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शराब की दूकान

कांग्रेस-कमेटी में यह सवाल पेश था -- शराब और ताड़ी की दूकानों पर कौन धरना देने जाय? कमेटी के पच्चीस मेंबर सिर झुकाए बैठे थे; पर किसी के मुँह से बात न निकलती थी। मुआमला बड़ा नाजुक था। पुलिस के हाथों गिरफ्तार हो जाना तो ज्यादा मुश्किल बात न थी। पुलिस के कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं। चूँकि अच्छे और बुरे तो सभी जगह होते हैं, लेकिन पुलिस के अफसर, कुछ लोगों को छोड़कर, सभ्यता से इतने खाली नहीं होते कि जाति और देश पर जान देनेवालों के साथ दुर्व्यहार करें; लेकिन नशेबाजों में यह जिम्मेदारी कहाँ? उनमें तो अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें घुड़की-धमकी के सिवा और किसी शक्ति के सामने झुकने की आदत नहीं। मारपीट से नशा हिरन हो सकता है; पर शांतवादियों के लिए तो वह दरवाज़ा बंद है। तब कौन इस ओख़ली में सिर दे, कौन पियक्कड़ों की गालियाँ खाय? बहुत संभव है कि वे हाथापाई कर बैठें। उनके हाथों पिटना किसे मंज़ूर हो सकता था? फिर पुलिसवाले भी बैठे तमाशा न देख़ेंगे। उन्हें और भी भड़काते रहेंगे। पुलिस की शह पाकर ये नशे के बंदे जो कुछ न कर डालें, वह थोड़ा! ईंट का जवाब पत्थर से दे नहीं सकते और इस समुदाय पर विनती का कोई असर नहीं!

एक मेंबर ने कहा -- मेरे विचार में तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर हमारी लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और कोई उपाय नहीं सूझता।

सभापति ने कहा -- हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किए लेता हूँ; पर धरना देना जरूरी है।

दूसरे महाशय बोले -- उनके घरों पर जाकर समझाया जाय, तो अच्छा असर होगा।

सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा -- यह भी अच्छा उपाय है; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते।

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फिर सन्नाटा हो गया।

पिछली कतार में एक देवी भी मौन बैठी हुई थीं। जब कोई मेंबर बोलता, वह एक नजर उसकी परफ़ डालकर फिर सिर झुका लेती थीं। यही कांग्रेस की लेडी मेंबर थीं। उनके पति महाशय जी॰पी॰ सकसेना कांग्रेस के अच्छे काम करनेवालों में थे। उनका देहांत हुए तीन साल हो गए थे। मिसेज़ सकसेना ने इधर एक साल से कांग्रेस के कामों में भाग लेना शुरू कर दिया था और कांग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मेंबर चुन लिया था। वह शरीफ़ घरानों में जाकर स्वदेशी और खद्दर का प्रचार करती थीं। जब कभी कांग्रेस के प्लेटफ़ार्म पर बोलने खड़ी होतीं तो उनका जोश देखकर ऐसा मालूम होता था; आकाश में उड़ जाना चाहती हैं। कुंदन का-सा रंग लाल हो जाता था, बड़ी-बड़ी करुण आँखें, जिनमें जल भरा हुआ मालूम होता था, चमकने लगती थीं। बड़ी ख़ुशमिजाज और इसके साथ बला की निर्भीक स्त्री थीं। दबी हुई चिनगारी थी, जो हवा पाकर दहक उठती है। उसके मामूली शब्दों में इतना आकर्षण कहाँ से आ जाता था, कह नहीं सकते। कमेटी के कई जवान मेंबर, जो पहले कांग्रेस में बहुत कम आते थे, अब बिना नागा आने लगे थे। मिसेज़ सकसेना कोई भी प्रस्ताव करें, उनका अनुमोदन करनेवालों की कमी न थी। उनकी सादगी, उनका उत्साह, उनकी विनय, उनकी मृदु-वाणी कांग्रेस पर उनका सिक्का जमाए देती थी। हर आदमी उनकी खातिर सम्मान की सीमा तक करता था; पर उनकी स्वाभाविक नम्रता उन्हें अपने दैवी साधनों से पूरा-पूरा फायदा न उठाने देती थी। जब कमरे में आतीं, लोग खड़े हो जाते थे; पर वह पिछली सफ़ से आगे न बढ़ती थीं।

मिसेज़ सकसेना ने प्रधान से पूछा -- शराब की दूकानों पर औरतें धरना दे सकती हैं?

