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पिसनहारी का कुआँ

गोमती ने मुत्यु-शय्या पर पड़े हुए, चौधरी विनायकसिंह से कहा -- चौधरी मेरे जीवन की यही लालसा थी।

चौधरी ने गंभीर होकर कहा -- इसकी कुछ चिंता न करो काकी; तुम्हारी लालसा भगवान् पूरी करेंगे। में आज ही से मजदूरों को बुलाकर काम पर लगाए देता हूँ। दैव ने चाहा, तो तुम अपने कुएँ का पानी पियोगी। तुमने तो गिना होगा, कितने रुपये हैं?

गोमती ने एक क्षण आँखें बंद करके, बिखरी हुई स्मृति को एकत्र करके कहा -- भैया, मैं क्या जानूँ, कितने रुपये हैं? जो कुछ हैं, वह इसी हाँड़ी में हैं। इतना करना कि इतने ही में काम चल जाय। {किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे?}

चौधरी ने बंद हाँड़ी को उठाकर हाथों से तोलते हुए कहा -- ऐसा तो करेंगे ही काकी, कौन देनेवाला है? एक चुटकी भीख तो किसी के घर से निकलती नहीं, कुआँ बनवाने को कौन देता है? धन्य हो तुम कि अपनी उम्र भर की कमाई इस धर्म-काज के लिए दे दी।

गोमती ने गर्व से कहा -- भैया, तुम तो तब बहुत छोटे थे। तुम्हारे काका मरे तो मेरे हाथ में एक कौड़ी भी न थी। दिन-दिन भर भूखी पड़ी रहती। जो कुछ उनके पास था, वह सब उनकी बीमारी में उठ गया। वह भगवान् के बड़े भक्त थे। इसलिए भगवान् ने उन्हें जल्दी से बुला लिया। उस दिन से आज तक तुम देख रहे हो कि किस तरह दिन काट रही हूँ। मैंने एक-एक रात में मन-मन भर अनाज पीसा है, बेटा! देखनेवाले अचरज मानते थे। न-जाने इतनी ताक़त मुझमें कहाँ से आ जाती थी। बस, यही लालसा रही कि उनके नाम का एक छोटा-सा कुआँ गाँव में बन जाय। नाम तो चलना चाहिए। इसीलिए तो आदमी बेटे-बेटी को रोता है।

इस तरह चौधरी विनायकसिंह को वसीयत करके, उसी रात को बुढ़िया गोमती परलोक सिधारी। मरते समय अंतिम शब्द, जो उसके मुख से निकले, वे यही थे -- कुआँ बनवाने में देर न करना। उसके पास धन है, यह तो लोगों का अनुमान था; लेकिन दो हज़ार है, इसका किसी को अनुमान न था। बुढ़िया अपने धन को ऐब की तरह छिपाती थी। चौधरी गाँव का मुखिया और नीयत का साफ़ आदमी था। इसलिए बुढ़िया ने उसे यह अंतिम आदेश किया था।

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चौधरी ने गोमती के क्रिया-कर्म में बहुत रुपये ख़र्च न किए। ज्यों ही इन संस्कारों से छुट्टी मिली, वह अपने बेटे हरनाथसिंह को बुलाकर ईंट, चूना, पत्थर का तख़मीना करने लगे। हरनाथ अनाज का व्यापार करता था। कुछ देर तक तो वह बैठा सुनता रहा, फिर बोला -- अभी दो-चार महीने कुआँ न बने तो कोई बड़ा हरज़ है?

चौधरी ने {हुँह!} करके कहा -- हरज़ तो कुछ नहीं, लेकिन देर करने का काम ही क्या है। रुपये उसने दे ही दिये हैं, हमें तो सेंत में यश मिलेगा। गोमती ने मरते-मरते जल्द कुआँ बनवाने को कहा था।

हरनाथ -- हाँ, कहा तो था, लेकिन आजकल बाज़ार अच्छा है। दो-तीन हज़ार का अनाज भर लिया जाय, तो अगहन-पूस तक सवाया हो जायगा। मैं आपको कुछ सूद दे दूँगा। चौधरी का मन शंका और भय के दुविधे में पड़ गया। दो हज़ार के कहीं ढाई हज़ार हो गए, तो क्या कहना। जगमोहन में कुछ बेलबूटे बनवा दूँगा। लेकिन भय था कि कहीं घाटा हो गया तो? इस शंका को वह छिपा न सके, बोले -- जो कहीं घाटा हो गया तो?

