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राज्यभक्त

संध्या का समय था। लखनऊ के बादशाह नासिरुद्दीन अपने मुसाहबों और दरबारियों के साथ बाग़ की सैर कर रहे थे। उनके सिर पर रत्न-जटित मुकुट की जगह अँगरेज़ी टोपी थी। वस्त्र भी अँगरेज़ी ही थे। मुसाहबों में पाँच अँगरेज़ थे। उनमें से एक के कंधे पर सिर रखकर बादशाह चल रहे थे। तीन-चार हिंदुस्तानी भी थे। उनमें एक राजा बख्तावरसिंह थे। वह बादशाही सेना के अध्यक्ष थे। उन्हें सब लोग {{जेनरल}} कहा करते थे। वह अधेड़ आदमी थे। शरीर ख़ूब गठा हुआ। लखनवी पहनावा उइन पर्र बहुत सजता था। मुख से विचारशीलता झलक रही थी। दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था। यह राज्य के प्रधान मंत्री थे। बड़ी-बड़ी मूँछें और नाटा डील था जिसे ऊँचा करने के लिए वह तनकर चलते थे। नेत्रों से गर्व टपक रहा था। शेष लोगों में एक कोतवाल था और दो बाहशाह के रक्षक। यद्यपि अभी १९वीं शताब्दी का आरंभ ही था, पर बादशाह ने अँगरेज़ी रहन-सहन अख़्तियार कर ली थी। भोजन भी प्राय अँगरेज़ी ही करते थे। अँगरेज़ों पर उनका असीम विश्वास था। वह सदैव उनका पक्ष लिया करते थे। मजाल न थी कि कोई बड़े-से-बड़ा राजा या राजकर्मचारी किसी अँगरेज़ से बराबरी करने का साहस कर सके।

अगर किसी में यह हिम्मत थी, तो वह राजा बख्तावरसिंह थे। उनसे कंपनी का बढ़ता हुआ अधिकार न देखा जाता था; कंपनी की उस सेना की संख्या, जो उसने अवध के राज्य की रक्षा के लिए लखनऊ में नियुक्त की थी, दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी परिमाण से सेना का व्यय भी बढ़ रहा था। राज-दरबार उसे चुका न सकने के कारण कंपनी का ऋणी होता जाता था। बादशाही सेना की दशा हीन से हीनतर होती जाती थी। उसमें न संगठन था, न बल। बरसों तक सिपाहियों का वेतन न मिलता था। शस्त्र सभी पुराने थे। वर्दी फटी हुई। कवायद का नाम नहीं। कोई उनका पूछनेवाला न था। अगर राजा बख्तावरसिंह वेतन-वृद्धि या नए शस्त्रों के संबंध में कोई प्रयत्न करते, तो कंपनी का रेजीडेंट उसका घोर विरोध और राज्य पर विद्रोहात्मक शक्ति-संचार का दोषारोपण करता था। उधर से डाँट पड़ती तो बादशाह अपना गुस्सा राजा साहब पर उतारते। बादशाह के सभी अँगरेज़ मुसाहब राजा साहब से शंकित रहते और उनकी जड़ खोदने का प्रयास किया करते थे। पर वह राज्य का सेवक एक ओर अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने कर्तव्य का पालन करता जाता था। मज़ा यह कि सेना भी उनसे संतुष्ट न थी।

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सेना में अधिकांश लखनऊ के शोहदे और गुंडे भरे हुए थे। राजा साहब जब उन्हें हटाकर अच्छे-अच्छे जवानों की भरती करने की चेष्टा करते, तो सारी सेना में हाहाकार मच जाता। लोगों को शंका होती कि यह राजपूतों की सेना बनाकर कहीं राज्य ही पर तो हाथ नहीं बढ़ाना चाहते? इसलिए मुसलमान भी उनसे बदगुमान रहते थे। राजा साहब के मन में बार-बार प्रेरणा होती कि इस पद को त्यागकर चले जायँ; पर यह भय उन्हें रोकता था कि मेरे हटते ही अँगरेज़ों की बन आएगी और बादशाह उनके हाथों में कठपुतली बन जाएँगे; रही-सही सेना के साथ अवध राज्य का अस्तित्व भी मिट जाएगा। अतएव इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी चारों ओर बैर-विरोध से घिरे होने पर भी, वह पने पद से हटने का निश्चय न कर सकते थे। सबसे कठिन समस्या यह थी कि रोशनुद्दौला भी राजा साहब से ख़ार खाता था। उसे सदैव शंका रहती कि यह मराठों से मैत्री करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं। इसलिए वह राजा साहब के प्रत्येक कार्य में बाधा डालता रहता था! उसे अब भी आशा थी कि अवध का मुसलमानी राज्य अगर जीवित रह सतका है, तो अँगरेज़ों के संरक्षण में; अन्यथा वह अवश्य हिंदुओं की बढ़ती हुई शक्ति का ग्रास बन जायगा।

वास्तव में बख्तावरसिंह की दशा अत्यंत करुण थी। वह अपनी चतुराई से जिह्वा की भाँति दाँतों के बीच में पड़े हुए अपना काम किए जाते थे। यों तो वह स्वभाव के अक्खड़ थे, अपना काम निकालने के लिए मधुरता और मृदुलता, शील और विनय का आवाहन करते रहते थे। इससे उनके व्यवहार में कृत्रिमता आ जाती थी और वह शत्रुओं को उनकी ओर से और भी सशंक बना देती थी।

बादशाह ने एक अँगरेज़-मुसाहब से पूछा -- तुमको मालूम है, मैं तुम्हारी कितनी ख़ातिर करता हूँ? मेरी सल्तनत में किसी को मजाल नहीं कि वह किसी अँगरेज़ को कड़ी निगाहों से देख सके।

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अँगरेज़ मुसाहब ने सिर झुकाकर कहा -- हम हुज़ूर की इस मिहरबानी को कभी नहीं भूल सकते।

बादशाह -- इमामहुसैन की क़सम, अगर यहाँ कोई आदमी तुम्हें तकलीफ़ दे, तो मैं उसे फ़ौरन जिंदा दिवार में चुनवा दूँ।

बादशाह की आदत थी कि वह बहुधा अपनी अँगरेज़ी टोपी हाथ में लेकर उसे उँगली पर नचाने लगते थे। रोज़-रोज़ नचाते-नचाते टोपी में उँगली का घर हो गया था। इस स्मय जो उन्होंने टोपी उठाकर उँगली पर रखी तो टोपी में छेद हो गया। बादशाह का ध्यान अँगरेज़ों की तरफ़ था। बख्तावरसिंह बादशाह के मुँह से ऐसी बात सुनकर कबाब हुए जाते थे। उक्त कथन में कितनी ख़ुशामद, कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजों का कितना अपमान था! और लोग तो टोपी का छिद्र देखकर हँसने लगे, पर राजा बख्तावरसिंह के मुँह से अनायास निकल गया -- हुज़ूर, ताज में सुराख़ हो गया।