सबकी आँखें उनकी ओर उठ गईं। इस प्रश्न का आशय सब समझ गए।

प्रधान कातर स्वर में कहा -- महात्माजी ने तो यह काम औरतों ही को सुपुर्द करने पर ज़ोर दिया है पर ॰॰॰॰

मिसेज़ सकसेना ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। बोलीं -- तो मुझे इस काम पर भेज दीजिए

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लोगों ने कुतूहल की आँखों से मिसेज़ सकसेना को देखा। यह सुकुमारी, जिसके कोमल आंगों में शायद हवा भी चुभती हो, गंदी गलियों में, ताड़ी और शराब की दुगँध-भरी दूकानों के सामने जाने और नशे से पागल आदमियों की कलुषित आँखों और बाहों का सामना करने को कैसे तैयाल हो गई।

एक महाशय ने अपने समीप के आदमी के कान में कहा -- बला की निडर औरत है।

उन महाशय ने जले हुए शब्दों में उत्तर दिया -- हम लोगों को काँटों में घसीटना चाहती है, और कुछ नहीं। वह बेचारी क्या पिकेटिंग करेंगी। दूकान के सामने खड़ा तक तो हुआ न जायगा।

प्रधान ने सिर झुकाकर कहा -- मैं आपके साहस और उत्सर्ग की प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मेरे विचार में अभी इस शहर की दशा ऐसी नहीं है कि देवियाँ पिकेटिंग कर सकें। आपको खबर नहीं, नशेबाज लोग कितने मुँहफट होते हैं। विनय तो वह जानते ही नहीं।

मिसेज़ सकसेना ने व्यंग्य-भाव से कहा -- तो क्या आपका विचार है कि कोई ऐसा जमाना भी आयगा, जब शराबी लोग विनय और शील के पुतले बन जायँगे? यह दशा तो हमेशा ही रहेगी। आख़िर महात्माजी ने कुछ समझकर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है! मैं नहीं कह सकती कि मुझे कहाँ तक सफलता होगी; पर इस कर्तव्य को टालने से काम न चलेगा।

प्रधान ने पसोपेश में पड़कर कहा -- मैं तो आपको इस काम के लिए घसीटना उचित नहीं समझता, आगे आपको अख्तियार है।

मिसेज़ सकसेना ने जैसे विजय का आलिंगन करते हुए कहा -- मैं आपके पास फरियाद लेकर न आऊँगी कि मुझे फलाँ आदमी ने मारा या गाली दी। इतना जनती हूँ कि अगर मैं सफल हो गई, तो ऐसी स्त्रियों की कमी न रहेगी, जो इस काम को सोलहों आने अपने हाथ में न ले लें।

इस पर एक नौजवान मेंबर ने कहा -- मैं सभापतिजी से निवेदन करूँगा कि मिसेज़ सकसेना को यह काम देकर आप हिंसा का सामना कर रहे हैं। इससे यह कहीं अच्छा है कि आप मुझे यह काम सौंपें।

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मिसेज़ सक्सेना ने गर्म होकर कहा -- आपके हाथों हिंसा होने का डर और भी ज्यादा है।

इस नौजवान मेंबर का नाम था जयराम। एक बार एक कड़ा व्याख्यान देने के लिए जेल हो आए थे, पर उस वक़्त उनके सिर गृहस्थी का भार न था। कानून पढ़ते थे। अब उनका विवाह हो गया था, दो-तीन बच्चे भी हो गए थे, दशा बदल गई थी। दिल में वही जोश, वही तड़प, वही दर्द था, पर अपनी हालत से मजबूर थे।

मिसेज़ सक्सेना की ओर नम्र आग्रह से देखकर बोले -- आप मेरी खातिर से इसे गंदे काम में हाथ न डालें। मुझे एक सप्ताह का अवसर दीजिए। अगर इस बीच में कहीं दंगा हो जाय, तो आपको मुझे निकाल देने का अधिकार होगा।

मिसेज़ सक्सेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है, जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चाँटा लगाया था और उसकी सजा तीन महीने और बढ़ गई थी। बोलीं -- आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं घमंड नहीं करती, पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।

जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा -- आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूल जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दंडता घटती जाती है।

प्रधान ने कहा -- मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें।

जयराम ने प्रसन्न होकर कहा -- मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।

मिसेज़ सक्सेना ने निराश होकर कहा -- महाशय, जयराम आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियाँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।

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दूसरे दिन, तीसरे पहर जयराम पाँच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने की पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब -- दोनों की दूकानों मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने, सड़क की पटरी पर, अंदर के आँगन में नशेबाजों की टोलियाँ विष में अमृत का आनंद लूट रही थीं। कोई वहाँ अफलातून से कम न था। कहीं वीरता की डींग थी, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का आलाप। अहंकार नशे का मूख्य रूप है।

