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पाप का अग्निकुंड

कुँवर पृथ्वीसिंह महाराज यशवंतसिंह के पुत्र थे। रूप, गुण और विद्या में प्रसिद्ध थे। ईरान, मिस्र, स्याम आदि देशों में परिभ्रमण कर चुके थे और कई भाषाओं के पंडित समझे जाते थे। इनकी एक बहिन थी, जिसका नाम राजनंदिनी था। यह भी जैसी सुरूपवती और सर्वगुणसंपन्न थी, वैसी ही प्रसन्नवदना और मृदुभाषिणी भी थी। कड़वी बात कहकर किसी का जी दुखाना उसे पसंद नहीं था। पाप को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने देती थी। यहाँ तक कि कई बार महाराज यशवंतसिंह से भी वाद-विवाद कर चुकी थी और जब कभी उन्हें किसी बहाने कोई अनुचित काम करते देखती, तो उसे यथाशक्ति रोकने की चेष्टा करती। इसका ब्याह कुँवर धर्मसिंह से हुआ था। यह एक छोटी रियासत का अधिकारी और महाराज यशवंतसिंह की सेना का उच्च पदाधिकारी था। धर्मसिंह बड़ा उदार और कर्मवीर था। इसे होनहार देखकर महाराज ने राजनंदिनी को इसके साथ ब्याह दिया था और दोनों बड़े प्रेम से अपना वैवाहिक जीवन बिताते थे।

धर्मसिंह अधिकतर जोधपुर में ही रहता था। पृथ्वीसिंह उसके गाढ़े मित्र थे। इनमें जैसी मित्रता थी, वैसी भाइयों में भी नहीं होती। जिस प्रकार इन दोनों राजकुमारों में मित्रता थी, उसी प्रकार दोनों राजकुमारियाँ भी एक दूसरे पर जान देती थीं। पृथ्वीसिंह की स्त्री दुर्गाकुँवरि बहुत सुशीला और चतुरा थी। ननदभावज में अनबन होना लोक-रीति है, पर इन दोनों में इतना स्नेह था कि एक के बिना दूसरी को कभी कल नहीं पड़ता था। दोनों स्त्रियाँ संस्कृत से प्रेम रखती थीं।

एक दिन दोनों राजकुमारियाँ बाग़ की सैर में भग्न थीं कि एक दासी ने राजनंदिनी के हाथ में एक काग़ज़ लाकर रख दिया। राजनंदिनी ने उसे खोला तो वह संस्कृत का एक पत्र था। उसे पढ़कर उसने दासी से कहा कि उन्हें भेज दे। थोड़ी देर में एक स्त्री सिर से पैर तक चादर ओढ़े आती दिखाई दी। इसकी उम्र २५ साल से अधिक न थी, पर रंग पीला था। आँखें बड़ी और ओठ सूखे। चाल-ढाल में कोमलता थी और उसके डील-डौल की गठन बहुत ही मनोहर थी। अनुमान से जान पड़ता था कि समय ने इसकी यह दशा कर रखा है। पर एक समय वह भी होगा, जब यह सुंदर होगी। इस स्त्री ने आकर चौखट चूमी और आशीर्वाद देकर फ़र्श पर बैठ गई। राजनंदिनी ने इसे सिर से पैर तक बड़े ध्यान से देखा और पूछा, {{तुम्हारा नाम क्या है?}}

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उसने उत्तर दिया, {{मुझे व्रजविलासिनी कहते हैं।}}

{{कहाँ रहती हो?}}

{{यहाँ से तीन दिन की राह पर एक गाँव विक्रमनगर है, वहाँ मेरा घर है।}}

{{संस्कृत कहाँ पढ़ी है?}}

{{मेरे पिताजी संस्कृत के बड़े पंडित थे, उन्होंने थोड़ी-बहुत पढ़ा दी है।}}

{{तुम्हारा ब्याह तो हो गया है न?}}

ब्याह का नाम सुनते ही व्रजविलासिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। वह आवाज़ संहालकर बोली -- इसका जवाब मैं फिर कभी दूँगी, मेरी रामकहानी बड़ी दुःखमय है। उसे सुनकर आपको दुःख होगा, इसलिए इस समय क्षमा कीजिए।

