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दुराशा

(प्रहसन)

पात्र

दयाशंकर -- कार्यालय के एक साधारण लेखक।

आनंदमोहन -- कालेज का एक विद्यार्थी तथा दयाशंकर का मित्र।

ज्योतिस्वरूप -- दयाशंकर का एक सुदूर-संबंधी।

सेवती -- दयाशंकर की पत्नी।

(होली का दिन)

(समय -- ९ बजे रात्रि, आनंदमोहन तथा दयाशंकर वर्तालाप करते जा रहे हैं।)

आ॰ -- हम लोगों को देर तो न हुई। अभी तो नौ बजे होंगे!

द॰ -- नहीं अभी क्या देर होगी!

आ॰ -- वहाँ बहुत इंतज़ार न कराना। क्योंकि एक तो दिन भर गली-गली घूमने के पश्चात् मुझमें इंतज़ार करने की शक्ति ही नहीं, दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिंग हाऊस का दरवाज़ा बंद हो जाता है।

द॰ -- अजी, चलते-चलते थाली सामने आएगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सब सामान तैयार रखना।

आ॰ -- तुम्हारा घर तो अभी दूर है। यहाँ मेरे पैरों में चलने की शक्ति ही नहीं। आओ कुछ बातचीत करते चलें। भला यह तो बताओ कि परदे के संबंध में तुम्हारा क्या विचार है? भाभीजी मेरे सामने आएँगी या नहीं, क्या मैं उनके चंद्रमुख का दर्शन कर सकूँगा? सच कहो।

द॰ -- तुम्हारे और मेरे बीच में भाईचारे का संबंध है। यदि सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सम्मुख आ जाय तो मुझे कोई म्लान नहीं। किंतु साधारणतः मैं परदे की प्रथा का सहायक और समर्थक हूँ। क्योंकि हम लोगों की सामाजिक नीति इतनी पवित्र नहीं है कि कोई स्त्री अपने लज्जाभाव को चोट पहुँचाए बिना अपने घर से बाहर निकले।

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आ॰ -- मेरे विचार में तो पर्दा ही कुचेष्टाओं का मूल कारण है। पर्दे से स्वभावतः पुरुषों के चित्त में उत्सुकता उत्पन्न होती है और वह भाव कभी तो बोली-ठोली में प्रकट होता है और कभी नेत्रों के कटाक्षों में।

द॰ -- जब तक हम लोग इतने दृढ़प्रतिज्ञ न हो जायँ कि सतीत्व रक्षा के पीछे प्राण भी बलिदान कर दें, तब तक परदे की प्रथा का तोड़ना समाज के मार्ग में विष बोना है।

आ॰ --- आपके विचार से तो यही सिद्ध होता है कि यूरोप में सतीत्व-रक्षा के लिए रात-दिन रुधिर की नदियाँ बहा करती हैं।

द॰ -- वहाँ इसी बेपर्दगी ने तो सतीत्व धर्म को निर्मूल कर दिया है। अभी मैंने किसी समाचारपत्र में पढ़ा था कि एक स्त्री ने किसी पुरुष पर इस प्रकार का अभियोग चलाया था कि उसने मुझे निर्भीकतापूर्वक कुदृष्टि से घूरा था, किंतु विचारक ने उस स्त्री को नख-शिख से देखकर यह कहकर मुक़दमा ख़ारिज कर दिया कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि हाट-बाट में नवजवान स्त्री को घूर कर देखे। मुझे तो यह अभियोग और यह फ़ैसला सर्वथा हास्यास्पद जान पड़ते हैं और किसी भी समाज को निंदित करनेवाले हैं।

आ॰ -- इस विषय को छोड़ो। यह तो बताओ कि इस समय क्या-क्या खिलाओगे? मित्र नहीं तो मित्र की चर्चा ही हो।