हरनाथ ने तड़पकर कहा -- घाटा क्यों हो जायगा, कोई बात है?

{मान लो, घाटा हो गया तो?}

हरनाथ ने उत्तेजित होकर कहा -- यह कहो कि तुम रुपये नहीं देना चाहते, बड़े धर्मात्मा बने हो!

अन्य वृद्धजनों की भाँति चौधरी भी बेटे से दबते थे। कातर स्वर में बोले -- मैं यह कब कहता हूँ कि रुपये न दूँगा। लेकिन पराया धन है, सोच-समझकर ही तो उसमें हाथ लगाना चाहिए। ब निज-व्यापार का हाल कौन जानता है। कहीं भाव और गिर जाय तो? अनाज में घुन ही लग जाय, कोई मुद्दई घर में आज ही लगा दे। सब बातें सोच अच्छी तरह।

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हरनाथ ने व्यंग्य से कहा -- इस तरह सोचना है, तो यह क्यों नहीं सोचते कि कोई चोर ही उठा ले जाय, या बनी-बनाई दीवार बैठ जाए? ये बातें भी तो होती ही हैं।

चौधरी के पास अब और कोई दलील न थी, कमज़ोर सिपाही ने ताल तो ठोंकी, अखाड़े में उतर भी पड़ा; पर तलवार की चमक देखते ही हाथ-पाँव फूल गए। बगलें झाँककर चौधरी ने कहा -- तो कितना लोगे?

हरनाथ कुशल योद्धा की भाँति, शत्रु को पीछे हटता देखकर, बफरकर बोला -- सबका सब दीजिए, सौ-पचास रुपये लेकर क्या खिलवाड़ करना है?

चौधरी राज़ी हो गए। गोमती को उन्हें रुपये देते किसी ने न देखा था। लोक-निंदा की संभावना भी न थी। हरनाथ ने अनाज भरा। अनाजों के बोरों का ढेर लग गया। आराम की मीठी नींद सोनेवाले चौधरी अब सारी रात बोरों की रखवाली करते थे, मजाल न थी कि कोई चुहिया बोरों में घुस जाय। चौधरी इस तरह झपटते ये कि बिल्ली भी हार मान लेती। इस तरह छः महीने बीत गए। पौष में अनाज बिका, पूरे ५०० रु॰ का लाभ हुआ।

हरनाथ ने कहा -- इसमें से ५० रु॰ आप ले लें।

चौधरी ने झल्लाकर कहा -- ५० रु॰ क्या ख़ैरात ले लूँ? किसी महाजन से इतने रुपये लिये होते, तो कम से कम २०० रु॰ सूद के होते; मुझे तुम दो-चार रुपये कम दे दो, और क्या करगे?

हरनाथ ने ज़्यादा बतबढ़ाव न किया। १५० रु॰ चौधरी को दे दिया। चौधरी की आत्मा इतनी प्रसन्न कभी न हुई थी। रात को वह अपनी कोठरी में सोने गया, तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि बुढ़िया गोमती खड़ी मुस्करा रही है। चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा। वह नींद में न था। कोई नशा न खाया था। गोमती सामने खड़ी मुस्करा रही थी। हाँ, उस मुरझाए हुए मुख पर एक विचित्र स्फूर्ति थी।

कई साल बीत गए! चौधरी बराबर इसी फ़िक़्र में रहते कि हरनाथ से रुपये निकाल लूँ, लेकिन हरनाथ हमेशा ही हीले-हवाले करता था। वह साल में थोड़ा-सा ब्याज दे देता, पर मूल के लिए हज़ार बातें बनाता था। कभी लेहने का रोना था, कभी चुकते का। हाँ, कारोबार बढ़ता जाता था। आख़िर एक दिन चौधरी ने उससे साफ़-साफ़ कह दिया कि तुम्हारा काम चले या डूबे। मुझे परवा नहीं, इस महीने में तुम्हें अवश्य रुपये चुकाने पड़ेंगे। हरनाथ ने बहुत उड़नधाइयाँ बतायीं, पर चौधरी अपने इरादे पर जमे रहे।

हरनाथ ने झुँझलाकर कहा -- कहता हूँ कि दो महीने और ठहरिए। माल बिकते ही मैं रुपये दे दूँगा।

चौधरी ने दृढता से कहा -- तुम्हारा माल कभी न बिकेगा, और न तुम्हारे दो महीने कभी पूरे होंगे। मैं आज रुपये लूँगा।

हरनाथ उसी वक़्त क्रोध में भरा हुआ उठा, और दो हज़ार रुपये लाकर चौधरी के सामने ज़ोर से पटक दिए।

चौधरी ने कुछ झेंपकर कहा -- रुपये तो तुम्हारे पास थे?

