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अग्नि-समाधि

साधु-संतों के सत्संग से बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, किंतु पयाग का दुर्भाग्य था कि उस पर सत्संग का उलटा ही असर हुआ। उसे गाँजे, चरस और भंग का चस्का पड़ गया, जिसका फल यह हुआ कि एक मेहनती, उद्यमशील युवक आलस्य का उपासक बन बैठा। जीवन-संग्राम में यह आनंद कहाँ! किसी बट-वृक्ष के नीचे धूनी जल रही है, एक जटाधारी महात्मा विराज रहे हैं, भक्तजन उन्हें घेरे बैठे हुए हैं, और तिल-तिल पर चरस के दम लग रहे हैं। बीच-बीच में भजन भी हो जाते हैं। मजूरी-धतूरी में यह स्वर्ग-सुख कहाँ! चिलम भरना पयाग का काम था। भक्तों को परलोक में पुण्य-फल की आशा थी, पयाग को तत्काल फल मिलता था -- चिलमों पर पहला हक उसी का होता था। महात्माओं के श्रीमुख से भगवत् चर्चा सुनते हुए वह आनंद से विह्वल हो उठता था, उस पर आत्मविस्मृति-सी छा जाती थी। वह सौरभ, संगीत और प्रकाश से भरे हुए एक दूसरे ही संसार में पहुँच जाता था। इसलिए जब उसकी स्त्री रुक्मिन रात के दस-ग्यारह बज जाने पर उसे बुलाने आती, तो पयाग को प्रत्यक्ष का क्रूर अनुभव होता, संसार उसे काँटों से भरा हुआ जंगल-सा दीखता, विशेषतः जब घर आने पर उसे मालूम होता कि अभी चूल्हा नहीं जला और चनेचबैने की कुछ फ़िक़्र करनी है।

वह जाति का भर था, गाँव की चौकीदारी उसकी मीरास थी, दो रुपये और कुछ आने वेतन मिलता था। वर्दी और साफ़ा मुफ़्त। काम था सप्ताह में एक दिन थाने जाना, वहाँ अफ़सरों के द्वार पर झाड़ू लगाना, अस्तबल साफ़ करना, लकड़ी चीरना। पयाग रक्त के घूँट पी-पीकर ये काम करता, क्योंकि अवज्ञा शारीरिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से महँगी पड़ती थी। आँसू यों पुछते थे कि चौकीदारी में यदि कोई काम था तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर, गाँव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब से महात्माओं का संपर्क हुआ, वह पयाग के जेब-ख़र्च की मद में आ गई। अतएव जीविका का प्रश्न दिनोंदिन चिंतोत्पादक रूप धारण करने लगा। इन सत्संगों के पहले यह दंपति गाँव में मज़दूरी करता था।

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रुक्मिन लकड़ियाँ तोड़कर बाज़ार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाय, उसमें जुट जाता था। हँसमुख श्रमशील, विनोदी, निर्द्वंद्व आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखों नहीं मरता। उस पर नम्र इतना कि किसी काम के लिए {नहीं} न करता। किसी ने कुछ कहा और वह {अच्छा भैया} कहकर दौड़ा। इसलिए उसका गाँव में मान था। इसी की बदौलत निरुद्यम होने पर भी दो-तीन साल उसे अधिक कष्ट न हुआ। दोनों-जून की तो बात ही क्या, जब महतो को यह ऋद्धि न प्राप्त थी, जिनके द्वार पर बैलों की तीन-तीन जोड़ियाँ बँधती थीं, तो पयाग किस गिनती में था। हाँ, एक जून की दाल-रोटी में संदेह न था। परंतु अब यह समस्या दिन पर दिन विषमतर होती जाती थी। उस पर विपत्ति यह थी कि रुक्मिन भी अब किसी कारण से उतनी पतिपरायण, उतनी सेवा-शील, उतनी तत्पर न थी। नहीं, उसकी प्रगल्भता और वाचालता में आश्चर्यजनक विकास होता जाता था। अतएव पयाग को किसी ऐसी सिद्धि की आवश्यकता थी, जो उसे जोविका की चिंता से मुक्त कर दे ओर वह निश्चिंत होकर भगवद्-भजन और साधु-सेवा में प्रवृत्त हो जाय।

