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क़ज़ाक़ी

मेरी बाल-स्मृतियों में {क़ज़ाक़ी} एक न मिटनेवाला व्यक्ति है। आज चालीस साल गुज़र गए; लेकिन क़ज़ाक़ी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजम गढ़ की एक तहसील में था। क़ज़ाक़ी जाति का पासी था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही ज़िंदादिल। वह रोज़ शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात-भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर एक उद्विग्न दशा में उसकी राह देखा करता। ज्यों ही चार बजते, व्याकुल होकर, सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और थोड़ी देर में क़ज़ाक़ी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुँझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता। वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था। शरीर साँचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें, उसके सुडौल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होती थीं। मुझे देखकर वह और तेज़ दौड़ने लगता, उसकी झुँझुनी और ज़ोर से बजने लगती, और मेरे हृदय में और ज़ोर से ख़ुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं दौड़ पड़ता और एक क्षण में क़ज़ाक़ी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह स्थान मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग था। स्वर्ग के निवासियों को भी शायद वह आंदोलित आनंद न मिलता होगा, जो मुझे क़ज़ाक़ी के विशाल कंधों पर मिलता था। संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता और जब क़ज़ाक़ी मुझे कंधे पर लिये हुए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा मालूम होता, मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ।

क़ज़ाक़ी डाकख़ाने में पहुँचता, तो पसीने से तर रहता; लेकिन आराम करने की आदत न थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी और डाके, मार-पीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं। मैं ये कहानियाँ सुनकर विस्मयपूर्ण आनंद में मग्न हो जाता; उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूट कर दीन-दुखी प्राणियों का पालन करते थे। मुझे उन पर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।

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एक दिन क़ज़ाक़ी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गई। सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई न दिया। मैं खोया हुआ-सा सड़क पर दूर तक आँखें फाड़-फाड़कर देखता था; पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; {झुन-झुन} की वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी। प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जाती थी। उधर से किसी को आते देखता, तो पूछता -- क़ज़ाक़ी आता है? पर या तो कोई सुनता ही न था, या केवल सिर हिला देता था।

सहसा {झुन-झुन} की आवाज़ कानों में आई। मुझे अँधेरे में चारों ओर भूत ही दिखलाई देते थे -- यहाँ तक कि माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी अँधेरा हो जाने के बाद, मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी; लेकिन वह आवाज़ सुनते ही मैं उसकी तरफ़ ज़ोर से दौड़ा। हाँ, वह क़ज़ाक़ी ही था। उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, फिर रूठ करके अलग खड़ा हो गया।

क़ज़ाक़ी ने हँसजर कहा -- मारोगे, तो मैं एक चीज़ लाया हूँ, वह न दूँगा।

मैंने साहस करके कहा -- जाओ, मत देना, मैं लूँगा ही नहीं।

क़ज़ाक़ी -- अभी दिखा दूँ, तो दौड़कर गोद में उठा लोगे।

मैंने पिघलकर कहा -- अच्छा, दिखा दो।

क़ज़ाक़ी -- तो आकर मेरे कंधे पर बैठे जाओ, भाग चलूँ। आज बहुत देर हो गई है। बाबूजी बिगड़ रहे होंगे।

मैंने अकड़कर कहा -- पहले दिखा।

मेरी विजय हुई। अगर क़ज़ाक़ी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी और रुक सकता, तो शायद पाँसा पलट जाता। उसने कोई जीज़ दिखलाई, जिसे वह एक हाथ से छाती से चिपटाए हुए था; लंबा मुँह था और दो आँखें चमक रही थीं।

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मैंने दौड़कर उसे क़ज़ाक़ी की गोद से ले लिया। वह हिरन का बच्चा था। आह! मेरी उस ख़ुशी का कौन अनुमान करेगा? तब से कठिन परीक्षाएँ पास कीं, अच्छा पद भी पाया, रायबहादुर भी हुआ; पर वह ख़ुशी फिर न हासिल हुई। मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श का आनंद उठाता घर की ओर दौड़ा। क़ज़ाक़ी को आने में क्यों इतनी देर हुई, इसका ख़याल ही न रहा।

मैंने पूछा -- यह कहाँ मिला, क़ज़ाक़ी?

