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अमावस्या की रात्रि

दिवाली की संध्या थी। श्रीनगर के घूरों और खंडहरों के भी भाग्य चमक उठे थे। क़स्बे के लड़के और लड़कियाँ श्वेत थालियों में दीपक लिये मंदिर की ओर जा रही थीं। दीपों से अधिक उनके मुखारविंद प्रकाशमान थे। प्रत्येक गृह रोशनी से जगमगा रहा था। केवल पंडित देवदत्त का सतधरा भवन काली घटा के अंधकार में गंभीर और भयंकर रूप में खड़ा था। गंभीर इसलिए कि उसे अपनी उन्नति के दिन भूले न थे, भयंकर इसलिए कि यह जगमगाहट मानो उसे चिढ़ा रही थी। एक समय वह था जब कि ईर्ष्या भी उसे देख-देखकर हाथ मलती थी और एक समय यह है जब कि घृणा भी उस पर कटाक्ष करती है। द्वार पर द्वारपाल की जगह अब मदार और एरंड के वृक्ष खड़े थे। दीवानख़ाने में एक मतंग साँड़ अकड़ता था। ऊपर के घरों में जहाँ सुंदर रमणियाँ मनोहारी संगीत गाती थीं, वहाँ आज जंगली कबूतरों के मधुर स्वर सुनाई देते थे। किसी अँगरेज़ी मदरसे के विद्यार्थी के आचरण की भाँति उसकी जड़ें हिल गई थीं और उसकी दीवारें किसी विधवा स्त्री के हृदय की भाँति विदीर्ण हो रही थीं। पर समय को हम कुछ नहीं कह सकते। समय की निंदा व्यर्थ और भूल है, यह मूर्खता और अदूरदर्शिता का फल था।

अमावस्या की रात्रि थी। प्रकाश से पराजित होकर मानो अंधकार ने उसी विशाल भवन में शरण ली थी। पंडित देवदत्त अपने अर्द्ध अंधकारवाले कमरे में मौन, परंतु चिंता में निमग्न थे। आज एक महीने से उनकी पत्नी {गिरिजा} की ज़िंदगी को निर्दय काल ने खिलवाड़ बना लिया है। पंडितजी दरिद्रता और दुःख को भुगतने के लिए तैयार थे। भाग्य का भरोसा उन्हें धैर्य बँधाता था। किंतु यह नई विपत्ति सहन-शक्ति से बाहर थी। विचारे दिन के दिन गिरिजा के सिरहाने बैठके उसके मुरझाए हुए मुख को देखकर कुढ़ते और रोते थे। गिरिजा जब अपने जीवन से निराश होकर रोती, तो वह उसे समझाते -- गिरिजा, रोओ मत, तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।

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पंडित देवदत्त के पूर्वजों का कारोबार बहुत विस्तृत था। वे लेन-देन किया करते थे। अधिकतर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के साथ थे। उस समय ईमान इतना सस्ता नहीं बिकता था। सादे पत्रों पर लाखों की बातें हो जाती थीं। मगर सन् ५७ ईस्वी के बलवे ने कितनी ही रियासतों और राज्यों को मिटा दिया और उनके साथ तिवारियों का यह अन्न-धन-पूर्ण परिवार भी मिट्टी में मिल गया। ख़ज़ाना लुट गया, बही-खाते पंसारियों के काम आए। जब कुछ शांति हुई, रियासतें फिर सँभलीं तो समय पलट चुका था। वचन लेख के अधीन हो रहा था, तथा लेखों में भी सादे और रंगीन का भेद होने लगा था।