एक दिन रुक्मिन बाज़ार में लकड़ियाँ बेचकर लौटी, तो पयाग ने कहा -- ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ।

रुक्मिन ने मुँह फेरकर कहा -- दम लगाने की ऐसी चाट है, तो काम क्यों नहीं करते? क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जाकर चिलम भरो?

पयाग ने त्योरी चढ़ाकर कहा -- भला चाहती है तो पैसे दे दे; नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोएगी।

रुक्मिन आँघूठा दिखाकर बोली -- रोए मेरी बला। तुम रहते ही हो, तो कौन सोने का कौर खिला देते हो? अब भी छाती फाड़ती हूँ, तब भी छाती फाड़ूँगी।

{तो अब यही फ़ैसला है?}

{हाँ, हाँ कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं।}

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{गहने बनवाने के लिए पैसे हैं और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो यों जवाब देती है!}

रुक्मिन तिनककर बोली -- गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता?

पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गए, तब रुक्मिन ने किवाड़ बंद कर लिए। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आएगी, मेरी बला जाती है।

जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव भर छान आई। चिड़िया किसी अड्डे पर न मिली। उस दिन उसने रसोई नहीं बनाई। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच तो विरक्त नहीं हो गया। उसने सोचा, प्रातःकाल पत्ता-पत्ता छान डालूँगी, किसी साधु-संत के साथ होगा। जाकर थाने में रपट कर दूँगी।

अभी तड़का ही था कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गई। किवाड़ बंद करके निकली ही थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे-पीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लंबा घूँघट और शर्मीली चाल देखकर रुक्मिन का कलेजा धक् से हो गया। वह एक क्षण हत्बुद्धि-सी खड़ी रही, तब बढ़कर नई सौत को दोनों हाथों के बीच ले लिया और उसे इस भाँति धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से निराश होकर विषपान कर रहा हो!

जब पड़ोसिनों की भीड़ छट गई, तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा -- इसे कहाँ से लाये?

पयाग ने हँसकर कहा -- घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गई। घर का काम-धंधा करेगी, पड़ी रहेगी।

{मालूम होता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।}

पयाग ने तिरछी चितवनों से देखकर कहा -- दुत् पगली, इसे तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूँ।

{नई के आगे पुरानी को कौन पूछता है?}

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{चल, मन जिससे मिले वही नई है, मन जिससे न मिले वही पुरानी है। ला, कुछ पैसा हो तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते। हाँ, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो आप ही काम करने लगेगी।}

रुक्मिन ने पूरा रुपया लाकर पयाग के हाथ पर रख दिया। दूसरी बार कहने की ज़रूरत ही न पड़ी।

पयाग में चाहे और कोई गुण हो या न हो, यह मानना पड़ेगा कि वह शासन के मूल सिद्धांतों से परिचित था। उसने भेद-नीति को अपना लक्ष्य बना लिया था।

एक मास तक किसी प्रकार की बिघ्न-बाधा न पड़ी। रुक्मिन अपनी सारी चौकड़ियाँ भूल गई थी। बड़े तड़के उठती, कभी लकड़ियाँ तोड़कर, कभी चारा काटकर, कभी उपले पाथकर बाज़ार ले जाती। वहाँ जो कुछ मिलता, उसका आधा तो पयाग के हत्थे चढ़ा देती। आधे में घर का काम चलता। वह सौत को कोई काम न करने देती। पड़ोसिनों से कहती -- बहन, सौत है तो क्या, है तो अभी कल की बहुरिया। दो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी। मैं तो काम करने को हूँ ही।

