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चकमा

सेठ चंदूमल जब अपनी दूकान और गोदाम में भरे हुए माल को देखते तो मुँह से ठंढी साँस निकल जाती। यह माल कैसे बिकेगा? बैंक का सूद बढ़ रहा है, दूकान का किराया चढ़ रहा है, कर्मचारियों का वेतन बाक़ी पड़ता जाता है। ये सभी रक़में गाँठ से देनी पड़ेंगी। अगर कुछ दिन यही हाल रहा तो दिवाले के सिवा और किसी तरह जान न बचेगी। तिस पर भी धरनेवाले नित्य सिर पर शैतान की तरह सवार रहे हैं।

सेठ चंदूमल की दूकान चाँदनी चौक, दिल्ली में थी। मुफ़स्सिल में भी कई दूकानें थीं। जब शहर कांग्रेस कमेटी ने उनसे विलायती कपड़े की ख़रीद और बिक्री के विषय में प्रतिज्ञा करानी चाही तो उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। बाज़ार के कई आढ़तियों ने उनकी देखा-देखी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। चंदूमल को जो नेतृत्व कभी न नसीब हुआ था, वह इस अवसर पर बिना हाथ-पैर हिलाए ही मिल गया। वे सरकार के ख़ैरख़्वाह थे। साहब बहादुरों को समय-समय पर डालियाँ नज़र देते थे। पुलिस से भी घनिष्ठता थी। म्युनिसिपैलिटी के सदस्य भी थे। कांग्रेस के व्यापारिक कार्य-क्रम का विरोध करके अमनसभा के कोषाध्यक्ष बन बैठे। यह इसी ख़ैरख़्वाही की बरकत थी। युवराज का स्वागत करने के लिए अधिकारियों ने उनसे २५ हज़ार के कपड़े ख़रीदे। ऐसा सामर्थी पुरुष कांग्रेस से क्यों डरे? कांग्रेस है किस खेत की मूली? पुलिसवालों ने भी बढ़ावा दिया -- {{मुआहिदे पर हरगिज़ दस्तख़त न कीजिएगा। देखें, ये लोग क्या करते हैं? एक-एक को जेल न भिजवा दिया तो कहिएगा।}}

लालाजी के हौसले बढ़े। उन्होंने कांग्रेस से लड़ने की ठान ली। उसी के फलस्वरूप तीन महीनों से उनकी दूकान पर प्रातःकाल से नौ बजे रात तक पहरा रहता था। पुलिस-दलों ने उनकी दूकान पर वालंटियरों को कई बार गालियाँ दीं, कई बार पीटा, ख़ुद सेठजी ने भी कई बार उन पर वाणी के बाण चलाए, किंतु पहरेवाले किसी तरह न टलते थे। बल्कि इन अत्याचारों के कारण चंदुमल का बाज़ार और भी गिरता जाता। मुफ़स्सिल की दूकानों से मुनीम लोग और भी दुराशाजनक समाचार भेजते रहते थे। कठिन समस्या थी। इस संकट से निकलने का कोई उपाय न था। वे देखते थे कि जिन लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, वे चोरी-छिपे कुछ-न-कुछ विदेशी माल बेच लेते हैं। उनकी दूकानों पर पहरा नहीं बैठता। यह सारी विपत्ति मेरे ही सिर पर है।

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उन्होंने सोचा, पुलिस और हाकिमों की दोस्ती से मेरा भला क्या हुआ? उनके हटाए ये पहरे नहीं हटते। सिपाहियों की प्रेरणा से गाहक नहीं आते! किसी तरह पहरे बंद हो जाते तो सारा खेल बन जाता।

इतने में मुनीमजी ने कहा -- लालाजी, यह देखिए; कई व्यापारी हमारी तरफ़ आ रहे थे। पहरेवालों ने उनको न जाने क्या मंत्र पढ़ा दिया, सब चले जा रहे हैं।

चंदूमल -- अगर इन पापियों को कोई गोली मार देता तो मैं बहुत ख़ुश होता। यह सब मेरा सर्वनाश करके दम लेंगे।

मुनीम -- कुछ हेठी तो होगी, यदि आप प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर कर देते तो यह पहरा उठ जाता। तब हम भी यह सब माल किसी न किसी तरह खपा देते।