राजा साहब के शत्रुओं ने तुरंत कानों पर उँगलियाँ रख लीं। बादशाह को भी ऐसा मालूम हुआ कि राजा ने मुझ पर व्यंग्य किया। उनके तेवर बदल गए। अँगरेज़ों और अन्य सभासदों ने इस प्रकार काना-फूसी शुरू की, जैसे कोई महान् अनर्थ हो गया। राजा साहब के मुँह से अनर्गल शब्द अवश्य निकले, इसमें कोई संदेह नहीं था! संभव है, उन्होंने जान-बूझकर व्यंग्य न किया हो, उनके दुःखी हृदय ने साधारण चेतावनी को यह तीव्र रूप दे दिया; पर बात ज़रूर गई थी। अब उनके शत्रु उन्हें कुचलने के ऐसे सुंदर अवसर को हाथ से क्यों जाने देते?

राजा साहब ने सभा का यह रंग देखा, तो ख़ून सर्द हो गया। समझ गए, आज शत्रुओं के पंजे में फँस गया और ऐसा बुरा फँसा कि भगवान् ही निकालें तो निकल सकता हूँ।

बादशाह ने कोतवाल से लाल अँखें करके कहा -- इस नमकहराम को क़ैद कर लो और इसी वक़्त इसका सिर उड़ा दो। इसे मालूम हो जाय कि बादशाहों से बेअदबी करने का क्या नतीजा होता है।

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कोतवाल को सहसा {जेनरल} पर हाथ बढ़ाने की हिम्मत न पड़ी। रोशनुद्दौला ने उससे इशारे से कहा -- खड़े सोचते क्या हो, पकड़ लो, नहीं तो तुम भी इसी आग में जल जाओगे।

तब कोतवाल ने आगे बढ़कर बख्तावरसिंह को गिरफ़्तार कर लिया। एक क्षण में उनकी मुश्कें कस दी गईं। लोग उन्हें चारों ओर से घेरकर कत्ल करने ले चले।

बादशाह ने मुसाहबों से कहा -- मैं भी वहीं चलता हूँ। ज़रा देखूँगा कि नमकहरामों की लाश क्योंकर तड़पती है।

कितनी घोर पशुता थी! यही प्राणी ज़रा देर पहले बादशाह का विश्वासपात्र था!

एकाएक बादशाह ने कहा -- पहले इस नमकहराम की खिलअत उतार लो। मैं नहीं चाहता कि मेरी खिलअत की बेइज़्ज़ती हो।

किसकी मजाल थी, जो ज़रा भी ज़बान हिला सके। सिपाहियों ने राजा साहब के वस्त्र उतारने शुरू किए। दुर्भाग्यवश उनके एक जेब से पुस्तौल निकल आयी। उसकी दोनों नालियाँ भरी हुई थीं। पिस्तौल देखते ही बादशाह की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। बोले -- क़सम है हज़रत इमामहुसैन की, अब इसकी जाँबख्शी नहीं करूँगा। मेरे साथ भरी हुई पिस्तौल की क्या ज़रूरत! ज़रूर इसकी नीयत में फितूर था। अब मैं इसे कुत्तों से नुचवाऊँगा। (मुसहबों की तरफ़ देखकर) देखी, तुम लोगों ने इसकी नीयत! मैं अपनी आस्तीन में साँप पाले हुए था। आप लोगों के ख़याल में इसके पास भरी हुई पिस्तौल का निकलना क्या माने रखता है?

अँगरेज़ों को केवल राजा साहब को नीचा दिखाना मंज़ूर था। वे उन्हें अपना मित्र बनाकर जितना काम निकाल सकते थे, उतना उनके मारे जाने से नहीं। इसी से एक अँगरेज़-मुसाहब ने कहा -- मुझे तो इसमें कोई ग़ैरमुनासिब बात नहीं मालूम होती। जेनरल आपका बाडीगार्द (रक्षक) है। उसे हमेशा हथियार-बंद रहना चाहिए, ख़ासकर जब आपकी ख़िदमत में हो। नहीं मालूम, किस वक़्त इसकी ज़रूरत आ पड़े।

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दूसरे अँगरेज़-मुसाहबों ने भी इस विचार की पुष्टि की। बादशाह के क्रोध की ज्वाला कुछ शांत हुई। अगर ये ही बातें किसी हिंदुस्तानी मुसाहब की ज़बान निकली होतीं, तो उसकी जान की ख़ैरियत न थी। कदाचित् अंगरेज़ों को अपनी न्याय-परता का नमूना दिखाने ही के लिए उन्होंने यह प्रश्न किया था। बोले -- क़सम हज़रत इमाम की, तुम सबके शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो! पर मैं एक न मानूँगा, बुलाओ कप्तान साहब को। मैं उनसे यही सवाल करता हूँ। अगर उन्होंने भी तुम लोगों के ख़याल की ताईद की, तो इसकी जान न लूँगा। और अगर उनकी राय इसके ख़िलाफ़ हुई, तो इस मक्कार को इसी वक़्त जहन्नुम भेज दूँगा। मगर ख़बरदार, कोई उनकी तरफ़ किसी तरह का इशारा न करे; वर्ना मैं ज़रा भी रू-निआयत न करूँगा।

सब सिर झुकाए बैठे रहे।

कप्तान साहब थे तो राजा साहब के आउरदे, पर इन दिनों बादशाह की उन पर विशेष कृपा थी। वह उन सच्चे राज-भक्तों में थे, जो अपने को राजा का नहीं, राज्य का सेवक समझते हैं। वह दरबार से अलग रहते थे। बादशाह उनके कामों से बहुत संतुष्ट थे। एक आदमी तुरंत कप्तान साहब को बुला लाया। राजा साहब की जान उनकी मुट्ठी में थी। रोशनुद्दौला को छोड़कर ऐसा शायद एक व्यक्ति भी न था, जिसका हृदय आशा और निराशा से न धड़क रहा हो। सब मन में भगवान् से यही प्रार्थना कर रहे थे कि कप्तान साहब किसी तरह से इस समस्या को समझ जायँ। कप्तान साहब आये, और उड़ती हुई दृष्टि से सभा की ओर देखा। सभी की आँखें नीचे झुकी हुई थीं। वह कुछ अनिश्चित भाव से सिर झुकाकर खड़े हो गए।

बादशाह ने पूछा -- मेरे मुसाहबों को अपनी जेब में भरी हुई पिस्तौल रखना मुनासिब है या नहीं?