गाँव भर में रुक्मिन के शील-स्वभाव का बखान होता था, पा सत्संगी घाघ पयाग सब कुछ समझता था और अपनी नीति की सफलता पर प्रसन्न होता था।

एक दिन बहू ने कहा -- दीदी, अब तो घर में बैठे-बैठे जी ऊबता है। मुझे भी कोई काम दिला दो।

रुक्मिन ने स्नेह-सिंचित स्वर में कहा -- क्या मेरे मुख में कालिख पुतवाने पर लगी हुई है? भीतर का काम किए जा, बाहर के लिए तो मैं हूँ ही।

बहू का नाम कौशल्या था, जो बिगड़कर सिलिया हो गया था। इस वक़्त सिलिया ने कुछ जवाब न दिया। लेकिन यह लौंडियों की दशा अब उसके लिए असह्य हो गई थी। वह दिन भर घर का काम करते-करते मरे, कोई नहीं पूछता। रुक्मिन बाहर से चार पैसे लाती है, तो घर की मालकिन बनी हुई है। अब सिलिया भी मजूरी करेगी और मालकिन का घमंड तोड़ देगी। पयाग पैसों का यार है, यह बात उससे अब छिपी न थी। अब रुक्मिन चारा लेकर बाज़ार चली गई, तो उसने घर की टट्टी लगायी और गाँव का रंग-ढंग देखने के लिए निकल पड़ी। गाँव में ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बनिये सभी थे। सिलिया ने शील और संकोच कुछ ऐसा स्वाँग रचा कि सभी स्त्रियाँ उस पर मुग्ध हो गईं। किसी ने चावल दिया, किसी ने दाल, किसी ने कुछ। नई बहू की आवभगत कौन न करता? पहले ही दौरे में सिलिया को मालूम हो गया कि गाँव में पिसनहारी का स्थान खाली है और वह इस कमी को पूरा कर सकती है। वह यहाँ से लौटी, तो उसके सिर पर गेहूँ से भरी हुई एक टोकरी थी।

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पयाग ने पहर रात ही से चक्की की आवाज़ सुनी, तो रुक्मिन से बोला -- आज तो सिलिया अभी से पीसने लगी।

रुक्मिन बाज़ार से आटा लाई थी। अनाज और आटे के भाव में विशेष अंतर न था। उसे आश्चर्य हुआ कि सिलिया इतने सबेरे क्या पीस रही है। उठकर कोठरी में गई, तो देखा कि सिलिया अँधेरे में बैठी कुछ पीस रही है। उसने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और टोकरी को उठाकर बोली -- तुझसे किसने पीसने को कहा है? किसका अनाज पीस रही है?

सिलिया ने निश्शंक होकर कहा -- तुम जाकर आराम से सोती क्यों नहीं। मैं पीसती हूँ, तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है! चक्की की घुमुर-घुमुर भी नहीं सही जाती? लाओ, टोकरी दे दो, बैठे-बैठे कब तक खाऊँगी, दो महीने तो हो गए।

{मैंने तो तुझसे कुछ नहीं कहा!}

{तुम कहो, चाहे न कहो; अपना धरम भी तो कुछ है।}

{तू अभी यहाँ के आदमियों को नहीं जानती। आटा तो पिसाते सबको अच्छा लगता है। पैसे देते रोती हैं। किसका गेहूँ है? मैं सबेरे उसके सिर पटक आऊँगी।}

सिलिया ने रुक्मिन के हाथ से टोकरी छीन ली और बोली -- पैसे क्यों न देंगे? कुछ बेगार करती हूँ?