द॰ -- यह तो सेवती की पाककला-कुशलता पर निर्भर है। पूरियाँ और कचौरियाँ तो होंगी ही। यथासंभव ख़ूब खरी भी होंगी। यथाश्क्ति ख़स्ते और समोसे भी आएँगे। खीर आदि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। आलू और गोभी की शोरबेदार तरकारी और मटर, दालमोट भी मिलेंगे। फीरिनी के लिए भी कह आया था। गूलर के कोफ़ते और आलू के कबाब, यह दोनों सेवती ख़ूब पकाती है। इनके सिवा दही-बड़े और चटनी-अचार की चर्चा तो व्यर्थ ही है। हाँ, शायद किशमिश का रायता भी मिले, जिसमें केसर की सुगंध उड़ती होगी।

p.277

आ॰ -- मित्र, मेरे मुँह में तो पानी भर आया। तुम्हारी बातों ने तो मेरे पैरों में जान डाल दी। शायद पर होता तो उड़कर पहुँच जाता।

द॰ -- लो, अब आ ही जाते हैं। यह तंबाकूवाले की दूकान है, इसके बाद चौथा मकान मेरा ही है।

आ॰ -- मेरे साथ बैठकर एक ही थाली में खाना। कहीं ऐसा न हो कि अधिक खाने के लिए मुझे भाभीजी के सामने लज्जित होना पड़े।

द॰ -- इससे तुम निश्शंक रहो। उन्हें मिताहारी आदमी से चिढ़ है। वे कहती हैं -- {{जो खाएगा ही नहीं, वह दुनिया में काम क्या करेगा?}} आज शायद तुम्हारी बदौलत मुझे भी काम करनेवालों की पंक्ति में स्थान मिल जावे। कम से कम कोशिश तो ऐसी ही करना।

आ॰ -- भई, यथाशक्ति चेष्टा करूँगा। शायद तुम्हें ही प्रधान पद मिल जाए।

द॰ -- यह लो, आ गए। देखना, सीढ़ियों पर अँधेरा है। शायद चिराग जलाना भूल गईं।

आ॰ -- कोई हर्ज नहीं। तिमिरलोक ही में तो सिकंदर को अमृत मिला था।

द॰ -- अंतर इतना ही है कि तिमिरलोक में पैर फिसले तो पानी में गिरोगे और यहाँ फिसला तो पथरीली सड़क पर।

(ज्योतिस्वरूप आते हैं।)

ज्योति॰ -- सेवक भी उपस्थित हो गया। देर तो नहीं हुई? डबल मार्च करता आया हूँ।

द॰ -- नहीं, अभी तो देर नहीं हुई। शायद आपकी भोजनाभिलाषा आपको समय से पहले खींच लाई।

आ॰ -- आपका परिचय कराइए। मुझे आपसे देखा-देखी नहीं है।

द॰ -- (अँगरेज़ी में) मेरे सुदूर के संबंध में साले होते हैं। एक वकील के मुहर्रिर हैं। ज़बरदस्ती नाता जोड़ रहे हैं। सेवती ने निमंत्रण दिया होगा। मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। ये अँगरेज़ी नहीं जानते।

आ॰ -- इतना तो अच्छा है। अँगरेज़ी में ही बातें करेंगे।

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द॰ -- सारा मज़ा किरकिरा हो गया। कुमानुषों के साथ बैठकर खाना फोड़े के आपरेशन के बराबर है।

आ॰ -- किसी उपाय से इन्हें बिदा कर देना चाहिए।

द॰ -- मुझे तो चिंता यह है कि अब संसार के कार्यकर्ताओं में हमारी और तुम्हारी गणना ही न होगी। पाला इसके हाथ रहेगा।

आ॰ -- ख़ैर, ऊपर चलो। आनंद तो जब आवे कि इन महाशय को आधे पेट ही उठना पड़े।

(तीनों आदमी ऊपर जाते हैं।)

द॰ -- अरे! कमरे में भी रोशनी नहीं, घुप अँधेरा है। लाला ज्योतिस्वरूप, देखिएगा, कहीं ठोकर खाकर न गिर पड़िएगा।

आ॰ -- अरे ग़ज़ब ॰॰॰॰॰ (आलमारी से टकराकर धम से गिर पड़ता है)।

द॰ -- लाला ज्योतिस्वरूप, क्या आप गिरे? चोट तो नहीं आयी?