बरदारियों की नीरवता, उनके आशंकित चेहरे और उनकी चिंतायुक्त अधीरता देखकर कप्तान साहब को वर्तमान समस्या की कुछ टोह मिल गई। वह निर्भीक भाव से बोले -- हुज़ूर, मेरे ख़याल में तो यह उनका फ़र्ज़ है। बादशाह के दोस्त-दुश्मन सभी होते हैं। अगर मुसाहब लोग उनकी रक्षा का भार न लेंगे, तो कौन लेगा? उन्हें सिर्फ़ पिस्तौल ही नहीं, और भी छिपे हुए हथियारों से लैस रहना चाहिए। न जाने कब हथियारों की ज़रूरत आ पड़े, तो वह ऐन वक़्त पर कहाँ दौड़ते फिरेंगे?

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राजा साहब के जीवन के दिन बाक़ी थे। बादशाह ने निराश होकर कहा -- रोशन, इसे कत्ल मत करना, कालकोठरी में क़ैद कर दो। मुझसे पूछे बग़ैर इसे दाना-पानी कुछ न दिया जाय। जाकर इसके घर का सारा माल-असबाब ज़ब्त कर लो और सारे ख़ानदान को जेल में बंद कर दो। इसके मकान की दीवारें ज़मीं-दोज करा देना। घर में एक फूटी हाँड़ी भी न रहने पाए।

इससे तो यही कहीं अच्छा था कि राजा साहब ही की जान जाती। ख़ानदान की बेइज़्ज़ती तो न होती, महिलाओं का अपमान तो न होता, दरिद्रता की चोटें तो न सहनी पड़तीं! विकार को निकलने का मार्ग नहीं मिलता, तो वह सारे शरीर में फैल जाता है। राजा के प्राण तो बचे, पर सारे ख़ानदान को विपत्ति में डालकर!

रोशनुद्दौला को मुँह-माँगी मुराद मिली। उसकी ईर्ष्या कभी इतनी संतुष्ट न हुई थी। वह मगन था कि आज वह काँटा निकल गया, जो बरसों से हृदय में चुभा हुआ था। आज हिंदू-राज्य का अंत हुआ। अब मेरा सिक्का चलेगा। अब मैं समस्त राज्य का विधाता हूँगा। संध्या से पहले ही राजा साहब की सारी स्थावर और जंगम संपत्ति कुर्क हो गई। वृद्ध माता-पिता, सुकोमल रमणियाँ, छोटे-छोटे बालक सबके सब जेल में क़ैद कर दिए गए। कितनी करुणा दशा थी! वे महिलाएँ, जिन पर कभी देवतों की भी निगाह न पड़ी थी, खुले मुँह, नंगे पैर, पाँव घसीटती, शहर की भरी हुई सड़कों और गलियों से होती हुई, सिर झुकाए, शोक-चित्रों की भाँति, जेल की तरफ़ चली जाती थीं। सशस्त्र सिपाहियों का एक बड़ा दल साथ था। जिस पुरुष के एक इशारे पर कई घंटे पहले सारे शहर में हलचल मच जाती, उसी के ख़ानदान की यह दुर्दशा!

राजा बख्तावरसिंह को बंदीगृह में रहते हुए एक मास बीत गया। वहाँ उन्हें सभी प्रकार के कष्ट दिए जाते थे। यहाँ तक कि भोजन भी यथासमय न मिलता था। उनके परिवार को भी असह्य यातनाएँ दी जाती थीं। लेकिन राजा साहब को बंदी-गृह में एक प्रकार की शांति का अनुभव होता था। वहाँ प्रतिक्षण यह खटका तो न रहता था कि बादशाह मेरी किसी बात से नाराज़ न हो जायँ; मुसाहिब लोग कहीं मेरी शिकायत हो नहीं कर रहे हैं। शारीरिक कष्टों का सहना उतना कठिन नहीं, जितना कि मानासिक कष्टों का। यहाँ सब तकलीफ़ें थीं, पर सिर पर तलवार तो नहीं लटक रही थी। उन्होंने मन में निश्चय किया कि अब चाहे बादशाह मुझे मुक्त भी कर दें, मगर मैं राज-काज से अलग ही रहूँगा। इस राज्य का सूर्य अस्त होनेवाला है; कोई मानवी-शक्ति उसे विनाश-दिशा में लीन होने से नहीं रोक सकती। ये उसी पतन के लक्षण हैं, नहीं तो क्या मेरी राज-भक्ति का यही पुरस्कार मिलना चाहिए था? मैंने अब तक कितनी कठिनाइयों से राज्य की रक्षा की है, यह भगवान् ही जानते हैं। एक ओर तो बादशाह की निरंकुशता, दूसरी ओर बलवान् और युक्ति-संपन्न शत्रुओं की कूटनीति -- इस शिला और भँवर के बीच में राज्य की नौका को चलाते रहना कितना कष्टसाध्य था! शायद ही ऐसा कोई दिन गुज़रा होगा, जिस दिन मेरा चित्ता-प्राण शंका से आंदोलित न हुआ हो। इस सेवा, भक्ति और तल्लीनता का यह पुरस्कार है! मेरे मुख से व्यंग्य-शब्द अवश्य निकले, लेकिन उनके लिए इतना कठोर दंड? इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मैं कत्ल कर दिया गया होता, अपनी आँखों से अपने परिवार की यह दुर्गति तो न देखता। सुनता हूँ, पिताजी को सोने के लिए चटाई नहीं दी गई है! न जाने स्त्रियों पर कैसे-कैसे अत्याचार हो रहे होंगे। लेकिन इतना जानता हूँ कि प्यारी सुखदा अंत तक अपने सतीत्व की रक्षा करेगी, अन्यथा प्राण त्याग देगी। मुझे इन बेड़ियों की पर्वाह नहीं। पर सुनता हूँ, लड़कों के पैरों में भी बेड़ियाँ डाली गई हैं। यह सब इसी कुटिल रोशनुद्दौला की शरारत है। जिसका जी चाहे, इस समय सता ले, कुचल ले, मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। भगवान् से यही प्रार्थना है कि अब संसार से उठा ले। मुझे अपने जीवन में जो कुछ करना था, कर चुका, और उसका ख़ूब फल पा चुका। मेरे जैसे आदमी के लिए संसार में स्थान नहीं है।

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राजा इन्हीं विचारों में डूबे थे। सहसा उन्हें अपनी काल-कोठरी की ओर किसी के आने की आहट मिली। रात बहुत जा चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा छाया था, और उस अंधकारमय सन्नाटे में किसी के पैरों की चाप स्पष्ट सुनाई देती थी। कोई बहुत पाँव दबा-दबाकर चला आ रहा था। राजा साहब का कलेजा धक-धक करने लगा। उठकर खड़े हो गए। हम निःशास्त्र और प्रतिकार के लिए असमर्थ होने पा भी बैठे-बैठे वारों का निशाना नहीं बनना चाहते। खड़े हो जाना आत्मरक्षा का अंतिम प्रयत्न है। कोठरी में ऐसी कोई वस्तु न थी, जिससे वह अपनी रक्षा कर सकते। समझ गए, अंतिम समय आ गया। शत्रुओं ने इस तरह मेरे प्राण लेने की ठानी है। अच्छा है, जीवन के साथ इस आपत्ति का भी अंत हो जायगा।

एक क्षण में उनके सम्मुख एक आदमी आकर खड़ा हो गया। राजा साहब ने पूछा -- कौन?