{तू न मानेगी?}

{तुम्हारी लौंडी बनकर न रहूँगी।}

यह तकरार सुनकर पयाग भी आ पहुँचा अरुअ रुक्मिन से बोला -- काम करती है तो करने क्यों नहीं देती? अब क्या जनम भर बहुरिया ही बनी रहेगी? हो तो गए दो महीने।

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{तुम क्या जानो, नाक तो मेरी कटेगी।}

सिलिया बोल उठी -- तो क्या कोई बैठे खिलाता है? चौका-बरतन, झाड़ू-बहारू, रोटी-पानी, पीसना-कूटना, यह कौन करता है? पानी खींचते-खींचते मेरे हाथों में घट्ठे पड़ गए। मुझसे अब यह सारा काम न होगा।

पयाग ने कहा -- तो तू ही बाज़ार जाया कर। घर का काम रहने दे। रुक्मिन कर लेगी। रुक्मिन ने आपत्ति की -- ऐसी बात मुँह से निकालते लाज नहीं आती? तीन दिन की बहुरिया बाज़ार में घूमेगी, तो संसार क्या कहेगा!

सिलिया ने आग्रह करके कहा -- संसार क्या कहेगा, क्या कोई ऐब करने जाती हूँ?

सिलिया की डिग्री हो गई। आधिपत्य रुक्मिन के हाथ से निकल गया।

सिलिया की अमलदारी हो गई। जवान औरत थी। गेहूँ पीसकर उठी तो औरों के साथ घास छीलने चली गई, और इतनी घास छीली कि सब दंग रह गईं! गट्ठा उठाए न उठता था। जिन पुरुषों को घास छीलने का बड़ा अभ्यास था, उनसे भी उसने बाजी मार ली! यह गट्ठा बारह आने को बिका। सिलिया ने आटा, चावल, दाल, तेल, नमक, तरकारी, मसाला सब कुछ लिया, और चार आने बचा भी लिए। रुक्मिन ने समझ रखा था कि सिलिया बाज़ार से दो-चार आने पैसे लेकर लौटेगी तो उसे डाटूँगी और दूसरे दिन से फिर बाज़ार जाने लगूँगी। फिर मेरा राज्य हो जायगा। पर यह सामान देखे, तो आँखें खुल गईं। पयाग खाने बैठा तो मसालेदार तरकारी का बखान करने लगा। महीनों से ऐसी स्वादिष्ट वस्तु मयस्सर न हुई थी। बहुत प्रसन्न हुआ। भोजन करके वह बाहर जाने लगा, तो सिलिया बरोठे में खड़ी मिल गई। बोला -- आज कितने पैसे मिले?

{बारह आने मिले थे!}

{सब ख़र्च कर डाले? कुछ बचे हों तो मुझे दे दे।}

सिलिया ने बचे हुए चार आने पैसे दे दिये। पयाग पैसे खनखनाता हुआ बोला -- तूने तो आज मालामाल कर दिया। रुक्मिन तो दो-चार पैसों में ही टाल देती थी।

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{मुझे गाड़कर रखना थोड़े ही है। पैसा खाने-पीने के लिए है कि गाड़ने के लिए?}

{अब तू ही बाज़ार जाया कर, रुक्मिन घर का काम करेगी।}

रुक्मिन और सिलिया में संग्राम छिड़ गया। सिलिया पयाग पर अपना आधिपत्य जमाए रखने के लिए जान तोड़कर परिश्रम करती। पहर रात ही से उसकी चक्की की आवाज़ कानों में आने लगती। दिन निकलते हि घास लाने चली जाती और ज़रा देर सुस्ताकर बाज़ार की राह लेती। वहाँ से लौटकर भी वह बेकार न बैठती, कभी सन कातती, कभी लकड़ियाँ तोड़ती। रुक्मिन उसके प्रबंध में बराबर ऐब निकालती और जब अवसर मिलता तो गोबर बटोरकर उपले पाथती और गाँव में बेचती।