जब देवदत्त ने होश सँभाला, तब उनके पास इस खंडहर के अतिरिक्त और कोई संपत्ति न थी। अब निर्वाह के लिए कोई उपाय न था। कृषि में परिश्रम और कष्ट था। वाणिज्य के लिए धन और बुद्धि की आवश्यकता थी। विद्या भी ऐसी नहीं कि कहीं नौकरी करते, परिवार की प्रतिष्ठा दान लेते में बाधक थी। अस्तु, साल में दो-तीन बार अपने पुराने व्यवहारियों के घर बिना बुलाए पाहुनों की भाँति जाते और जो कुछ विदाई तथा मार्ग-व्यय पाते, उसी से गुज़ारा करते। पैतृक प्रतिष्ठा का चिन्ह यदि कुछ शेष था, तो वह पुरानी चिट्ठी-पत्रियों का ढेर तथा हुंडियों का पुलिंदा, जिनकी स्याही भी उनके मंद भाग्य की भाँति फीकी पड़ गई थी। पंडित देवदत्त उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय समझते थे। द्वितीया के दिन जब घर-घर लक्ष्मी की पूजा होती है, पंडितजी ठाठ-बाट से इन पुलिंदों की पूजा करते। लक्ष्मी न सही, लक्ष्मी का स्मारक-चिह्न ही सही। दूज का दिन पंडितजी की प्रतिष्ठा के श्राद्ध का दिन था। इसे चाहे विडंबना कहो, चाहे मूर्खता, परंतु श्रीमान् पंडित महाशय को उन पत्रों पर बड़ा अभिमान था। जब गाँव में कोई विवाद छिड़ जाता, तो यह सड़े-गले काग़ज़ों की सेना ही बहुत काम कर जाती और प्रतिवादी शत्रु को हार माननी पड़ती। यदि सत्तर पीढ़ियों से शस्त्र की सूरत न देखने पर भी लोग क्षत्रिय होने का अभिमान करते हैं, तो पंडित देवदत्त का उन लेखों पर अभिमान करना अनुचित नहीं कहा जा सकता, जिनमें सत्तर लाख रुपयों की रक़म छिपी हुई थी।

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वही अमावस्या की रात्रि थी। किंतु दीपमालिका अपनी अल्प जीवनी समाप्त कर चुकी थी। चोरों और जुआरियों के लिए यह शकुन की रात्रि थी, क्योंकि आज की हार साल भर की हार होती है। लक्ष्मी के आगमन की धूम थी। कौड़ियों पर अशर्फ़ियाँ लुट रही थीं। भट्ठियों में शराब के बदले पानी बिक रहा था। पंडित देवदत्त के अतिरिक्त क़स्बे में कोई ऐसा मनुष्य नहीं था, जो कि दूसरों की कमाई समेटने की धुन में न हो। आज भोर से ही गिरिजा की अवस्था शोचनीय थी। विषम ज्वर उसे उक-एक क्षण में मूर्च्छित कर रहा था। एकाएक उसने चौंककर आँखें खोलीं और अत्यंत क्षीण स्वर में कहा -- आज तो दीवाली है।

देवदत्त ऐसा निराश हो रहा था कि गिरिजा को चैतन्य देखकर भी उसे आनंद नहीं हुआ। बोला -- हाँ, आज दीवाली है।

गिरिजा ने आँसू-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखकर कहा -- हमारे घर में क्या दीपक न जलेंगे?

देवदत्त फूट-फूटकर रोने लगा। गिरिजा ने फिर उसी स्वर में कहा -- देखो, आज बरस-बरस के दिन घर अँधेरा रह गया। मुझे उठा दो, मैं भी अपने घर में दीये जलाऊँगी।

ये बातें देवदत्त के हृदय में चुभी जाती थीं। मनुष्य की अंतिम घड़ी लालसाओं और भावनाओं में व्यतीत होती है।

इस नगर में लाला शंकरदास अच्छे प्रसिद्ध वैद्य थे। वे अपने प्राणसंजीवन औषधालय में दवाओं के स्थान पर छापने का प्रेस रखे हुए थे। दवाइयाँ कम बनती थीं, किंतु इश्तहार अधिक प्रकाशित होते थे।

वे कहा करते थे कि बीमारी केवल रईसों का ढकोसला है और पोलिटिकल एकानोमी (राजनीतिक अर्थशास्त्र) के मतानुसार इस विलास-पदार्थ से जितना अधिक संभव हो, टैक्स लेना चाहिए। यदि कोई निर्धन है तो हो। यदि कोई मरता है तो मरे। उसे क्या अधिकार है कि वह बीमार पड़े और मुफ़्त दवा कराए? भारतवर्ष की यह दशा अधिकतर मुफ़्त दवा कराने से हुई है। इसने मनुष्यों को असावधान और बलहीन बना दिया है। देवदत्त महीने भर से नित्य उनके निकट दवा लेने आता था; परंतु वैद्यजी कभी उसकी ओर इतना ध्यान नहीं देते थे कि वह अपनी शोचनीय दशा प्रकट कर सके। वैद्यजी के हृदय के कोमल भाग तक पहुँचते के लिए देवदत्त ने बहुत कुछ हाथ-पैर चलाए। वह आँखों में आँसू-भरे आता, किंतु वैद्यजी का हृदय ठोस था, उसमें कोमल भाग था ही नहीं।

