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जेल

मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से ज़नाने जेल में वापस आयी, तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं, कितने दिन की हुई?

मृदला ने विजय-गर्वँ से कहा -- मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें, करें। न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू-मिन्नत ही की। कोई गाहक मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दूकान पर खड़ी ज़रूर थी। वहाँ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गए थे। जनता जमा हो गई थी। मैं भी खड़ी हो गई। बस, थानेदार ने आकर मुझे पकड़ लिया।

क्षमादेवी कुछ क़ानून जानती थीं। बोलीं -- मैजेस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा! मैं ऐसे कितने ही मुकदमें देख चुकी।

मृदुला ने प्रतिवाद किया -- पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुक़दमे की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी; लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे ज़ब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा-सा क़ानून जानती हूँ। पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। जब मैंने जिरह शुरू की तो सब बग़लें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी बताई। वह मेरे प्रश्नों का ऊलजलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठाता था -- वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फजूल की बातें क्यों करते हो। तब मियाँजी का मुँह जरा-सा निकल आता था। मैंने सबों का मुँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया; लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्रीजी भी थे और बहुत-सी बहतें थीं। सब यही कहती थीं, तुम छूट जाओगी।

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महिलाएँ उसे द्वेष-भरी आँखों से देखती हुई चली गईं। उनमें किसी की मियाद साल-भर की थी, किसी की छह मास की। उन्होंइँने अदालत के सामने जबान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुला पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गई थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित्त ही न था।

दूर जाकर एक देवी ने कहा -- इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।

दूसरी महिला बोली -- यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गई तो थीं धरना देने, नहीं दूकान पर जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ़्तार हुए थे, आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गईं; मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गई ही नहीं। यह तो क्षमा माँगना हुआ, साफ़!

तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं -- जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक़्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गईं, अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही न आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फ़ायदा।

केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल-भर की सजा पाई थी। दूसरे जिले से एक महीना हुआ, यहाँ आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा-जरा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगार की चीजों के लिए लेडी वार्डरों की ख़ुशामर्दे करना, घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पसंद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उसके जाति-प्रेम का वारापार न था। इस रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियाँ उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुला में वह संकीर्णता और ईर्ष्या न थी, न निंदा करने की आदत, न शृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करुणा थी, सेवा का भाव था, देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छह महीने आनंद से कट जाएँगे; लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। कल मृदुला यहाँ से चली जायगी। वह फिर अकेली हो जायगी। यहाँ ऐसा कौन है, जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दुःख-दर्द सुनाएगी, देश-चर्चा करेगी; यहाँ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं।

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मृदुला ने पूछा -- तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी हैं, बहन्!

क्षमा ने हसरत के साथ कहा -- किसी-न-किसी तरह कट ही जायँगे बहन! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अंदर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल-जेल न मालूम होता था। कभी-कभी मिलती रहना।

मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबाई हुई थीं। ढाढ़स देती हुई बोली -- जरूर मिलूँगी दीदी! मुझसे तो खुद न रहा जायगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगी -- चल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आएगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा रोया करता होगा। मुझे देखकर रूठ जायगा। तुम कहाँ चली गईं? मुझे छोड़कर क्यों चली गईं? जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता। तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन! छन-भर निचला नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है -- {झन्ना ऊँता लये अमाला}, {छोलाज का मंदिर देल में है।} जब एक झंडी कंधे पर रखकर कहता है -- {ताली-छलाब पीना हलाम है} तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है -- तुम गुलाम हो। वह एक अँगरेजी कंपनी में हैं, बार-बार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं। लेकिन गुजर-बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़ें? वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच सकती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है, लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ। बेचारे कैसे दफ़्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सासजी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़ें! चाहती हैं कि मेरी गोद में दबककर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आयीं। कल अदालत में बाबूजी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल मरजाद डुबा दी, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, कुलच्छनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों को बुरा नहीं मानती। पुराने जमाने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि आकर हम लोगों में मिल जायँ, तो यह उसका अन्याय है। चलकर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खाएँगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित्त तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रहकर तब जाना बहन! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

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क्षमा आनंद के इन प्रसंगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है। जलियानवाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है, पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणिमात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति सेवा में धैर्य और शांति खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अंत करने -- उन्को मिटाने -- में वह जी-जान से लगी हुई थी। बड़े-से-बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था? औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो या यशोपार्जन का एक साधन, क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी, और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा के साथ उसकी साधना में लगी हुई थी। लेकिन आकाश में उड़नेवाले पक्षा को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म-स्मवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी; पर यह छाँह भी इतनी जल्द हट गई!

