रानी सारंधा
अँधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी, जैसे घुमुर-घुमुर करती हुई चक्कियाँ। नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है, जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गाँव है। यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरदार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गईं, बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ; मुसलमान आये और गये; बुंदेला राजा उठे और गिरे -- कोई गाँव, कोई इलाक़ा ऐसा न था, जो इन दुर्व्यवस्थाओं से पीड़ित न हो; मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-यताका न लहरायी और इस गाँव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ। यह उसका सौभाग्य था।
अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था। वह ज़माना ही ऐसा था, जब मनुष्य मात्र को अपने बाहुबल और पराक्रम ही का भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएँ पैर जमाए खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्धसिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा, मगर सजीव दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ था; मगर अनिरुद्ध विहार के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की ख़ैर मनाने में। वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों पर गिरकर रोयी थी कि तुम मेरी आँखों से दूर न हो, मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ बनवास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता। उसने प्यार से कहा, जिद से कहा, विनय की; मगर अनिरुद्ध बुंदेला था। शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी।
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२
अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी, तारे आकाश में जागते थे। शीतला देवी पलँग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारंधा फ़र्श पर बैठी हुई मधुर स्वर से गाती थी --
बिनु रघुबीर कटत नहीं रैन।
शीतला ने कहा -- जी न जलाओ। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?
सारंधा -- तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।
शीतला -- मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।
सारंधा -- किसी को ढूँढ़ने गयी होगी।
इतने में द्वार खुला और एक गठे बदन के रूपवान् पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। वह अनिरुद्ध था, उसके कपड़े भीगे हुए थे और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतरकर ज़मीन पर बैठ गई।
सारंधा ने पूछा -- भैया, कपड़े भीगे क्यों हैं?
अनिरुद्ध -- नदी तैरकर आया हूँ।
सारंधा -- हथियार क्या हुए?
अनिरुद्ध -- छिन गए।
सारंधा -- और साथ के आदमी?
अनिरुद्ध -- सबने वीर-गति पायी।
शीतला ने दबी ज़बान से कहा -- ईश्वर ने ही कुशल किया। मगर सारंधा के तीवरों पर बल पड़ गए और मुख-मंडल गर्व से सतेज हो गया। बोली -- भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।
सारंधा भाई पर जान देती थी। उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण भर के लिए अनुराग ने दबा लिया था, फिर ज्वलंत हो गई। वह उलटे पाँव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि {{सारंधा, तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। यह बात मुझे कभी न भूलेगी।}}
अँधेरी रात थी। आकाश-मंडल में तारों का प्रकाश बहुत धुँधला था। अनिरुद्ध क़िले से बाहर निकला। पल भर में नदी के उस पार जा पहुँचा और फिर अंधकार में लुप्त हो गया। शीतल उसके पीछे-पीछे क़िले की दीवारों तक आयी; मगर जब अनिरुद्ध छलाँग मारकर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी एक चट्टान पर बैठकर रोने लगी।
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इतने में सारंधा भी वहीं आ पहुँची। शीतला ने नागिन की तरह बल खा कर कहा -- मर्यादा इतनी प्यारी है?
सारंधा -- हाँ।
शीतला -- अपना पति होता तो हृदय में छिपा लेती।
सारंधा -- ना, छाती में छुरा चुभा देती।
शीतला ने ऐंठकर कहा -- चोली में छिपाती फिरोगी, मेरी बात गिरह में बाँध लो।
सारंधा -- जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊँगी।
इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राजा चंपतराय से हो गया; मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में काँटे की तरह खटकती रहीं।
३
राजा चंपतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारी बुंदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुगल बादशाहों को कर देना बंद कर दिया और वे अपने बाहु-बल से राज्य-विस्तार करने लगे, मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उन पर हमले करती थीं, पर हारकर लौट जाती थीं।
यही समय था जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चंपतराय से विवाह कर दिया। सारंधा ने मुँह-माँगी मुराद पायी। उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुंदेला जाति का कुल-तिलक हो, पूरी! हुई। यद्यपि राजा के रनिवास में पाँच रानियाँ थीं; मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी, जो हृदय में मेरी पूजा करती है, सारंधा है।
परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ हुई कि चंपतराय को मुगल बादशाह का आश्रित होना पड़ा। वे अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंपकर देहली चले गये। यह शाहजहाँ के शासन-काल का अंतिम भाग था। शाहज़ादा दारा शिकोह राजकीय कार्यों को सँभालते थे। युवराज की आँखों में शील था और चित्त में उदारता। उन्होंने चंपतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं, इसलिए उनका बहुत आदर-स्म्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उनको भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चंपतराय को आये-दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी! राजा विलास में डूबे, रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं; मगर सारंधा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती -- वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती, ये नृत्य और गान की सभाएँ उसे सूनी प्रतीत होतीं।
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एक दिन चंपतराय ने सारंधा से कहा -- सारन, तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हँसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज़ हो?