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वही अमावस्या की डरावनी रात थी। गगन-मंडल में तारे आधी रात के बीतने पर और भी अधिक प्रकाशित हो रहे थे, मानो श्रीनगर की बुझी हुई दीवाली पर कटाक्षयुक्त आनंद के साथ मुस्करा रहे थे। देवदत्त बेचैनी की दशा में गिरिजा के सिरहाने से उठे और वैद्यजी के मकान की ओर चले। वे जानते थे कि लालाजी बिना फ़ीस लिये कदापि नहीं आएँगे, किंतु हताश होने पर भी आशा पीछा नहीं छोड़ती। देवदत्त क़दम आगे बढ़ाते चले जाते थे।

वैद्यजी उस समय अपने {रामबाण बिंदु} का विज्ञापन लिखने में व्यस्त थे। उस विज्ञापन की भाव-प्रद भाषा तथा आकर्षण-शक्ति को देखकर कह नहीं सकते कि वैद्य-शिरोमणि थे या सुलेखक विद्यावारिधि।

पाठक, आप उनके उर्दू-विज्ञापन का साक्षात् दर्शन कर लें --

{{नाज़रीन, आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ। आपका ज़र्द चेहरा, आपका तने लाग़िर, आपका ज़रा-सी मेहनत में बेदम हो जाना, आपका लज़्ज़ात दुनिया में महरूम रहना, आपकी ख़ाना तारीकी, यह सब इस सवाल का नफ़ी में जवाब देते हैं। सुनिए, मैं कौन हूँ? मैं वह शख़्स हूँ, जिसने इमराज़ इन्सानी को पर्दे दुनिया से ग़ायब कर देने का बीड़ा उठाया है, जिसने इश्तिहारबाज़, गंदुमनुमा जौ फ़रोश बने हुए हकीमों को बेख़ व बुन से खोदकर दुनिया को पाक कर देने का अज्म बिल् जज्म कर लिया है। मैं वह हैरतअंगेज़ इंसान ज़ईफ़-उल-बयान हूँ, जो नाशाद को दिलशाद, नामुराद को बामुराद, भगोड़े को दिलेर, गीदड़ को शेर बनाता है। और यह किसी जादू से नहीं, मंत्र से नहीं, यह मेरी ईज़ाद करदा {अमृतबिंदु} के अदना करिश्मे हैं। अमृतबिंदु क्या है, इसे कुछ मैं ही जानता हूँ। महर्षि अगस्त ने धन्वंतरि के कानों में इसका नुसख़ा बतलाया था। जिस वक़्त आप वी॰ पी॰ पार्सल खोलेंगे, आप पर उसकी हक़ीक़त रौशन हो जायगी। यह आबे हयात है। यह मर्दानगी का ज़ौहर, फ़रज़ानगी का अक्सीर, अक़्ल का मुरब्बा और ज़ेहन का सक़ील है। अगर वर्षों की मुशायराबाज़ी ने भी आपको शायर नहीं बनाया, अगर शबे रोज़ के रटंत पर भी आप इम्तहान में कामयाब नहीं हो सके, अगर दल्लालों की ख़ुशामद और मुवक्किलों की नाज़बरदारी के बावजूद भी आप अहाते अदालत में भूखे कुत्ते की तरह चक्कर लगाते फिरते हैं, अगर आप गला फाड़-फाड़ चीखने, मेज़ पर हाथ पैर पटकने पर भी अपनी तक़रीर से कोई असर पैदा नहीं कर सकते, तो आप {अमृतबिंदु} का इस्तेसाल कीजिए। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा जो पहले ही दिन मालूम हो जायगा, यह है कि आपकी आँखें खुल जायँगी और आप फिर कभी इश्तिहारबाज़ हकीमों के दाम फ़रेब में न फँसेंगे।}}