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क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा -- यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी कहीं भेंट हो जायगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं या ज़रा मुस्कराकर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली लाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्यों-कर रोए। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी-कभी इस अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी-भर आटा ही बहुत है।

दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गई। संख्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर रुलाकर चली गई, मानो मैके से विदा हुई हो।

तीन महीने बीत गए; पर मृदुला एक बार भी न आयी। और कैदियों से मिलनेवाले आते रहते थे, किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीजें और सौगातें आ जाती थीं; लेकिन क्षमा का पूछनेवाला कौन बैठा था? हर महीने के अंतिम रविवार को प्रातःकाल से ही मृदुला की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो ज़रा देर रोकर मन को समझा लेती -- जमाने का यही दस्तूर है!

एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रुप-रंग है, न वह कांति। दौड़कर गले से लिपट गई और रोती हुई बोली -- यह तेरी क्या दशा है मृदुला! सूरत ही बदल गई। क्या बीमार है क्या?

मृदुला की आँखों से आँसुओं को झड़ी लगी हुई थी। बोली -- बीमार तो नहीं हूँ बहन, विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे ख़ूब कोस रही होगी। उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित्त करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आयी हूँ।

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क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराइयों से एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी, जिसमें उनका अपना अतीत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भाँति उतराता हुआ दिखाई दिया। रुँधे हुए कंठ से बोली -- कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ फिर क्यों आ गईं? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।

मृदुला मुस्करायी; पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा हुआ था। फिर बोली -- अब सब कुशल है बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही। अब यहाँ जीवन-पर्यंत रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ।

उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली -- तुम्हें बाहर की खबरें क्या मिली होगी! परसों शहर में गोलियाँ चलीं। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रुपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन-दिन गिरता जाता है। पौने दो रुपये में मन भर गेहूँ आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है, अम्माँजी भी कहती हैं कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था! खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें? उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाय। किसान इस पर भी राजी हैं कि हमारी जमा-जथा नीलाम कर लो, धर कुर्क कर लो, अपनी ज़मीन ले लो; मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुजारी दिखाने की फ़िक़्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डालें, सरकार उन्हें मना न करेगी। मैंने सुना है कि वह उलटे और शह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब है। प्रजा मरे या जिए, उससे कोई प्रयोजन नहीं। अकसर ज़मींदारों ने तो लगान वसूल करने से इनकार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गई है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर-बार छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घुसकर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुबचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारे ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज़्यादा दुःख और लज्जा की और क्या बात होगी? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता नहीं, इस पर इतना कठोर प्रिश्रम, न देह में बल है, न दिल में हिम्मत, पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुनकर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम-कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलिस के आदमी के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है? सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया।

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क्षमा ने कहा -- गाँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे।

मृदुला तीव्र कंठ से बोली -- बहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन है। अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डंडे चलाना शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस-बीस आदमी भुन जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते; लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँववालों को तैश आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। संभव है, दो-चार आदमियों ने लाठियाँ चलायी भी हों। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलाती शुरू कीं। दो-तीन सिपाहियों के हल्की चोटें आयीं। उसके बदले में बारह आदमियों की जानें ले ली गईं और कितनों ही के अंग-भंग कर दिये गए। इन छोटे-छोटे आदमियों को इसलिए तो इतने अधिकार दिए गए हैं कि उनका दुरुपयोग करें। आधे गाँव का कत्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हुई लौट गई। गाँववालों की फरियाद कौन सुनता। गरीब हैं, बेकस हैं, अपंग हैं, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत और हाकिमों से तो उन्होंने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आखिर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहिम सर करने के लिए भेजा था। वह किसान की फिरियाद क्यों सुनने लगी? मगर आदमी का दिल फरियाद किए बगैर नहीं मानता। गाँववालों ने अपने शहर के भाइयों से फरियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती, हमदर्दी तो करती है। दुःख-कथा सुनकर आँसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस-पास के गाँवों के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते तो गरीबों के आँसू पुँछ जाते; किंतु पुलिस ने उस गाँव की नाकेबंदी कर रखी थी, चारों सीमाओं पर पहरे बिठा दिए गए थे। यह घाव पर नमक था। मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशें उठायीं और शहर वालों को अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गई थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गई और जब पुलिस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लाए। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। और मैंने उन्हें रोका -- मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे -- मैं किसी से लड़ने थोड़े ही जाता हूँ। जब सरकार की आशा के विरुद्ध जनाजा चला तो पचास हजार आदमी साथ थे। उधर पाँच सौ सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी -- सवार, प्यादे, सारजंट -- पूरी फौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामर्दों को तलवारें चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार-बार पुलिस की धमकियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियाँ चलाने का हुक्म हो गया। घंटे भर बराबर फैर होते रहे, पूरे घंटे-भर तक! कितने मरे कितते घायल हुए, कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल थामे, काँपती थी।