सारंधा की आँखों में जल भर आया। बोली -- स्वामीजी, आप क्यों ऐसा विचार करते हैं? जहाँ आप प्रसन्न हैं, वहाँ मैं भी ख़ुश हूँ।
चंपतराय -- मैं जब से यहाँ आया हूँ, मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कराहट नहीं देखी। तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाए। कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी?
सारंधा -- प्राणनाथ, आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं, जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूँ कि ख़ुश रहूँ, मगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है।
चंपतराय स्वयं आनंद में मग्न थे। इसलिए उनके विचार में सारंधा को असंतुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वे भौंहें सिकोड़कर बोले -- मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता। ओरछे में कौन-सा सुख था, जो यहाँ नहीं है?
सारंधा का चेहरा लाल हो गया। बोली -- मैं कुछ कहूँ, आप नाराज़ तो न होंगे?
चंपतराय -- नहीं, शौक़ से कहो।
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सारंधा -- ओरछे में मैं एक राजा की रानी थी। यहाँ मैं एक जागीरदार की चेरी हूँ। ओरछे में मैं वह थी, जो अवध में कौशल्या थीं; यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ। जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं, वह कल आपके नाम से काँपता था। रानी से चेरी होकर भी प्रसन्न-चित्त होना मेरे वश में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियाँ बड़े महँगे दामों मोल ली हैं।
चंपतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा-सा हट गया। वे अब तक सारंधा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे। जैसे बे-माँ-बाप का बालक माँ की चर्चा सुन कर रोने लगता है, उसी तरह ओरछे को याद से चंपतराय की आँखें सजल हो गईं। उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारंधा को हृदय से लगा लिया।
आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की फ़िक़्र हुई, जहाँ से धन और कीर्ति की अभिलाषाएँ खींच लायी थीं।
४
माँ अपने खोए हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है। चंपतराय के आने से बुंदेलखंड निहाल हो गया। ओरछे के भाग जागे। नौबतें झड़ने लगीं और फिर सारंधा के कमल नेत्रों में जातीय अभिमान का आभास दिखाई देने लगा।
यहाँ रहते- रहते महीने बीत गए। इसी बीच में शाहजहाँ बीमार पड़ा। पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी। यह ख़बर सुनते ही ज्वाला प्रचंड हुई। संग्राम की तैयारियाँ होने लगीं। शाहज़ादा मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे। उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भर कर अपने सौंदर्य को दिखाती थी।
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले आते थे। यहाँ तक कि वे धौलपुर के निकट चंबल के तट पर आ पहुँचे; परंतु यहाँ उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।
शाहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े। सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी, किसी योगी के त्याग सदृश। विवश होकर चंपतराय के पास संदेश भेजा कि ख़ुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए।
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राजा ने भवन में जाकर सारंध से पूछा -- इसका क्या उत्तर दूँ?
सारंधा -- आपको मदद करनी होगी।
चंपतराय -- उनकी मदद करना दारा शिकोह से बैर लेना है।
सारंधा -- यह सत्य है; परंतु हाथ फैलाने का मर्यादा भी तो निभानी चाहिए?