आज से व्रजविलासिनी वहीं रहने लगी। संस्कृत-साहित्य में उसका बहुत प्रवेश था। वह राजकुमारियों को प्रतिदिन रोचक कविता पढ़कर सुनाती थी। उसके रंग, रूप और विद्या ने धीरे-धीरे राजकुमारियों के मन में उसके प्रति प्रेम और प्रतिष्ठा उत्पन्न कर दी। यहाँ तक कि राजकुमारियों और व्रजविलासिनी के बीच बड़ाई-छुटाई उठ गई और वे सहेलियों की भाँति रहने लगीं।

कई महीने बीत गए। कुँवर पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह दोनों महाराज के साथ अफ़गानिस्तान की मुहोम पर गये हुए थे। वह विरह की घड़ियाँ मेघदूत और रघुवंश के पढ़ने में कटीं। व्रजविलासिनी को कालिदास की कविता से बहुत प्रेम था और वह उनके वाक्यों की व्याख्या उत्तमता से करती और उसमें ऐसी बारीकियाँ निकालती कि दोनों राजकुमारियाँ मुग्ध हो जातीं।

एक दिन संध्या का समय था, दोनों राजकुमारियाँ फुलवारी में सैर करने गयीं तो देखा कि व्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। राजकुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बातचीत से उसकी सुंदरता कुछ चमक गई थी। इनके साथ अब वह राजकुमारी जान पड़ती थी; पर इन सभी बातों के रहते भी वह बेचारी बहुधा एकांत में बैठकर रोया करती। उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह उसे दम भर भी चैन नहीं लेने देती थी। राजकुमारियाँ उस समय उसे रोते देखकर बड़ी सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गईं। राजनंदिनी ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रख लिया और उसके गुलाब-से गालों को थप-थपाकर कहा -- सखी, तुम अपने दिल का हाल हमें न बताओगी? क्या अब भी हम ग़ैर हैं? तुम्हारा यों अकेले दुःख की आग में जलना हमसे नहीं देखा जाता।

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व्रजविलासिनी आवाज़ संहालकर बोली -- बहिन, मैं अभागिनी हूँ। मेरा हाल मत सुनो।

राज॰ -- अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ।

व्रज॰ -- क्या, कहो?

राज॰ -- वही जो मैंने पहले दिन पूछा था, तुम्हारा ब्याह हुआ है कि नहीं?

व्रज॰ -- इसका जवाब मैं क्या दूँ? अभी नहीं हुआ।

राज॰ -- क्या किसी का प्रेम-बाण हृदय में चुभा हुआ है?

व्रज॰ -- नहीं बहिन, ईश्वर जानता है।

राज॰ -- तो इतनी उदास क्यों रहती हो? क्या प्रेम का आनंद उठाने को जी चाहता है?

व्रज॰ -- नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम को स्थान ही नहीं।

राज॰ -- हम प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी।

व्रजविलासिनी इशारा समझ गई और बोली -- बहिन, इन बातों की चर्चा न करो।

राज॰ -- मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगी। दीवान जयचंद को तुमने देखा है?

व्रजविलासिनी आँखों में आँसू भरकर बोली -- {{राजकुमारी, मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने व्रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रण को निभाने के लिए मैं जीती हूँ, नहीं तो मैंने ऐसी आफ़तें झेली हैं कि जीने की इच्छा अब नहीं रही। मेरे बाप विक्रमनगर के जागीरदार थे। मेरे सिवा उनके कोई संतान न थी। वे मुझे प्राणों से अधिक प्यार करते थे। मेरे ही लिए उन्होंने बरसों संस्कृत-साहित्य पढ़ा था। युद्ध-विद्या में वे बड़े निपुण थे और कई बार लड़ाइयों पर गये थे।