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पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गई। हजारों आदमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आँखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण आँखों से निकले पड़ते हैं; मगर इन भागनेवालों के पीछे वीर व्रतधारियों का दल था, जो पर्वत की भाँति अटल खड़ा, छातियों पर गोलियाँ खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था। बंदूकों की आवाजें साफ़ सुनाई देती थीं और हरेक धायँ-धायँ के बाद हजारों गलों से जय की गहरी गगन-भेदी ध्वनि निकलती थी। उस ध्वनि में कितनी उत्ते जना थी, कितना आकर्षण, कितना उन्माद! बस, यही जी चाहता था कि जाकर गोलियों के सामने खड़ी हो जाऊँ और हँसते-हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भाग होता था कि मर जाना कोई खेल है। अम्माँजी कमरे में भान को लिये मुझे बार-बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गयी, तो वह भान को लिये हुए छज्जे पर आ गईं। उसी वक़्त दस-बारह आदमी एक स्ट्रेचर पर हृदयेश की लाश लिए हुए द्वार पर आए। अम्माँ की उन पर नजर पड़ी! समझ गईं! मुझे तो सकता-सा हो गया। अम्माँ ने जाकर एक बार बेटे को देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा, आशीर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरस्ते की तरफ़ चलीं, जहाँ से अब भी धाँय और जय की ध्वनि बारी-बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि-सी खड़ी कभी स्वामी की लाश को देखती थी, कभी अम्माँ को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोयी, न घवरायी। मुझमें जैसे स्पंदन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गई हो।

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क्षमा -- तो क्या अम्माँ भी गोलियों के स्थान पर पहुँच गईं?

मृदुला -- हाँ, यही तो विचित्रता है बहन! बंदूक की आवाजें सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं। खून देखकर मूर्च्छित हो जाती थीं। वही अम्माँ वीर सत्याग्रहियों की सफों को चीरती हुई सामने खड़ी हो गईं और एक ही क्षण में उनकी लाश भी ज़मीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया, व्रत का बंधन टूट गया। सभी के सिरों पर खून-सा सवार हो गया। निहत्थे थे, अशक्त थे, पर हर एक अपने अंदर अपार-शक्ति का अनुभव कर रहा था। पुलिस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते देखा तो होश जाते रहे। जानें लेकर भागे; मगर भागते हुए भी गोलियाँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था, न जाने किधर से एक गोली आकर उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, साँस तक न ली; मगर मेरी आँखों में अब भी आँसू न थे। मैंने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून के फौवारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह खून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था, जो शायद उसके विवाह में गुलाल से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता। लड़कपन, जवानी और मौत। तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गईं। मैंने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया। इतने मैं कई स्वयंसेवक अम्माँजी को भी लाये। मालूम होता था, लेटी हुई मुस्करा रही हैं। मुझे तो रोकती रहती थीं और खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ीं, मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो। बेटे ही के लिए जीती थीं। बेटे को अकेले कैसे छोड़तीं!

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जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गईं, तब मेरा सकता टूटा, होश आया। एक बार जी में आया चिता में जा बैटूँ, सारा कुनबा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुँचे। लेकिन फिर सोचा -- तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले? बहन! चिता की लपटों में मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि अम्माँजी सचमुच भान को गोद में लिये बैठी मुस्करा रही हैं और स्वामीजी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चिंत होकर काम करो। मुख पर कितना तेह था! रक्त और अग्नि ही में तो देवता बसते हैं।

मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चिताएँ जल रही थीं। दूर से यह चितावली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्ठियाँ जलाई हों।