चंपतराय -- प्रिये, तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया।
सारंधा -- प्राणनाथ, मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है। और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा; परंतु हम अपना रक्त बहाएँगे और चंबल की लहरों को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी, वह हमारे वीरों का कीर्तिगान करती रहेगी। जब तक बुंदेलों का एक भी नामलेवा रहेगा, ये रक्त-बिंदु उसके माथे पर केशर का तिलक बनकर चमकेंगे।
वायुमंडल में मेघराज की सेनाएँ उमड़ रही थीं। ओरछे के क़िले से बुंदेलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चंबल की तरफ़ चली। प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था। सारंधा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा देकर कहा -- बुंदेलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है।
आज उसका एक-एक अंग मुस्करा रहा है और हृदय हुलसित है। बुंदेलों की यह सेना देखकर शाहज़ादे फूले न समाए। राजा वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे। उन्होंने बुंदेलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फ़ौज को सजाकर नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर चले। दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है। उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिए। घाट में बैठे हुए बुंदेले उसी ताक में थे। बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरंत ही नदी में घोड़े डाल दिये। चंपतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी अपनी फ़ौज घुमा दी और वह बुंदेलों के पीछे चलता हुआ उस पार उतार लाया। इस कठिन चाल में सात घंटों का विलंब हुआ; परंतु जाकर देखा तो सात सौ बुंदेलों की लाशें तड़प रही थीं।
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राजा को देखते ही बुंदेलों की हिम्मत बँध गई। शाहज़ादों की सेना ने भी {अल्लाहो अकबर} की ध्वनि के साथ धावा किया। बादशाही सेना में हलचल पड़ गई। उनकी पंक्तियाँ छिन्न-मिन्न हो गईं, हाथोंहाथ लड़ाई होने लगी, यहाँ तक कि शाम हो गई। रणभूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अँधेरा हो गया। घमासान की मार हो रही थी। बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाए आती थी। अकस्मात् पश्तिम से फिर बुंदेलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना पुश्त पर टकरायी कि उसके क़दम उखड़ गए। जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया। लोगों को कुतूहल था कि यह दैवी सहायता कहाँ से आयी। सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते हैं, शाहज़ादों की मदद के लिए आये हैं; परंतु जब राजा चंपतराय निकट गये तो सारंधा ने घोड़े से उतरकर उनके पैरों पर सिर झुका दिया। राजा को असीम आनंद हुआ। यह सारंधा थी।
समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यंत दुःखमय था। थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए वीरों के दल थे, वहाँ अब बेजान लाशें तड़प रही थीं। मनुष्य ने अपने स्वाथ के लिए अनादि काल से ही भाइयों की हत्या की है।
अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द मर्दों से लड़ते थे। वह वीरता और पराक्रम का चित्र था, यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तस्वीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना था, अब वह पशु से भी बढ़ गया।
इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वली बहादुर खाँ की लाश दिखाई दी। उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियाँ उड़ा रहा था। राजा को घोड़ों का शौक़ था। देखते ही वह उस पर मोहित हो गया। यह एराकी जाति का अति सुंदर घोड़ा था। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, सिंह की सी छाती; चीते की सी कमर, उसका यह प्रेम और स्वामि-भक्ति देखकर लोगों को बड़ा कुतूहल हुआ। राजा ने हुक्म दिया -- ख़बरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाए, इसे जीता पकड़ लो, यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ाएगा। जो इसे मेरे पास ले आएगा, उसे धन से निहाल कर दूँगा।
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योद्धागण चारों ओर से लपके, परंतु किसी को साहस न होता था कि उसके निकट जा सके। कोई चुमकारता था, कोई फंदे में फँसाने की फ़िक़्र में था, पर कोई उपाय सफल न होता था। वहाँ सिपाहियों का मेला-सा लगा हुआ था।
तब सारंधा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गयी। उसकी आँखों में प्रेम का प्रकाश था, छल का नहीं। घोड़े ने सिर झुका दिया। रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी। घोड़े ने उसके अंचल में मुँह छिपा लिया। रानी उसकी रास पकड़कर खेमे की ओर चली। घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला, मानो सदैव से उसका सेवक है।
पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारंधा से भी निष्ठुरता की होती। यह सुंदर घोड़ा आगे चलकर इस राज-परिवार के निमित्त स्वर्णजटित मृग साबित हुआ।
५
संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजय-लाभ होता है, जो अवसर को पहचानता है। वह अवसर पर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है, उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है। वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।
पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं, जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं, लेकिन संकट में पीछे हटना नहीं जानते। ये रणवीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं। वे अपनी सेना का नाम मिटा देंगे, किंतु जहाँ एक बार पहुँच गए हैं, वहाँ से क़दम पीछे न हटाएँगे। उनमें कोई विरला ही संसार-क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, किंतु प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवात्मक होती है। अगर अनुभवी सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है, तो आन पर जान देनेवाला, मुँह न मोड़नेवाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है, और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है। उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो, किंतु जब किसी वाक्य या सभा में उसका नाम ज़बान पर आ जाता है, तो श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति-गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारंधा {आन पर जान देनेवालों} में थी।
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शाहज़ादा मुहीउद्दीन चंबल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था। जब वह आगरे पहुँचा तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया!
