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सुहाग की साड़ी

यह कहना भूल है कि दांपत्य-सुख के लिए स्त्री-पुरुष के स्वभाव में मेल होना आवश्यक है। श्रीमती गौरा और श्रीमान् कुँवर रतनसिंह में कोई बात न मिलती थी। गौरा उदार थी, रतनसिंह कौड़ी-कौड़ी को दाँतों से पकड़ते थे। वह हँसमुख थी, रतनसिंह चिंताशील थे। वह कुल-मर्यादा पर जान देती थी, रतनसिंह इसे आडंबर समझते थे। उनके सामाजिक व्यवहार और विचार में भी घोर अंतर था। यहाँ उदारता की बाजी रतनसिंह के हाथ थी। गौरा को सहभोज से आपत्ति थी, विधवा-विवाह से घृणा और अछूतों के प्रश्न से विरोध। रतनसिंह इन सभी व्यवस्थाओं के अनुमोदक थे। राजनीतिक वुषयों में यह विभिन्नता और भी जटिल थी! गौरा वर्तमान स्थिति को अमर, अटल, अपरिहार्थ्य समझती थी, इसलिए वह नरम-गरम, कांग्रेस, स्वराज्य, होमरूल सभी से विरक्त थी। कहती -- {{ये मुट्ठी भर पढ़े-लिखे आदमी क्या बना लेंगे, चने कहीं भाड़ फोड़ सकते हैं?}} रतनसिंह पक्के आशावादी थे, राजनीतिक-सभा की पहली पंक्तियों में बैठनेवाले, कर्मक्षेत्र में सबसे पहले कदम उठानेवाले, स्वदेश-व्रत-धारी और बहिष्कार के पूरे अनुयायी। इतनी विषमताओं पर भी उनका दांपत्य-जीवन सुखमय था। कभी-कभी उनमें मदभेद अवश्य हो जाता था, पर वे समीर के झोंके थे, जो स्थिर जल को हल्की-हल्की लहरों से आभूषित कर देते हैं; वे प्रचंड झोंके नहीं जिनसे सागर विप्लव-क्षेत्र बन जाता है। थोड़ी-सी सदिच्छा सारी विषमताओं और मतभेदों का प्रतिकार कर देती थी।

विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलायी जा रही थीं। स्वयंसेवकों के जत्थे भिखारियों की भाँति द्वारों पर खड़े हो-होकर विलायती कपड़ों की भिक्षा माँगते थे और कदाचित् ही कोई द्वार था, जहाँ उन्हें निराश होना पड़ता हो। खद्दर और गाढ़े के दिन फिर गए थे। नयनसुख नयनदुख, मलमल मनमल और तनजेब तनबेध हो गए थे। रतनसिंह ने आकर गौरा से कहा -- लाओ, अब सब विदेशी कपड़े संदूक से निकाल दो, दे दूँ।

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गौरा -- अरे, तो इसी घड़ी कोई साइत निकली जाती है, फिर कभी दे देना।

रतन -- वाह, लोग द्वार पर खड़े कोलाहल मचा रहे हैं और तुम कहती हो, फिर कभी दे देना।

गौरा -- तो यह कुंजी लो, निकालकर दे दो। मगर यह सब है लड़कों का खेल। घर फूँकने से स्वराज्य न कभी मिला है और न मिलेगा।

रतन -- मैंने कल ही तो इस विषय पर तुमसे घंटों सिरपच्ची की थी और उस समय तुम मुझसे सहमत हो गई थीं, आज तुम फिर वही शंकाएँ करने लगीं?

गौरा -- मैं तुम्हारे अप्रसन्न हो जाने के डर से चुप हो गई थी।

रतन -- अच्छा, शंकाएँ फिर कर लेना, इस समय जो करना है, वह करो।

गौरा -- लेकिन मेरे कपड़े तो न लोगे न?

रतन -- सब देने पड़ेंगे, विलायत का एक सूत भी घर में रखना मेरे प्रण को भंग कर देगा।

इतने में रामटहल साईस ने बाहर से पुकारा -- सरकार लोग जल्दी मचा रहे हैं, कहते हैं, अभी कई मुहल्लों का चक्कर लगाना है। कोई गाढ़े का टुकड़ा हो तो मुझे भी मिल जाय, मैंने भी अपते कपड़े दे दिए।

केसर महरी कपड़ों की गठरी लेकर बाहर जाती हुई दिखाई दी। रतनसिंह ने पूछा -- क्या तुम भी अपने कपड़े देने जाती हो?