{और क्या बातों से रोज़गार होता है?}

{तो मुझे इस समय ५०० रु॰ दे दो, बाक़ी दो महीने में दे देना। सब आज ही तो ख़र्च न हो जायँगे।}

हरनाथ ने ताव दिखाकर कहा -- आप चाहे ख़र्च कीजिए, चाहे जमा कीजिए, मुझे रुपयों का काम नहीं। दुनिया में क्या महाजन मर गए हैं, जो आपकी धौंस सहूँ?

चौधरी ने रुपये उठाकर एक ताक पर रख दिए। कुएँ की दागबेल डालने का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया।

हरनाथ ने रुपये लौटा तो दिए थे, पर मन में कुछ और मनसूबा बाँध रखा था। आधी रात को जब घर में सन्नाटा छा गया, तो हरनाथ चौधरी की कोठरी की चूल खिसकाकर अंदर घुसा। चौधरी बेख़बर सोए थे। हरनाथ ने चाहा कि दोनो थैलियाँ उठाकर बाहर निकल जाऊँ, लेकिन ज्यों ही हाथ बढ़ाया, उसे अपने सामने गोमती खड़ी दिखाई दी। वह दोनों थैलियों को दोनों हाथों से पकड़े हुए थी। हरनाथ भयभीत होकर पीछे हट गया।

फिर यह सोचकर कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो, उसने फिर हाथ बढ़ाया, पर अबकी वह मूर्ति इतनी भयंकर हो गई कि हरनाथ एक क्षण भी वहाँ खड़ा न रह सका। भागा, पर बरामदे ही में अचेत होकर गिर पड़ा।

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हरनाथ ने तरफ़ से अपने रुपए वसूल करके व्यापारियों को देने के लिए जमा कर रखे थे। चौधरी ने आँखें दिखाईं, तो वही रुपये लाकर पटक दिया। दिल में उसी वक़्त सोच लिया था कि रात को रुपये उड़ा लाऊँगा। झूठ-मूठ चोर का गुल मचा दूँगा, तो मेरी ओर संदेह भी न होगा। पर जब यह पेशबंदी ठीक न उतरी, तो उस पर व्यापारियों के तगादे होने लगे। वादों पर लोगों को कहाँ तक टालता, जितने बहाने हो सकते थे, सब किए। आख़िर यह नौबत आ गई कि लोग नालिश करने की धमकियाँ देने लगे। एक ने तो ३०० रु॰ की नालिश कर भी दी। बेचारे चौधरी बड़ी मुश्किल में फँसे। दुकान पर हरनाथ बैठता था, चौधरी को उससे कोई वास्ता न था; पर उसकी जो साख थी, वह चौधरी के कारण। लोग चौधरी को खरा और लेने-देने का साफ़ आदमी समझते थे। अब भी यद्यपि कोई उनसे तक़ाज़ा न करता था, पर वह सबसे मुँह छिपाते फिरते थे। लेकिन उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि कुएँ के रुपये न छुऊँगा, चाहे कुछ भी आ पड़े।

रात को एक व्यापारी के मुसलमान चपरासी ने चौधरी के द्वार पर आकर हज़ारों गालियाँ सुनाईं। चौधरी को बार-बार क्रोध आता था कि चलकर उसकी मूंछें उखाड़ लूँ; पर मन को समझाया, {हससे मतलब ही क्या है? बेटे का क़र्ज़ चुकाना बाप का धर्म नहीं है।}

जब भोजन करने गये, तो पत्नी ने कहा -- यह सब क्या उपद्रव मचा रखा है?

चौधरी ने कठोर स्वर में कहा -- मैंने मचा रखा है?

{और किसने मचा रखा है? बच्चा क़सम खाते हैं कि मेरे पास केवल थोड़ा-सा माल है, रुपये तो सब तुमने माँग लिए।}

चौधरी -- माँग न लेता तो क्या करता, हलवाई की दूकान पर दादा का फ़ातेहा पढ़ना मुझे पसंद नहीं।

स्त्री -- यह नाक-कटाई अच्छी लगती है?