औरंगज़ेब गुणज्ञ था। उसके बादशाही सरदारों के अपराध कर दिए, उनके राज्य-पद लौटा दिये और राजा चंपतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हज़ारी मंसब प्रदान किया। ओरछा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गई। बुंदेला राजा फिर राज-सेवक बना, वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारंधा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी।
वली बहादुर खाँ बड़ा वाक्-चतुर मनुष्य था। उसकी मृदुता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया। उस पर राजसभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी।
खाँ साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था। एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर स्वार होकर सैर को गया था। वह खाँ साहब के महल की तरफ़ जा निकला। वली बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था। उसने तुरंत अपने सेवकों को इशारा किया। राजकुमार अकेला क्या करता? पाँव-पाँव घर आया और उसने सारंधा से सब समाचार बयान किया। रानी का चेहरा तमतमा गया। बोली, {{मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया, शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है? घोड़ा न मिलता, न सही; किंतु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुंदेला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है।}}
यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आझा दी। स्वयं अस्त्र धारण किए और योद्धाओं के साथ वली बहादुर खाँ के निवास स्थान पर जा पहुँची। खाँ साहब उसी घोड़ पर सवार होकर दरबार चले गए थे, सारंधा दरबार की तरफ़ चली, और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची, यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी वर्ग इधर-उधर से आकर जमा हो गए। आलमगीर भी सहन में निकल आए। लोग अपनी-अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद आ गई।
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सारंधा ने उच्च स्वर से कहा -- खाँ साहब, बड़ी लज्जा की बात है, आपने वही वीरता, जो चंबल के तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?
वली बहादुर खाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज़ से बोले -- किसी ग़ैर को क्या मज़ाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाए?
रानी -- वह आपकी चीज़ नहीं, मेरी है। मैंने उसे रण-भूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रण-नीति की इतनो मोटी बात भी आप नहीं जानते?
खाँ साहब -- वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है।
रानी -- मैं अपना घोड़ा लूँगी।
खाँ साहब -- मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ; परंतु घोड़ा नहीं दे सकता!
रानी -- तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा, बुंदेला योद्धाओं ने तलवारें सौंत ली और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाय, बादशाह आलमगीर ने बीच में आकर कहा -- रानी साहबा, आप सिपाहियों को रोकें, घोड़ा आपको मिल जायगा; परंतु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।
रानी -- मैं उसके लिए अपना सर्वस्व देने को तैयार हूँ।
बादशाह -- जागीर और मंसब भी?
रानी -- जागीर और मन्सब कोई चीज़ नहीं।
बादशाह -- अपना राज्य भी?
रानी -- हाँ, राज्य भी।
बादशाह -- एक घोड़े के लिए?
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रानी -- नहीं, उस पदार्थ के लिए, जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान् है।
बादशाह -- वह क्या है?