चंदूमल -- मन में तो मेरे भी यह बात आती है, पर सोचो, अपमान कितना होगा? इतनी हेकड़ी दिखाने के बाद फिर झुका नहीं जाता। फिर हाकिमों की निगाहों में गिर जाऊँगा। और भी ताने देंगे कि चले थे बच्चा कांग्रेस से लड़ने! ऐसी मुँह की खायी कि होश ठिकाने आ गए। जिन लोगों को पीटा और पिटवाया, जिनको गालियाँ दीं, जिनकी हँसी उड़ायी, अब उनकी शरण कौन मुँह लेकर जाऊँ? मगर एक उपाय सुझ रहा है। अगर चकमा चल गया तो पौ बारह है। बात तो तब है, जब साँप को मारूँ, मगर लाठी बचाकर। पहरा उठा दूँ, पर बिना किसी की ख़ुशामद किए।

नौ बज गए थे। सेठ चंदूमल गंगा-स्नान करके लौट आये थे और मसनद पर बैठकर चिट्ठियाँ पढ़ रहे थे। अन्य दूकानों के मुनीमों ने अपनी विपत्ति-कथा सुनाई थी। एक-एक पत्र को पढ़कर सेठजी का क्रोध बढ़ता जाता था। इतने में दो वालंटियर झंडियाँ लिये हुए उनकी दूकान के सामने आकर खड़े हो गए!

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सेठजी ने डाँटकर कहा -- हट जाओ हमारी दूकान के सामने से।

एक वालंटियर ने उत्तर दिया -- महाराज, हम तो सड़क पर हैं। क्या यहाँ से भी चले जायँ?

सेठजी -- मैं तुम्हारी सूरत नहीं देखना चाहता।

वालंटियर -- तो आप कांग्रेस कमेटी को लिखिए। हमको तो वहाँ से यहाँ खड़े रहकर पहरा देने का हुक्म मिला है।

एक कांस्टेबिल ने आकर कहा -- क्या है सेठजी, यह लौंडा क्या टर्राता है?

चंदूमल बोले -- मैं कहता हूँ कि दूकान के सामने से हट जाओ, पर यह कहता है कि न हटेंगे, न हटेंगे। ज़रा इसकी ज़बरदस्ती देखो।

कांस्टेबिल -- (वालंटियरों से) तुम दोनों यहाँ से जाते हो कि आकर गरदन नापूँ?

वालंटियर -- हम सड़क पर खड़े हैं, दूकान पर नहीं।

कांस्टेबिल का अभीष्ट अपनी कारगुज़ारी दिखाना था। वह सेठजी को ख़ुश करके कुछ इनाम-इकराम भी लेना चाहता था। उसने वालंटियरों को अपशब्द कहे और जब उन्होंने उसकी कुछ परवा न की, तो एक वालंटियर को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह बेचारा मुँह के बल ज़मीन पर गिर पड़ा। कई वालंटियर इधर-उधर से आ जमा हो गए। कई सिपाही भी आ पहुँचे। दर्शकवृंद को ऐसी घटनाओं में मज़ा आता ही है। उनकी भीड़ लग गई। किसी ने हाँक लगायी {महात्मा गांधी की जय}। औरों ने भी उसके सुर में सुर मिलाया, देखते-देखते एक जनसमूह एकत्रित हो गया।

एक दर्शक ने कहा -- क्या है लाला चंदूमल? अपनी दूकाने के सामने इन गरीबों की यह दुर्गति करा रहे हो, और तुम्हें ज़रा भी लज्जा नहीं आती? कुछ भगवान् का भी डर है या नहीं?

सेठजी ने कहा -- मुझसे क़सम ले लो, जो मैंने किसी सिपाही से कुछ कहा हो। ये लोग अनायास बेचारों के पीछे पड़ गए। मुझे सेंत में बदनाम करते हैं।

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एक सिपाही -- लालाजी, आप ही ने तो कहा था कि ये दोनों वालंटियर मेरे ग्राहकों को छेड़ रहे हैं। आप निकले जाते हैं?

चंदुमल -- बिलकुल झूठ, सरासर झूठ, सोलहों आना झूठ। तुम लोग अपनी कारगुज़ारी की धुन में इनसे उलझ पड़े। यह बेचारे तो दुकान से बहुत दूर खड़े थे। न किसी से बोलते थे, न चालते थे। तुमने ज़बरदस्ती ही इन्हें गरदना देनी शुरू की। मुझे अपना सौदा बेचना है कि किसी से लड़ना है?

दूसरा सिपाही -- लालाजी, हो बड़े होशियार। मुझसे आग लगवाकर आप अलग हो गए। तुम ने कहते तो हमें क्या पड़ी थी कि इन लोगों को धक्के देते? दारोगाजी ने भी हमको ताकीद कर दी थी कि सेठ चंदूमल की दूकान का विशेष ध्यान रखना। वहाँ कोई वालंटियर न आवे। तब हम लोग आये थे। तुम फ़रियाद न करते, तो दारोगाजी हमारी तैनाती ही क्यों करते?