केसर ने लजाते हुए कहा -- हाँ सरकार, जब देश छोड़ रहा है तो मैं कैसे पहनूँ?

रतनसिंह ने गौरा की और आदेशपूर्ण नेत्रों से देखा। अब वह विलंब न कर सकी। लज्जा से सिर झुकाए संदूक खोलकर कपड़े निकालने लगी। एक संदूक खाली हो गया तो उसने दूसरा संदूक खोला। सबसे ऊपर एक सुंदर रेशमी सूट रखा हुआ था, जो कुँवर साहब ने किसी आँगरेज़ी कारखाने में सिलाया था। गौरा ने पूछा -- क्या यह सूट भी निकाल दूँ?

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रतन -- हाँ, हाँ, इसे किस दिन के लिए रखोगी?

गौरा -- यदि मैं यह जानती कि इतनी जल्दी हवा बदलेगी, तो कभी यह सूट न बनवाने देती। सारे रुपये खून हो गए।

रतनसिंह ने कुछ उत्तर न दिया। तब गौरा ने अपना संदूक खोला और जलन के मारे स्वदेशी-विदेशी सभी कपड़े निकाल-निकालकर फेंकने लगी। वह आवेश-प्रवाह में आ गई। उनमें कितनी ही बहुमूल्य फैंसी जाकेट और साड़ियाँ थीं, जिन्हें किसी समय पहनकर वह फूली न समाती थी। बाज़-बाज़ साड़ियों के लिए तो उसे रतनसिंह से बार-बार तकाजे करते पड़े थे। पर इस समय सबकी सब आँखों में खटक रही थीं। रतनसिंह उसके भावों को ताड़ रहे थे। स्वदेशी कपड़ों का निकाला जाना उन्हें अखर रहा था, पर इस समय चुप रहने ही में कुशल समझते थे। तिस पर भी दो-एक बार वाद-विवाद की नौबत आ ही गई। एक बनारसी साड़ी के लिए तो वह झगड़ बैठे, उसे गौरा के हाथों से छीन लेना चाहा, पर गौरा ने एक न मानी, निकाल ही फेंका। सहसा संदूक में से एक केसरिया रंग की तंजेब की साड़ी निकल आई, जिस पर पक्के आँचल और पल्ले टँके हुए थे। गौरा ने उसे जल्दी से लेकर अपनी गोद में छिपा लिया।

रतनसिंह ने पूछा -- कैसी साड़ी है!

गौरा -- कुछ नहीं, तनजेब की साड़ी है। आँचल पक्का है।

रतन -- तनजेब की है तब तो ज़रूर ही। विलायती होगी। उसे अलग क्यों रख लिया? क्या वह बनारसी साड़ियों से अच्छी है?

गौरा -- अच्छी तो नहीं है, पर मैं इसे न दूँगी।

रतन -- वाह, इस विलायती चीज़ को मैं न रखने दूँगा। लाओ इधर।

गौरा -- नहीं, मेरी खातिर से इसे रहने दो।

रतन -- तुमने मेरी खातिर से एक भी चीज़ न रखी, मैं क्यों तुम्हारी खातिर करूँ?

गौरा -- पैरों पड़ती हूँ, जिद न करो।

रतन -- स्वदेशी साड़ियों में से जो चाहो रख लो, लेकिन इस विलायती चीज़ को मैं न रखने दूँगा। इसी कपड़े की बदौलत हम गुलाम बने, यह गुलामी का दाग मैं अब नहीं रख सकता। लाओ इधर।

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गौरा -- मैं इसे न दूँगी, एक बार नहीं, हज़ार बार कहती हूँ कि न दूँगी।

रतन -- मैं इसे लेकर छोड़ूँगा, इस गुलामी के पटके को, इस दासत्व के बंधन को किसी तरह न रखूँगा।

गौरा -- नाहक जिद करते हो।

रतन -- आखिर तुमको इससे क्यों इतना प्रेम है?