आ॰ -- अजी, मैं गिर पड़ा। कमर टूट गई। तुमने अच्छी दावत की।

द॰ -- भले आदमी, सैकड़ों बार तो आये हो। मालूम नहीं था कि सामने आलमारी रखी हुई है? क्या ज़्यादा चोट लगी?

आ॰ -- भीतर जाओ थालियाँ लाओ और भाभीजी से यह कह देना कि थोड़ा-सा तेल गर्म कर लें। मालिश कर लूँगा।

ज्योति॰ -- महाशय, यह आपने क्या रखा छोड़ा है। ज़मीन पर गिर पड़ा।

द॰ -- उगालदान तो नहीं लुढ़का दिया? हाँ, वही तो है। सारा फ़र्श ख़राब हो गया।

आ॰ -- बंधुवर, जाकर लालटेन जला लाओ। कहाँ लाकर काल-कोठरी में डाल दिया!

द॰ -- (घर में जाकर) अरे! यहाँ भी अँधेरा है! चिराग तक नहीं। सेवती, कहाँ हो?

से॰ -- बैठी तो हूँ।

द॰ -- यह बात क्या है? चिराग क्यों नहीं जले! तबीयत तो अच्छी है?

से॰ -- बहुत अच्छी है। बारे, तुम आ तो गए! मैंने समझा था कि आज आपका दर्शन ही न होगा।

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द॰ -- ज्वर है क्या? कब से आया है?

से॰ -- नहीं, ज्वर-स्वर कुछ नहीं, चैन से बैठी हूँ।

द॰ -- तुम्हारा पुराना बायगोला तो नहीं उभर आया?

से॰ -- (व्यंग्य से) हाँ, बायगोला ही तो है। लाओ, कोई दवा है?

द॰ -- अभी डाक्टर के यहाँ से मँगवाता हूँ।

से॰ -- कुछ मुफ़्त की रक़म हाथ आ गई है क्या? लाओ, मुझे दे दो, अच्छी हो जाऊँ।

द॰ -- तुम तो हँसी कर रही हो। साफ़-साफ़ कोई बात नहीं कहतीं। क्या मेरे देर से आने का यही दंड है? मैंने नौ बजे आने का वचन दिया था। शायद दो चार मिनट अधिक हुए हों। सब चीज़ें तैयार हैं न?

से॰ -- हाँ, बहुत ही ख़स्ता। आधो-आध मक्खन डाला था।

द॰ -- आनंदमोहन से मैंने तुम्हारी ख़ूब प्रशंसा की है।

से॰ -- ईश्वर ने चाहा तो वे भी प्रशंसा ही करेंगे। पानी रख आओ, हाथ-वाथ तो धोएँ।

द॰ -- चटनियाँ भी बनवा ली हैं न? आनंदमोहन को चटनियाँ से बहुत प्रेम है।

से॰ -- ख़ूब चटनी खिलाओ। सेरों बना रखी है।

द॰ -- पानी में केवड़ा डाल दिया है?

से॰ -- हाँ, ले जाकर पानी रख आओ। पानी आरंभ करें, प्यास लगी होगी।

आ॰ -- (बाहर से) मित्र, शीघ्र आओ। अब इंतज़ार करने की शक्ति नहीं है।

द॰ -- जल्दी मचा रहा है। लाओ, थालियाँ परसो।

से॰ -- पहले चटनी और पानी तो रख आओ।

द॰ -- (रसोई में जाकर) अरे! यहाँ तो चूल्हा बिलकुल ठंडा पड़ गया है। महरी आज सबेरे ही काम कर गई क्या?

से॰ -- हाँ, खाना पकने से पहले ही आ गई थी।

द॰ -- बर्तन सब मँजे हुए रखे हैं। क्या कुछ पकाया ही नहीं?