क़ज़ाक़ी -- भैया, यहाँ से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा जंगल है। उसमें बहुत-से हिरन हैं। मेरा बहुत जी चाहता था कि कोई बच्चा मिल जाय, तो तुम्हें दूँ। आज यह बच्चा हिरनों के झुंड के साथ दिखलाई दिया। मैं झुंड की ओर दौड़ा, तो सबके सब भागे। यह बच्चा भी भागा; लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। और हिरन तो बहुत दूर निकल गए, यही पीछे रह गया। मैंने इसे पकड़ लिया। इसी से इतनी देर हुई।

यों बातें करते हम दोनों डाकख़ाने पहुँचे। बाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, क़ज़ाक़ी ही पर उनकी निगाह पड़ी। बिगड़कर बोले -- आज इतनी देर कहाँ लगाई? अब थैला लेकर आया है, उसे लेकर क्या करूँ? डाक तो चली गई। बता, तूने इतनी देर कहाँ लगाई?

क़ज़ाक़ी के मुँह से आवाज़ न निकली।

बाबूजी ने कहा -- तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी है। नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया! जब भूखों मरने लगेगा, तो आँखें खुलेंगी।

क़ज़ाक़ी चुपचाप खड़ा रहा।

बाबूजी का क्रोध और बढ़ा। बोले -- अच्छा, थैला रख दे और अपने घर की राह ले। सूअर, अब डाक लेके आया है। तेरा क्या बिगड़ेगा, जहाँ चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथे तो मेरे जायगी -- जवाब तो मुझसे तलब होगा।

क़ज़ाक़ी ने रुआँसे होकर कहा -- सरकार, अब कभी देर न होगी।

बाबूजी -- आज क्यों देर की, इसका जवाब दे?

क़ज़ाक़ी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी भी ज़बान बंद हो गई। बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे; बाक़ी सारे दिन दफ़्तर में लिखा करते थे। उन्होंने बार-बार एक सहकारी के लिए अफ़सरों से विनय की थी; पर इसका कुछ असर न हुआ था। यहाँ तक कि तातील के दिन भी बाबूजी दफ़्तर ही में रहते थे। केवल माताजी उनका क्रोध शांत करना जानती थीं; पर वह दफ़्तर में कैसे आतीं।

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बेचारा क़ज़ाक़ी उसी वक़्त मेरे देखते-देखते निकाल दिया गया। उसका बल्लम, चपरास और साफ़ा छीन लिया गया और उसे डाकख़ाने से निकल जाने का नादिरी हुक्म सुना दिया। आह! उस वक़्त मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती, तो क़ज़ाक़ी को दे देता और बाबूजी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से क़ज़ाक़ी का बाल भी बाँका नहीं हुआ। किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है, उतना ही घमंड क़ज़ाक़ी को अपनी चपरास पर था। जब वह चपरास खोलने लगा, तो उसके हाथ काँप रहे थे और आँखों से आँसू बह रहे थे। और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल वस्तु थी, जो मेरी गोद में मुँह छिपाए ऐसे चैन से बैठी हुई थी, मानो माता की गोद में हो। जब क़ज़ाक़ी चला तो मैं धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे चला। मेरे घर के द्वार पर आकर क़ज़ाक़ी ने कहा -- भैया, अब घर जाओ; साँझ हो गई।