रानी -- अपनी आन।
इस भाँति रानी ने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागोर, उच्च राज और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं, भविष्य के लिए काँटे बोए; इस घड़ी से अंत दशा तक चंपतराय को शांति न मिली।
६
राजा चंपतराय ने फिर ओरछे के क़िले में पदार्पण किया। उन्हें मंसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यंत शोक हुआ; किंतु उन्होंने अपने मुँह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला, वे सारंधा के स्वभाव को भली-भाँति जानते थे। शिकायत इस समय उनके आत्म-गौरव पर कुठार का काम करती।
कुछ दिन यहाँ शांतिपूर्वक व्यतीत हुए; लेकिन बादशाह सारंधा की कठोर बात भूला न था, वह क्षमा करना जानता ही न था। ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिंत हुआ; उसने एक बड़ी सेना चंपतराय का गर्व चूर्ण करने के लिए भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किए। शुभकरण बुंदेला बादशाह का सूबेदार था। वह चंपतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसने चंपतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया। और भी कितने बुंदेला सरदार राजा से विमुख होकर बादशाही सूबेदार से आ मिले। एक घोर संग्राम हुआ। भाइयों की तलवारें रक्त से लाल हुईं। यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई, लेकिन उनकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गई। निकटवर्ती बुंदेला राजा, जो चंपतराय के बाहुबल थे, बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे। साथियों में कुछ तो काम आये, कुछ दगा कर गए। यहाँ तक कि जिन संबंधियों ने भी आँखें चुरा लीं; परंतु इन कठिनाइयों में भी चंपतराय ने हिम्मत नहीं हारी, धीरज को न छोड़ा। उन्होंने ओरछा छोड़ दिया और वे तीन वर्ष तक बुंदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे।
बादशाही सेनाएँ शिकारी जानवरों की भाँति सारे देश में मँडरा रही थीं। आये-दिन राजा का किसी न किसी से सामना हो जाता था। सारंधा सदैव उनके साथ रहती और उनका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में जब कि धैर्य लुप्त हो जाता -- और आशा साथ छोड़ देती -- आत्मरक्षा का धर्म उसे सँभाले रहता था। तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा। उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई; पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।
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तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं, उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। क़िले में २० हज़ार आदमी घिरे हुए हैं, लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं। मर्दों की संख्या दिनों-दिन न्यून होती जाती है। आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं। हवा का भी गुज़र नहीं। रसद का सामान बहुत कम रह गया है। स्त्रियाँ पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश हो रहे हैं। औरतें सूर्यनारायण की ओर हाथ उठा-उठाकर शत्रु को कोसती हैं। बालकवृंद मारे क्रोध के दीवारों की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं, जो मुश्किल से दीवार के उस पार जा पाते हैं। राजा चंपतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं। उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी। उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढारस होता था, लेकिन उनकी बीमारी से सारे क़िले में नैराश्य छाया हुआ था।
राजा ने सारंधा से कहा -- आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आएँगे।
सारंधा -- ईश्वर न करे कि इन आँखों से वह दिन देखना पड़े।
राजा -- मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ वह घुन भी पिस जायँगे।
सारंधा -- हम लोग यहाँ से निकल जायँ तो कैसा?
राजा -- इन अनाथों को छोड़कर?
सारंधा -- इस समय इन्हें छोड़ देने ही में कुशल है। हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे।
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राजा -- नहीं, यह लोग मुझसे न छोड़े जायँगे। जिन मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता।
सारंधा -- लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते?
राजा -- उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं। मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूँगा। उनके लिए बादशाही सेना की ख़ुशामद करूँगा, कारावास की कठिनाइयाँ सहूँगा, किंतु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता।
सारंधा ने लज्जित होकर सिर झुका लिया और सोचने लगी, निस्संदेह प्रिय साथियों को आग की आँच में छोड़कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है! मैं ऐसी स्वार्थाध क्यों हो गई हूँ? लेकिन एकाएक विचार उत्पन्न हुआ। बोली -- यदि आपको विश्वास हो जाय कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जायगा तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी?
राजा -- (सोचकर) कौन विश्वास दिलाएगा?
सारंधा -- बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञा-पत्र।
राजा -- हाँ, तब मैं सानंद चलूँगा।
सारंधा विचार-सागर में डूबी। बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह प्रतिज्ञा कराऊँ? कौन यह प्रस्ताव लेकर वहाँ जायगा और निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे। उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है। मेरे यहाँ ऐसा नीति-कुशल, वाक्पटु, चतुर कौन है, जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे? छत्रसाल चाहे तो कर सकता है। उसमें ये सब गुण मौजूद हैं।
इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया। यह उसके चारों पुत्रों में सबसे बुद्धिमान् और साहसी था। रानी उसे सबसे अधिक प्यार करती थी। जब छत्रसाल ने आकर रानी को प्रणाम किया, तो उसके कमलनेत्र सजल हो गए और हृदय से दीर्घ निःश्वास निकल गया।
छत्रसाल -- माता, मेरे लिए क्या आज्ञा है?
रानी -- आज लड़ाई का क्या ढंग है?