उत्तर मिला -- मैं हूँ, आपका सेवक।

राजा -- ओ हो, तुम हो कप्तान! मैं शंका में पड़ा हुआ था कि कहीं शत्रुओं ने मेरा वध करने के लिए कोई दूत न भेजा हो।

कप्तान -- शत्रुओं ने कुछ और ही ठानी है। आज बादशाह-सलामत की जान बचती नहीं नज़र आती।

राजा -- अरे! यह क्योंकर!

कप्तान -- जबसे आपको यहाँ नज़रबंद किया गया है, सारे राज्य में हाहाकार मचा हुआ है। स्वार्थी कर्मचारियों ने लूट मचा रखी है। अँगरेज़ों की खुदाई फिर रही है। जो जी में आता है, करते हैं; किसी की मजाल नहीं कि चूँ कर सके। इस एक महीने में शहर के सैकड़ों बड़े-बड़े रईस मिट गए। रोशनुद्दौला की बादशाही है। बाज़ारों का भाव बढ़ता जाता है। बाहर से व्यापारी लोग डर के मारे कोई चीज़ ही नहीं लाते। दूकानदारों से मनमानी रक़में महसूल के नाम पर वसूल की जा रही हैं। गल्ले का भाव इतना चढ़ गया है कि कितने ही घरों में चूल्हा जलने की नौबत नहीं आती। सिपाहियों को अभी तक तनख़्वाह नहीं मिली। वे जाकर दूकानदारों को लूटते हैं। सारे राज्य में बदअमली हो रही है। मैंने कई बार यह कैफ़ियत बादशाह-सलामत के कानों तक पहुँचाने कि इकोशिश की; मगर वह यह तो कह देते हैं कि मैं इसकी तहक़ीक़ात करूँगा, और फिर बेख़बर हो जाते हैं। आज शहर के बहुत-से दूकानदार फरियाद लेकर आये थे कि हमारे हाल पर निगाह न की गई, तो हम शहर छोड़कर कहीं और चले जायँगे। क्रिस्तानों ने उनको सख़्त कहा, धमकाया, लेकिन उन्होंने जब तक अपनी सारी मुसीबत न बयान कर ली, वहाँ से न हटे। आख़िर जब बादशाह-सलामत ने उनको दिलासा दिया, तो चले गए।

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राजा -- बादशाह पर इतना असर हुआ, मुझे तो यही ताज्जुब है!

कप्तान -- असर-वसर कुछ नहीं हुआ। यह भी उनकी एक दिल्लगी है। शाम को ख़ास मुसाहबों को बुलाकर हुक्म दिया है कि आज मैं भेस बदलकर शहर का गश्त करूँगा; तुम लोग भी भेस बदले हुए मेरे साथ रहना। मैं देखना चाहता हूँ कि रिआया क्यों इतनी घबरायी हुई है। सब लोग मुझसे दूर रहें; किसी को न मालूम हो कि मैं कौन हूँ। रोशनुद्दौला और पाँचों अँगरेज़-मुसाहब साथ रहेंगे।

राजा -- तुम्हें क्योंकर यह बात मालूम हो गई?

कप्तान -- मैंने उसी अँगरेज़ हज्जाम को मिला रखा है। दरबार में जो कुछ होता है, उसका पता मुझे मिल जाता है। उसी की सिफ़ारिश से आपकी ख़िदमत में हाज़िर होने का मौक़ा मिला। (घड़ियाल में १० बजते हैं) ग्यार्हा बजे चलने की तैयारी है। बारह बजते-बजते लखनऊ का तख़्त खाली हो जायगा।

राजा (घबराकर) -- क्या इन सबों ने इन्हें कत्ल करने की साजिश कर रखी है?

कप्तान -- जी नहीं; कत्ल करने से उनका मंशा न पूरा होगा। बादशाह को बाज़ार की सैर कराते हुए गोमती की तरफ़ ले जायेंगे। वहाँ अंगरेज़ सिपाहियों का एक दस्ता तैयार रहेगा। वह बादशाह को फ़ौरन एक गाड़ी पर बिठाकर रेजिडेंसी में ले जायगा। वहाँ रेजिडेंट साहब बादशाह-सलामत को सल्तनत से इस्तीफ़ा देने पर मजबूर करेंगे। उसी वक़्त उनसे इस्तीफ़ा लिखा लिया जायगा और इसके बाद रातों-रात उन्हें कलकत्ते भेज दिया जायगा।

राजा -- बड़ा ग़ज़ब हो गया। अब तो वक़्त बहुत कम है; बादशाह-सलामत निकल पड़े होंगे?

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कप्तान -- ग़ज़ब क्या हो गया? इनकी जात से किसे आराम था? दूसरी हुकूमत चाहे कितनी ही ख़राब हो, इससे अच्छी ही होगी।

राजा -- अँगरेज़ों की हुकूमत होगी?

कप्तान -- अँगरेज़ इनसे कहीं बेहतर इंतज़ाम कड़ेगे।

राजा (करुण स्वर से) -- कप्तान! ईश्वर के लिए ऐसी बातें न करो। तुमने मुझसे ज़रा देर पहले क्यों न यह कैफ़ियत बयान की?

कप्तान (आश्चर्य से) -- आपके साथ तो बादशाह ने कोई अच्छा सलूक नहीं किया!

राजा -- मेरे साथ कितना ही बुरा सलूक किया हो; लेकिन एक राज्य की क़ीमत एक आदमी या ख़ानदान की जान से कहीं ज़्यादा होती है। तुम मेरे पैरों की बेड़ियाँ खुलवा सकते हो?