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वैद्यजी इस विज्ञापन को समाप्त कर उच्च स्वर से पढ़ रहे थे; उनके नेत्रों में उचित अभिमान और आशा झलक रही थी कि इतने में देवदत्त ने बाहर से आवाज़ दी। वैद्यजी बहुत ख़ुश हुए। रात के समय उनकी फ़ीस दुगुनी थी। लालटेन लिये बाहर निकले तो देवदत्त रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया और बोला -- वैद्यजी, इस समय मुझ पर दया कीजिए। गिरिजा अब कोई सायत की पाहुनी है। अब आप ही उसे बचा सकते हैं। यों तो मेरे भाग्य में जो लिखा है, वही होगा; किंतु इस समय तनिक चलकर आप देख लें, तो मेरे दिल की दाह मिट जायगी। मुझे धैर्य हो जायगा कि उसके लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था, मैंने किया। परमात्मा जानता है कि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आपकी कुछ सेवा कर सकूँ; किंतु जब तक जीऊँगा, आपका यश गाऊँगा और आपके इशारों का ग़ुलाम बना रहूँगा।

हकीमजी को पहले कुछ तरस आया, किंतु वह जुगुनू की चमक थी, जो शीघ्र स्वार्थ के विशाल अंधकार में विलीन हो गई।

वही अमावस्या की रात्रि थी। वृक्षों पर सन्नाटा छा गया था। जीतनेवाले अपने बच्चों को नींद से जगाकर इनाम देते थे। हारनेवाले अपनी रुष्ट और क्रोधित स्त्रियों से क्षमा के लिए प्रार्थना कर रहे थे। इतने में घंटी के लगातार शब्द वायु और अंधकार को चीरते हुए कान में आने लगे। उनकी सुहावनी ध्वनि इस निस्तब्ध अवस्था में अत्यंत भली प्रतीत होती थी। यह शब्द समीप होते गए और अंत में पंडित देवदत्त के समीप आकर उनके खँडहर में डूब गए। पंडित जी उस समय निराशा के अथाह समुद्र में ग़ोते खा रहे थे। शोक में इस योग्य भी नहीं थे कि प्राणों से भी अधिक प्यारी गिरिजा की दवा-दरपन कर सकें। क्या करें? इस निष्ठुर वैद्य को यहाँ कैसे लाएँ? -- ज़ालिम, मैं सारी उमर तेरी ग़ुलामी करता। तेरे इश्तहार छापता। तेरी दवाइयाँ कूटता। आज पंडितजी को यह ज्ञात हुआ है कि सत्तर लाख की चिट्ठी-पत्रियाँ इतनी कौड़ियों के मोल की भी नहीं। पैतृक प्रतिष्ठा का अहंकार अब आँखों से दूर हो गया। उन्होंने उस मखमली थैके को संदूक से बाहर निकाला और उन चिट्ठी-पत्रियों को, जो बाप-दादों की कमाई का शेषांश थीं और प्रतिष्ठा की भाँति जिनकी रक्षा की जाती थी, एक-एक करके दीया को अर्पण करने लगे। जिस तरह सुख और आनंद से पालित शरीर चिता की भेंट हो जाता है, उसी प्रकार वह काग़ज़ी पुतलियाँ भी उस प्रज्ज्वलित दीया के धधकते हुए मुँह का ग्रास बनती थीं। इतने में किसी ने बाहर से पंडितजी को पुकारा। उन्होंने चौंककर सिर उठाया। वे नींद से जागे, अँधेरे में टटोलते हुए दरवाज़े तक आये तो देखा कि कई आदमी हाथ में मशाल लिये हुए खड़े हैं और एक हाथी अपने सूँड़ से उन एरंड के वृक्षों को उखाड़ रहा है, जो द्वार पर द्वारपालों की भाँति खड़े थे। हाथी पर एक सुंदर युवक बैठा हुआ है, जिसके सिर पर केसरिया रंग की रेशमी पाग है। माथे पर अर्धचंद्राकार चंदन, भाले की तरह तनी हुई नोकदार मूँछें, मुखारविंद से प्रभाव और प्रकाश टपकता हुआ, कोई सरदार मालूम पड़ता था। उसका कलीदार अँगरखा और चुनावदार पैजामा, कमर में लकटती हुई तलवार और गर्दन में सुनहरे कंठे और ज़ंजीर उसके सजीले शरीर पर अत्यंत शोभा पा रहे थे। पंडितजी को देखते ही उसने रकाब पर पैर रखा और नीचे उतरकर उनकी वंदना की। उसके इस विनीत भाव से कुछ लज्जित होकर पंडितजी बोले -- आपका आगमन कहाँ से हुआ?