छत्रसाल -- हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं।
रानी -- बुंदेलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है।
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छत्रसाल -- हम आज रात छापा मारेंगे।
रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा -- यह काम किसे सौंपा जाय?
छत्रसाल -- मुझको।
{तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?}
{हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।}
{अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे।}
छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर कहा -- दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुंदेलों की आन के आगे भेंट कर दिया। अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है। मैंने बड़ी मूल्यवान् वस्तु अर्पित की है, इसे स्वीकार करो।
८
दूसरे दिन प्रातःकाल सारंधा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिये मंदिर को चली। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और आँखों तले अँधेरा छाया जाता था। वह मंदिर के द्वार पर पहुँची थी कि उसके थाल में बाहर से आकर एक तीर गिरा। तीर की नोक पर एक कागज़ का पुर्जा लिपटा हुआ था। सारंधा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्जे को खोलकर देखा तो आनंद से चेहरा खिल गया; लेकिन यह आनंद क्षण-भर का था। हाय! इस पुर्जे के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र से खो दिया। कागज़ के टुकड़े को इतने महँगे दामों किसने लिया होगा?
मंदिर से लौटकर सारंधा राजा चंपतराय के पास गयी और बोली -- {प्राणनाथ, आपने जो वचन दिया था, उसे पूरा कीजिए।} राजा ने चौंककर पूछा, {{तुमने अपना वादा पूरा कर दिया?}} रानी ने वह प्रतिज्ञापत्र राजा को दे दिया। चंपतराय ने उसे गौरव से देखा और फिर बोले -- अब मैं चलूँगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की ख़बर लूँगा। लेकिन सारन्, सच बताओ, इस पत्र के लिए क्या देना पड़ा है?
रानी ने कुंठित स्वर से कहा -- बहुत कुछ।
राजा -- सुनूँ?
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रानी -- एक जवान पुत्र।
राजा को बाण सा लगा। पूछा -- कौन? अंगदराय?
रानी -- नहीं।
राजा -- रतनसाह?
रानी -- नहीं।
राजा -- छत्रसाल?
रानी -- हाँ।
जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परों को फड़फड़ाता है और तब बेदम होकर गिर पड़ता है, उसी भाँति चंपतराय पलँग से उछले और फिर अचेत होकर गिर पड़े। छत्रसाल उनका परमप्रिय पुत्र था। उनके भविष्य की सारी कामनाएँ उसी पर अवलंबित थीं। जब चेत हुआ तब बोले, {{सारन्, तुमने बुरा किया।}}
अँधेरी रात थी। रानी सारंधा घोड़े पर सवार चंपतराय को पालकी में बैठाए क़िले के गुप्त मार्ग से निकली जाती थी। आज से बहुत काल पहले एक दिन ऐसी ही अँधेरी दुःखमयी रात्रि थी। तब सारंधा ने शीतलादेवी को कुछ कठोर वचन कहे थे। शीतलादेवी ने उस समय कुछ भविष्यवाणी की थी, वह आज पूरी हुई। क्या सारंधा ने उसका जो उत्तर दिया था, वह भी पूरी होकर रहेगा?