पयाग के दोनों हाथों में लड्डू थे। स्त्रियाँ उसे अधिक से अधिक पैसे देने और स्नेह का अधिकांश अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न करती रहतीं, पर सिलिया ने कुछ ऐसी दृढ़ता से आसन जमा लिया था कि किसी तरह हिलाए न हिलती थी। यहाँ तक कि एक दिन दोनों में प्रतियोगिता खुल्लमखुल्ला ठन गई। एक दिन सिलिया घास लेकर लौटी तो पसीने में तर थी। फागुन का महीना था, घूप तेज़ थी। उसने सोचा, नहाकर तब बाज़ार जाऊँगी। घास द्वार पर ही रखकर वह तालाब में नहाने चली गई। रुक्मिन ने थोड़ी-सी घास निकालकर पड़ोसिन के घर में छिपा दी और गट्ठे को ढीला करके बराबर कर दिया।

सिलिया नहाकर लौटी तो घास कम मालूम हुई। रुक्मिन से पूछा। उसने कहा -- मैं नहीं जानती। सिलिया ने गालियाँ देनी शुरू कीं -- जिसने मेरी घास छुई हो, उसकी देह में कीड़े पड़ें, उसके बाप और भाई मर जायँ, उसकी आँखें फूट जायँ। रुक्मिन कुछ देर तक तो जब्त किए बैठी रही, आख़िर ख़ून में उबाल आ ही गया। झल्लाकर उठी और सिलिया के दो-तीन तमाचे लगा दिए।

सिलिया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा मुहल्ला जमा हो गया। सिलिया की सुबुद्धि और कार्यशीलता सभी की आँखों में खटकती थी -- वह सबसे अधिक घास क्यों छीलती है, सबसे ज़्यादा लकड़ियाँ क्यों लाती है, इतने सबेरे क्यों उठती है, इतने पैसे क्यों लाती है, इन कारणों ने उसे पड़ोसियों की सहानुभूति से वंचित कर दिया था। सब उसी को बुरा-भला कहने लगीं। मुट्ठी भर घास के लिए इतना ऊधम मचा डाला, इतनी घास तो आदमी झाड़कर फेंक देता है। घास न हुई, सोना हुआ। तुझे तो सोचना चाहिए था कि अगर किसी ने ले ही लिया, तो है तो गाँव-घर ही का। बाहर का कोई चोर तो आया नहीं। तूने इतनी गालियाँ दीं, तो किसको दीं? पड़ोसियों ही को तो?

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संयोग से उस दिन पयाग थाने गया हुआ था। शाम को थका-माँदा लौटा, तो सिलिया से बोला -- ला, कुछ पैसे दे दे, तो दम लगा आऊँ। थककर चूर हो गया हूँ।

सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी। पयाग ने घबड़ाकर पूछा -- क्या हुआ, क्या? क्यों रोती है? कहीं गमी तो नहीं हो गई? नैहर से कोई आदमी तो नहीं आया?

{{अब इस घर में मेरा रहना न होगा। अपने घर जाऊँगी।}}

{{अरे, कुछ मुँह से तो बोल; हुआ क्या? गाँव में किसी ने गाली दी है? किसने गाली दी है? घर फूँक दूँ, उसका चालान करवा दूँ।}}