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से॰ -- भूत-प्रेत आकर खा गए होंगे।

द॰ -- क्या चूल्हा ही नहीं जलाया? ग़ज़ब कर दिया।

से॰ -- ग़ज़ब मैंने कर दिया या तुमने?

द॰ -- मैंने तो सब सामान लाकर रख दिया था। तुमसे बार-बार पूछ लिया था कि किसी चीज़ की कमी हो तो बतलाओ। फिर खाना क्यों न पका? क्या विचित्र रहस्य है! भला मैं इन दोनों को क्या मुँह दिखाऊँगा।

आ॰ -- मित्र, क्या तुम अकेले ही सब सामग्री चट कर रहे हो? इधर भी लोग आशा लगाए बैठे हैं। इंतज़ार दम तोड़ रहा है।

से॰ -- यदि सब सामग्री लाकर रख ही देते, तो मुझे बनाने में क्या आपत्ति थी?

द॰ -- अच्छा, यदि दो-एक वस्तुओं की कमी ही रह गई थी, तो इसका क्या अभिप्राय कि चूल्हा ही न जले? यह तो किसी अपराध का दंड दिया है। आज होली का दिन और यहाँ आग ही न जली?

से॰ -- जब तक ऐसे चरके न खाओगे, तुम्हारी आँखें न खुलेंगी।

द॰ -- तुम तो पहेलियों से बातें कर रही हो। आख़िर किस बात पर अप्रसन्न हो? मैंने कौन-सा अपराध किया? जब मैं यहाँ से जाने लगा था, तुम प्रसन्नमुख थीं और इसके पहले भी मैंने तुम्हें दुखी नहीं देखा था। तो मेरी अनुपस्थिति में कौन ऐसी बात हो गई कि तुम इतनी रूठ गईं?

से॰ -- घर में स्त्रियों को क़ैद करने का यह दंड है।

द॰ -- अच्छा तो यह इस अपराध का दंड है? मगर तुमने मुझसे परदे की निंदा नहीं की। बल्कि इस विषय पर जब कोई बात छिड़ती थी, तो तुम मेरे विचारों से सहमत ही रहती थीं। मुझे आज ही ज्ञात हुआ है कि तुम्हें परदे से इतनी घृणा है! क्या दोनों अतिथियों से यह कह दूँ कि परदे की सहायता के दंड में मेरे यहाँ अनशन व्रत है, आप लोग ठंडी-ठंडी हवा खाएँ?

से॰ -- जो चीज़ें तैयार हैं, वह जाकर खिलाओ और जो नहीं है, उसके लिए क्षमा माँगो।

द॰ -- मैं तो कोई चीज़ तैयार नहीं देखता?

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से॰ -- हैं क्यों नहीं, चटनी बना ही डाली है और पानी भी पहले से तैयार है।

द॰ -- यह दिल्लगी तो हो चुकी। सचमुच बताओ, खाना क्यों नहीं पकाया? क्या तबीयत ख़राब हो गई थी, अथवा किसी कुत्ते ने रसोई आकर अपवित्र कर दी थी?

आ॰ -- बाहर क्यों नहीं आते हो भाई, भीतर ही भीतर क्या मिसकौट कर रहे हो? अगर सब चीज़ें नहीं तैयार हैं, नहीं सही, जो कुछ तैयार हो वही लाओ। इस समय तो सादी पूरियाँ भी ख़स्ते से अधिक स्वादिष्ट जान पड़ेगी। कुछ लाओ, भला श्रीगणेश तो हो। मुझसे अधिक उत्सुक मेरे मित्र मुंशी ज्योतिस्वरूप हैं।

से॰ -- भैया ने दावत के इंतज़ार में आज दोपहर को भी खाना न खाया होगा।

द॰ -- बात क्यों टालती हो, मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देतीं?

से॰ -- नहीं जवाब देती, क्या कुछ आपका क़र्ज़ खाया है या रसोई बनाने के लिए लौंडी हूँ?