एक बूढ़ा शराबी कह रहा था -- भैया, जिंदगानी का भरोसा नहीं। हाँ, कोई भरोसा नहीं। मेरी बात मान लो, जिंदगानी का कोई भरोसा नहीं। बस, यही खाना खिलाना याद रह जायगा। धन-दौलत, जगह-जमीन सब धरी रह जायगी।

दो ताड़ीवालों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी --

{हम-तुम रिआया हैं भाई! हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें?}

{अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियाँ दे लो; लेकिन मैदान में आना कठिन है।}

{कहाँ की बात भैया, सरकार तो बड़ी चीज है। लाल पगड़ी देखकर तो घर भाग जाते हो।}

{छोटा आदमी भर-पेट खाके बैठता है, तो समझता है, अब बादशाह हमीं हैं। लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।}

{बहुत पक्की बात कहते हो खाँ साहब! अपनी असलियत पर डटे रहे। जो राजा है, वह राजा है; जो परजा है, वह परजा है। भला, परजा कहीं राजा हो सकता है?}

इतने में जयराम ने आकर कहा -- राम राम भाइयो राम राम!

पाँच-छह खद्दरधारी मनुष्यों को देखकर सभी लोग उनकी ओर शंका और कुतूहल से ताकने लगे। दूकानदार ने चुपके से अपने एक नौकर के काम में कुछ कहा और नौकर दूकान से उतरकर चला गया।

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जयराम ने झंडे को ज़मीन पर खड़ा करके कहा -- भाइयो, महात्मा गांधी का हुक्म है कि आप लोग ताड़ी-शराब न पियें। जो रुपये आप यहाँ उड़ा देते हैं, वह अगर अपने बाल-बच्चों को खिलाने-पिलाने में खर्च करें, तो कितनी अच्छी बात हो। जरा देर के नशे के लिए आप अपने बाल-बच्चों को भूखों मारते हैं, गंदे घरों में रहते हैं, महाजन की गालियाँ खाते हैं, सोचिए, इस रुपये से आप अपने प्यारे ब्च्चों को कितने आराम से रख सकते हैं!

एक बूढ़े शराबी ने अपने साथी से कहा -- भैया, है तो बुरी चीज, घर तबाह करके छोड़ देती है। मुदा इतनी उमर पीते कट गई, तो अब मरते दम क्या छोड़ें? उसके साथी ने समर्थन किया -- पक्की बात कहते हो चौधरी! अब इतनी उमिर पीते कट गई, तो अब मरते दम क्या छोड़ें?

जयराम ने कहा -- वाह चैधरी, यही तो उमिर है छोड़ने को। जवानी तो दीवानी होती है, उस वक़्त सब कुछ मुआफ है।

चौधरी ने तो कोई जवाब न दिया; लेकिन उसके साथी ने, जो काला, मोटा, बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला आदमी था, सरल आपत्ति के भाव से कहा -- अगर पीना बुरा है, तो अँगरेज़ क्यों पीते हैं?

जयराम वकील था, उससे बहस करना भिड़ के छत्ते को छेड़ना था। बोला -- यह तुमने बहुत अच्छा सवाल पूछा भाई। अँगरेज़ों के बाप-दादा अभी डेढ़-दो सौ साल पहले लुटेरे थे। हमारे-तुम्हारे बाप-दादा ऋषि-मुनि थे। लुटेरों की संतान पिए, तो पीने दो। उनके पास न कोई धर्म है न नीति; लेकिन ऋषियों की संतान उनकी नकल क्यों करे? हम और तुम उन महात्माओं की संतान हैं, जिन्होंने दुनिया को सिखाया, जिन्होंने दुनिया को आदमी बनाया। हम अपना धर्म छोड़ बैठे, उसी का फल है कि आज हम गुलाम हैं। लेकिन अब हमने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का फैसला कर लिया है और ॰॰॰॰

एकाएक थानेदार और चार-पाँच कांस्टेबल आ खड़े हुए।

थानेदार ने चौधरी से पूछा -- यह लोग तुमको धमका रहे हैं?

चौधरी ने खड़े होकर कहा -- नहीं हुजूर, यह तो हमें समझा रहे हैं। कैसे प्रेम से समझा रहे हैं कि वाह!

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थानेदार ने जयराम से कहा -- अगर यहाँ फिसाद हो जाय, तो आप जिम्मेदार होंगे?