चौधरी -- तो मेरा क्या बस है भाई, कभी कुआँ बनेगा कि नहीं? पाँच साल हो गए।

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स्त्री -- इस वक़्त उसने कुछ नहीं खाया। पहली जून भी मुँह जूठा करके उठ गया था।

चौधरी -- तुमने समझाकर खिलाया नहीं, दाना-पानी छोड़ देने से तो रुपये न मिलेंगे।

अत्री -- तुम क्यों नहीं जाकर समझा देते।

चौधरी -- मुझे तो वह इस वक़्त बैरी समझ रहा होगा!

स्त्री -- मैं रुपये ले जाकर बच्चा को दिये आती हूँ। हाथ में जब रुपये आ जायँ, तो कुआँ बनवा देना।

चौधरी -- नहीं, नहीं, ऐसा ग़ज़ब न करना। मैं इतना बड़ा विश्वासघात न करूँगा, चाहे घर मिट्टी ही में मिल जाय।

लेकिन स्त्री ने इन बातों की ओर ध्यान न दिया। वह लपककर भीतर गयी और थैलियों पर हाथ डालना चाहती थी कि एक चीख मारकर हट गई। उसकी सारी देह सितार की भाँति काँपने लगी।

चौधरी ने घबड़ाकर पूछा -- क्या हुआ, क्या? तुम्हें चक्कर तो नहीं आ गया?

स्त्री ने ताक की ओर भयातुर नेत्रों से देखकर कहा -- वह -- वह चुड़ैल वहाँ खड़ी है!

चौधरी ने ताक की ओर देखकर कहा -- कौन चुड़ैल? मुझे तो कोई नहीं दीखता।

स्त्री -- मेरा तो कलेजा धक्-धक् कर रहा है। ऐसा मालूम हुआ, जैसे उस बुढ़िया ने मेरा हाथ पकड़ लिया है।

चौधरी -- यह सब भ्रम है। बुढ़िया को मरे पाँच साल हो गए, क्या अब तक वह यहाँ बैटी है?

स्त्री -- मैंने साफ़ देखा, वही थी। बच्चा भी कहते थे कि उन्होंने रात को थैलियों पर हाथ रखे देखा था!

चौधरी -- वह रात को मेरी कोठरी में कब आया?

स्त्री -- तुमसे कुछ रुपयों के विषय ही में कहने आया था। उसे देखते ही भागा।

चौधरी -- अच्छा, फिर तो अंदर जाओ, मैं देख रहा हूँ।

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स्त्री ने कान पर हाथ रखकर कहा -- ना बाबा, अब मैं उस कमरे में क़दम न रखूँगी!

चौधरी -- अच्छा, मैं जाकर देखता हूँ।

चौधरी ने कोठरी में जाकर दोनों थैलियाँ ताक पर से उठा लीं। किसी प्रकार की शंका न हुई। गोमती की छाया का कहीं नाम भी न था। स्त्री द्वार पर खड़ी झाँक रही थी। चौधरी ने आकर गर्व से कहा -- मुझे तो कहीं कुछ न दिखाई दिया। वहाँ होती तो कहाँ चली जाती?

स्त्री -- क्या जानों, तुम्हें क्यों नहीं दिखाई दी? तुमसे उसे स्नेह था, इसी से हट गई होगी।

चौधरी -- तुम्हें भ्रम था, और कुछ नहीं।

स्त्री -- बच्चा को बुलाकर पुछाए देती हूँ।

चौधरी -- खड़ा तो हूँ, आकर देख क्यों नहीं लेती?

स्त्री को कुछ आश्वासन हुआ। उसने ताक के पास जाकर डरते-डरते हाथ बढ़ाया -- ज़ोर से चिल्लाकर भागी और आँगन में आकर दम लिया।

चौधरी भी उसके साथ आँगन में आ गया और विस्मय से बोला -- क्या था, क्या? व्यर्थ में भागी चली आई। मुझे तो कुछ न दिखाई दिया।

स्त्री ने हाँफते हुए तिरस्कारपूर्ण स्वर में कहा -- चलो हटो, अब तक तो तुमने मेरी जान ही ले ली थी। न-जाने तुम्हारी आँखों को क्या हो गया है। खड़ी तो है वह डायन!