९
मध्याह्न था। सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे। शरीर को झुलसानेवाली प्रचंड, प्रखर वायु वन और पर्वत में आग लगाती फिरती थी। ऐसा विदित होता था, मानो अग्निदेव की समस्त सेना गरजती हुई चली आ रही है। गगन-मंडल इस भय से काँप रहा था। रानी सारंधा घोड़े पर सवार चंपतराय को लिये, पश्चिम की तरफ़ चली जाती थी। ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था और प्रतिक्षण यह अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आये। राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में सराबोर थे। पालकी के पीछे पाँच सवार घोड़ा बढ़ाए चले आते थे, प्यास के मारे सबका बुरा हाल था। तालू सूखा जाता था। किसी वृक्ष की छाँह और कुएँ की तलाश में आँखें चारों ओर दौड़ रही थीं।
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अचानक सारंधा ने पीछे की तरफ़ फिरकर देखा, तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखाई दिया। उसका माथा ठनका कि अब कुशन नहीं है। यह लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिए हमारी सहायता को आ रहे हैं। नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती। कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की अवस्था में रही। यहाँ तक कि वह दल निकट आ गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ़ नज़र आने लगे। रानी ने एक ठंडी साँस ली, उसका शरीर तृणवत् काँपने लगा। यह बादशाही सेना के लोग थे।
सारंधा ने कहारों से कहा -- डोली रोक लो। बुंदेला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं। राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी; किंतु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है, उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी। वे पालकी का पर्दा उठाकर बाहर निकल आये। धनुष-बाण हाथ में ले लिया; किंतु वह धनुष, जो उनके हाथ में इंद्र का वज्र बन जाता था, इस समय ज़रा भी न झुका। सिर में चक्कर आया, पैर थर्राए और वे धरती पर गिर पड़े। भावी अमंगल की सूचना मिल गई। उस पंखरहित पक्षी के सदृश, जो साँप को अपनी तरफ़ आते देखकर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है, राजा चंपतराय फिर सँभलकर उठे और फिर गिर पड़े। सारंधा ने उन्हें सँभालकर बैठाया और रोकर बोलने की चेष्टा की, परंतु मुँह से केवल इतना निकला -- प्राणनाथ! इसके आगे मुँह से एक शब्द भी न निकल सका। आन पर मरनेवाली सारंधा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गई, लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्री-जाति की शोभा है।
चंपतराय बोले -- {{सारन, देखो, हमारा एक और वीर ज़मीन पर गिरा। शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा, उसने इस अंतिम समय में आ घेरा। मेरी आँखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगाएँगे, और मैं जगह से हिल भी न सकूँगा। हाय! मृत्यु, तू कब आएगी!}} यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया, मगर हाथों में दम न था। तब सारंधा से बोले -- प्रिये, तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभायी है।
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इतना सुनते ही सारंधा के मुरझाए हुए मुख पर लाली दौड़ गई। आँसू सूख गए। इस आशा ने कि मैं पति के कुछ काम आ सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देखकर बोली -- ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊँगी।
रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं।
चंपतराय -- तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली।
सारंधा -- मरते दम तक न टालूँगी।
राजा -- यह मेरी अंतिम याचना है। इसे अस्वीकार न करना।
सारंधा ने तलवार को निकालकर अपने वक्षःस्थल पर रख लिया और कहा -- यह आपकी आज्ञा नहीं है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो।
चंपतराय -- तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निंदा का पात्र बनूँ?
रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब न समझी।
राजा -- तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।
रानी -- सहर्ष माँगिए।
राजा -- यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा, करोगी?
रानी -- सिर के बल करूँगी।
राजा -- देखो, तुमने वचन दिया है। इनकार न करना!
रानी -- (काँपकर) आपके कहने की देर है।
राजा -- अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो!
रानी के हृदय पर वज्रघात-सा हो गया। बोली -- जीवननाथ! इसके आगे और कुछ न बोल सकी। आँखों में नैराश्य छा गया।
राजा -- मैं बेड़ियाँ पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता।
रानी -- मुझसे यह कैसे होगा?
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पाँचवाँ और अंतिम सिपाही धरती पर गिरा। राजा ने झुँझलाकर कहा -- इसी जीवट पर आन निभाने का गर्व था?
बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके। राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा। रानी क्षण भर अनिश्चित रूप से खड़ी रही; लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान् हो जाती है। निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारंधा ने दामिनी की भाँति लपककर अपनी तलवार राजा के हृदय में चुभा दी।
प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई। राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी; पर चेहरे पर शांति छायी हुई थी।
कैसा हृदय है! वह स्त्री, जो अपने पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघातिका है! जिस हृदय से आलिंगित होकर उसने यौवनसुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केंद्र था, जो हृदय उसके अभिमान का पोषक था, उसी हृदय को सारंधा की तलवार छेद रही है! किस स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है?
आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अंत है। उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्मगौरव की ऐसी घटनाएँ नहीं मिलतीं।
बादशाही सिपाही सारंधा का यह साहस और धैर्य देखकर दंग रह गए।
सरदार ने आगे बढ़कर कहा -- रानी साहिबा, ख़ुदा गवाह है, हम सब आपके ग़ुलाम हैं। आपका जो हुक्म हो, उसे ब-सरों चश्म बजा लाएँगे।
सारंधा ने कहा -- अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो, तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना।
यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी, तो उसका सिर राजा चंपतराय की छाती पर था।