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नवयुवक ने बड़े नम्र शब्दों में जवाब दिया। उसके चेहरे से भलमनसाहत बरसती थी -- मैं आपका पुराना सेवक हूँ। दास का घर राजनगर में है। मैं वहाँ का जागीरदार हूँ। मेरे पूर्वजों पर आपके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किए हैं। मेरी इस समय जो कुछ प्रतिष्ठा तथा संपदा है, सब आपके पूर्वजों की कृपा और दया का परिणाम है। मैंने अपने अनेक स्वजनों से आपका नाम सुना था और मुझे बहुत दिनों से आपके दर्शनों की आकांक्षा थी। आज वह सुअवसर भी मिल गया। अब मेरा जन्म सफल हुआ।

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पंडित देवदत्त की आँखों में आँसू भर आए। पैतृक प्रतिष्ठा का अभिमान उनके हृदय का कोमल भाग था।

वह दीनता जो उनके मुख पर छायी हुई थी, थोड़ी देर के लिए विदा हो गई। वे गंभीर भाव धारण करके बोले -- यह आपका अनुग्रह है जो ऐसा कहते हैं, नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है, जो अपने को उन लोगों की संतति कह सकूँ। इतने में नौकरों ने आँगन में फ़र्श बिछा दिया। दोनों आदमी उसपर बैठे और बातें होने लगीं, वे बातें जिनका प्रत्येक शब्द पंडितजी के मुख को इस तरह प्रफुल्लित कर रहा था, जिस तरह प्रातःकाल की वायु फूलों को खिला देती है। पंडितजी के पितामह ने नवयुवक ठाकुर के पितामह को पच्चीस सहस्र रुपये क़र्ज़ दिये थे। ठाकुर अब गया में जाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहता था, इसलिए ज़रूरी था कि उसके ज़िम्मे जो कुछ ऋण हो, उसकी एक-एक कौड़ी चुका दी जाय। ठाकुर को पुराने बही-खाते में यह दिखाई दिया। पच्चीस के अब पचहत्तर हज़ार हो चुके थे। वही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर २०० मीस से आया था। धर्म ही वह शाक्ति है, जो अंतःकरण में ओजस्वी विचारों को पैदा करती है। हाँ, इस विचार को कार्य में लाने के लिए एक पवित्र और बलवान् आत्मा की आवश्यकता है। नहीं तो वे ही विचार क्रूर पापमय हो जाते हैं। अंत में ठाकुर ने कहा -- आपके पास तो वे चिट्ठियाँ होंगी?

देवदत्त का दिल बैठ गया। वे सँभलकर बोले -- संभवतः हों। कुछ कह नहीं सकते।

ठाकुर ने लापरवाही से कहा -- ढूँढ़िए, यदि मिल जायँ तो हम लेते जायँगे।

पंडित देवदत्त उठे, लेकिन हृदय ठंडा हो रहा था। शंका होने लगी कि कहीं भाग्य हरे बाग़ न दिखा रहा हो। कौन जाने, वह पुर्ज़ा जलकर राख हो गया या नहीं। यदि न मिला तो रुपये कौन देता है। शोक! दूध का प्याला सामने आकर हाथ से छूटा जाता है? हे भगवान्! वह पत्री मिल जाय। हमने अनेक कष्ट पाए हैं, अब हमपर दया करो। इस प्रकार आशा और निराशा की दशा में देवदत्त भीतर गये और दीया के टिमटिमाते हुए प्रकाश में बचे हुए पत्रों को उलट-पुलटकर देखने लगे। वे उछल पड़े और उमंग में भरे हुए पागलों की भाँति आनंद की अवस्था में दो-तीन बार कूदे। तब दौड़कर गिरिजा को गले से लगा लिया और बोले -- प्यारी, यदि ईश्वर ने चाहा तो तू अब बच जायगी। इस उन्मत्तता में उन्हें एकदम यह नहीं जान पड़ा कि {गिरिजा} अब वहाँ नहीं है, केवल उसकी लोथ है।

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देवदत्त ने पत्री को उठा लिया और द्वार तक वे इस तेज़ी से आये, मानो पाँवों में पर लग गए। परंतु यहाँ उन्होंने अपते को रोका और हृदय में आनंद की उमड़ती हुई तरंग को रोककर कहा -- यह लीजिए, वह पत्री मिल गई। संयोग की बात है, नहीं तो सत्तर लाख के काग़ज़ दीमकों के आहार बन गए!