इतने में हरनाथ भी वहाँ आ गया। माता को आँगन में पड़े देखकर बोला -- क्या है अम्माँ, कैसा जी है?

स्त्री -- वह चुड़ैल आज दो बार दिखाई दी, बेटा! मैंने कहा, लाओ, तुम्हें रुपये दे दूँ। फिर जब हाथ में आ जायँगे, तो कुआँ बनवा दिया जायगा। लेकिन ज्यों ही थैलियों पर हाथ रखा, उस चुड़ैल ने मेरा हाथ पकड़ लिया। प्राण-से निकल गए।

हरनाथ ने कहा -- किसी अच्छे ओझा को बुलाना चाहिए, जो इसे मार भगाए।

चौधरी -- क्या रात को तुम्हें भी दिखाई दी थी?

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हरनाथ -- हाँ, मैं तुम्हारे पास एक मामले में सलाह करने आया था। ज्यों ही अंदर क़दम रखा, वह चुड़ैल ताक के पास खड़ी दिखाई दी, मैं बदहवास हो कर भागा।

चौधरी -- अच्छा, फिर तो जाओ।

स्त्री -- कौन, अब तो मैं न जाने दूँ, चाहे कोई लाख र्पये ही क्यों न दे।

हरनाथ -- मैं आप न जाऊँगा।

चौधरी -- मगर मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। यह बात क्या है?

हरनाथ -- क्या जाने, आपसे डरती होगी। आज किसी ओझा को बुलाना चाहिए।

चौधरी -- कुछ समझ में नहीं आता, क्या माजरा है। क्या हुआ बैजू पाँड़े की डिग्री का?

हरनाथ इन दिनों चौधरी से इतना जलता था कि अपनी दूकान के विषय की कोई बात उनसे न कहता। आँगन की तरफ़ ताकता हुआ मानो हवा से बोला -- जो होना होगा, वह होगा; मेरी जान के सिवा और कोई क्या ले लेगा? जो खा गया हूँ, वह तो उगल नहीं सकता।

चौधरी -- कहीं उसने डिग्री जारी कर दी तो।

हरनाथ -- तो क्या? दूकान में चार-पाँच सौ का माल है, वह नीलाम हो जायगा।

चौधरी -- कारोबार तो सब चौपट हो जायगा।

हरनाथ -- अब कारोबार के नाम को कहाँ तक रोऊँ? अगर पहले से मालूम होता कि कुआँ बनवाने की इतनी जल्दी है, तो यह काम छेड़ता ही क्यों? रोटी-दाल तो पहले भी मिल जाती थी। बहुत होगा, दो-चार महीने हवालात में रहना पड़ेगा। इसके सिवा और क्या हो सकता है?

माता ने कहा -- जो तुम्हें हवालात में ले जाय,उसका मुँह झुलस दूँ! हमारे जीते-जी तुम हवालात में जाओगे!

हरनाथ ने दार्शनिक बनकर कहा -- माँ-बाप जन्म के साथी होते हैं, किसी के कर्म के साथी नहीं होते।

चौधरी को पुत्र से प्रगाढ प्रेम था। उन्हें शंका हो गई थी कि हरनाथ रुपये हज़म करने के लिए टाल-मटोल कर रहा है। इसलिए उन्होंने आग्रह कर के रुपये वसूल कर लिए थे। अब उन्हें अनुभव हुआ कि हरनाथ के प्राण सचमुच संकट में हैं। सोचा -- अगर लड़के को हवालात हो गई, या दूकान पर कुर्की आ गई, तो कुल-मर्यादा घूल में मिल जायगी। क्या हरज़ है, अगर गोमती के रुपये दे दूँ। आख़िर दूकान चलती ही है, कभी न कभी तो रुपये हाथ में आ ही जायँगे।

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एअकाएक किसी ने बाहर से पुकारा --{हरनाथसिंह!} हरनाथ के मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। चौधरी ने पुछा -- कौन है?