सिलिया ने रो-रोकर सारी कथा कह सुनाई। पयाग पर आज थाने में ख़ूब मार पड़ी थी। झल्लाया हुआ था। यह कथा सुनी, तो देह में आग लग गई। रुक्मिन पानी भरने गई थी। वह अभी घड़ा भी न रखने पाई थी कि पयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते देबम कर दिया। वह मार का जवाब गालियों से देती थी और पयाग हरएक गाली पर और झल्ला-झल्लाकर मारता था। यहाँ तक कि रुक्मिन के घुटने फूट गए, चूड़ियाँ टूट गईं। सिलिया बीच-बीच में कहती जाती थी -- वाह रे तेरा दीदा! वाह रे तेरी ज़बान! ऐसी तो औरत ही नहीं देखी। औरत काहे को, डाइन है, ज़रा भी मुँह में लगाम नहीं! किंतु रुक्मिन उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी शक्ति पयाग को कोसने में लगी हुई थी। पयाग मारते-मारते थक गया, पर रुक्मिन की ज़बान न थकी। बस, यही रट लगी हुई थी -- तू मर जा, तेरी मिट्टी निकले, तुझे भवानी खायँ, तुझे मिरगी आये। पयाग रह-रहकर क्रोध से तिलमिला उठता और आकर दो-चार लातें जमा देता। पर रुक्मिन को अब शायद चोट ही न लगती थी। वह जगह से हिलती भी न थी। सिर के बाल खोले, ज़मीन पर बैठी इन्हीं मंत्रों को पाठ कर रही थी। उसके स्वर में अब क्रोध न था, केवल एक उन्मादमय प्रवाह था। उसकी समस्त आत्मा हिंसा-कामना की अग्नि से प्रज्ज्वलित हो रही थी।

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अँधेरा हुआ तो रुक्मिन उठकर एक ओर निकल गई, जैसे आँखों से आँसू की धार निकल जाती है। सिलिया भोजन बना रही थी। उसने उसे जाते देखा भी, पर कुछ पूछा नहीं। द्वार पर पयाग बैठा चिलम पी रहा था। उसने भी कुछ न कहा।

जब फ़सल पकने लगती थी, तो डेढ़-दो महीने तक पयाग को हार की देखभाल करनी पड़ती थी। उसे किसानों से दोनों फ़सलों पर हल पीछे कुछ अनाज बँधा हुआ था। माघ ही में वह हार के बीच में थोड़ी-सी ज़मीन साफ़ करके एक मडैया डाल लेता था और रात को खा-पीकर आग, चिलम और तमाखू-चरस लिये हुए इसी मड़ैया में जाकर पड़ रहता था। चैत के अंत तक उसका यही नियम रहता था। आजकल वही दिन थे। फ़सल पकी हुई तैयार खड़ी थी। दो-चार दिन में कटाई शुरू होनेवाली थी। पयाग ने दस बजे रात तक रुक्मिन की राह देखी। फिर यह समझकर, कि शायद किसी पड़ोसिन के घर सो रही होगी; उसने खा-पीकर अपनी लाठी उठाई और सिलिया से बोला -- किवाड़ बंद कर ले, अगर रुक्मिन आये तो खोल देना और मना-जुनाकर थोड़ा-बहुत खिला देना। तेरे पीछे आज इतना तूफ़ान हो गया। मुझे न-जाने इतना गुस्सा कैसे आ गया। मैंने उसे कभी फूल की छड़ी से भी न छुआ था। कहीं बूड़-धँस न मरी हो, तो कल आफ़त आ जाय।

सिलिया बोली -- न-जाने वह आएगी कि नहीं। मैं अकेली कैसे रहूँगी। मुझे डर लगता है।

{{तो घर में कौन रहेगा? सूना घर पाकर कोई लोटा-थाली उठा ले जाय तो? डर किस बात का है? फिर रुक्मिन तो आती ही होगी।}}

सिलिया ने अंदर से टट्टी बंद कर ली। पयाग हार की ओर चला। चरस की तरंग में यह भजन गाता जाता था --

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ठगिनी? क्या नैना झमकावे।

कद्दू काट मृदंग बनावे, नीबू काट मजीरा;

पाँच तरोई मंगल गावें, नाचे बालम खीरा।

रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे;

गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे।

ठगिनी॰।

सहसा सिवाने पर पहुँचते ही उसने देखा कि सामने हार में किसी ने आग जलायी। एक क्षण में एक ज्वाला-सी दहल उठी। उसने चिल्लाकर पुकारा -- कौन है वहाँ? अरे, यह कौन आग जलाता है?