कप्तान -- सारे अवध-राज्य में एक भी ऐसा आदमी न निकलेगा, जो बादशाह को सच्चे दिल से दुआ देता हो। दुनिया उनके जुल्म से तंग आ गई है।

राजा -- मैं अपनों के जुल्म को गैरों की बंदगी से कहीं बेहतर ख़याल करता हूँ। बादशाह की यह हालत गैरों ही के भरोसे पर हुई है। वह इसी लिए किसी की परवा नहीं करते कि उन्हें अँगरेज़ों की मदद का यक़ीन है। मैं इन फिरंगियों की चालों को ग़ौर से देखता आया हूँ। बादशाह के मिज़ाज को उन्होंने बिगाड़ा है। उन्का मंशा यही था, जो हुआ। रिआया के दिल से बादशाह की इज़्ज़त और मुहब्बा उठ गई। आज सारा मुल्क बगावत करने पर आमादा है। ये लोग इसी मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे। वह जानते हैं कि बादशाह की माजूली (गद्दी से हटाए जाने) पर एक आदमी भी आँसू न बहावेगा। लेकिन मैं जताए देता हूँ कि अगर इस वक़्त तुमने बादशाह को दुश्मनों के हाथों से न बचाया, तो तुम हमेशा के लिए अपने ही वतन में ग़ुलामी की जंजीरों में बँध जाओगे। किसी ग़ैर कौन के चाकर बनकर अगर तुम्हें आफ़ियत (शांति) भी मिली, तो वह आफ़ियत न होगी -- मौत होगी। ग़ैरों के बेरहम पैरों के नीचे पड़कर तुम भी हाथ न हिला सकोगे और यह उम्मीद कि कभी हमारे मुल्क में आईनी सल्तनत (वैध शासन) कायम होगी, हसरत का दाग़ बनकर रह जायगी। नहीं, मुझमें अभी मुल्क की मुहब्बत बाक़ी है। मैं अभी इतना बेजान नहीं हुआ हूँ। मैं इतनी आसानी से सल्तनत को हाथ से न जाने दूँगा, अपने को इतने सस्ते दामों ग़ैरों के हाथों न बेचूँगा, मुल्क की इज़्ज़त को न मिटने दूँगा, चाहे इस कोशिश में मेरी जान ही क्यों न जाय। कुछ और नहीं कर सकता, तो अपनी जान तो दे ही सकता हूँ। मेरी बेड़ियाँ खोल दो।

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कप्तान -- मैं आपका ख़ादिम हूँ, मगर मुझे यह मजाज़ नहीं है।

राजा (जोश में आकर) -- जालिम, यह इन बातों का वक़्त नहीं है। एक-एक पल हमें तबाही की तरफ़ लिये जा रहा है। खोल दे ये बेड़ियाँ। जिस घर में आग लगी है, उसके आदमी ख़ुदा को नहीं याद करते, कुएँ की तरफ़ दौड़ते हैं।

कप्तान -- आप मेरे मुहसिन हैं। आपके हुक्म से मुँह नहीं मोड़ सकता। लेकिन --

राजा -- जल्दी करो, जल्दी करो। आपनी तलवार मुझे दे दो। अब इन तकल्लुफ़ की बातों का मौक़ा नहीं है।

कप्तान साहब निरुत्तर हो गए। सजीव उत्साह में बड़ी संक्रामक शक्ति होती है। यद्यपि राजा साहब के नीतिपूर्ण वार्तालाप ने उन्हें माकूल नहीं किया, तथापि वह अनिवार्य रूप से उनकी बेड़ियँअ खोलने पर तत्पर हो गए। उसी वक़्त जेल के दारोगा को बुलाकर कहा -- साहब ने हुक्म दिया है कि राजा साहब को फ़ौरन आज़ाद कर दिया जाय। इसमें एक पल की भी ताख़ीर (विलंब) हुई, तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा।

दारोगा को मालूम था कि कप्तान साहब और मि॰ ॰॰॰ में गाढ़ी मैत्री है। अगर साहब नाराज़ हो जायँगे, तो रौशनुद्दौला की कोई सिफ़ारिश मेरी रक्षा न कर सकेगी। उसने राजा साहब की बेड़ियाँ खोल दीं।

राजा साहब जब तलवार हाथ में लेकर जेल से निकले, तो उनका हृदय राज्य-भक्ति की तरंगों से आंदोलित हो रहा था। उसी वक़्त घड़ियाल ने ११ बजाए।

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आधी रात का समय था। मगर लखनऊ की तंग गलियों में ख़ूब चहल-पहल थी। ऐसा मालूम होता कि अभी नौ बजे होंगे। सराफे में सबसे ज़्यादा रौनक थी। मगर आश्चर्य यह था कि किसी दूकान पर जवाहरात या गहने नहीं दिखाई देते थे। केवल आदमियों के आने-जाने की भीड़ थी। जिसे देखो, पाँच शस्त्रों से सुसज्जित, मूँछें खड़ी किए ऐंठता हुआ चला जाता था। बाज़ार के मामूली दूकानदार भी निःशस्त्र न थे।

सहसा एक आदमी, भारी साफ़ा बाँधे, पैर की घुटनियों तक नीची कबा पहने, कमर में पटका बाँधे, आकर एक सराफ़ की दूकान पर खड़ा हो गया। जान पड़ता था, कोई ईरानी सौदागर है। उन दिनों ईरान के व्यापारी लखनऊ में बहुत आते-जाते थे। इस समय ऐसे आदमी का आ जाना असाधारण बात न थी।

सराफ़ का नाम माधोदास था। बोला -- कहिए मीर साहब, कुछ दिखाऊँ?

सौदागर -- सोने का क्या निर्ख है?

माधो -- (सौदागर के कान के पास मुँह ले जाकर) निर्ख की कुछ न पूछिए। आज क़रीब एक महीना से बाज़ार का निर्ख बिगड़ा हुआ है। माल बाज़ार में आता ही नहीं। लोग दबाए हुए हैं। बाज़ार में ख़ौफ़ के मारे नहीं लाते। अगर आपको ज़्यादा माल दरकार हो, तो मेरे साथ गरीबखाने तक तकलीफ़ कीजिए। जैसा माल चाहिए, लीजिए। निर्ख मुनासिब ही होगा। इसका इतमीनान रखिए!

सौदागर -- आजकल बाज़ार का निर्ख क्यों बिगड़ा हुआ है?

माधो -- क्या आप हाल ही में वारिद हुए हैं?