चंदूमल -- दारोगाजी को अपनी कारगुज़ारी दिखानी होगी। मैं उनके पास क्यों फ़रियाद करने जाता? सभी लोग कांग्रेस के दुश्मन हो रहे हैं। थानेवाले तो उनके नाम से ही जलते हैं। क्या मैं शिकायत करता तभी तुम्हारी तैनाती करते?

इतने में किसी ने थाने में इत्तिला दी कि चंदूमल की दूकान पर कांस्टेबिलों और वालंटियरों में मारपीट हो गई। कांग्रेस के दफ़्तर में भी ख़बर पहुँची। ज़रा देर में मय सशस्त्र पुलिस के थानेदार और इन्सपेक्टर साहब आ पहुँचे। उधर कांग्रेस के कर्मचारी भी दल-बल सहित दौड़े। समूह और बढ़ा। बार-बार जयकार की ध्वनि उठने लगी। कांग्रेस और पुलिस के नेताओं में वाद-विवाद होने लगा। परिणाम यह हुआ कि पुलिसवालों ने दोनों को हिरासत में लिया और थाने की ओर चले।

पुलिस अधिकारियों के चले जाने के बाद सेठजी ने कांग्रेस के प्रधान से कहा -- आज मुझे मालूम हुआ कि ये लोग वालंटियरों पर इतना घोर अत्याचार करते हैं।

प्रधान -- तब तो दो वालंटियरों का फँसना व्यर्थ नहीं हुआ। इस विषय में अब तो आपको कोई शंका नहीं है? हम कितने लड़ाकू, कितने द्रोही, कितने शांतिभंगकारी हैं, यह तो आपको ख़ूब मालूम हो गया होगा?

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चंदूमल -- जि हाँ, ख़ूब मालूम हो गया।

प्रधान -- आपकी शहादत तो अवश्य ही होगी।

चंदूमल -- होगी तो मैं भी साफ़-साफ़ कह दूँगा; चाहे बने या बिगड़े। पुलिस की सख़्ती अब नहीं देखी जाती। मैं भी भ्रम में पड़ा हुआ था।

मंत्री -- पुलिसवाले आपको दबाएँगे बहुत।

चंदूमल -- एक नहीं, सौ दबाव पड़ें, मैं झूठ कभी न बोलूँगा। सरकार उस दरबार में साथ न जायगी।

मंत्री -- अब तो हमारी लाज आपके हाथ है।

चंदूमल -- मुझे आप देश का द्रोही न पाएँगे।

यहाँ से प्रधान और मंत्री तथा अन्य पदाधिकारी चले तो मंत्रीजी ने कहा -- आदमी सच्चा जान पड़ता है।

प्रधान -- (संदिग्ध भाव से) कल तक आप ही सिद्ध हो जायगा।

शाम को इन्सपेक्टर-पुलिस ने लाला चंदूमल को थाने बुलाया और कहा -- आपको शहादत देनी होगी। हम आपकी तरफ़ से बेफ़िक़्र हैं।

चंदूमल बोले -- हाज़िर हूँ।

इन्स॰ -- वालंटियर ने कांस्टेबिलों को गालियाँ दीं?

चंदू -- मैंने नहीं सुनी।

इन्स॰ -- सुनी या न सुनी, यह बहस नहीं है। आपको यह कहना होगा, वह सब खरीदारों को धक्के देकर हटाते थे, हाथा-पाई करते थे, मारने की धमकी देते थे, ये सभी बातें कहनी होंगी। दारोगाजी, वह बयान लाइए, जो मैंने सेठजी के लिए लिखवाया है।

चंदू॰ -- मुझसे भरी अदालत में झूठ न बोला जायगा। अपने हज़ारों जाननेवाले अदालत में होंगे। किस-किससे मुँह छिपाऊँ? कहीं निकलने को जगह भी चाहिए?

इन्स॰ -- यह सब बातें निज के मुआमलों के लिए हैं। पोलिटिकल मुआमलों में झूठ-सच, शर्म और हया, किसी का भी ख़याल नहीं किया जाता।

चंदू॰ -- मुँह में कालिख लग जायगी।

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इन्स॰ -- सरकार की निगाह में इज़्ज़त चौगुनी हो जायगी।

चंदू॰ -- (सोचकर) जी नहीं, गवाही न दे सकूँगा। कोई और गवाह बना लीजिए।

इन्स॰ -- याद रखिए, यह इज़्ज़त ख़ाक में मिल जायगी।

चंदू॰ -- मिल जाय, मजबूरी है।

इन्स॰ -- अमन-सभा के ओषाध्यक्ष का पद छिन जायगा।

चंदू॰ -- उससे कौन रोटियाँ चलती हैं?