{कुर्क अमीन।}

{क्या दूकान कुर्क कराने आया है?}

{{हाँ, मालूम तो होता है।}}

{{कितने रुपयों की डिग्री है?}}

{१२०० रु॰ की।}

{कुर्क-अमीन कुछ लेन-देन से न टलेगा?}

{टल तो जाता, पर महाजन भी तो उसके साथ होगा। उसे जो कुछ लेना है, उधर से ले चुका होगा।}

{न हो, १२०० रु॰ गोमती के रुपयों में से दे दो।}

{उसके रुपये कौन छुएगा? न-जाने घर पर क्या आफ़त आये।}

{उसके रुपये कोई हज़म थोड़े ही किए लेता है; चलो, मैं दे दूँ!}

चौधरी को इस समय भय हुआ, कहीं मुझे भी वह न दिखाई दे। लेकिन उनकी शंका निर्मूल थी। उन्होंने एक थैली से १२०० रु॰ निकाले और दूसरी थैली में रखकर हरनाथ को दे दिये। संध्या तक इन २००० रु॰ में एक रुपया भी न बचा।

बारह साल गुज़र गए। न चौधरी अब इस संसार में हैं, न हरनाथ। चौधरी जब तक जिए, उन्हें कुएँ की चिंता बनी रहि; यहाँ तक कि मरते दम भी उनकी ज़बान पर कुएँ की रट लगी हुई थी। लेकिन दूकान में सदैव रुपयों का तोड़ा रहा। चौधरी के मरते ही सारा कारोबार चौपट हो गया। हरनाथ ने आने रुपये लाभ से संतुष्ट न होकर दूने-तिगुने लाभ पर हाथ मारा -- जुआ खेलना शुरू किया। साल भी न गुज़रने पाया था कि दूकान बंद हो गई। गहने-पाते; बरतन-भाड़े, सब मिट्टी में मिल गए। चौधरी की मृत्यु के ठीक साल भर बाद, हरनाथ ने भी इस हानि-लाभ के संसार से पयान किया। माता के जीवन का अब कोई सहारा न रहा। बीमार रड़ी, पर दवा-दर्पन न हो सकी। तीन-चार महीने तक नाना प्रकार के कष्ट झेलकर वह भी चल बसी। अब केवल बहू थी, और वह भी गर्भिणी। उस बेचारी के लिए अब कोई आधार न था। इस दशा में मजदूरी भी न कर सकती थी। पड़ोसियों के कपड़े सी-सीकर उसने किसी भाँति पाँच-छह महीने काटे। तेरे लड़का होगा। सारे लक्षण बालक के-से थे। यही एक जिवन का आधार था। जब कन्या हुई, तो यह आधार भी जाता रहा। माता ने अपना हृदय इतना कठोर कर लिया कि नवजात शिशु को छाती भी न लगाती थी। पड़ोसियों के बहुत समझाने-बुझाने पर छाती से लगाया, पर उसकी छाती में दूध की एक बूँद भी न थी। उस समय अभागिनी माता के हृदय में करुणा, वात्सल्य और मोह का एक भूकंप-सा आ गया। अगर किसी उपाय से उसके स्तन की अंतिम बूँद दूध बन जाती, तो वह अपने को धन्य मानती।

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बालिका की वह भोली, दीन, याचनामय, सतृष्ण छवि देखकर उसका मातृ-हृदय मानो सहस्र नेत्रों से रुदन करने लगा था। उसके हृदय की सारी शुभेच्छाएँ, सारा आशीर्वाद, सारी विभूति , सारा अनुराग मानो उसकी आँखों से निकलकर उस बालिका को उसी भाँति रंजित कर देता था, जैसे इंदु का शीतल प्रकाश पुष्प को रंजित कर देता है; पर उस बालिका के भाग्य में मातृप्रेम के सुख न बदे थे। माता ने कुछ अपना रक्त, कुछ ऊपर का दूध पिलाकर उसे जिलाया, पर उसकी दशा दिनोंदिन जीर्ण होती जाती थी।

एक दिन लोगों ने जाकर देखा, तो वह भूमि पर पड़ी हुई थी, और बालिका उसकी छाती से चिपटी उसके स्तनों को चूस रही थी। शोक और दरिद्रता से आहत शरीर में रक्त कहाँ, जिससे दूध बनता?

