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आँसुओं की होली

नामों को विगाड़ने की प्रथा न-जाने कब चली और कहाँ शुरू हुई। कोई इस संसार-व्यापी रोग का पता लगाए तो ऐतिहसिक संसार में अवश्य ही अपना नाम छोड़ जाय। पंडित का नाम तो श्रीविलास था; पर मित्र लोग सिलबिल कहा करते थे। नामों का असर चरित्र पर कुछ न कुछ पड़ जाता है। बेचारे सिलबिल सचमुच ही सिलबिल थे। दफ़्तर जा रहे हैं; मगर पाजामे का इजारबंद नीचे लटक रहा है। सिर पर फ़ेल्ट-कैप है; पर लंबी-सी चुटिया पीछे झाँक रही है, अचकन यों बहुत सुंदर है। न जाने उन्हें त्योहारों से क्या चिढ़ थी। दिवाली गुज़र जाती, पर वह भलामानस कौड़ी हाथ में न लेता। और होली का दिन तो उनकी भीषण परीक्षा का दिन था। तीन दिन वह घर से बाहर न निकलते। घर पर भी काले कपड़े पहने बैठे रहते थे। यार लोग टोह में रहते थे कि कहीं बचा फँस जायँ, मगर घर में घुसकर तो फ़ौजदारी नहीं की जाती। एक-आध बार फँसे भी, मगर घिघिया-पुदिया कर बेदाग़ निकल गए।

लेकिन अबकी समस्या बहुत कठिन हो गई थी। शास्त्रों के अनुसार २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद उन्होंने विवाह किया था। ब्रह्मचर्य के परिपक्व होने में जो थोड़ी-बहुत कसर रही, वह तीन वर्ष के गौने की मुदृत ने पूरी कर दी। यद्यपि स्त्री से उन्हें कोई शंका न थी, तथापि वह औरतों को सिर चढ़ाने के हामी न थे। इस मामले में उन्हें अपना वही पुराना-धुराना ढंग पसंद था। बीबी को जब कसकर डाँट दिया, तो उसकी मजाल है कि रंग हाथ से छुए। विपत्ति यह थी कि ससुराल के लोग भी होली मनाने आनेवाले थे। पुरानी मसल है {बहन अंदर तो भाई सिकंदर}। इन सिकंदरों के आक्रमण से बचने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। मित्र लोग घर में न जा सकते थे; सिकंदरों को कौन रोक सकता है?

स्त्री ने आँख फाड़कर कहा -- अरे भैया! क्या सचमुच रंग न घर लाओगे? यह कैसी होली है, बाबा?

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सिलबिल ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा -- बस, मैंने एक बार कह दिया और बात दोहराना मुझे पसंद नहीं। घर में रंग नहीं आएगा और न कोई छुएगा? मुझे कपड़ों पर लाल छींटे देखकर मचली आने लगती है। हमारे घर में ऐसी ही होली होती है।

स्त्री ने सिर झुकाकर कहा -- तो न लाना रंग-संग, मुझे रंग लेकर क्या करना है। जब तुम्हीं रंग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती हूँ?

सिलबिल ने प्रसन्न होकर कहा -- निस्संदेह यही साध्वी स्त्री का धर्म है।

{लेकिन भैया तो आनेवाले हैं। वह क्यों मानेंगे?}

{उनके लिए भी मैंने एक उपाय सोच लिया है। उसे सफल करना तुम्हारा काम है। मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढ़कर लेट रहूँगा। तुम कहना, इन्हें ज्वर आ गया। बस, चलो छुट्टी हुई।}

स्त्री ने आँख नचाकर कहा -- ऐ नौज, कैसी बातें मुँह से निकालते हो! ज्वर जाय मुद्दई के घर, यहाँ आये तो मुँह झुलस दूँ निगोड़े का।

{तो फिर दूसरा उपाय ही क्या है?}

{तुम ऊपरवाली छोटी कोठरी में छिप रहना, मैं कह दूँगी, उन्होंने जुलाब लिया है। बाहर निकलेंगे तो हवा लग जायगी।}