रतन -- तुम तो बाल की खाल निकालने लगते हो। इतने कपड़े थोड़े हैं? एक साड़ी रख ही ली तो क्या?

रतन -- तुमने अभी तक इन होलियों का आशय ही नहीं समझा।

गौरा -- ख़ूब समझती हूँ। सब ढोंग है। चार दिन में जोश ठंडा पड़ा जायगा।

रतन -- तुम केवल इतना बतला दो कि यह साड़ी तुम्हें क्यों इतनी प्यारी है, तो शायद मैं मान जाऊँ।

गौरा -- यह मेरी सुहाग की साड़ी है।

रतन -- (ज़रा देर सोचकर) तब तो मैं इसे कभी न रखूँगा। मैं विदेशी वस्त्र को यह शुभस्थान नहीं दे सकता। इस पवित्र संस्कार का यह अपवित्र स्मृति-चिह्न घर में नहीं रख सकता। मैं इसे सबसे पहले होली की भेंट मारूँगा। लोग कितने हतबुद्धि हो गए थे कि ऐसे शुभ कार्यों में भी विदेशी वस्तुओं का व्यवहार करते में संकोच न करते थे। मैं इसे अवश्य होली में दूँगा।

गौरा -- कैसा असगुन मुँह से हिकालते हो।

रतन -- ऐसी सुहाग की साड़ी का घर में रखना ही अशकुन, अमंगल, अनिष्ट और अनर्थ है।

गौरा -- यों चाहे नबरदस्ती छीन ले जाओ, पर ख़ुशी से न दूँगी।

रतन -- तो फिर मैं जबरदस्ती ही करूँगा। मजबूरी है।

यह कहकर वह लपके कि गौरा के हाथों से साड़ी छीन लूँ।

गौरा ने उसे मजबूती से पकड़ लिया और रतन की ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा -- तुम्हें मेरे सिर की कसम।

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केसर महरी बोली -- बहूजी की इच्छा है तो रहने दीजिए।

रतनसिंह के बढ़े हुए हाथ रुक गए, मुख मलिन हो गया। उदास होकर बोले -- मुझे अपना व्रत तोड़ना पड़ेगा। प्रतिज्ञा-पत्र पर झूठे हस्ताक्षर करने पढ़ेंगे। ख़ैर, यही सही।

शाम हो गई थी। द्वार पर स्वयंसेवकगण शोर मचा रहे थे, कुँवर साहब जल्दी आइए, श्रीमतीजी से भी कह दीजिए, हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। बहुत देर हो रही है। उधर रतनसिंह असमंजस में पड़े हुए थे कि प्रतिज्ञा-पत्र पर कैसे हस्ताक्षर करूँ। विदेशी वस्त्र घर में रखकर स्वदेशी व्रत का पालन क्योंकर होगा? आगे कदम बढ़ा चुका हूँ, पीछे नहीं हट सकता। लेकिन प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन करना अभीष्ट भी तो नहीं, केवल उसके आशय पर लक्ष्य रहना चाहिए। इस विचार से मुझे प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने का पूरा अधिकार है। त्रियाहठ के सामने किसी की नहीं चलती। यों चाहूँ तो एक ताने में काम निकल सकता है, पर उसे बहुत दुःख होगा, बड़ी भावुक है। उसके भावों का आदर करना मेरा कर्त्तव्य है।

गौरा भी चिंता में डूबी हुई थी। सुहाग की साड़ी सुहाग का चिह्न है, उसे आग ॰॰॰ कितने अशकुन की बात है। ये कभी-कभी बालकों की भाँति जिद करने लगते हैं, अपनी धुन में किसी की सुनते नहीं। बिगड़ते हैं तो मानो मुँह नहीं सीधा होता।

लेकिन वे बेचारे भी तो अपने सिद्धांतों से मजबूर हैं। झूठ से उन्हें घृणा है। प्रतिज्ञा-पत्र पर झूठी स्वीकृति लिखानी पड़ेगी, उनकी आत्मा को बड़ा दुःख होगा, और धर्मसंकट में पड़े होंगे। यह भी तो नहीं हो सकता कि सारे शहर में स्वदेशानुरागियों के सिरसौर बनकर उस प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने से आना-कानी करें। कहीं मुँह दिखाने को जगह न रहेगी। लोग समझेंगे, बना हुआ है। पर शकुन की चीज़ कैसे दूँ?