सौदागर -- हाँ, मैं आज ही आया हूँ। कहीं पहले की-सी रौनक नहीं नज़र आती। कपड़े का बाज़ार भी सुस्त था। ढाके का एक क़ीमती थान बहुत तलाश करने पर भी न मिला।

माधो -- इसके बड़े क़िस्से हैं; कुछ ऐसा ही मुआमला है।

सौदागर -- डाकुओं का ज़ोर तो नहीं है? पहले तो यहाँ इस क़िस्म की वारदातें न होती थीं।

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माधो -- अब वह कैफ़ियत नहीं है। दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं। उन्हें कोतवाल क्या, बादशाह-सलामत भी गिरफ़्तार नहीं कर सकते। अब और क्या कहूँ? दीवार के भी कान होते हैं। कहीं कोई सुन ले, तो लेने के देने पड़ जायँ।

सौदागर -- सेठजी, आप तो पहेलियाँ बुझवाने लगे। मैं परदेसी आदमी हूँ, यहाँ किससे कहने जाऊँगा? आख़िर बात क्या है? बाज़ार क्यों इतना बिगड़ा हुआ है? नाज़ की मंडी की तरफ़ गया था। सन्नाटा छाया हुआ है। मोटी जिंस भी दूने दामों पर बिक रही थी।

माधो (इधर-उधर चौकन्नी आँखों से देखकर) -- एक महीना हुआ; रोशनुद्दौला के हाथ में सियाह-सफ़ेद का अख़्तियार आ गया है। यह सब उन्हीं की बदइंतज़ामी का फल है। उनके पहले राजा बख्तावरसिंह हमारे मालिक थे। उनके वक़्त में किसी की मजाल न थी कि व्यापारियों को टेढ़ी आँख से देख सके। उनका रोब सभी पर छाया हुआ था। फ़िरंगियों पर उनकी कड़ी निगाह रहती थी। हुक्म था कि कोई फ़िरंगी बाज़ार में आवे, तो थाने का सिपाही उसकी देख-भाल करता रहे, इसी वजह से फ़िरंगी उनसे जला करते थे। आख़िर सबों ने रोशनुद्दौला को मिलाकर बख्तावरसिंह को बेक़सूर क़ैद करा दिया। बस, तब से बाज़ार में लूट मची हुई है। सरकारी अमले अलग लूटते हँइ। फ़िरंगी अलग नोचते-खसोटते हैं। जो चीज़ चाहते हैं, उठा ले जाते हैं। दाम माँगो तो धमकियाँ देते हैं। शाही दरबार में फ़रियाद करो, तो उलटे सज़ा होती है। अभी हाल ही में हम सब मिलकर बादशाह-सलामत की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे। पहले तो वह बहुत नाराज़ हुए, पर आख़िर रहम आ गया। बादशाहों का मिज़ाज ही तो है। हमारी सब शिकायतें सुनीं और तसकीन दी कि हम तहक़ीक़ात करेंगे। मगर अभी तक तो वही लूट-खसोट जारी है।

इतने में तीन आदमी राजपूती ढंग की मिर्जई पहने आकर दूकान के सामने खड़े हो गए। माधोदास उनका रंग-ढंग देखकर चौंका। शाही फ़ौज के सिपाही बहुधा इसी सज-धज से निकलते थे। तीनों आदमी सौदागर को देखकर ठिठके; पर उसने उन्हें कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि तीनों आगे चले गए। तब सौदागर ने माधोदास से पूछा -- इन्हें देखक्र तुम क्यों चौंके?

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माधोदास ने कहा -- ये फ़ौज के सिपाही हैं। जब से राजा बख्तावरसिंह नज़र-बंद हुए हैं, इन पर किसी की दाब ही नहीं रही। खुले साँड़ की तरह बाज़ारों में चक्कर लगाया करते हैं। सरकार से तलब मिलने का कुछ ठीक तो है नहीं। बस, नोच-खसोट करके गुज़र करते हैं। -- हाँ, तो फिर अगर मरज़ी हो, तो मेरे साथ घर तक चलिए, आपको माल दिखाऊँ।

सौदागर -- नहीं भाई, इस वक़्त नहीं। सुबह आऊँगा। देर हो गई है, और मुझे भी यहाँ की हालत देखकर खौफ़ मालूम होने लगा है।

यह कहकर सौदागर उसी तरफ़ चला गया, जिधर वे तीनों राजपूत गए थे। थोड़ी देर में तीन आदमी और सराफ़े में आये। एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था, सिर पर गोल पगिया थी और कंधे पर ज़री के काम का शाल। उसके दोनों साथी ख़िदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे। तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे, मानो किसी को खोज रहे हों। यों ताकते हुए तीनों आगे चले गए। ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया। वहाँ एक छोटा-सा बाग़ था। एक पुरानी मसजिद भी थी। सौदागर वहाँ ठहर गया। एकाएक तीनों राजपूत मसजिद से बाहर निकल आये और बोले -- हुज़ूर तो बहुत देर तक सराफ़ की दूकान पर बैठे रहे। क्या बातें हुईं?

सौदागर ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों ख़िदमतगार भी आ पहुँचे। सौदागर ने पंडित को देखते ही भर्त्सनापूर्ण शब्दों में कहा -- मियाँ रोशनुद्दौला, मुझे इस वक़्त तुम्हारे ऊपर इतना गुस्सा आ रहा है कि तुम्हें कुत्तों से नुचवा दूँ। नमकहराम कहीं का! दगाबाज! तूने मेरी सल्तनत को तबाह कर दिया! सारा शहर तेरे जुल्म का रोना रो रहा है! मुझे आज मालूम हुआ कि तूने क्यों राजा बख्तावरसिंह को क़ैद कराया। मेरी अकल पर न जाने क्यों पत्थर पड़ गए थे कि मैं तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। इस नमकहरामी कि तुझे वह सज़ा दूँगा कि देखनेवालों को भी इबरत (शिक्षा) हो।

रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया -- आप मेरे बादशाह हैं, इसलिए आपका अदब करता हूँ, वर्ना इसी वक़्त इस बद-जबानी का मज़ा चखा देता। ख़ुद आप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं, दूसरों को क्या ग़रज़ पड़ी है कि सल्तनत की फ़िक्र से दुबले हों? ख़ूब, हम अपना ख़ून जलाएँ और आप जशन मनाएँ! ऐसे अहमक कहीं और रहते होंगे।

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बादशाह (क्रोध से काँपते हुए) -- मि॰ ॰॰॰ मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि इस नमकहराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता। और, इसी वक़्त जाकर इसकी सारी जायदाद ज़ब्त कर लो। इसके ख़ानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पाए।

रोशन -- मि॰ ॰॰॰ मैं तुमको हुक्म देता हूँ कि इस मुल्क और कौम के दुश्मन, रैयत के कातिल और बदकार आदमी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लो। यह इस क़ाबिल नहीं कि ताज और तख़्त का मालिक बने।