ऊपर उठती हुई ज्वालाओं ने अपनी आग्नेय जिह्वा से उत्तर दिया।

अब पयाग को मालुम हुआ कि उसकी मड़ैया में आग लगी हुई है। उसकी छाती धड़कने लगी। इस मड़ैया में आग लगाना रुई के ढेर में आग लगाना था। हवा चल रही थी। मड़ैया के चारों ओर एक हाथ हटकर पको हुई फ़सल की चादर-सी बिछी हुई थी। रात में भी उनका सुनहरा रंग झलक रहा था। आग की एक लपट, केवल एक ज़रा-सी चिनगारी सारे हार को भस्म कर देगी। सारा गाँव तबाह हो जायगा। इसी हार से मिले हुए दूसरे गाँव के भी हार थे। वे भी जल उठेंगे। ओह! लपटें बढ़ती जा रही हैं! अब विलंब करने का समय न था।

पयाग ने अपना उपला और चिलम वहीं पटक दिया और कंधे पर लोहबंद लाठी रखकर बेतहाशा मड़ैया की तरफ़ दौड़ा। मेड़ों से जाने में चक्कर था, इसलिए वह खेतों में से होकर भागा जा रहा था। प्रति क्षण ज्वाला प्रचंडतर होती जाती थी, और पयाग के पाँव और भी तेज़ी से उठ रहे थे। कोई तेज़ घोड़ा भी इस वक़्त उसे पा न सकता। अपनी तेजी पर उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था। जान पड़ता था, पाँव भूमि पर पड़ते ही नहीं। उसकी आँखें मड़ैया पर लगी हुई थीं -- दाहिने-बायें से और कुछ न सूझता था। इसी एकाग्रता ने उसके पैरों पर लगा दिए थे। न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। तीन-चार फ़रलाँग उसने दो मिनट में तय कर लिए और मड़ैया के पास जा पहुँचा।

मड़ैया के आस-पास कोई न था। किसने यह कर्म किया है, यह सोचने का मौका न था। उसे खोजने की तो बात ही और थी। पयाग का संदेह रुक्मिन पर हुआ। पर यह क्रोध का समय न था। ज्वालाएँ कुचाली बालकों की भाँति ठट्ठा मारतीं, धक्कम-धक्का करतीं, कभी दाहिनी ओर लपकतीं और कभी बायीं तरफ़। बस, ऐसा मालूम होता था कि लपट अब खेत तक पहुँची, अब पहुँची। मानो ज्वालाएँ आग्रहपूर्वक क्यारियों की ओर बढ़तीं और असफल होकर दूसरी बार फिर दूने वेग से लपकती थीं। आग कैसे बुझे! लाठी से पीटकर बुझाने का गौं न था। वह तो निरी मूर्खता थी। फिर क्या हो! फ़सल जल गई, तो फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा। आह! गाँव में कोहराम मच जायगा। सर्वनाश हो जायगा। उसने ज़्यादा नहीं सोचा। गँवारों को सोचना नहीं आता। पयाग ने लाठी सँभाली, ज़ोर से एक छलाँग मारकर आग के अंदर मड़ैया के द्वार पर जा पहुँचा, जलती हुई मड़ैया को अपनी लाठी पर उठाया और उसे सिर पर लिये सबसे चौड़ी मेड़ पर गाँव की तरफ़ भागा।

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ऐसा जान पड़ा, मानो कोई अग्नि-यान हवा में उड़ता चला जा रहा है। फूस की जलती हुई धज्जियाँ उसके ऊपर गिर रही थीं, पर उसे इसका ज्ञान तक न होता था। एक बार एक मूठा अलग होकर उसके हाथ पर गिर पड़ा। सारा हाथ भुन गया। पर उसके पाँव पल भर भी नहीं रुके, हाथों में ज़रा भी हिचक न हुई। हाथों का हिलना खेती का तबाह होना था। पयाग की ओर से अब कोई शंका न थी। अगर भय था तो यही कि मड़ैया का वह केंद्रभाग, जहाँ लाठी का कुंदा डालकर पयाग ने उसे उठाया था, न जल जाय; क्योंकि छेद के फैलते ही मड़ैया उसके ऊपर आ गिरेगी और अग्नि-समाधि में मग्न कर देगी। पयाग यह जानता था और हवा की चाल से उड़ा जाता था।