पंडितजी खिल उठे -- बस, बस, यही सबसे अच्छा।

होली का दिन है। बाहर हाहाकार मचा हुआ है। पुराने ज़माने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग न खेला जाता था। अब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहीं। हाँ, देवता बचें। सिलबिल के दोनों साले मुहल्ले भर के मर्दों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का निशाना बने हुए थे। बाहर के दिवानखाने के फर्श, दीवारें -- यहाँ तक कि तसवीरें भी रंग उठी थीं। घर में भी यही हाल था। मुहल्ले की ननदें भला कब मानने लगी थीं। परनाला तक रंगीन हो गया था।

बड़े साले ने पूछा -- क्यों री चंपा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं? खाना खाने भी न आये?

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चंपा ने सिर झुकाकर कहा -- हाँ भैया, रात ही से पेट में कुछ दर्द होने लगा। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है।

ज़रा देर बाद छोटे साले ने कहा -- क्यों जीजी जी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आएँगे? ऐसी भी क्या बीमारी है! कहो तो ऊपर जाकर देख आऊँ।

चंपा ने उसका हाथ पकड़कर कहा -- नहीं-नहीं, ऊपर मत जैयो! वह रंग-वंग न खेलेंगे। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है।

दोनों भाई हाथ मलकर रह गए।

सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी -- जीजाजी के कपड़ों के साथ क्यों न होली खेलें। वे तो बीमार नहीं हैं।

बड़े भाई के मन में भी यह बात बैठ गई। बहन बेचारी अब क्या करती? सिकंदरों ने कुंजियाँ उसके हाथ से लीं और सिलबिल के सारे कपड़े निकाल-निकालकर रँग डाले। रूमाल तक न छोड़ा। जब चंपा ने इन कपड़ों को आँगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज़ ने ब्याह के जोड़े रँगे हों। सिलबिल ऊपर बैठे-बेठे यह तमाशा देख रहे थे; पर जबान न खोलते थे। छाती पर साँप-सा लोट रहा था। सारे कपड़े खराब हो गए, दफ़्तर जाने को भी कुछ न बचा। इन दुष्टों को मेरे कपड़ों से न जाने क्या बैर था।

घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। मुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चंपा भी जुटी हुई थी। दोनों भाई और कई अन्य सज्जन आँगन में भोजन करने बैठे, तो बड़े साले ने चंपा से पूछा -- कुछ उनके लिए भी खिचड़ी विचड़ी बनाई है! पूरियाँ तो बेचारे आज खा न सकेंगे!

चंपा ने कहा -- अभी तो नहीं बनाई, अब बना लूँगी।

{वाह री तेरी अक्ल! अभी तक तुझे इतनी फ़िक़्र नहीं कि वह बेचारे खाएँगे क्या! तू तो इतनी लापरवाह कभी न थी। जा निकाल ला जल्दी से चावल और मूँग की दाल।}

लीजिए, खिचड़ी पकने लगी। इधर मित्रों ने भोजन करना शुरू किया। सिलबिल ऊपर बैठे अपनी किस्मत को रो रहे थे। उन्हें इस सारी विपत्ति का एक ही कारण मालूम होता था -- विवाह! चंपा न आती, तो ये साले क्यों आते, कपड़े क्यों ख़राब होते, होली के दिन मूँग की खिचड़ी क्यों खाने को मिलती? मगर अब पछताने से क्या होता है। जितनी देर में लोगों ने भोजन किया, उतनी देर में खिचड़ी तैयार हो गई। बड़े साले ने ख़ुद चंपा को ऊपर भेजा कि खिचड़ी की थाली ऊपर दे आये।

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सिलबिल ने थाली की ओर कुपित नेत्रों से देखकर कहा -- इसे मेरे सामने से हटा ले जाव।

{क्या आज उपवास ही करोगे?}

{तुम्हारी यही इच्छा है, तो यही सही।}

{मैंने क्या किया। सबेरे से जुटी हुई हूँ। भैया ने ख़ुद खिचड़ी डलवाई और मुझे यहाँ भेजा।}