जब चिताएँ राख हो गईं, तो हम लोग लौटे; लेकिन उस घर में जाने की हिम्मत न पड़ी। मेरे लिए अब वह घर घर न था! मेरा घर तो अब यह है, जहाँ बैठी हूँ, या फिर वही चिता। मैंने घर का द्वार भी नहीं खोला। महिला-आश्रम में चली गई। कल की गोलियों से कांग्रेस-कमेटी का सफाया हो गया था। यह संस्था बागी बना डाली गई थी। उसके दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा और उस पर अपना ताला डाल दिया। महिला-आश्रम पर भी हमला हुआ। उस पर अपना ताला डाल दिया गया। हमने एक वृक्ष की छाँह में अपना नया दफ्तर बनाया और स्वच्छंदता के साथ काम करते रहे। यहाँ दीवारें हमें कैद न कर सकती थीं। हम भी वायु के समान मुक्त थे।

संध्या समय हमने एक जुलूस निकालने का फैसला किया। कल के रक्तपात की स्मृति, हर्ष और मुबारकबाद में जुलूस निकालना आवश्यक था। लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से क्या होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं हैं। हमें अपने हार न माननेवाले आत्माभिमान का प्रमाण देना था। हमें यह दिखाना था कि हम गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटनेवाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अंत करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थपरता और खून पर है। उधर पुलिस ने जुलूस को रोककर अपनी शक्ति और विजय का प्रमाण देना आवश्यक समझा। शायद जनता को धोखा हो गया हो कि कल की दुर्घटना ने नौकरशाही का नैतिक ज्ञान जागृत कर दिया है। इस धोखे को दूर करना उसने अपना कर्त्तव्य समझा। वह यह दिखा देना चाहती थी कि हम तुम्हारे ऊपर शासन करने आये हैं और शासन करेंगे। तुम्हारी ख़ुशी या नाराजी की हमें परवाह नहीं है। जुलूस निकालने की मनाही हो गई। जनता को चेतावनी दे दी गई कि खबरदार जुलूस में न आना, नहीं दुर्गति होगी। इसका जनता ने वह जवाब दिया, जिसने अधिकारियों की आँखें खोल दी होंगी। संध्या समय पचास हजार आदमी जमा हो गए। आज का नेतृत्व मृझे सौंपा गया था। मैं अपने हृदय में एक विचित्र बल और उत्साह का अनुभव कर रही थी।

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एक अबला स्त्री जिसे संसार का कुछ ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पाँव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्सर्ग की बदौलत उस महान् पद पर पहुँच गई थी, जो बड़े-बड़े अफसरों को भी, बड़े से बड़े महाराजा को भी प्राप्त नहीं -- मैं इस समग्र जनता के हृदय पर राज कर रही थी। पुलिस अधिकारियों की इसीलिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुलामी उससे सब कुछ करवा लेती है।

महाराजा का हुक्म लोग इसीलिए मानते हैं कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है। यह अपार जन-समूह क्या मुझसे किसी फायदे की आशा रखता था, उसे मुझसे किसी हानि का भय था? कदापि नहीं। फिर भी वह मेरे कड़े से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार था। इसीलिए कि जनता मेरे बलिदानों का आदर करती थी; इसीलिए कि उनके दिलों में स्वाधीनता की जो तड़प थी, गुलामी की जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचैनी थी, मैं उस तड़प और बेचैनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही थी।

निश्चित समय पर जुलूस ने प्रस्थान किया। उसी वक़्त पुलिस ने मेरी गिरफ्तारी का वारंत दिखाया। वारंट देखते ही तुम्हारी याद आई। पहले तुम्हें मेरी ज़रूरत थी। अब मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। उस वक़्त तुम मेरी हमदर्दी की भूखी थीं। अब मैं सहानुभूति की भिक्षा माँग रही हूँ। मगर मुझमें अब लेश मात्र भी दुर्बलता नहीं। मैं चिंताओं से मुझ हूँ। मैजिस्ट्रेट जो कठोर से कठोर दंड प्रदान करे, उसका स्वागत करूँगी। अब मैं पुलिस के किसी आक्षेप या असत्य आरोपण का प्रतिवाद न करूँगी; क्योंकि मैं जानती हूँ, मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूँ, जेल के अंदर रहकर उससे कहीं ज़्यादा कर सकती हूँ। जेलों के बाहर भूलों की संभावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिंता है, जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान कदम नहीं रख सकता। मैदान में जलता हुआ अलाव वायु में अपनी उष्णता को खो देता है; लेकिन इंजिन में बंद होकर वही अग संचालन-शक्ति का अखंड भंडार बन जाती है।

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अन्य देवियाँ भी आ पहुँचीं और मृदुला सबके गले मिलने लगी। फिर {भारत माता की जय}-ध्वनि जेल की दीवारों को चीरता हुई आकाश में जा पहुँची।