इतने में उसने रामटहल सईस को सिर पर कपड़ों का गट्ठर लिये बाहर जाते देखा। केसर महरी भी एक गट्ठर सिर पर रखे हुए थी। पीछे-पीछे रतनसिंह हाथ में प्रतिज्ञा-पत्र लिये जा रहे थे। उनके चेहरे पर ग्लानि की झलक थी, जैसे कोई सच्चा आदमी झूठी गवाही देने जा रहा हो। गौरा को देखकर उन्होंने आँखें फेर लीं और चाहा कि उसकी निगाह बचाकर निकल जाऊँ। गौरा को ऐसा जान पड़ा कि उनकी आँखें डबडबाई हुई हैं। वह राह रोककर बोली -- ज़रा सुनते जाओ।

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रतन -- जाने दो, दिक न करो; लोग बाहर खड़े हैं।

उन्होंने चाहा कि पत्र को छिपा लूँ, पर गौरा ने उसे उनके हाथ से छीन लिया; उसे गौर से पढ़ा और एक क्षण चिंता-मग्न रहने के बाद बोली -- वह साड़ी भी लेते जाओ।

रतन -- रहने दो, अब तो मैंने झूठ लिख ही दिया।

गौरा -- मैं क्या जानती थी कि तुम ऐसी कड़ी प्रतिज्ञा कर रहे हो।

रतन -- यह तो मैं तुमसे पहले कह चुका था।

गौरा -- मेरी भूल थी, क्षमा कर दो और इसे लेते जाओ।

रतन -- जब तुम इसे देना असगुन समझती हो तो रहने दो। तुम्हारी खातिर थोड़ी-सी झूठ बोलने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

गौरा -- नहीं, लेते जाओ। अमंगल के भय से तुम्हारी आत्मा का हनन नहीं करना चाहती!

यह कहकर उसने अपनी सुहाग की साड़ी उठाकर पति के हाथों में रख दी। रतन ने देखा, गौरा के चेहरे पर एक रंग आता है, एक रंग जाता है, जैसे कोई रोगी अंतरस्थ विषम वेदना को दबाने की चेष्टा कर रहा हो। उन्हें अपनी अहृदयता पर लज्जा आयी। हा! केवल अपने सिद्धांत की रक्षा के लिए, अपनी आत्मा के सम्मान के लिए, मैं इस देवी के भावों का बघ कर रहा हूँ! यह अत्याचार है। साड़ी गौरा को देकर बोले -- तुम इसे रख लो, मैं प्रतिज्ञा-पत्र को फाड़े डालता हूँ।

गौरा ने दृढ़ता से कहा -- तुम न ले जाओगे तो मैं खुद जाकर दे आऊँगी।

रतनसिंह विवश हो गए। साड़ी ली और बाहर चले आए।

उसी दिन से गौरा के हृदय पर एक बोझ-सा रहने लगा। वह दिल बहलाने के लिए नाना उपाय करती; जलसों में भाग लेती, सैर करने जाती, मनोरंनक पुस्तकें पढ़ती, यहाँ तक कि कई बार नियम के विरुद्ध थिएटरों में भी गयी, किसी प्रकार अमंगल कल्पना को शांत करना चाहती थी, पर यह आशंका एक मेघ-मंडल की भाँति उसके हृदय पर छाई रहती थी।

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जब पूरा एक महीना गुजर गया और उसकी मानसिक वेदना दिनों-दिन बढ़ती ही गई, तो कुँवर साहब ने उसे कुछ दिनों के लिए अपने इलाके पर ले जाने का निश्चय किया। उनका मन उन्हें उनके आदर्श-प्रेम पर नित्य तिरस्कार किया करता था। वह अक्सर देहातों में प्रचार का काम करने जाया करते थे! पर अब अपने गाँव से बाहर न जाते या जाते तो संध्या तक ज़रूर लौट आते। उनकी एक दिन की देर उनका साधारण सिरदर्द और ज़ुकाम उसे अव्यवस्थित कर देते थे। वह बहुधा बुरे स्वप्न देखा करती। किसी अनिष्ट के काल्पनिक अस्तित्व की छाया उसे अपने चारों ओर मँडराती हुई प्रतीत होती थी।