{हाँ, वह तो मैं देख रहा हूँ कि मैं घर का स्वामी नहीं। सिकंदरों ने उस पर क़ब्ज़ा जमा लिया, मगर मैं यह नहीं मान सकता कि तुम चाहतीं, तो और लोगों के पहले ही मेरे पास थाली न पहुँच जाती। मैं इसे पतिव्रत धर्म के विरुद्ध समझता हूँ, और क्या कहूँ!}

{तुम तो देख रहे थे कि दोनों जने मेरे सिर पर सवार थे।}

{अच्छी दिल्लगी है कि और लोग तो समोसे और ख़स्ते उड़ाएँ और मुझे मूँग की खिचड़ी दी जाय। वाह रे नसीब!}

{तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्यों ही अवसर मिलेगा, दूसरी थाली लाऊँगी।}

{सारे कपड़े रँगवा डाले, दफ़्तर कैसे जाऊँगा? यह दिल्लगी मुझे ज़रा भी नहीं भाती। मैं इसे बदमाशी करता हूँ। तुमने संदूक की कुंजी क्यों दे दी? क्या मैं इतना पूछ सकता हूँ?}

{ज़बरदस्ती छीन ली। तुमने सुना नहीं? करती क्या?}

{अच्छा, जो हुआ सो हुआ, यह थाली ले जाव। धर्म समझना तो दूसरी थाली लाना, नहीं तो आज व्रत ही सही।}

एकाएक पैरों की आहट पाकर सिलबिल ने सामने देखा, तो दोनों साले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही बिचारे ने मुँह बना लिया, चादर से शरीर ढँक लिया और कराहने लगे।

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बड़े साले ने कहा -- कहिए, कैसी तबीयत है? थोड़ी-सी खिचड़ी खा लीजिए।

सिलबिल ने मुँह बनाकर कहा -- अभी तो कुछ खाने की इच्छा नहीं है।

{नहीं, उपवास करना तो हानिकर होगा। खिचड़ी खा लीजिए।}

बेचारे सिलबिल ने मन में इन दोनों शैतानों को ख़ूब कोसा और विष की भाँति खिचड़ी कंठ के नीचे उतारी। आज होली के दिन खिचड़ी ही भाग्य में लिखी थी! जब तक सारी खिचड़ी समाप्त न हो गई, दोनों वहाँ डटे रहे, मानो जेल के अधिकारी किसी अनशन व्रतधारी क़ैदी को भोजन करा रहे हों। बेचारे को ठूँस-ठूँसकर खिचड़ी खानी पड़ी। पकवानों के लिए गुंजायश ही न रही।

दस बजे रात को चंपा उत्तम पदार्थों का थाल लिये पतिदेव के पास पहुँची! महाशय मन ही मन झुँझला रहे थे। भाइयों के सामने मेरी परवाह कौन करता है। न जाने कहँ से दोनों शैतान फट पड़े। दिन भर उपवास कराया और अभी तक भोजन का कहीं पता नहीं। बारे चंपा को थाल लाते देखकर कुछ अग्नि शांत हुई। बोले -- अब तो बहुत सवेरा है, एक-दो घंटे बाद क्यों न आयीं? चंपा ने सामने थाली रखकर कहा -- तुम तो न हारी ही मानते हो, न जीती। अब आख़िर ये दो मेहमान आये हुए हैं, इनका सेवा-सत्कार न करूँ तो भी तो काम नहीं चलता। तुम्हीं को बुरा लगेगा। कौन रोज़ आयेंगे।

{ईश्वर न करे कि रोज़ आयें, यहाँ तो एक ही दिन में बधिया बैठ गई।}

थाल की सुगंधमय, तरबतर चीज़ें देखकर सहसा पंडितजी के मुखारविंद पर मुस्कान की लाली दौड़ गई। एक-एक चीज़ खाते थे और चंपा को सराहते थे -- सच कहता हूँ, चंपा, मैंने ऐसी चीज़ें कभी नहीं खाई थीं। हलवाई साला क्या बनाएगा। जी चाहता है, कुछ इनाम दूँ।