जयराम -- मैं उस वक़्त तक जिम्मेदार हूँ, जब तक आप न रहें।

{आपका मतलब है कि मैं फिसाद कराने आया हूँ?}

{मैं यह नहीं कहता; लेकिन आप आये हैं, तो अँगरेजी साम्राज्या की अतुल शक्ति का परिचय जरूर ही दीजिएगा। जनता में उत्तेजना फैलेगी। तब आप पिल पड़ेंगे और दस-बीस आदमियों को मार गिराएँगे। यही सब जगह होता है और यहाँ भी होगा।}

सब-इन्सपेक्टर ने ओठ चबाकर कहा -- मैं आपसे कहता हूँ, यहाँ से चले जाइए, वरना मुझे जाब्ते की कार्रवाई करनो पड़ेगी।

जयराम ने अविचल भाव से कहा -- और मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे अपना काम करने दीजिए। मेरे बहुत-से भाई यहाँ जमा हैं और मुझे उनसे बातचीत करने का उतना ही हक है जितना आपको।

इस वक़्त तक सैकड़ों दर्शक जमा हो गए थे। दारोगा ने अफसरों से पूछे बगैर और कोई कार्रवाई करना उचित न समझा। अकड़ते हुए दूकान पर गये और कुरसी पर पाँव रखकर बोले -- ये लोग तो माननेवाले नहीं हैं!

दूकानदार ने गिड़गिड़ाकर कहा -- हुजूर, मेरी तो बधिया बैठ जायगी।

दारोगा -- दो-चार गुंडे बुलाकर भगा क्यों नहीं देते? मैं कुछ न बोलूँगा। हाँ, जरा एक बोतल अच्छी-सी भेज देना। कल न जाने क्या भेज दिया, कुछ मज़ा ही नहीं आया।

थानेदार चला गया, तो चैधरी ने अपने साथी से कहा -- देखा कल्लू, थानेदार कितना बिगड़ रहा था? सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पियें और कोई हमें समझाने न पाए। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है।

कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा -- हर एक बहाने से पैसा खीचते हैं सब।

चौधरी -- तो फिर क्या सलाह है? है तो बुरी चीज?

कल्लू -- बहुत बुरी चीज है भैया, महात्माजी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।

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चौधरी -- अच्छा तो यह लो, आज से अगर पिये तो दोगला!

यह कहते हुए चौधरी ने बोतल ज़मीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब ज़मीन पर बहकर सूख गई।

जयराम को शायद ज़िंदगी में कभी इतनी ख़ुशी न हुई थी। ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाकर उछल पड़े।

उसी वक़्त दोनों ताड़ी पीनेवालों ने भी {महात्माजी की जय} पुकारी और अपनी हाँड़ी ज़मीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपककर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।

सड़क की पटरी पर कई नशेबाज बैठे इन चारों आदमियों की तरफ़ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहे थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहाँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अँगरेजों को मांस-मदिरा या ताड़ी को ज़िंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बग़ैर ज़िंदगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुर्बलेंद्रिय होने के कारण नित्य आकर पी जाते थे। चैधरी जैसे घाध पियक्कड़ को बोतल पटकते देखकर उनकी आँखें खुल गईं।

एक मरियल दाढ़ीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी! चौधरी ने उसे पीछे ढकेलकर कहा -- पीठ क्या ठोंकते हो जी, जाकर अपनी बोतल पटक दो।

दाढ़ीवाले ने कहा -- आज और पी लेने दो चौधरी! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा।

चौधरी -- जितनी बची हो, उसके पैसे हमसे ले लो। घर जाकर बच्चों को मिठाई खिला देना।

दाढ़ीवाले ने जाकर बोतल पटक दी और बोला -- लो, तुम भी क्या कहोगे? अब तो हुए खश!

चधरी -- अब तो न पियोगे कभी।

दाढ़ीवाले ने कहा -- अगर तुम न पियोगे, तो मैं भी न पीऊँगा। जिस दिन तुमने पी, उसी दिन फिर शुरू कर दी।

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चौधरी की तत्परता ने दुराग्रह की जड़ें हिला दीं। बाहर अभी पाँच-छह आदमी और थे। वे सचेत निर्लज्जता से बैठे हुए अभी तक पीते जाते थे। जयराम ने उनके सामने जाकर कहा -- भाइयो, आपके पाँच भाइयों ने अभी आपके सामने अपनी-अपनी बोतल पटक दी। क्या आप उन लोगों को बाजी जीत ले जाने देंगे?

एक ठिगने, काले आदमी ने, जो किसी अँगरेज़ का खानसामा मालूम होता था, लाल-लाल आँखें निकालकर कहा -- हम पीते हैं; तुमसे मतलब? तुमसे भीख माँगने तो नहीं जाते?

