क्या मतलब?

अताई -- इसका मतलब यह है, यह दोनों चीजें मेरी हैं।

मुंशीजी ने दुस्साहसपूर्ण भाव से कहा -- क्या तुम्हारे ख्याल में रेशमी अचकन और साफ़ा तुम्हारे सिवाय और किसी के पास हो ही नहीं सकता!

अताई -- हो क्यों नहीं सकता। अल्लाह ने जिसे दिया है, वह पहनता है। एक से एक पड़े हुए हैं। मैं किस गिनती में हूँ। लेकिन यह दोनों चीज़ें मेरी हैं। अगर ऐसी अचकन शहर में किसी के पास निकल आये तो जो जरीवाना कहिए दूँ। मैंने इसकी सिलाई दस रुपये दिए हैं। ऐसा कोई कारीगर ही शहर में नहीं। ऐसी तराश करता है कि हाथ चूम लें। साफ़े पर भी मेरा निशान बना हुआ है, लाइए दिखा दूँ। मैं आपसे महज़ इतना पूछना चाहता हूँ कि आपने यह चीज़ें कहाँ पाईं।

मुंशीजी समझ गए कि अब अधिक तर्क-वितर्क का स्थान नहीं है। कहीं बात बढ़ जाय तो बेइज्जती हो। कूटनीति से काम न चलेगा। नम्रता से बोले -- भाई, यह न पूछो, यहाँ इन बातों के कहने का मौका नहीं है। हमारी और तुम्हारी इज़्ज़त एक है। बस, इतना ही समझ लो कि इसी तरह दुनियाँ का काम चलता है। अगर ऐसे कपड़े बनवाने बैठता तो इस वक़्त सैकड़ों के माथे जाती। यहाँ तो किसी तरह नवेद में शरीक होना था। तुम्हारे कपड़े खराब न होंगे, इसका ज़िम्मा मेरा। मैं इनकी एहतियात अपने कपड़ों से भी ज़्यादा करता हूँ।

p.286

अताई -- कपड़े की मुझे फिकर नहीं, आपकी दुआ से अल्लाह न बहुत दिया है। रईसों को खुदा सलामत रखे, उनकी बदौलत पाँचों अंगुलियाँ घी में हैं। न मैं आपको बदनाम करना चाहता हूँ। आपकी जूतियों का गुलाम हूँ। मैं सिर्फ़ इतना जानना चाहता था कि यह कपड़े आपने किससे पाए। मैंने बेचू धोबी को धोने के लिए दिए थे। ऐसा तो नहीं हुआ कि कोई चोर बेचू के घर से उड़ा लाया हो, या किसी धोबी ने बेचू के घर से चुराकर आपको दे दिए हों, क्योंकि बेचू ने अपने हाथ से आपको हरगिज़ कपड़े न दिए होंगे। वह ऐसा छिछोरापन नहीं करता। मैं खुद उससे इस तरह का मुआमला करना चाहता था, हाथों पर रुपए रखे देता था, पर उसने कभी परवा न की। साहब, रुपए उठाकर फेंक दिए और ऐसी डाँट बताई कि मेरे होश उड़ गए। इधर का हाल मैं नहीं जानता, क्योंकि अब मैं उससे कभी ऐसी बातचीत ही नहीं करता। पर मुझे यकीन नहीं आता कि वह इतना बददियानत हो गया होगा। इसलिए आपसे बार-बार पूछता हूँ कि आपने यह कपड़े कहाँ पाए?

मुंशीजी -- बेचू की निस्बत तुम्हारा जो ख़याल है, वह बिलकुल ठीक है। वह ऐसा ही बेगरज आदमी है, लेकिन भाई, पड़ोस का भी तो कुछ हक होता है। मेरे पड़ोस में रहता है, आठों पहर का साथ है। इधर से भी कुछ न कुछ सलूक होता ही रहता है। मेरी ज़रूरत देखी, पसीज गया। बस और कोई बात नहीं।

अताई ने बेचू निस्पृहता के विषय में बड़ी अतिशयोक्ति से काम लिया था। न उसने बेचू के हाथ पर रुपए रखे थे और न बेचू ने कभी उसे डाँट बताई थी। पर इस अतिशयोक्ति का प्रभाव बेचू पर उससे कहीं ज़्यादा पड़ा, जितना केवल बात को यथार्थ कह देने से पड़ सकता था। बेचू नींद में न सोया था। अताई की एक-एक बात उसने सुनी थी। उसे ऐसा जान पड़ता था कि मेरी आत्मा किसी गहरी नींद से जाग रही है। दुनिया मुझे कितना ईमानदार, कितना सच्चा, कितना निष्कपट समझती है और मैं कितना बेईमान, कितना दगाबाज हूँ। इसी झूठे इलजाम पर मैंने वह गाँव छोड़ा, जहाँ बाप-दादों से रहता आया था। लेकिन यहाँ आकर दारू-शराब, घी-चीनी के पीछे तबाह हो गया।

p.287

बेचू यहाँ से लौटा तो दूसरा ही मनुष्य हो गया था या यों कहिए कि वह फिर अपनी खोई हुई आत्मा को पा गया।

छह महीने बीत गए। संध्या का समय था। बेचू के लड़के मलखान के ब्याह की बातचीत करने के लिए मेहमान लोग आए हुए थे। बेचू स्त्री से कुछ सलाह करने के लिए घर में आया तो वह बोली -- दारू कहाँ से आएगी? तुम्हारे पास कुछ है?

बेचू -- मेरे पास जो कुछ था, वह तुम्हें पहले ही नहीं दे दिया था?

स्त्री -- उससे तो मैं चावल, दाल, घी यह सब सामान लायी। सात आदमियों का खाना बनाया है। सब उठ गए।

बेचू -- तो फिर मैं क्या करूँ?

स्त्री -- बिना दारू लिये वह लोग भला खाने उठेंगे? कितनी नामूसी होगी।

बेचू -- नामूसी हो चाहे बदनामी हो, दारू लाना मेरे बस की बात नहीं। यही न होगा, ब्याह न ठीक होगा, न सही।

स्त्री -- वह दुशाला धुलने के लिए नहीं आया है? न हो किसी बनिए के यहाँ गिरवीं रखकर चार-पाँच रुपए ले आओ, दो-तीन दिन में छुड़ा लेना, किसी तरह मरजाद तो निभानी चाहिए? सब कहेंगे, नाम बड़े दरसन थोड़े। दारू तक न दे सका।

बेचू -- कैसी बात करती है। यह दुशाला मेरा है?

p.288

स्त्री -- किसी का हो, इस बखत काम निकाल लो। कौन किसी से कहने जाता है।

बेचू -- न, यह मुझसे न होगा, चाहे दारू मिले या न मिले।

बेचू यह कहकर बाहर चला आया। दोबारा भीतर गया तो देखा स्त्री ज़मीन से खोदकर कुछ निकाल रही है। उसे देखते ही गड्ढे को आँचल से छिपा लिया!

बेचू मुस्कराता हुआ बाहर चला आया।