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एक दिन गोधूलि-बेला में सब गायें जंगल से लौट रही थीं। मैं अपने द्वार पर खड़ी थी। इतने में एक जवान बाँकी पगड़ी बाँधे, हथियार सजाए, झूमता आता दिखाई दिया। मेरी प्यारी मोहिनी इस समय से लौटी थी, और उसका बच्चा इधर कलोलें कर रहा था। संयोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया। गाय उस आदमी पर झपटी। राजपूत बड़ा साहसी था। उसने शायद सोचा कि भागता है तो कलंक का टीका लगता, तुरंत तलवार म्यान से खींच ली और वह गाय पर झपटा। गाय झल्लायी हुई तो थी ही, कुछ भी न डरी, मेरी आँखों के सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला। देखते-देखते सैकड़ों आदमी जमा गए और उसको टेढ़ी-सीधी सुनाने लगे। इतने में पिताजी भी आ गए। वे संध्या करने गये थे। उन्होंने आकर देखा कि द्वार पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लगी है, गाय तड़प रही है और उसका बच्चा खड़ा रो रहा है। पिताजी की आहट सुनते ही गाय कराहने लगी और उनकी ओर उसने कुछ ऐसी दृष्टि से देखा कि उन्हें क्रोध आ गया। मेरे बाद उन्हें वह गाय ही प्यारी थी। वे ललकारकर बोले -- मेरी गाय किसने मारी है? नवजवान लज्जा से सिर झुकाए सामने आया और बोला -- मैंने।

पिताजी -- तुम क्षत्रिय हो?

राजपूत -- हाँ!

पिताजी -- तो किसी क्षत्रिय से हाथ मिलाते?

राजपूत का चेहरा तमतमा आया। बोला -- कोई क्षत्रिय सामने आ जाय। हज़ारों आदमी खड़े थे; पर किसी का साहस न हुआ कि उस राजपूत का सामना करे। यह देखकर पिताजी ने तलवार खींच ली और वे उस पर टूट पड़े। उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों में तलवारें चलने लगीं। पिताजी बूढ़े थे। सीने पर ज़ख़म गहरा लगा। गिर पड़े। उठाकर लोग घर पर लाये। उनका चेहरा पीला था; पर उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं। मैं रोती हुई उनके सामने आयी। मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया। जब मैं और पिताजी अकेले रह गए, तो वे बोले -- बेटी, तुम राजपुतानी हो?

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मैं -- जी हाँ।

पिताजी -- राजपूत बात के धनी होते हैं?

मैं -- जी हाँ।

पिताजी -- इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली है, इसका बदला तुम्हें लेना होगा।

मैं -- आपकी आज्ञा का पालन करूँगी।

पिताजी -- अगर मेरा बेटा जीता होता, तो मैं यह बोझ तुम्हारी गर्दन पर न रखता।

मैं -- आपकी जो कुछ आज्ञा होगी, मैं सिर-आँखों से पूरी करूँगी।

पिताजी -- तुम प्रतिज्ञा करती हो?

मैं -- जी हाँ।

पिताजी -- इस प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखाओगी?

मैं -- जहाँ तक मेरा वश चलेगा, मैं निश्चय यह प्रतिज्ञा पूरी करूँगी?

पिताजी -- यह मेरी तलवार लो। जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न भोंक दो, तब तक भोग-विलास न करना।

यह कहते-कहते पिताजी के प्राण निकल गए। मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों छिपाए उस नौजवान राजपूत की तलाश में धूमने लगी। वर्षों बीत गए। मैं कभी बस्तियों में जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानती; पर उस नौजवान का कहीं पता न मिलता। एक दिन मैं बैठी हुई अपने फूटे भाग पर रो रही थी कि वही नौजवान आदमी आता हुआ दिखाई दिया। मुझे देखकर उसने पूछा, तू कौन है? मैंने कहा, मैं दुखिया ब्राह्मणी हूँ, आप मुझ पर दया कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिए। राजपूत ने कहा, अच्छा, मेरे साथ आ।

मैं उठ खड़ी हुई। वह आदमी बेसुध था। मैंने बिजली की तरह लपककर कपड़ों में से तलवार निकाली और उसके सीने में भोंक दी। इतने में कई आदमी आते दिखाई पड़े। मैं तलवार छोड़कर भागी। तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही। बार-बार जी में आया कि कहीं डूब मरूँ। अप्र जान बड़ी प्यारी होती है। न जाने क्या-क्या मुसीबतें और कठिनाइयाँ भोगनी हैं, जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ। अंत में जब जंगल में रहते-रहते जी उकता गया, तो जोधपुर चली आयी। यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी। आपकी सेवा में आ पहुँची और तब से आपकी कृपा से मैं आराम से जीवन बिता रही हूँ। यही मेरी रामकहानी है।}}

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राजनंदिनी ने लंबी साँस लेकर कहा -- दुनिया में कैसे-कैसे लोग भरे हुए हैं। ख़ैर, तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दिया?