जयराम ने समझ लिया, अब बाजी मार ली। गुमराह आदमी जब विवाद करने पर उतर आए, तो समझ लो, वह रास्ते पर जायगा। चुप्पा ऐब वह चिकना घड़ा है, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता।

जयराम ने कहा -- अगर मैं अपने घर में आग लगाऊँ, तो उसे देखकर क्या आप मेरा हाथ न पकड़ लेंगे? मुझे तो इसमें रत्ती भर संदेह नहीं है कि आप मेरा हाथ ही न पकड़ लेंगे, बल्कि मुझे वहाँ से जबरदस्ती खींच ले जायँगे।

चौधरी ने खानसामा की तरफ़ मुग्ध आँखों से देखा, मानो कह रहा है -- इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है? और बोला -- जमादार, अब इसी बात पर बोतल पटक दो।

खानसामा ने जैसे काट खाने के लिए दाँत तेज कर लिए और बोला -- बोतल क्यों पटक दूँ, पैसे नहीं दिए हैं?

चौधरी परास्त हो गया। जयराम से बोला -- इन्हें छोड़िए बाबूजी, यह लोग इस तरह माननेवाले आसामी नहीं हैं। आप इनके सामने जान भी दे दें तो भी शराब न छोड़ेंगे। हाँ, पुलिस की एक घड़की पा जायँ तो फिर कभी इधर भूलकर भी न आयें।

खानसामा ने चौधरी की ओर तिरस्कार के भाव से देखा, जैसे कह रहा हो -- क्या तुम समझते हो कि मैं ही मनुष्य हूँ, यह सब पशु हैं? फिर बोला -- तुमसे क्या मतलब है जी, क्यों बीच में कूद पड़ते हो? मैं तो बाबूजी से बात कर रहा हूँ। तुम कौन होते हो बीच में बोलनेवाले? मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि बोतल पटककर वाह-वाह कराऊँ। कल फिर मुँह में कालिख लगाऊँ, जो घर पर मँगवाकर पीऊँ? जब यहाँ छोड़ेंगे, तो सच्चे दिल से छोड़ेंगे। फिर कोई लाख रुपये भी दे तो आँख उठाकर न देखें।

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जयाराम -- मुझे आप लोगों से ऐसी ही आशा है।

चैधरी ने खानसामा की ओर कटाक्ष करके कहा -- क्या समझते हो, मैं कल फिर पीने आऊँगा?

खानसामा ने उद्दंडता से कहा -- हाँ-हाँ, कहता हूँ, तुम आओगे और बद कर आओगे। कहो, पक्के काग़ज़ पर लिख दूँ?

चैधरी -- अच्छा भाई, तुम बड़े धरमात्मा हो, मैं पापी सही। तुम छोड़ोगे तो जिंदगी-भर के लिए छोड़ोगे, मैं आज छोड़कर कल फिर पीने लगूँगा, यही सही। मेरी एक बात गाँठ बाँध लो। तुम उस बखत छोड़ोगे, जब ज़िंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते।

खानसामा -- तुम मेरे दिल का हाल क्या जानते हो?

चौधरी -- जानता हूँ, तुम्हारे जैसे सैकड़ों आदमी को भुगत चुका हूँ।

खानसामा -- तो तुमने ऐसे वैसे बेशर्मों को देखा होगा। हयादार आदमियों को न देखा होगा।

यह कहते हुए उसने जाकर बोतल पटक दी और बोला -- अब अगर तुम इस दूकान पर देखना, तो मुँह में कालिख लगा देना।

चारों तरफ़ तालियाँ बजने लगीं। मर्द ऐसे होते हैं!

ठीकेदार ने दूकान से नीचे उतरकर कहा -- तुम लोग अपनी-अपनी दूकान पर क्यों नहीं जाते जी? मैं तो किसी की दूकान पर नहीं जाता?

एक दर्शक ने कहा -- खड़े हैं, तो तुमसे मतलब? सड़क तुम्हारी नहीं है? तुम गरीबों को लूटे जाओ। किसी के बाल-बच्चे भूखों मरें, तुम्हारा क्या बिगड़ता है। (दूसरे शराबियों से) क्या यारो, अब भी पीते जाओगे! जानते हो, यह किसका हुक्म है? अरे, कुछ भी तो शर्म हो?

जयराम ने दर्शकों से कहा -- आप लोग यहाँ भीड़ न लगायें और न किसी को भला-बुरा कहें!

मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चार-पाँच आदमी बेदम बैठे हुए कुल्हड़ पर कुल्हड़ चढ़ा रहे थे। एक मनचले आदमी ने जाकर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बीच में रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उसके स्वयंसेवक तुरंत वहाँ पहुँच गए और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़कर जयराम की परफ़ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्लाकर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, धूँसे और डंडे चलाने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाए। दोनों हाथ फैलाए उन चारों के वारों से बच रहा था; वह चारों भी आपे से बाहर होकर दर्शकों पर डंडे चला रहे थे। जयराम दोनों तरफ़ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उस पर पड़ते थे, तमाशाइयों के वार भी उसी पर पड़टे थे; पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक़्त अपनी जान बचाकर हट जाता, तो शराबियों की खैरियत न थी। इसका दोष कांग्रेस पर पड़ता। वह कांग्रेस को इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज़ सक्सेना को अपने ऊपर हँसने का मौका वह न देना चाहता था

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आखिर उसके सिर पर डंडा इस ज़ोर से पड़ा कि वह सिर पकड़कर बैठ गया। आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं। फिर उसे होश न रहा।

जयराम सारी रात बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन सुबह को जब उसे होश आया, तो सारी देह में पीड़ा हो रही थी और कमजोरी इतनी थी कि रह-रह कर जी डूबता जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ़ आँख उठ गई, तो मिसेज़ सक्सेना बैठी नजर आईं। उन्हें देखते ही स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठा बैठा। दर्द और कमजोरी दोनों जैसे गायब हो गई। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गई।

मिसेज़ सक्सेना ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा -- आपको बड़ी चोट आयी। इसका सारा दोष मुझ पर है।

जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देखकर कहा -- चोट तो ऐसी ज्यादा न थी, इन लोगों ने बरबस पट्टी-पट्टी बाँधकर जख्मी बना दिया।

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मिसेज़ सक्सेना ने ग्लानित होकर कहा -- मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।

जयराम -- आपका वहाँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही अनुरोध करूँगा कि उस तरफ़ न जाइएगा।

मिसेज़ सक्सेना ने जैसे उन बाधाओं पर हँसकर कहा -- वाह! मुझे आज से वहाँ पिकेट करने की आज्ञा मिल गई है।

{आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज कसना बिलकुल मामूली बात है।}

{मैं आवाजों की परवाह नहीं करती।}

{तो फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा।}

{आप इस हालत में?} -- मिसेज़ सक्सेना ने आश्चर्य से कहा।

{मैं बिलकुल अच्छा हूँ; सच!}

{यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहाँ जाने के योग्य हैं, आपको न जाने दूँगी। किसी तरह नहीं।}

{तो मैं भी आपको न जाने दूँगा।}

मिसेज़ सक्सेना ने मृदु-व्यंग के साथ कहा -- आप भी अन्य पुरुषों ही की भाँति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौका नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं।

जयराम ने व्यथित कंठ से कहा -- जैसी आपकी इच्छा!

तीसरे पहर मिसेज़ सक्सेना चार स्वयंवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम आँखें बंद किए चारपाई पर पड़ा था। शोर सुनकर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा -- यह कैसा शोर है?

स्त्री ने खिड़की से झाँककर देखा और बोली -- वह औरत, जो कल आयी थी, झंडा लिये कई आदमियों के साथ जा रही है। इसे शर्म भी नहीं आती।

जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला -- मैं भी वहीं जाता हूँ।

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स्त्री ने उसका हाथ पकड़कर कहा -- अभी कल मार खाकर आये हो, आज फिर जाने की सूझी।

जयराम ने हाथ छुड़ाकर कहा -- तुम उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।

स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया -- कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ। क्यों मेरी जान के गहक हुए हो? उसकी देह में हीरे नहीं जड़े हैं, जो वहाँ कोई नोच लेगा!

जयराम ने मिन्नत करके कहा -- मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू! अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जायगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि एक देवी उन शोहदों के चीच में पिकेटिंग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहाँ रहना जरूरी है। अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।

चम्मू ने जलकर कहा -- यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज खींचे लिये जाती है!

जयराम ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो -- यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतराकर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला -- शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी हैं। कमेटी में भी तीस मेंबर हैं, मगर सबके सब जी चुरा रहे हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराबखानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही की जरूरत है। आखिर क्यों स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है? इसीलिए कि मर्दों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहाँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहाँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियाँ क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फिक़रे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बनें? कम से कम मैं यह नहीं देख सकता।

वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा। चम्मू ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक ताँगे पर बैठकर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने ताँगे को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेजकर खुद उसी दूकान में जा बैठा।

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दूकानदार ने लेमनेड का एक गिलास उसे देते हुए कहा -- बाबूजी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।

जयराम ने गिलास लेकर कहा -- तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।

दूकानदार ने प्रतिवाद किया -- नहीं बाबूजी, वह सब छँटे हुए गुंडे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारों तीन-तीन साल काट आये हैं।

अभी बीस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया! जयराम ने सचिंत होकर पूछा -- कहो, वहाँ क्या हो रहा है?