इतना सुनते ही पाँचों अँगरेज़-मुसाहबों ने, जो भेस बदले हुए साथ थे, बादशाह के दोनों हाथ पकड़ लिए और खींचते हुए गोमती नदी की तरफ़ ले चले। तब बादशाह की आँखें खुलीं। समझ गए कि पहले ही से यह षड्यंत्र रचा गया था। इधर-उधर देखा, कोई आदमी नहीं। शोर मचाना व्यर्थ था। बादशाही का नशा उतर गया। दुरवस्था ही वह परीक्षाग्नि है, जो मुलम्मे और रोगन को उतारकर मनुष्य का यथार्थ रूप दिखा देती है। ऐसे ही अवसरों पर विदित होता है कि मानव-हृदय पर कृत्रिम भावों का कितना गहरा रंग चढ़ा होता है। एक क्षण में बादशाह की उद्दंडता और घमंड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया। बोले -- मैंने तो आप लोगों की मरज़ी के ख़िलाफ़ ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी यह सज़ा मिले? मैंने आप लोगों को हमेशा अपना दोस्त समझा है।

रोशन -- तो हम लोग जो कुछ कर रहे हैं, वह भी आपन्के फ़ायदे ही के लिए कर रहे हैं। हम आपके सिर से सल्तनत का बोझ उतारकर आपको आज़ाद कर देंगे। तब आपके ऐश में खलल न पड़ेगा। आप बेफ़िक्र होकर हसीनों के साथ जिंदगी की बहार लूटिएगा।

बादशाह -- तो क्या आप लोग मुझे तख़्त से उतारना चाहते हैं?

रोशन -- नहीं, आपको बादशाही की जिम्मेदारियों से आज़ाद कर देना चाहते हैं।

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बादशाह -- हज़रत इमान की क़सम, मैं यह जिल्लत न बर्दाश्त करूँगा। मैं अपने बुजुर्गों का नाम न डुबाऊँगा।

रोशन -- आपके बुजुर्गों के नाम की फ़िक़्र हमें आपसे ज़्यादा है। आपकी ऐश-परस्ती बुजुर्गों का नाम रोशन नहीं कर रही है।

बादशाह (दीनता से) -- मैं वादा करता हूँ कि आइंदा से आप लोगों को शिकायत का कोई मौक़ा न दूँगा।

रोशन -- नशेबाज़ों के वादों पर कोई दीवाना ही यक़ीन कर सकता है।

बादशाह -- तुम मुझे ज़बरदस्ती तख़्त से नहीं उतार सकते।

रोशन -- इन धमकियों की ज़रूरत नहीं। चुप-चाप चले चलिए; आगे आपको सेज-गाड़ी मिल जायगी। हम आपको इज़्ज़त के साथ रुखसत करेंगे।

बादशाह -- आप जानते हैं, रिआया पर इसका क्या असर होगा?

रोशन -- ख़ूब जानता हूँ! आपकी हिमायत में एक उँगली भी न उठेगी। कल सारी सल्तनत में घी के चिराग जलेंगे।

इतनी देर में सब लोग उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ बादशाह को ले जाने के लिए सवारी तैयार खड़ी थी। लगभग २५ सशस्त्र गोरे सिपाही भी खड़े थे। बादशाह सेजगाड़ी को देखकर मचल गए। उनके रुधिर की गति तीव्र हो गई, भोग और विलास के नीचे दबी हुई मर्यादा सजग हो गई। उन्होंने ज़ोर से झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और नैराश्यपूर्ण दुस्साहस के साथ परिणाम-भय को त्यागकर, उच्च स्वर से बोले -- ऐ लखनऊ के बसनेवालो! तुम्हारा बादशाह यहाँ दुश्मनों के हाथों कत्ल किया जा रहा है। उसे इनके हाथ से बचाओ, दौड़ो वर्ना पछताओगे!

यह आर्त पुकार आकाश की नीरवता को चीरती हुई गोमती की लहरों में विलीन नहीं हुई, बल्कि लखनऊवालों के हृदयों में जा लहुँची। राजा बख्तावरसिंह बंदी-गृह से निकलकर नगर-निवासियों को उत्तेजित करते और प्रतिक्षण रक्षाकारियों के दल को बढ़ते, बड़े वेग से दौड़े चले आ रहे थे। एक पल का विलंब भी षड्यंत्रकारियों के घातक विरोध को सफल कर सकता था। देखते-देखते उनके साथ दो-तीन हज़ार सशस्त्र मनुष्यों का दल हो गया था। यह सामूहिक शक्ति बादशाह का और लखनऊ-राज्य का उद्धार कर सकती थी। समय सब कुछ था। बादशाह गोरी सेना के पंजे में फँस गए, तो फिर समस्त लखनऊ भी उन्हें मुक्त न कर सकता था। राजा साहब क्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे, नैराश्य से दिल बैठा जाता था। विफल-मनोरथ होने की शंका से उत्साह भंग हुआ जाता था। अब तक कहीं उन लोगों का पता नहीं! अवश्य हम देर में पहुँचे। विद्रोहियों ने अपना काम पूरा कर लिया। लखनऊ राज्य की स्वाधीनता सदा के लिए विसर्जित हो गई।

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ये लोग निराश होकर लौटना ही चाहते थे कि अचानक बादशाह का आर्तनाद सुनाई दिया। कई हज़ार कंठों से आकाश-भेदी ध्वनि निकली -- हुज़ूर को ख़ुदा सलामत रखे। हम फिदा होने को आ पहुँचे!

समस्त दल एक ही प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर, वेगवती जलधारा की भाँति, घटनास्थल की ओर दौड़ा। अशक्त लोग भी सशक्त हो गए। पिछड़े हुए लोग आगे निकल जाना चाहते थे। आगे के लोग चाह्ते थे कि उड़कर जा पहुँचें!