चार फ़रलाँग की दौड़ है। मृत्यु अग्नि का रूप धारण किए हुए पयाग के सिर पर खेल रही है और गाँव की फ़सल पर। उसकी दौड़ में इतना वेग है कि ज्वालाओं का मुँह पीछे को फिर गया है और उनकी दाहक शक्ति का अधिकांश वायु से लड़ने में लग रहा है, नहीं तो अब तक बीच में आग पहुँच गई होती और हाहाकार मच गया होता। एक फ़रलाँग भी पूरा हो गया। देखना पयाग, दो फ़रलाँग की और कसर है। पाँव ज़रा भी सुस्त न हों। ज्वाला लाठी के कुंदे पर पहुँची और तुम्हारे जीवन का अंत है। मरने के बाद भी तुम्हें गालियाँ मिलेंगी, तुम अनंत काल तक आहों की आग में जलते रहोगे। बस, एक मिनट और! अब केवल दो खेत और रह गए हैं। सर्व-नाश! लाठी का कुंदा ऊपर निकल गया। मड़ैया नीचे खिसक रही है, अब कोई आशा नहीं। पयाग प्राण छोड़कर दौड़ रहा है; वह किनारे का खेत आ पहुँचा। अब केवल दो सेकेंड का और मामला है। विजय का द्वार सामने बीस हाथ पर खड़ा स्वागत कर रहा है। उधर स्वर्ग है, इधर नरक। मगर वह मड़ैया खिसकती हुई पयाग के सिर पर आ पहुँची। वह अब भी उसे फेंककर अपनी जान बचा सकता है। पर उसे प्राणों का मोह नहीं। वह उस जलती हुई आग को सिर पर लिये भागा जा रहा है! वहाँ उसके पाँव लड़खड़ाए! अब यह क्रूर अग्नि-लीला नहीं देखी जाती।

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एकाएक एक स्त्री सामने के वृक्ष के नीचे से दौड़ती हुई पयाग के पास पहुँची। यह रुक्मिन थी। उसने तुरत पयाग के सामने आकर गर्दन झुकाई और जलती हुई मडैया के नीचे पहुँचकर उसे दोनों हाथों पर ले लिया। उसी दम पयाग मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसका सारा मुँह झुलस गया था।

रुक्मिन उसके अलाव को लिये एक सेकेंड में खेत के डाँड़े पर आ पहुँची मगर इतनी दूर में उसके हाथ जल गए, मुँह जल गया और कपड़ों में आग लग गई। उसे अब इतनी सुधि भी न थी कि मड़ैया के बाहर निकल आए। वह मड़ैया को लिये हुए गिर पड़ी। इसके बाद कुछ देर तक मड़ैया हिलती रही। रुक्मनि हाँथ-पाँव फेंकती रही, फिर अग्नि ने उसे निगल लिया। रुक्मिन ने अग्नि-समाधि ले ली।

कुछ देर बाद पयाग को होश आया। सारी देह जल रही थी। उसने देखा, वृक्ष के नीचे फूस की लाल आग चमक रही है। उठकर दौड़ा और पैर से आग को हटा दिया -- नीचे रुक्मिन की अधजली लाश पड़ी हुई थी। उसने बैठकर दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया और रोने लगा।

प्रालःकाल गाँव के लोग पयाग को उठाकर उसके घर ले गए। एक सप्ताह तक उसका इलाज होता रहा, पर बचा नहीं। कुछ तो आग ने जलाया था, जो कुछ कसर थी, वह शोकाग्नि ने पूरी कर दी।