वह तो देहात में पड़ी हुई आशंकाओं की कठपुतली बनी हुई थी। इधर उसकी सुहाग की साड़ी स्वदेशी-प्रेम की वेदी पर भस्म होकर ऋषि-प्रदायिनी भभूत बनी हुई थी।

दूसरे महीने के अंत में रतनसिंह उसे लेकर लौट आए।

गौरा को वापस आए तीन-चार दिन हो चुके थे, पर असबाब के सँभालने और नियत स्थान पर रखने में वह इतनी व्यस्त रही कि घर से बाहर न निकल सकी थी। कारण यह था कि केसर महरी उसके जाने के दूसरे ही दिन काम छोड़कर चली गई थी और अभी उतनी चतुर दूसरी महरी मिली न थी। कुँवर साहब का साईस रामटहल भी छोड़ गया था। बेचारे कोचवान को साईस का भी काम करना पड़ता था।

संध्या का समय था। गौरा बरामदे मैं बैठी आकाश की ओर एकटक होकर ताक रही थी। चिंताग्रस्त प्राणियों का एकमात्र यही अवलंब है! सहसा रतनसिंह ने आकर कहा -- चलो, आज तुम्हें स्वदेशी बाज़ार की सैर करा लावें। यह मेरा ही प्रस्ताव था; पर चार दिन यहाँ आये हो गए, इधर जाने का अवकाश ही न मिला।

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गौरा -- मेरा तो जाने को जी नहीं चाहता। यहीं बैठकर कुछ बातें करो।

रतन -- नहीं, चलो देख आवें। एक घटे में लौट आवेंगे।

अंत में गौरा राजी हो गई। इधर महीनों से वह बाहर न निकली थी! आज उसे चारों तरफ़ एक विचित्र शोभा दिखाई दी। बाज़ार कभी इतने रौनक पर न था। वह स्वदेशी बाज़ार में पहुँची तो जुलाहों और कोरियों को अपनी-अपनी दुकानें सजाए बैठे देखा। सहसा एक वृद्ध कोरी ने आकर रतनसिंह को सलाम किया। रतनसिंह चौंककर बोले -- रामटहल, तुम अब कहाँ हो?

रामटहल का चेहरा श्रीसंपन्न था। उसके अंग-अंग से आत्मसम्मान की आभा झलक रही थी। आँखों में गौरव-ज्योति थी। रतनसिंह को कभी अनुमान न हुआ था कि अस्तबल साफ़ करनेवाला बुड्ढा रामटहल इतना सौम्य, इतना भद्र पुरुष है। वह बोला -- सरकार, अब तो अपना कारबार करता हूँ। जब से आपकी गुलामी छोड़ी तब से अपने काम में लग गया। आप लोगों की निगाह हम गरीबों पर हो गई कि हमारा भी गुज़र हो रहा है, नहीं तो आप जानते ही हैं कि किस हालत में पड़ा हुआ था। जात का कोरी हूँ, पर पापी पेट के लिए चमार बन गया था।

रतन -- तो भाई, अब मुँह मीठा कराओ। यह बाज़ार लगाने की मेरी ही सलाह थी, बिक्री तो अच्छी होती है?

रामटहल -- हाँ, सरकार! आजकल ख़ूब बिक्री हो रही है। माल होथों-हाथ उड़ जाता है। यहाँ बैठते हुए एक महीना हो गया है, पर आपकी कृपा से लोगों के चार पैसे थे, वे बेबाक हो गए। भगवान् की दया से रूखा-सूखा भोजन भी दोनों समय मिल जाता है और क्या चाहिए। मलकिन की सुहाग की साड़ी का होली में आना कहिए और बाज़ार का चमकना कहिए। लोगों ने कहा, जब इतने बड़े आदमी होकर ऐसे शकुन की चीज़ की परवाह नहीं करते तो फिर हम विदेशी कपड़े क्यों रखें? जिस दिन होली जली है, उसके दो-तीन दिन पहले ही सरकार इलाके पर चले गए थे। उसके पहले भी सरकार कई दिनों तक घर से बहुत कम निकलते थे। मैं तो यही कहूँगा कि यह सारी माया उसी सुहाग की साड़ी की है।

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इतने में एक अधेड़ स्त्री गौरा के सामने आकर बोली -- बहूजी, मुझे भूल तो नहीं गईं?