इन्स॰ -- बंदूक़ का लाइसेंस छिन जायगा।

चंदू॰ -- छिन जाय; बला से!

इन्स॰ -- इनकम टैक्स की जाँच फिर से होगी।

चंदू॰ -- ज़रूर कराइए। यह तो मेरे मन की बात हुई।

इन्स॰ -- बैठने को कुरसी न मिलेगी।

चंदू॰ -- कुरसी लेकर चाटूँ? दिवाला तो निकला जा रहा है।

इन्स॰ -- अच्छी बात है तशरीफ़ ले जाइए। कभी तो आप पंजे में आएँगे।

दूसरे दिन इसी समय कांग्रेस के दफ़्तर में कल के लिए कार्यक्रम निश्चित किया जा रहा था। प्रधान ने कहा -- सेठ चंदूमल की दूकान पर धरना देने के लिए दो स्वयंसेवक भेजिए।

मंत्री -- मेरे विचार में वहाँ अब धरना देने की कोई ज़रूरत नहीं।

प्रधान -- क्यों? उन्होंने अभी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर तो नहीं किए?

मंत्री -- हस्ताक्षर नहीं किए, पर हमारे मित्र अवश्य हो गए। पुलिस की तरफ़ से गवाही न देना यही सिद्ध करता है। अधिकारियों का कितना दबाव पड़ा होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। यह नैतिक साहस विचारों में परिवर्तन हुए बिना नहीं आ सकता।

प्रधान -- हाँ, कुछ परिवर्तन तो अवश्य हुआ है।

मंत्री -- कुछ नहीं, महाशय! पूरी क्रांति कहना चाहिए। आप जानते हैं, ऐसे मुआमलों में पदाधिकारियों की अवहेलना करने का क्या अर्थ है? यह राजविद्रोह की घोषणा के समान है! त्याग में संन्यास से इसका महत्त्व कम नहीं है। आज जिले के सारे हाकिम उनके ख़ून के प्यासे हो रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि गवर्नर महोदय को भी इसकी सूचना दी गई हो।

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प्रधान -- और कुछ नहीं तो उन्हें नियम का पालन करने ही के लिए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए था। किसी तरह उन्हें यहाँ बुलाइए। अपनी बात तो रह जाय।

मंत्री -- वह बड़ा आत्माभिमानी है, कभी न आएगा। बल्कि हम लोगों की ओर इतना अविश्वास देखकर संभव है कि फिर उस दल में मिलने की चेष्टा करने लगे।

प्रधान -- अच्छी बात है, आपको उन पर इतना विश्वास हो गया है तो उनकी दूकान को छोड़ दीजिए। तब भी मैं यही कहूँगा कि आपको स्वयं मिलने के बहाने से उन पर निगाह रखनी होगी।

मंत्री -- आप नाहक़ इतना शक करते हैं।

नौ बजे सेठ चंदूमल अपनी दूकान पर आये तो वहाँ एक भी वालंटियर न था। मुख पर मुस्कराहट की झलक आयी। मुनीम से बोले -- कौड़ी चित पड़ी।

मुनीम -- मालूम तो होता है। एक महाशय भी नहीं आये।

चंदूमल -- न आये और ना आएँगे। बाज़ी अपने हाथ रही। कैसा दाँव खेला -- चारों खाने चित।

चंदू॰ -- आप भी बातें करते हैं? इन्हें दोस्त बनाते कितनी देर लगती है। कहिए, अभी बुलाकर जूतियाँ सीधी करवाऊँ। टके के ग़ुलाम हैं, न किसी के दोस्त, न किसी के दुश्मन। सच कहिए, कैसा चकमा दिया है?

मुनीम -- बस, यही जी चाहता है कि आपके हाथ चूम लें। साँप भी मरा और लाठी भी न टूटी। मगर कांग्रेसवाले भी टोह में होंगे।

चंदूमल -- तो मैं भी तो मौजूद हूँ। वह डाल-डाल चलेंगे, तो मैं पात-पात चलूँगा। विलायती कपड़े की गाँठ निकलवाइए और व्यापारियों को देना शुरू कीजिए। एक अठवारे में बेड़ा पार है।