द॰ -- यदि मैं घर का काम करके अपने को दास नहीं समझता, तो तुम घर का काम करके अपने को दासी क्यों समझती हो?

से॰ -- मैं नहीं समझती, तुम समझते हो।

द॰ -- क्रोध मुझे आना चाहिए, उल्टी तुम बिगड़ रही हो।

से॰ -- तुम्हें क्यों मुझ पर क्रोध आना चाहिए? इसलिए कि तुम पुरुष हो?

द॰ -- नहीं, इसलिए कि तुमने आज मुझे मेरे मित्रों तथा संबंधियों के सम्मुख नीचा दिखाया।

से॰ -- नीचा दिखाया तुमने मुझे कि मैंने तुम्हें? तुम तो किसी प्रकार क्षमा करा लोगे, किंतु कालिमा तो मेरे मुख लगेगी।

आ॰ -- भई, अपराध क्षमा हो, मैं भी वहीं आता हूँ। यहाँ तो किसी पदार्थ की सुगंध तक नहीं आती।

द॰ -- क्षमा क्या करा लूँगा, लाचार होकर बहाना करना पड़ेगा।

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से॰ -- चटनी खिलाकर पानी पिलाओ। इतना सत्कार बहुत है। होली का दिन है, यह भी एक प्रहसन रहेगा।

द॰ -- प्रहसन क्या रहेगा, कहीं मुख दिखाने योग्य न रहूँगा। आख़िर तुम्हें यह क्या शरारत सूझी?

से॰ -- फिर वही बात! शरारत क्यों सूझती! क्या तुमसे और तुम्हारे मित्रों से कोई बदला लेना था? लेकिन जब लाचार हो गई तो क्या करती? तुम तो दस मिनट पछताकर और मुझ पर अपना क्रोध मिटाकर आनंद से सोओगे। यहाँ तो मैं तीन बजे से बैठी झींक रही हूँ। और यह सब तुम्हारी करतूत है।

द॰ -- यही तो पूछता हूँ कि मैंने क्या किया?

से॰ -- तुमने मुझे पिंजरे में बंद कर दिया, पर काट दिए! मेरे सामने दाना रख दो तो खाउँ, मुधिया में पानी डाल दो तो पीऊँ, यह किसका क़सूर है?

द॰ -- भाई, छिपी-छिपी बातें न करो। साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहतीं।

आ॰ -- विदा होता हूँ, मौज उड़ाइए। नहीं, बाज़ार की दूकानें भी बंद हो जायँगी। ख़ूब चकमा दिये मित्र, फिर समझेंगे। लाला ज्योतिस्वरूप तो बैठे-बैठे अपनी निराशा को खर्राटों से भुला रहे हैं। मुझे यह संतोष कहाँ! तारे भी नहीं हैं कि बैठकर उन्हें ही गिनूँ। इस समय तो स्वादिष्ट पदार्थों को स्मरण कर रहा हूँ।

द॰ -- बंधुवर, दो मिनट और संतोष करो। आया। हाँ! लाला ज्योतिस्वरूप से कह दो कि किसी हलवाई की दूकान से पूरियाँ ले आएँ। यहाँ कम पड़ गई हैं। आज दोपहर ही से इनकी तबीयत ख़राब हो गई है। मेरे मेज़ की दराज़ में रुपये रखे हुए हैं।

से॰ -- साफ़-साफ़ तो यही है कि तुम्हारे परदे ने मुझे पंगु बना दिया है। कोई मेरा गला भी घोंट जाय तो फ़रियाद नहीं कर सकती।

द॰ -- फिर भी वही अन्योक्ति! इस विषय का अंत भी होगा या नहीं?

से॰ -- दियासलाई तो थी ही नहीं, फिर आग कैसे जलाती!