गौरा ने सिर उठाया तो सामने केसर महरी उड़ी थी। वह सुंदर साड़ी पहने हुए थी, हाथ-पाँव में मामूली गहने भी थे, चेहरा खुला हुआ था। स्वाधीन जीवन का गौरव एक-एक भाव से प्रस्फुटित हो रहा था।

गौरा ने कहा -- इतनी जल्दी भूल जाऊँगी? अब कहाँ हो? हमें लौटने भी न दिया, बीच ही में उड़ भागी।

केसर -- क्या करूँ सरकार, अपना काम चलते देखकर सबर न हो सका। जब तक रोजगार न चलता था तब तक लाचारी थी। पेट के लिए सेवा-टहल, करम-कुरम, सभी करना पड़ता था। अब आप लोगों की दया से हमारे भी दिन लौटे हैं, अब दूसरा काम नहीं किया जाता। अगर बाज़ार का यही रंग रहा तो अपनी कमाई खाए न चुकेगी। यह सब आपकी साड़ी की महिमा है। उसकी बदौलत हम गरीबों के कितने ही घर बस गए। एक महीना पहले इन दूकानवालों में से किसी को रोटियों का ठिकाना न था। कोई साईसी करता था, कोई तासे बजाता था, यहाँ तक कि कई आदमी मेहतर का काम करते थे। कितने ही भीख माँगते थे। अब सब अपने धंधे में लग गए हैं। सच पूछो तो तुम्हारी सुहाग की साड़ी ने हमें सुहागिन बना दिया, नहीं तो हम सुहागिन होते हुए भी विधवाएँ थीं। सच कहती हूँ, सैकड़ों जबानों से नित्य यही दुआ निकलती है कि आपका सुहाग अमर हो, जिसने हमारी राँड जात को सुहाग दान दिया।

रतनसिंह एक दूकान पर बैठकर कुछ कपड़े देखने लगे। गौरा का भावुक-हृदय आनंद से पुलकित हो रहा था। उसकी सारी अमंगल कल्पनाएँ स्वप्नवत् विच्छिन्न होती जाती थीं! आँखे सजल हो गई थीं और सुहाग की देवी अश्रु-संचित नेत्रों के सामने खड़ी आँचल फैलाकर उसे आशीर्वाद दे रही थी।

उसने रतनसिंह को भक्तिपूर्ण आँखों से देखकर कहा -- मेरे लिए भी एक साड़ी ले लो।

जब गौरा यहाँ से चली तो सड़क की बिजलियाँ जल चुकी थीं। सड़कों पर ख़ूब प्रकाश था। उसका हृदय भी आनंद के प्रकाश से जगमगा रहा था।

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रतनसिंह ने पूछा -- सीधे घर चलूँ?

गौरा -- नहीं, छावनी की तरफ़ होते चलो।

रतन -- बाज़ार ख़ूब सज़ा हुआ था।

गौरा -- यह ज़मीन लेकर एक स्थायी बाज़ार बनवा दो। स्वदेशी कपड़ों की दूकानें हों और किसी से किराया न लिया जाय।

रतन -- बहुत ख़र्च पड़ेगा।

गौरा -- मकान बेच दो, रुपए ही रुपए हो जाएँगे।

रतन -- और रहें पेड़ तले?

गौरा -- नहीं, गाँववाले मकान में?

रतन -- सोचूँगा।

गौरा -- (ज़रा देर में) इलाके-भर में ख़ूब कपास की खेती कराओ, जो कपास बोए, उसकी बेगार माफ़ कर दो।

रतन -- हाँ, तदबीर अच्छी है, दूनी उपज हो जायगी।

गौरा -- (कुछ देर सोचने के बाद) लकड़ी बिना दाम दो तो कैसा हो? जो चाहे, चरखे बनवाने के लिए कटा ले जाय।

रतन -- लूट मच जायगी।

गौरा -- ऐसी बेईमानी कोई न करेगा।

जब उसने गाड़ी से उतरकर घर में कदम रखा, तो चित्त शुभ कल्पनाओं से प्रफुल्लित हो रहा था। मानो कोई बछड़ा खूँटे से छूटकर किलोलें कर रहा हो।