व्रजविलासिनी -- कहाँ बहिन! वह बच गया, ज़ख़म ओछा पड़ा था। उसी शकल के एक नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था। नहीं मालूम, वह था या और कोई, शकल बिलकुल मिलती थी।

कई महीने बीत गए। राजकुमारियों ने जब से व्रजविलासिनी की रामकहानी सुनी है, उसके साथ वे और भी प्रेम और सहानुभूति का बर्ताव करने लगी हैं। पहले बिना संकोच कभी-कभी छेड़छाड़ हो जाती थी; पर अब दोनों हरदम उसका दिल बहलाया करती हैं। एक दिन बादल घिरे हुए थे; राजनंदिनी ने कहा -- आज बिहारीलाल की {सतसई} सुनने को जी चाहता है। वर्षाऋतु पर उसमें बहुत अच्छे दोहे हैं।

दुर्गाकुँवरि -- बड़ी अनमोल पुस्तक है। सखी, तुम्हारी बगल में जो अलमारी है, उसी में वह पुस्तक रखी है; ज़रा निकालना।

व्रजविलासिनी ने पुस्तक उतारी और उसका पहला पृष्ठ खोला था कि उसके हाथ से पुस्तक छूटकर गिर पड़ी। उसके पहले पृष्ठ पर एक तस्वीर लगी हुई थी। वह उसी निर्दय युवक की तस्वीर थी, जो उसके बाप का हत्यारा था। व्रजविलासिनी की आँखें लाल हो गईं। त्योरी पर बल पड़ गए। अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई; पर उसके साथ ही यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस आदमी का चित्र यहाँ कैसे आया और इसका इन राजकुमारियों से क्या संबंध है? कहीं ऐसा न हो कि मुझे इतना कृतज्ञ होकर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े।

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राजनंदिनी ने उसकी सूरत देखकर कहा -- सखी, क्या बात है? यह क्रोध क्यों?

व्रजविलासिनी ने सावधानी से कहा -- कुछ नहीं, न जाने क्यों चक्कर आ गया था।

आज से व्रजविलासिनी के मन में एक और चिंता उत्पन्न हुई -- क्या मुझे राजकुमारियों का कृतज्ञ होकर अपना प्रण तोड़ना पड़ेगा?

पूरे सोलह महीने के बाद अफ़गानिस्तान से पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह लौटे। बादशाह की सेना को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामान करना पड़ा। बर्फ़ अधिकता से पड़ने लगी। पहाड़ों के दर्रे बर्फ़ से ढक गए। आने-जाने के रास्ते बंद हो गए। रसद के सामान कम मिलने लगे। सिपाही भूखों मरने लगे। अब अफ़गानों ने समय पाकर रात को छापे मारने शुरू किए। आख़िर शाहज़ादे मुहीउद्दीन को हिम्मत हारकर लौटना पड़ा।

दोनों राजकुमार ज्यों-ज्यों जोधपुर के निकट पहुँचते थे, उत्कंठा से उनके मन उमड़े आते थे। इतने दिनों के वियोग के बाद फिर भेंट होगी। मिलने की तृष्णा बढ़ती जाती है। रात-दिन मंज़िलें काटते चले आते हैं, न थकावट मालूम होती है, न माँदगी। दोनों घायल हो रहे हैं, पर फिर भी मिलने की ख़ुशी में ज़ख़मों की तकलीफ़ भूले हुए हैं। पृथ्वीसिंह दुर्गाकुँवरि के लिए एक अफ़गानी कटार लाये हैं। धर्मसिंह ने राजनंदिनी के लिए काश्मीर का एक बहुमूल्य शाल-जोड़ा मोल लिया है। दोनों के दिल उमंग से भरे हुए हैं।

राजकुमारियों ने जब सुना कि दोनों वीर वापस आते हैं, तो वे फूले अंगों न समायीं। शृंगार किया जाने लगा, माँगें मोतियों से भरी जाने लगीं, उनके चेहरे ख़ुशी से दमकने लगे। इतने दिनों के बिछोह के बाद फिर मिलाप होगा, ख़ुशी आँखों से उबली पड़ती है। एक दूसरे को छेड़ती हैं और ख़ुश होकर गले मिलती हैं।