{तुम मुझे बना रहे हो। क्या करूँ जैसा बनाना आता है, बना लाई।}

{नहीं जी, सच कह रहा हूँ। मेरी तो आत्मा तक तृप्त हो गई। आज मुझे ज्ञात हुआ कि भोजन का संबंध उदर से इतना नहीं, जितना आत्मा से है। बतलाओ, क्या इनाम दूँ?}

{जो माँगूँ, वह दोगे?}

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{दूँगा -- जनेऊ की क़सम खाकर कहता हूँ!}

{न दो तो मेरी बात जाय।}

{कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँ। क्या-लिखा-पढ़ी कर दूँ?}

{अच्छा, तो माँगती हूँ। मुझे अपने साथ होली खेलने दो।}

पंडितजी का रंग उड़ गया। आँखें फाड़कर बोले -- होली खेलने दूँ? मैं तो होली खेलता नहीं। कभी नहीं खेला। होली खेलना होता, तो घर में छिप कर क्यों बैठता?

{औरों के साथ मत खेलो; लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा।}

{यह मेरे नियम के विरुद्ध है। जिस चीज़ को अपने घर में उचित समझूँ, उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझूँ, सोचो।}

चंपा ने सिर नीचा करके कहा -- घर में ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं, पाप भी है।

पंडितजी झेंपते हुए बोले -- अच्छा भाई, तुम जीतीं, मैं हारा। अब मैं तुम से यही दान माँगता हूँ ॰॰॰

{पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान माँगना} -- यह कहते हुए चंपा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडितजी को सिर से पाँव तक नहला दिया। जब तक वह उठकर भागे, उसने मुट्ठी भर गुलाल लेकर सारे मुँह में पोत दिया।

पंडितजी रोनी सूरत बनाकर बोले -- अभी और कसर बाक़ी हो, तो वह भी पूरी कर लो। मैं न जानता था कि तुम मेरी आस्तीन का साँप बनोगी। अब और कुछ रंग बाक़ी नहीं रहा?

चंपा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रंग झलक रहा था। पछताकर बोली -- क्या तुम सचमुच बुरा मान गए हो? मैं तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो।

श्रीविलास ने काँपते हुए स्वर में कहा -- {नहीं चंपा, मुझे बुरा नहीं लगा। हाँ, तुमने मुझे उस कर्तव्य की याद दिला दी, जो मैं अपनी कायरता के कारण भुला बैठा था। वह सामने जो चित्र देख रही हो, मेरे परम मित्र मनहरनाथ का है, जो अब संसार में नहीं है। तुमसे क्या कहूँ, कितना सरस, कितना भावुक, कितना सहसी आदमी था! देश की दशा देख-देखकर उसका ख़ून जलता रहता था। १९-२० भी कोई उम्र होती है; पर वह उसी उम्र में अपने जीवन का मार्ग निश्चित कर चुका था। सेवा करने का अवसर पाकर वह इस तरह उसे पकड़ता था, मानो संपत्ति हो। जन्म का विरागी था। वासना तो उसे छू ही न गई थी। हमारे और साथी सैर-सपाटे करते थे; पर उसका मार्ग सबसे अलग था। सत्य के लिए प्राण देने को तैयार, कहीं अन्याय देखा और भवें तन गईं, कहीं पत्रों में अत्याचार की ख़बर देखी और चेहरा तमतमा उठा। ऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखा। ईश्वर ने अकाल ही बुला लिया, नहीं तो वह मनुष्यों में रत्न होता। किसी मुसीबत के मारे का उद्धार करने को अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता था। स्त्री-जाति का इतना आदर और सम्मान कोई क्या करेगा? स्त्री उसके लिए पूजा और भक्ति की वस्तु थी। पाँच वर्ष हुए, यही होली का दिन था। मैं भंग के नशे में चूर, रंग में सिर से पाँव तक नहाया हुआ, उसे गाना सुनने के लिए बुलाने गया, तो देखा कि वह कपड़े पहने कहीं जाने को तैयार है। पूछा -- कहाँ जा रहे हो?}