आकस्मिक सफलता में कभी-कभी संदेह बाधा डालता है। जब ठाकुर ने उस पत्री के लेने को हाथ बढ़ाया, तो देवदत्त को संदेह हुआ कि कहीं वह उसे फाड़कर फेंक न दे। यद्यपि यह संदेह निरर्थक था, किंतु मनुष्य कमज़ोरियों का पुतला है। ठाकुर ने उनके मन के भाव को ताड़ लिया। उसने बेपरवाही से पत्री को लिया और मशाल के प्रकाश में देखकर कहा -- अब मुझे पूर्ण विश्वास हुआ। यह लीजिए, आपका रुपया आपके समक्ष है। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे पूर्वजों की मुक्ति हो जाय।

यह कहकर उसने अपनी कमर से एक थैला निकाला और उसमें से एक-एक हज़ार के पचहत्तर नोट निकालकर देवदत्त को दे दिए। पंडितजी का हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था। नाड़ी तीव्र-गति से कूद रही थी। उन्होंने चारों ओर चैकन्नी दृष्टि से देखा कि कहीं कोई दूसरा तो नहीं खड़ा है और तब काँपते हुए हाथों से नोटों को ले लिया। अपनी उच्चता प्रकट करने की व्यर्थ चेष्टा में उन्होंने नोटों की गणना भी नहीं की। केवल उड़ती हुई दृष्टि से देखकर उन्हें समेटा और जेब में डाल लिया।

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वही अमावस्या की रात्रि थी। स्वर्गीय दीपक भी धुँधले हो चले थे। उनकी यात्रा सूर्यनारायण के आने की सूचना दे रही थी। उदयाचल फ़िरोज़ी बाना पहन चुका था। अस्ताचल में भी हलके श्वेत रंग की आभा दिखाई दे रही थी। पंडित देवदत्त ठाकुर को विदा करके घर चले। उस समय उनका हृदय उदारता के निर्मल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था। कोई प्रार्थी उस समय उनके घर से निराश नहीं जा सकता था। सत्यनारायण की कथा धूम-धाम से सुनने का निश्चय हो चुका था। गिरिजा के लिए कपड़े और गहने के विचार ठीक हो गए। अंतःपुर में पहुँचते ही उन्होंने शालिग्राम के सम्मुख मनसा-वाचा-कर्मणा सिर झुकाया और तब शेष चिट्ठी-पत्रियों को समेटकर उसी मखमली थैले में रख दिया। किंतु अब उनका यह विचार नहीं था कि संभवतः उन मुर्दों में भी कोई जीवित हो उठे। वरन् जीविका से निश्चिंत हो, अब वे पैतृक प्रतिष्ठा पर अभिमान कर सकते थे। उस समय वे धैर्य्य और उत्साह के नशे में मस्त थे। बस, अब मुझे ज़िंदगी में अधिक संपदा की ज़रूरत नहीं। ईश्वर ने मुझे इतना दे दिया है। इसमें मेरी और गिरिजा की ज़िंदगी आनंद से कट जायगी। उन्हें क्या ख़बर थी कि गिरिजा की ज़िंदगी पहले कट चुकी है। उनके दिल में यह विचार गुदगुदा रहा था कि जिस समय गिरिजा इस आनंद-समाचार को सुनेगी, उस समय अवश्य उठ बैठेगी। चिंता और कष्ट ने ही उसकी ऐसी दुर्गति बना दी है। जिसे भर पेट कभी रोटी नसीब न हुई, जो कभी नैराश्यमय धैर्य और निर्धनता के हृदय-विदारक बंधन से मुक्त न हुई, उसकी दशा इसके सिवा और हो ही क्या सकती है? यह सोचते हुए वे गिरिजा के पास गये और आहिस्ता से उसे हिलाकर बोले -- गिरिजा, आँखें खोलो। देखो, ईश्वर ने तुम्हारी विनती सुन ली और हमारे ऊपर दया की। कैसी तबीयत है?