इन आदमियों की आहट पाते ही गोरों ने बंदूक़ें भरीं और २५ बंदूक़ों की बाढ़ सर हो गई। रक्षाकारियों में कितने ही लोग गिर पड़े; मगर क़दम पीछे न हटे। वीर मद ने और भी मतवाला कर दिया। एक क्षण में दूसरी बाढ़ आयी; कुछ लोग फिर वीर-गति को प्राप्त हुए, लेकिन क़दम आगे बढ़ते ही गए। तीसरी बाढ़ छूटने ही वाली थी कि लोगों ने विद्रोहियों को जा लिया। गोरे भागे।

जब लोग बादशाह के पास पहुँचे, तो अद्भुत् दृश्य देखा। बादशाह रोशनुद्दौला की छाती पर सवार थे। जब गोरे जान लेकर भागे, तो बादशाह ने इस नरपिशाच को पकड़ लिया और उसे बलपूर्वक भूमि पर गिराकर उसकी छाती पर बैठ गए। अगर उनके हाथों में हथियार होता, तो इस वक़्त रोशन की लाश फड़कती हुई दिखाई देती।

राजा बख्तावरसिंह आगे बढ़कर बादशाह को आदाब बजा लाए। लोगों की जय-घ्वनि से आकाश हिल उठा। कोई बादशाह के पैरों को चूमता था, कोई उन्हें आशीर्वाद देता था, और रोशनुद्दौला का शरीर तो लातों और घूसों का लक्ष्य बना हुआ था। कुछ बिगड़े दिल ऐसे भी थे, जो उसके मुँह पर थूकने में भी संकोच न करते थे।

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प्रातःकाल था। लखनऊ में आनंदोत्सव मनाया जा रहा था। बादशाही महल के सामने लाखों आदमी थे। सब लोग बादशाह को यथा-योग्य नज़र देने आये थे। जगह-जगह गरीबों को भोजन कराया जा रहा था। शाही नौबतख़ाने में नौबत झड़ रही थी।

दरबार सजा। बादशाह हीरे और जवाहर से जगमगाते, रत्नजटित आभूषण से सजे हुए सिंहासन पर बिराजे। रईसों और अमीरों ने नज़रें गुज़ारीं। कविजनों ने कसीदे पढ़े। एकाएक बादशाह ने पूछा -- राजा बख्तावरसिंह कहाँ हैं?

कप्तान ने जवाब दिया -- क़ैदख़ाने में।

बादशाह ने उसी वक़्त कई कर्मचारियों को भेजा कि राजा साहब को जेलख़ाने से इज़्ज़त के साथ लाएँ। जब थोड़ी देर के बाद राजा ने आकर बादशाह को सलाम किया, तो वे तख़्त से उतरकर उनसे गले मिले और उन्हें अपनी दाहिनी ओर सिंहासन पर बैठाया। फिर दरबार में खड़े होअक्र उनकी सुकीर्ति और राज-भक्ति की प्रशंसा करने के उपरांत अपने ही हाथों से उन्हें खिलअत पहनायी। राजा साहब के कुटुंब के प्राणी भी आदर और सम्मान के साथ बिदा किए गए।

अंत को जब दोपहर के समय दरबार बर्ख़ास्त होने लगा, तो बादशाह ने राजा साहब से कहा -- आपने मुझ पर और मेरी सल्तनत पर जो एहसान किया है, उसका सिला (पुरस्कार) देना मेरे इमकान से बाहर है। मेरी आपसे यही इल्तिजा (अनुरोध) है कि आप वजारत का कलमदान अपने हाथ में लीजिए और सल्तनत का, जिस तरह मुनासिब समझिए, इंतज़ाम कीजिए। मैं आपके किसी काम में दख़ल न दूँगा। मुझे एक गोशे में पड़ा रहने दीजिए। नमकहराम रोशन को भी मैं आपके सुपुर्द किए देता हूँ। आप इसे जो सज़ा चाहें, दें। मैं इसे कब का जहन्नुम भेज चुका होता; पर यह समझकर कि यह आपका शिकार है, इसे छोड़े हुए हूँ।

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लेकिन बख्तावरसिंह बादशाह के उच्छृंखल स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे। वह जानते थे, बादशाह की ये सदिच्छाएँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हैं। मानव चरित्र में आकस्मिक परिवर्तन बहुत कम हुआ करते हैं। दो-चार महीने में दरबार का फिर वही रंग हो जायगा, इसलिए मेरा तटस्थ रहना ही अच्छा है। राज्य के प्रति मेरा जो कुछ कर्तव्य था, वह मैंने पूरा कर दिया। मैं दरबार से अलग रकहर निष्काम भाव से जितनी सेवा कर सकता हूँ, उतनी दरबार में रह कर कदापि नहीं कर सकता। हितैषी मित्र का जितना सम्मान होता है, स्वामिभक्त सेवक का उतना नहीं हो सकता।

वह विनीत भाव से बोले -- हुज़ूर, मुझे इस ओहदे से मुआफ़ रखें। मैं यों ही आपका ख़ादिम हूँ। इस मंसब पर किसी लायक़ आदमी को मामूर फरमाइए (नियुक्त कीजिए)। अक्खड़ राजपूत हूँ। मुल्की इंतज़ाम करना क्या जानूँ।

बादशाह -- मुझे तो आपसे ज़्यादा लायक़ और वफ़ादार आदमी नज़र नहीं आता।

मगर राजा साहब उनकी बातों में न आये। आख़िर मजबूर होकर बादशाह ने उन्हें ज़्यादा न दबाया। दम भर बाद जब रोशनुद्दौला को सज़ा देने का प्रश्न उठा, तब दोनों आदमियों में इतना मतभेद हुआ कि वाद-विवाद की नौबत आ गई। बादशाह आग्रह करते थे कि इसे कुत्तों से नुचवा दिया जाय। राजा साहब इस बात पर अड़े हुए थे कि इसे जान से न मारा जाय, केवल नज़रबंद कर दिया जाय। अंत में बादशाह ने क्रुद्ध होकर कहा -- यह दिन आपको ज़रूर दग़ा देगा!

राजा -- इस ख़ौफ़ से मैं इसकी जान न लूँगा।

बादशाह -- तो जनाब, आप चाहे इसे मुआफ़ कर दें, मैं कभी मुआफ़ नहीं कर सकता।

राजा -- आपने तो इसे मेरे सुपुर्द कर दिया था। दी हुई चीज़ को आप वापस कैसे लेंगे?

बादशाह ने कहा -- तुमने मेरे निकलने का कहीं रास्ता ही नहीं रखा।

रोशनुद्दौला की जान बच गई। वजारत का पद कप्तान साहब को मिला। मगर सबसे विचित्र बात यह थी कि रेजिडेंट ने इस षड्यंत्र से पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट की और साफ़ लिख दिया कि बादशाह-सलामत अपने अँगरेज़ मुसाहबों को जो सज़ा चाहें दें, मुझे कोई आपत्ति न होगी। मैं उन्हें पाता, तो स्वयं बादशाह की ख़िदमत में भेज देता; लेकिन पाँचों महानुभावों में से एक का भी पता न चला। शायद वे सबके सब रातों-रात कलकत्ते भाग गए थे।

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इतिहास में उक्त घटना का कहीं उल्लेख नहीं किया गया; लेकिन किंवदंतियाँ, जो इतिहास से अधिक विश्वसनीय हैं, उसकी सत्यता की साक्षी हैं।