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{उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा -- तुम अच्छे वक़्त पर आ गए, नहीं तो मुझे जाना पड़ता। एक अनाथ बुढ़िया मर गई है, कोई उसे कंधा देनेवाला नहीं मिलता। कोई किसी मित्र से मिलने गया हुआ है, कोई नशे में चूर पड़ा हुआ है, कोई मित्रों की दावत कर रहा है, कोई महफ़िल सजाए बैठा है। कोई लाश को उठानेवाला नहीं। ब्राह्मण-क्षत्री उस चमारिन की लाश कैसे छुएँगे, उनका तो धर्म भ्रष्ट होता है, कोई तैयार नहीं होता! बड़ी मुश्किल से दो कहार मिले हैं। एक मैं हूँ, चौथे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया। चलो, चलें।}

{हाय! अगर मैं जानता कि यह प्यारे मनहर का आदेश है, तो आज मेरी आत्मा को इतनी ग्लानि न होती। मेरे घर कई मित्र आये हुए थे। गाना हो रहा था। उस वक़्त लाश उठाकर नदी जाना मुझे अप्रिय लगा। बोला -- इस वक़्त तो भाई, मैं नहीं जा सकूँगा। घर पर मेहमान बैठे हुए हैं। मैं तुम्हें बुलाने आया था।}

{मनहर ने मेरी ओर तिरस्कार के नेत्रों से देखकर कहा -- अच्छी बात है, तुम जाओ; मैं और कोई साथी खोज लूँगा। मगर तुमसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी। तुमने भी वही कहा, जो तुमसे पहले औरों ने कहा था। कोई नई बात नहीं थी। अगर हम लोग अपने कर्तव्य को भूल न गए होते, तो आज यह दशा ही क्यों होती? ऐसी होली को धिक्कार है! त्योहार तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीज़ें खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं है। यह व्रत है, तप है, अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहार का ख़ास मतलब है। और कपड़े लाल करने के पहले ख़ून को लाल कर लो। सुफेद ख़ून पर यह लाली शोभा नहीं देती।}

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{यह कहकर वह चला गया। मुझे उस वक़्त यह फटकारें बहुत बुरी मालूम हुईं। अगर मुझमें वह सेवा-भाव न था, तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार न था। घर चला आया; पर वे बातें बराबर मेरे कानों में गूँजती रहीं। होली का सारा मज़ा बिगड़ गया।}

{एक महीने तक हम दोनों से मुलाक़ात न हुई। कालेज इम्ताहन की तैयारी के लिए बंद हो गया था। इसलिए कालेज में भी भेंट न होती थी। मुझे कुछ ख़बर नहीं, वह कब और कैसे बीमार पड़ा, कब अपने घर गया। सहसा एक दिन मुझे उसका एक पत्र मिला! हाय उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती है।}

श्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल न सके। फिर बोले -- किसी दिन तुम्हें फिर दिखाऊँगा। लिखा था, {मुझसे आख़िरी बार मिल जा, अब शायद इस जीवन में भेंट न हो।} ख़त मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। उसका घर मेरठ जिले में था। दूसरी गाड़ी जाने में आधा घंटे की कसर थी। तुरंत चल पड़ा मगर उसके दर्शन न बदे थे। मेरे पहुँचने के पहले ही वह सिधार चुका था, चंपा! उसके बाद मैंने होली नहीं खेली, होली ही नहीं, अरौ सभी त्योहार छोड़ दिए। ईश्वर ने शायद मुझे क्रिया की शक्ति नहीं दी। अब बहुत चाहता हूँ कि कोई मुझसे सेवा का काम ले। ख़ुद आगे नहीं बढ़ सकता, लेकिन पीछे चलने को तैयार हूँ। पर मुझसे कोई काम लेनेवाला भी नहीं; लेकिन आज वह रंग डालकर तुमने मुझे उस धिक्कार की याद दिला दी। ईश्वर मुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं मन में ही नहीं, कर्म में भी मनहरन बनूँ।

यह कहते हुए श्रीविलास ने तश्तरी से गुलाल निकाला और उसे चित्र पर छिड़ककर प्रणाम किया।