स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहाँ की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोला -- कुछ नहीं, देवीजी आदमियों को समझा रही हैं।

जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानो कह रहे हों -- बस इतना ही! इतना तो मैं जानता ही था।

स्वयंसेवक ने एक क्षण बाद फिर कहा -- देवियों का ऐसे शोहदों के सामने जाना अच्छा नहीं।

जयराम ने अधीर होकर पूछा -- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है?

स्वयंसेवक डरते-डरते बोला -- सबके सब उनसे दिल्लगी कर रहे हैं। देवियों का यहाँ आना अच्छा नहीं।

जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल आँखें निकाले बिजली की तरह कौंधकर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज़ सक्सेना का हाथ पकड़कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला -- अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ जरा भी गुस्ताखी की तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचायी थी, आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़कर रख दूँगा

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उसके बदले हुए तेवर को देखकर सबके सब नशेबाज घबड़ा गए। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज़ सक्सेना ने गंभीर भाव से पूछा -- आप यहाँ क्यों आये! मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न माँगी थी?

जयराम ने लज्जित होकर कहा -- मैं इस नीयत से यहाँ नहीं आया था।

एक जरूरत से इधर आ निकला था। यहाँ जमाव देखकर आ गया। मेरे ख्याल में आप अब यहाँ से चलें। मैं आज कांग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।

मिसेज़ सक्सेना ने तीखे स्वर में कहा -- आपके विचार में दुनिया के सारे काम मर्दों के लिए हैं।

जयराम -- मेरा यह मतलब न था।

मिसेज़ सक्सेना -- तो आप जाकर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।

जयराम वहीं सिर झुकाए खड़ा रहा।

मिसेज़ सक्सेना ने पूछा -- अब आप क्यों खड़े हैं!

जयराम ने विनीत स्वर में कहा -- मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूँगा।

मिसेज़ सक्सेना ने कठोर स्वर में कहा -- जी नहीं, आप जायँ।

जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भाँति चला और आकर फिर उसी लेमनेड की दूकान पर बैठ गया। उसे ज़ोर की प्यास लगी थी। उसने एक गिलास शर्बत बनवाया और सामने मेज पर रखकर विचार में डूब गया; मगर आँखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।

जब कोई आदमी दूकान पर आता, वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता। वहाँ कोई नयी बात तो नहीं हो गई?

कोइ आध घंटे बाद वही स्वयंसेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा -- वहाँ क्या हो रहा है जी?

स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रखकर कहा -- मैं कुछ नहीं जानता बाबू जी, मुझसे कुछ न पूछिए।

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जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा -- फिर कोई छेड़-छाड़ हुई?

स्वयंसेवक -- जी नहीं, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवीजी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ीं।

जयराम निःस्पंद बैठा रहा; पर उसके अंतराल में भूकंप-सा मचा हुआ था। बोला -- उसके साथ के स्वयंसेवक क्या कर रहे हैं?

{खड़े हैं, देवीजी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।}

{तो क्या बड़े ज़ोर से धक्का दिया?}

{जी हाँ, गिर पड़ी। धुटनों में चोट आ गई। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गई, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवीजी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धक्का दे दिया। वही जो काला-काला मोटा-सा आदमी हैं! कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।}

जयराम उन्माद की दशा में वहाँ से उठा और दौड़ता हुआ शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सक्सेना सिर पकड़े ज़मीन पर बैठी हुई थीं और वह काला मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपककर उसकी गर्दन पकड़ ली और इतने ज़ोर से दबायी कि उसकी आँखें बाहर निकल आई। मालूम होता था, उसके हाथ फौलाद के हो गए हैं।

सहसा मिसेज़ सक्सेना ने आकर उसका फौलादी हाथ पकड़ लिया और भवें सिकोड़कर बोलीं -- छोड़ दो इसकी गर्दन! क्या इसकी जान ले लोगे?