द॰ -- अहा! मैंने जाते समय दियासलाई की डिबिया जेब में रख ली थी ॰॰॰ ज़रा सी बात का तुमने इतना बतंगड बना दिया। शायद मुझे तंग करने के लिए अवसर ढूँढ़ रही थीं। कम से कम मुझ तो ऐसा ही जान पड़ता है।

p.283

से॰ -- यह तुम्हारी ज़्यादती है। ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे, मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ़ गई, किंतु वह लापता थी। ताड़ गई कि तुम ले गए। तुम मुश्किल से दरवाज़े तक पहुँचे होगे। अगर ज़ोर से पुकारती तो तुम सुन लेते। लेकिन नीचे दूकानदारों के कान में भी आवाज़ जाती, तो सुनकर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते। हाथ मलकर रह गई। उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती तो अच्छा होता। मगर कोई वश न चलता था। अंत में लाचार होकर बैठ रही।

द॰ -- यह कहो कि तुम मुझे तंग करना चाहती थीं। नहीं तो क्या आग या दियासलाई न मिल जाती?

से॰ -- अच्छा, तुम मेरी जगह होते तो क्या करते? नीचे सबके सब दूकानदार हैं। और तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पंडितजी रहते हैं। इनके घर में कोई स्त्री नहीं। सारे दिन फाग हुई है। बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे। दूसरी ओर बंगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियाँ किसी संबंधी से मिलने गयी हैं और अब तक नहीं आयीं। इन दोनों से भी बिना छज्जे पर आये, चीज़ न मिल सकती थी। लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते। और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो। महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गयी थी। रह-रहकर तुम्हारे ही ऊपर क्रोध आता था।

द॰ -- तुम्हारी लाचारी का कुछ अनुमान कर सकता हूँ, पर मुझे अब भी यह मानने में आपत्ति है कि दियासलाई का न होना चूल्हा न जलने का वास्तविक कारण हो सकता है।

से॰ -- तुम्हीं से पूछती हूँ कि बतलाओ, क्या करती?

द॰ -- मेरा मन इस समय स्थिर नहीं, किंतु मुझे विश्वास है कि यदि मैं तुम्हारे स्थान पर होता तो होली के दिन और ख़ासकर जब अतिथि भी उपस्थित हों, चूल्हा ठंडा न रहता। कोई न कोई उपाय अवश्य ही निकालता।

से॰ -- जैसे?

p.284

द॰ -- एक रुक्का लिखकर किसी दूकानदार के सामने फेंक देता।

से॰ -- यदि मैं ऐसा करती तो शायद तुम आँख मिलाने का मुझ पर कलंक लगाते।

द॰ -- अँधेरा हो जाने पर सिर से पैर तक चादर ओढ़कर बाहर निकल जाता और दियासाई ले आता। घंटे दो घंटे में अवश्य ही कुछ न कुछ तैयार हो जाता। ऐसा उपवास तो न करना पड़ता।

से॰ -- बाज़ार जाने से मुझे तुम गली-गली घूमनेवाली कहते और गला काटने पर उतारू हो जाते। तुमने मुझे कभी इतनी स्वतंत्रता नहीं दी। यदि कभी स्नान करने जाती हूँ तो गाड़ी का पट बंद रहता है।

द॰ -- अच्छा, तुम जीतीं और मैं हारा। सदैव के लिए उपदेश मिल गया कि ऐसे अत्यावश्यक समय पर तुम्हें घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता है।

से॰ -- मैं तो इसे आकस्मिक समय नहीं कहती। आकस्मिक समय तो वह है कि दैवात् घर में कोई बीमार हो जाय और उसे डाक्टर के यहाँ ले जाना आवश्यक हो।

द॰ -- निस्संदेह वह समय आकस्मिक है। इस दशा में तुम्हारे जाने में कोई हस्तक्षेप नहीं।

से॰ -- और भी आकस्मिक समय गिनाऊँ?