किंतु जब गिरिजा तनिक भी न मिनकी, तब उन्होंने चादर उठा दी और उसके मुँह की ओर देखा। हृदय से एक करुणात्मक ठंडी आह निकली। वे वहीं सिर थामकर बैठ गए। आँखों से शोणित की बूँदें-सी टपक पड़ीं। आह! क्या यह संपदा इतने महँगे मूल्य पर मिली है? क्या परमात्मा के दरबार से मुझे इस प्यारी जान का मूल्य दिया गया है? ईश्वर, तुम ख़ूब न्याय करते हो! मुझे गिरिजा की आवश्यकता है, रुपयों की नहीं। यह सौदा बड़ा महँगा है।

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अमावस्या की अँधेरी रात गिरिजा के अँधकारमय जीवन की भाँति समाप्त हो चुकी थी। खेतों में हल चलानेवाले किसान ऊँचे और सुहावने स्वर से गा रहे थे। सर्दी से काँपते हुए बच्चे सूर्य्य-देवता से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहे थे। पनघट पर गाँव की अलबेली स्त्रियाँ जमा हो गई थीं। पानी भरने के लिए नहीं, हँसने के लिए। कोई घड़े को कुएँ में डाले हुए अपनी पोपली सास की नक़ल कर रही थी, कोई खंभों से चिपटी हुई अपनी सहेली से मुस्कराकर प्रेमरहस्य की बातें करती थी। बूढ़ी स्त्रियाँ पोतों को गोद में लिये अपनी बहुओं को कोस रही थीं कि घंटे भर हुए अब तक कुएँ से नहीं लौटीं। किंतु राजवैद्य लाला शंकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे। खाँसते हुए बच्चे और कराहते हुए बूढ़े उनके औषधालय के द्वार पर जमा हो चले थे। इस भीड़-भब्भड़ से कुछ दूर पर दो-तीन सुंदर, किंतु मुर्झाए हुए नवयुवक टहल रहे थे और वैद्यजी से एकांत में कुछ बातें किया चाहते थे। इतने में पंडित देवदत्त नंगे सिर, नंगे बदन, लाल आँखें, डरावनी सूरत, काग़ज़ का एक पुलिंदा लिये दौड़ते हुए आये और औषधालय के द्वार पर इतने ज़ोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्यजी चौंक पड़े और कहार को पुकारकर बोले कि दरवाज़ा खोल दे। कहार महात्मा बड़ी रात गये किसी बिरादरी की पंचायत से लौटे थे। उन्हें दीर्घ-निद्रा का रोग था, जो वैद्यजी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से कम न होता था। आप ऐंठते हुए उठे और किवाड़ खोलकर हुक़्क़ा-चिलम की चिंता में आग ढूँढ़ने चले गए।

हकीमजी उठने की चेष्ठा कर रहे थे कि सहसा देवदत्त उनके सम्मुख जा कर खड़े हो गए और नोटों का पुलिंदा उनके आगे पटककर बोले -- वैद्यजी, ये पचहत्तर हज़ार के नोट हैं। यह आपका पुरस्कार और फ़ीस है। आप चलकर गिरिजा को देख लीजिए और ऐसा कुछ कीजिए कि वह केवल एक बार आँखें खोल दे। यह उसकी एक दृष्टि पर न्योछावर है -- केवल एक दृष्टिअ पर। आपको रुपये मनुष्य की जान से प्यारे हैं। वे आपके समक्ष हैं। मुझे गिरिजा की एक चितवन इन रुपयों से कई गुनी प्यारी है।

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वैद्यजी ने लज्जामय सहानुभूति से देवदत्त की ओर देखा और केवल इतना कहा -- मुझे अत्यंत शोक है, मैं सदैव के लिए तुम्हारा अपराधी हूँ। किंतु तुमने मुझे शिक्षा दे दी। ईश्वर ने चाहा तो अब ऐसी भूल कदापि न होगी। मुझे शोक है। सचमुच महाशोक है।

ये बातें वैद्यजी के अंतःकरण से निकली थीं।