अगहन का महीना था। बरगद की डालियों में मूँगे के दाने लगे हुए थे। जोधपुर के किले से सलामियों की धनगरज आराज़ें आने लगीं। सारे नगर में धूम मच गई कि कुँवर पृथ्वीसिंह सकुशल अफ़गानिस्तान से लौट आए। दोनों राजकुमारियाँ थाली में आरती के सामान लिये दरवाज़े पर खड़ी थीं। पृथ्वीसिंह दरबारियों के मुजरे लेते हुए महल में आये। दुर्गाकुंवरि ने आरती उतारी और दोनों एक दूसरे को देखकर ख़ुश हो गए। धर्मसिंह भी प्रसन्नता से ऐंठते हुए अपने महल में पहुँचे; पर भीतर पैर रखने भी न पाए थे कि छींक हुई और बायीं आँख फड़कने लगी। राजनंदिनी आरती का थाल लेकर लपकी; पर उसका पैर फिसल गया और थाल हाथ से छूटकर गिर पड़ा। धर्मसिंह का माथा ठनका और राजनंदिनी का चेहरा पीला हो गया। यह असगुन क्यों?

p.134

व्रजविलासिनी ने दोनों राजकुमारों के आने का समाचार सुनकर उन दोनों को देने के लिए दो अभिनंदन-पत्र बना रखे थे। सबेरे जब कुँवर पृथ्वीसिंह संध्या आदि नित्य-क्रिया से निपटकर बैठे, तो वह उनके सामने आयी और उसने एक सुंदर कुश की चँगेली में अभिनंदन-पत्र रख दिया। पृथ्वीसिंह ने उसे प्रसन्नता से ले लिया। कविता यद्यपि उतनी बढ़िया न थी, पर वह नयी और वीरता से भरी हुई थी। वे वीररस के प्रेमी थे, उसको पढ़कर बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने मोतियों का हार उपहार दिया।

व्रजविलासिनी यहाँ से छुट्टी पाकर कुँवर धर्मसिंह के पास पहुँची। वे बैठे हुए राजनंदिनी को लड़ाई की घटनाएँ सुना रहे थे; पर ज्यों ही व्रजविलासिनी की आँख उन पर पड़ी, वह सन्न होकर पीछे हट गई। उसको देखकर धर्मसिंह के चेहरे का भी रंग उड़ गया होंठ सूख गए और हाथ-पैर सनसनाने लगे। व्रजविलासिनी तो उलटे पाँव लौटी; पर दर्मसिंह ने चारपाई पर लेटकर दोनों हाथों से मुँह ढँक लिया।

राजनंदिनी ने यह दृश्य देखा और उसका फूल-सा बदन पसीने से तर हो गया। धर्मसिंह सारे दिन पलँग पर चुपचाप पड़े करवटें रहे। उनका चेहरा ऐसा कुंहला गया, जैसे वे बरसों के रोगी हों। राजनंदिनी उनकी सेवा में लगी हुई थी। दिन तो यों कटा; रात को कुँवर साहब संध्या ही से थकावट का बहाना करके लेट गए। राजनंदिनी हैरान थी कि माजरा क्या है। व्रजविलासिनी उन्हीं के ख़ून की प्यासी है? क्या यह संभव है कि मेरा प्यारा, मेरा मुकुट धर्मसिंह ऐसा कठोर हो? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। वह यद्यपि चाहती है कि अपने भावों से उनके मन का बोझ हलका करे, पर नहीं कर सकती। अंत को नींद ने उसको अपनी गोद में ले लिया।

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रात बहुत बीत गई है। आकाश में अँधेरा छा गया है। सारस की दुःख से भरी बोली कभी-कभी सुनाई दे जाती है और रह-रहकर किले के संतरियों की आवाज़ कान में आ पड़ती है। राजनंदिनी की आँख खुली, तो उसने धर्मसिंह को पलँग पर न पाया। चिंता हुई, वह झट उठकर व्रजविलासिनी के कमरे की ओर चली और दरवाज़े पर खड़ी होकर भीतर की ओर देखने लगी। संदेह पूरा हो गया। क्या देखती है कि व्रजविलासिनी हाथ में तेगा लिये खड़ी है और धर्मसिंह दोनों हाथ जोड़े उसके सामने दीनों की तरह घुटने टेके बैठे हैं। वह दृश्य देखते ही राजनंदिनी का ख़ून सूख गया और उसके सिर में चक्कर आने लगा, पैर लड़खड़ाने लगे। जान पड़ता था कि गिरी जाती है। वह अपने कमरे में आयी और मुँह ढँककर लेट रही; पर उसकी आँखों से एक बूँद भी न निकली।