द॰ -- नहीं भाई, इसका फ़ैसला तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर है।

आ॰ -- मित्र, संतोष की सीमा का तो अंत हो गया; अब प्राण-पीड़ा हो रही है। ईश्वर करे, घर आबाद रहे, बिदा होगा हूँ।

द॰ -- बस, एक मिनट और। उपस्थित हुआ।

से॰ -- चटनी और पानी लेते जाओ और पूरियाँ बाज़ार से मँगवा लो। इसके सिवा इस समय हो ही क्या सकता है?

द॰ -- (मरदाने कमरे में आकर) पानी लाया हूँ, प्यालियाँ में चटनी है। आप लोग जब तक भोग लगावें। मैं अभी आता हूँ।

आ॰ -- धन्य है ईश्वर! भला तुम बाहर तो निकले। मैंने तो समझा था कि एकांतवास करने लगे। मगर निकले भी तो चटनियाँ लेकर। वह स्वादिष्ट वस्तुएँ क्या हुईं, जिनका आपने वादा किया था और जिनका स्मरण मैं प्रेमानुरक्त भाव से कर रहा हूँ?

p.285

द॰ -- ज्योतिस्वरूप कहाँ गये?

आ॰ -- ऊद्र्ध्व संसार में भ्रमण कर रहे हैं। बड़ा ही अद्भुत उदासीन मनुष्य है कि आते ही आते सो गया और अभी तक नहीं चौंका।

द॰ -- मेरे यहाँ एक दुर्घटना हो गई। उसे और क्या कहूँ? सब सामान मौजूद और चूल्हे में आग न जली।

आ॰ -- ख़ूब! यह एक ही रही। लकड़ियाँ न रही होंगी।

द॰ -- घर में तो लकड़ियों का पहाड़ लगा है। अभी थोड़े ही दिन हुए कि गाँव से एक गाड़ी लकड़ी आ गई थी। दियासलाई न थी।

आ॰ -- (अट्टहास कर) वाह! यह अच्छा प्रहसन हुआ। थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया। कम से कम मेरी तो बघिया बैठ गई।

द॰ -- क्या कहूँ मित्र, अत्यंत लज्जित हूँ। तुमने सत्य कहता हूँ। आज से मैं परदे का शत्रु हो गया। इस निगोड़ी प्रथा के बंधन ने ठीक होली के दिन ऐसा विश्वासघात किया, जिसकी कभी भी संभावना न थी। अच्छा, अब बतलाओ, बाज़ार से लाऊँ पूरियाँ? अभी तो ताज़ी मिल जायँगी।

आ॰ -- बाज़ार का रास्ता तो मैंने भी देखा है। कष्ट न करो। जाकर बोर्डिंग हाउस में खा लूँगा। रहे ये महाशय, मेरे विचार में तो इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो। प्रातःकाल चौंकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे।

द॰ -- तुम्हारा यों वापस जाना मुझे खल रहा है। क्या सोचा था, क्या हुआ! मज़े ले-लेकर समोसे और कोफ़ते खाते और गपड़चौथ मचाते। सभी आशाएँ मिट्टी में मिल गईं। ईश्वर ने चाहा तो शीघ्र इसका प्रायश्चित्त करूँगा।

आ॰ -- मुझे तो इस बात की प्रसन्नता है कि तुम्हारा सिद्धांत टूट गया। अब इतनी आज्ञा दो कि भाभीजी को धन्यवाद दे आऊँ।

द॰ -- शौक़ से जाओ।

आ॰ -- (भीतर जाकर) भाभीजी को सष्टांग प्रणाम कर रहा हूँ। यद्यपि आज के आकाशी भोज से मुझे दुराशा तो अवश्य हुई, किंतु वह उस आनंद के सामने शून्य है, जो भाई साहब के विचार-परिवर्तन से हुआ है। आज एक दियासलाई ने जो शिक्षा प्रदान की है, वह लाखों प्रामाणिक प्रमाणों से भी संभव नहीं है। इसके लिए मैं आपको सहर्ष धन्यवाद देता हूँ। अब से बंधुवर परदे के पक्षपाती न होंगे, यह मेरा अटल विश्वास है।

p.286

(पटाक्षेप)