वही बालिका पड़ोसियों की दया-भिक्षा से पल-कर एक दिन घास खोदती हुई उस स्थान पर जा पहुँची, जहाँ बुढ़िया गोमती का घर था। छप्पर कब के पंचभूतों में मिल चुके थे। केवल जहाँ-तहाँ दीवारों के चिह्न बाक़ी थे। कहीं-कहीं आधी-आधी दीवारें खड़ी थीं। बालिका ने न-जाने क्या सोचकर खुरपी से गड्ढा खोदना शुरू किया। दोपहर से साँझ तक वह गड्ढा खोदती रही। न खाने की सुध थी, न पीने की। न कोई शंका थी, न भय। अँधेरा हो गया; पर वह ज्यों की त्यों बैठी गड्ढा खोद रही थी। उस समय किसान लोग भूलकर भी उधर से न निकलते थे; पर बालिका निःशंक बैठी भूमि से मिट्टी निकाल रही थी। जब अँधेरा हो गया, तो चली गई।

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दूसरे दिन वह बड़े सबेरे उठी और इतनी घास खोदी, जितनी वह कभी दिन भर में न खोदती थी। दोपहर के बाद वह अपनी खाँची और खुरपी लिये फिर उसी स्थान पर पहुँची; पर वह आज अकेली न थी, उसके साथ दो बालक और भी थे। तीनों वहाँ साँझ तक {कुआँ-कुआँ} खोदते रहे। बालिका गड्ढे के अंदर खोदती थी और दोनों बालक मिट्टी निकाल-निकालकर फेंकते थे।

तीसरे दिन दो लड़के और भी उस खेल में मिल गए। शाम तक खेल होता रहा। आज गड्ढा दो हाथ गहरा हो गया था। गाँव के बालक-बालिकाओं में इस विलक्षण खेल ने अभूतपूर्व उत्साह भर दिया था।

चौथे दिन और भी कई बालक आ मिले। सलाह हुई, कौन अंदर जाय, कौन मिट्टी उठाए, कौन झोआ खींचे। गड्ढा अब चार हाथ गहरा हो गया था, पर अभी तक बालकों के सिवा और किसी को उसकी ख़बर न थी।

एक दिन रात को एक किसान अपनी खोयी हुई भैंस ढूँढ़ता हुआ उस खँडहर में जा निकला। अंदर मिट्टी का ऊँचा ढेर, एक बड़ा-सा गड्ढा और एक टिमटिमाता हुआ दीपक देखा, तो डरकर भागा। औरों ने भी आकर देखा, कई आदमी थे। कोई शंका न थी। समीप जाकर देखा, तो बालिका बैठी थी। एक आदमी ने पूछा -- अरे, क्या तूने यह गड्ढा खोदा है?

बालिका ने कहा -- हाँ।

{गड्ढा खोदकर क्या करेगी?}

{यहाँ कुआँ बनाऊँगी?}

{कुआँ कैसे बनाएगी?}

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{जैसे इतना खोदा है, वैसे ही और खोद लूँगी। गाँव के सब लड़के खेलने आते हैं।}

{मालूम होता है, तू अपनी जान देगी और अपने साथ और लड़कों को भी मारेगी। ख़बरदार, जो कल से गड्ढा खोदा!}

दूसरे दिन और लड़के न आये, बालिका भी दिन भर मजूरी करती रही। लेकिन संध्या-समय वहाँ फिर दीपक जला और फिर वह खुरपी हाथ में लिये वहाँ बैठी दिखाई दी।

गाँववालों ने उसे मारा-पीटा, कोठरी में बंद किया, पर वह अवकाश पाते हो वहाँ जा पहुँचती।

गाँव के लोग प्रायः श्रद्धालु होते ही हैं, बालिका के इस अलौकिक अनुराग ने आख़िर उनमें भी अनुराग उत्पन्न किया। कुआँ खुदने लगा।

इधर कुआँ खुद रहा था, उधर बालिका मिट्टी से ईंटें बनाती थी। इस खेल में सारे गाँव के लड़के शरीक होते थे। उजाली रातों में जब सब लोग सो जाते, तब भी वह ईंटें थापती दिखाई देती। न जाने इतनी लगन उसमें कहाँ से आ गई थी। सात वर्ष की उम्र कोई उम्र होती है! लेकिन सात वर्ष की वह लड़की बुद्धि और बातचीत में अपनी तिगुनी उम्रवालों के कान काटती थी।

आख़िर एक दिन वह भी आया कि कुआँ बँध गया और उसकी पक्की जगत तैयार हो गई। उस दिन बालिका उसी जगत पर सोयी। आज उसके हर्ष की सीमा न थी। गाती थी, चहकती थी।

प्रतःकाल उस जगत पर केवल उसकी लाश मिली। उस दिन से लोगों ने कहना शुरू किया, यह वही बुढ़िया गोमती थी! इस कुएँ का नाम {पिसनहारी का कुआँ} पड़ा।