जयराम ने और ज़ोर से उसकी गर्दन दबायी और बोला -- हाँ, ले लूँगा। ऐसे दुष्ट की यही सजा है।

मिसेज़ सक्सेना ने अधिकार-गर्व से गर्दन उठाकर कहा -- आपको यहाँ आने का कोई अधिकार नहीं है।

एक दर्शक ने कहा -- ऐसा दबाओ बाबूजी, कि साला ठंडा हो जाय। इसने देवीजी को ऐसा ढकेला कि बेचारी गिर पड़ीं। हमें तो बोलने का हुक्म नहीं है, नहीं तो हड्डी तोड़कर रख देते।

जयराम ने शराबी की गर्दन छोड़ दी। वह किसी बाज के चंगुल से छूटी हुई चिड़िया की तरह सहमा हुआ खड़ा हो गया। उसे एक धक्का देते हुए उसने मिसेज़ सक्सेना से कहा -- आप यहाँ से चलतीं क्यों नहीं? आप जायँ, मैं बैठता हूँ; अगर एक छटाँक शराब बिक जाय, तो मेरा कान पकड़ लीजिएगा।

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उसका दम फूलने लगा। आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था। वह खड़ा न रह सका। ज़मीन पर बैठकर रूमाल से माथे का पसीना पोंछने लगा।

मिसेज़ सक्सेना ने परिहास करके कहा -- आप कांग्रेस नहीं हैं कि मैं आपका हुक्म मानूँ। अगर आप यहाँ से न जायेंगे तो मैं सत्याग्रह करूँगी।

फिर एकाएक कठोर होकर बोलीं -- जब तक कांग्रेस ने इस काम का भार मुझ पर रखा है, आपको मेरे बीच में बोलने का कोई हक नहीं है। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस-कमेटी-के सामने आपको इसका जवाब देना होगा।

जयराम तिलमिला उठा। बिना कोई जवाब दिये लौट पड़ा और वेग से घर की तरफ़ चला; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, उसकी गति मंद होती जाती थी। यहाँ तक कि बाजार के दूसरे सिरे पर आकर वह रुक गया। रस्सी यहाँ खतम हो गई। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहाँ तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गई थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, उसमें अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगंध आ रही थी।

उसे फिर चिंता हुई, न जाने वहाँ क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और दुष्टता न की हो, या पुलिस न आ जाय।

वह बाजार की तरफ़ मुड़ा, लेकिन एक कदम ही चलकर फिर रुक गया। ऐसे पसोपेश में वह कभी न पड़ा था।

सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ता आता दिखाई दिया। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी परफ़ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गए।

जयराम ने हाँफते हुए पूछा -- क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो?

स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा -- बड़ा गजब हो गया बाबूजी! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला, तो देवीजी दरवाज़े पर बैठ गईं। वह बार-बार देवीजी की हटाकर निकलना चाहता है; पर वह फिर आकर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कुछ कपड़े फट गए हैं और कुछ चोट भी ॰॰॰॰

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अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबखाने की तरफ़ दौड़ा।

जयराम शराबखाने के सामने पहुँचा तो देखा, मिसेज़ सक्सेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सक्सेना एक किनारे सिर झुकाए खड़ी हैं। जयराम ने डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आँचल पर रक्त की बूँदें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिन-गारियाँ जैसे उसके रोम-रोम में समा गईं। उसका खून खौलने लगा, मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूरे ज़ोर के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूँद की जगह वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे खबर न थी।

वह पूरे ज़ोर से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सक्सेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गईं, उसे कुछ पता न चला। जब वह ज़मीन पर गिर पड़ीं, तब उसे जैसे होश आ गया हो। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल, निःस्पंद खड़ा हो गया, मानो उसका रक्तप्रवाह रुक गया है।

चारों स्वयंसेवकों ने दौड़कर मिसेज़ सक्सेना को पंखा झलना शुरू किया। दूकानदार ठंडा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा, पर जयराम वहीं बेजान खड़ा था, जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक़्त कोई उसके दोनों हाथ काट डालता, कोई उसकी आँखें लाल लोहे से फोड़ देता, तब भी वह चूँ न करता।

फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत, पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया।

उसी वक़्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल ज़मीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा।

एक शराबी ने लैसंसदार से कहा -- तुम्हारा रोजगार अन्य लोगों की जान लेकर रहेगा। आज तो अभी दूसरा ही दिन है।

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लैसंसदार ने कहा -- कल से मेरा इस्पीफा है। अब स्वदेशी कपड़े का रोजगार करूँगा, जिसमें जस भी है और उपकार भी।

शराबी ने कहा -- घाटा तो बहुत रहेगा।

दूकानदार ने किस्मत ठोंककर कहा -- घाटा-नफ़ा तो ज़िंदगानी के साथ है।