दूसरे दिन पृथ्वीसिंह बहुत सबेरे ही कुँवर धर्मसिंह के पास गये और मुस्करा कर बोले -- भैया, मौसिम बड़ा सुहावना है, शिकार खेलने चलते हो?

धर्मसिंह -- हाँ, चलो।

दोनों राजकुमारों ने घोड़े कसवाए और जंगल की ओर चल दिए। पृथ्वीसिंह का चेहरा खिला हुआ था, जैसे कमल का फूल। एक-एक अंग से तेज़ी और चुस्ती टपकी पड़ती थी; पर कुँवर धर्मसिंह का चेहरा मैला हो गया था, मानो बदन में जान ही नहीं है। पृथ्वीसिंह ने उन्हें कई बार छेड़ा; पर जब देखा कि वे बहुत दुःखी हैं तो चुप हो गए। चलते-चलते दोनों आदमी झील के किनारे पर पहुँचे। एकाएक धर्मसिंह ठिठके और बोले -- मैंने आज रात को एक दृढ़ पर्तिज्ञा की है। यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी आ गया।

पृथ्वीसिंह ने घबड़ाकर पूछा -- कैसी पर्तिज्ञा?

{तुमने व्रजविलासिनी का हाल सुना है? मैंने प्रतिज्ञा की है, जिस आदमी ने उसके बाप को मारा है, उसे भी जहन्नुम में पहुँचा दूँ।}

{तुमने सचमुच वीर-प्रतिज्ञा की है।}

{हाँ, यदि मैं पूरी कर सकूँ। तुम्हारे विचार में ऐसा आदमी मारने योग्य है या नहीं?}

p.136

{ऐसे निर्दयी की गर्दन गुट्ठल छुरी से काटनी चाहिए।}

{बेशक; यही मेरा भी विचार है। यदि मैं किसी कारण यह काम न कर सकूँ, तो तुम मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे?}

{बड़ी ख़ुशी से। उसे पहचानते हो न?}

{हाँ, अच्छी तरह।}

{तो अच्छा होगा, यह काम मुझको ही करने दो, तुम्हें शायद उस पर दया आ जाय।}

{बहुत अच्छा; पर यह याद रखो कि वह आदमी बड़ा भाग्यशाली है! कई बार मौत के मुँह से बचकर निकला है! क्या आश्चर्य है कि तुमको भी उस पर दया आ जाय। इसलिए तुम प्रतिज्ञा करो कि उसे ज़रूर जहन्नुम पहुँचाओगे।}

{मैं दुर्गा की शपथ खाकर कहता हूँ कि उस आदमी को अवश्य मारूँगा।}

{बस, तो हम दोनों मिलकर कार्य सिद्ध कर लेंगे। तुम अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहोगे न?}

{क्यों? क्या मैं सिपाही नहीं हूँ? एक बार जो प्रतिज्ञा की, समझ लो कि वह पूरी करूँगा, चाहे इसमें अपनी जान ही क्यों न चली जाय।}

{सब अवस्थाओं में?}

{हाँ, सब अवस्थाओं में।}

{यदि वह तुम्हारा कोई बंधु हो तो?}

पृथ्वीसिंह ने धर्मसिंह को विचारपूर्वक देखकर कहा -- कोई बंधु हो तो?

धर्मसिंह -- हाँ, संभव है कि तुम्हारा कोई नातेदार हो।

पृथ्वीसिंह -- (जोश में) कोई हो, यदि मेरा भाई भी हो, तो भी जीता चुनवा दूँ।

धर्मसिंह घोड़े से उतर पड़े। उनका चेहरा उतरा हुआ था और ओठ काँप रहे थे। उन्होंने कमर से तेगा खोलकर ज़मीन पर रख दिया और पृथ्वीसिंह को ललकार कर कहा -- पृथ्वीसिंह, तैयार हो जाओ। वह दुष्ट मिल गया।

पृथ्वीसिंह ने चौंककर इधर-उधर देखा तो धर्मसिंह के सिवाय और कोई दिखाई न दिया।

p.137

धर्मसिंह -- तेगा खींचो।

पृथ्वीसिंह -- मैंने उसे नहीं देखा।

धर्मसिंह -- वह तुम्हारे सामने खड़ा है। वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिंह ही है।

पृथ्वीसिंह -- (घबराकर) ऐं तुम! -- मैं --

धर्मसिंह -- राजपूत, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो!

इतना सुनते ही पृथ्वीसिंह ने बिजली की तरह कमर से तेगा खींच लिया और उसे धर्मसिंह के सीने में चुभा दिया। मूठ तक तेगा चुभ गया। ख़ून का फ़व्वारा बह निकला।

धर्मसिंह ज़मीन पर गिरकर धीरे से बोले -- पृथ्वीसिंह, मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ। तुम सच्चे वीर हो। तुमने पुरुष का कर्त्तव्य पुरुष भाति पालन किया।

पृथ्वीसिंह यह सुनकर ज़मीन पर बैठ गए और रोने लगे।

अब राजनंदिनी सती होने जा रही है। उसने सोलहों शृंगार किए हैं, और माँग मोतियों से भरवायी है। कलाई में सोहाग का कंगन है, पैरों में महावर लगाया है और लाल चुनरी ओढ़ी है। उसके अंग से सुगंधि उड़ रही है, क्योंकि वह आज सती होने जाती है।

राजनंदिनी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उसकी ओर देखने से आँखों में चकाचौंध लग जाती है। प्रेम-मद से उसका रोयाँ-रोयाँ मस्त हो गया है, उसकी आँखों से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है। वह आज स्वर्ग की देवी जान पड़ती है। उसकी चाल बड़ी मदमाती है। वह अपने प्यारे पति का सिर अपनी गोद में लेती है और उस चिता में बैठ जाती है जो चंदन, खस आदि से बनायी गई है।

सारे नगर के लोग यह दृश्य देखने के लिए उमड़े चले आते हैं। बाजे बज रहे हैं, फूलों की वृष्टि हो रही है। सती चिता पर बैठ चुकी थी कि इतने में कुँवर पृथ्वीसिंह आये और हाथ जोड़कर बोले -- महारानी, मेरा अपराध क्षमा करो।

सती ने उत्तर दिया -- क्षमा नहीं हो सकता। तुमने एक नौजवान राजपूत की जान ली है, तुम भी जवानी में मारे जाओगे।

p.138

सती के वचन कभी झूठे हुए हैं? एकाएक चिता में आग लग गई। जय-जयकार के शब्द गूँजने लगे। सती का मुख आग में यों चमकता था, जैसे सबेरे की ललाई में सूर्य चमकता है। थोड़ी देर में वहाँ राख के ढेर के सिवा और कुछ न रहा।

इस सती के मन में कैसा सत था! परसों जब उसने व्रजविलासिनी को झिझककर धर्मसिंह के सामने जाते देखा था, उसी समय से उसके दिल में संदेह हो गया था। पर जब रात को उसने देखा कि मेरा पति इसी स्त्री के सामने दुखिया की तरह बैठा हुआ है, तब वह संदेह निश्चय की सीमा तक पहुँच गया और यही निश्चय अपने साथ सत लेता आया था।

सबेरे जब धर्मसिंह उठे, तब राजनंदिनी ने कहा था कि मैं व्रजविलासिनी के शत्रु का सिर चाहती हूँ, तुम्हें लाना होगा। और ऐसा ही हुआ। अपने सती होने के सब कारण राजनंदिनी ने जान-बूझकर पैदा किए थे, क्योंकि उसके मन में सत था।

पाप की आग कैसी तेज़ होती है? एक पाप ने कितनी जानें लीं? राजवंश के दो राजकुमार और दो कुमारियाँ देखते-देखते इस अग्निकुंड में स्वाहा हो गईं। सती का वचन सच हुआ। सात ही सप्ताह के भीतर पृथ्वीसिंह दिल्ली में कत्ल किए गए और दुर्गाकुँवरि सती हो गई।