मैं चुपचाप खड़ा अपने आँसुओं के वेग को सारी शक्ति से दबा रहा था। क़ज़ीक़ी फिर बोला -- भैया, मैं कहीं बाहर थोड़े ही चला जाऊँगा। फिर आऊँगा और तुम्हें कंधे पर बैठाकर कुदाऊँगा। बाबूजी ने नौकरी ले ली है, तो क्या इतना भी न करने देंगे! तुमको छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा, भैया! जाकर अम्माँ से कह दो, क़ज़ाक़ी जाता है। उसका कहा-सुना साफ़ करें।

मैं दौड़ा हुआ घर गया; लेकिन अम्माँजी से कुछ कहने के बदले बिलख-बिलखकर रोने लगा। अम्माँजी रसोई से बाहर निकलकर पूछने लगीं -- क्या हुआ, बेटा? किसने मारा? बाबूजी ने कुछ कहा है? अच्छा, रह तो जाओ, आज घर आते हैं, पूछती हूँ। जब देखो मेरे लड़के को मारा करते हैं। चुप रहो बेटा, अब तुम उनके पास कभी मत जाना।

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मैंने बड़ी मुश्किल से आवाज़ सँभालकर कहा -- क़ज़ाकी ॰॰॰

अम्माँ ने समझा, क़ज़ाक़ी ने मारा है; बोली -- अच्छा, आने दो क़ज़ाक़ी को, देखो, खड़े-खड़े निकलवा देती हूँ। हरकारा होकर मेरे राजा बेटा को मारे! आज ही तो साफ़ा, बल्लम, सब छिनवाए लेती हूँ। वाह!

मैंने जल्दी से कहा -- नहीं, क़ज़ाक़ी ने नहीं मारा। बाबूजी ने उसे निकाल दिया है; उसका साफ़ा, बल्लम छीन लिया -- चपरास भी ले ली।

अम्माँ -- यह तुम्हारे बाबूजी ने बहुत बुरा किया। वह बेचारा अपने काम में इतना चौकस रहता है। फिर उसे क्यों निकाला!

मैंने कहा -- आज उसे देर हो गई थी।

यह कहकर मैंने हिरन के बच्चे को गोद से उतार दिया। घर में उसके भाग जाने का भय न था। अब तक अम्माँजी कि निगाह भी उस पर न पड़ी थी। उसे फुदकते देखकर वह सहसा चौंक पड़ीं और लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया कि कहीं वह भयंकर जीव मुझे काट न खाय! मैं कहाँ तो फूट-फूटकर रो रहा था और कहाँ अम्मा की घबराहट देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ा।

अम्माँ -- अरे, यह तो हिरन का बच्चा है! कहाँ मिला?

मैंने हिरन के बच्चे का सारा इतिहास और उसका भीषण परिणाम आदि से अंत तक कह सुनाया -- अम्माँ, यह इतना तेज़ भागता था कि कोई दूसरा होता, तो पकड़ ही न सकता। सन्-सन्, हवा की तरह उड़ता चला जाता था। क़ज़ाक़ी पाँच-छः घंटे तक इसके पीछे दौड़ता रहा। तब कहीं जाकर बचा मिले। अम्माँजी, क़ज़ाक़ी की तरह कोई दुनिया भर में नहीं दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गई। इसलिए बाबूजी ने बेचारे को निकाल दिया -- चपरास, साफ़ा, बल्लम, सब छीन लिया। अब बेचारा क्या करेगा? भूखों मर जायगा।

अम्माँ ने पूछा -- कहाँ है क़ज़ाक़ी, ज़रा उसे बुला तो लाओ।

मैंने कहा -- बाहर तो खड़ा है। कहता था, अम्माँजी से मेरा कहा-सुना माफ़ करवा देना।

अब तक अम्माँजी मेरे वृत्तांत को दिल्लगी समझ रही थीं। शायद वह समझती थीं कि बाबूजी ने क़ज़ाक़ी को डाँटा होगा; लेकिन मेरा अंतिम वाक्य सुनकर संशय हुआ कि सचमुच तो क़ज़ाक़ी बरख़ास्त नहीं कर दिया गया। बाहर आकर {क़ज़ाक़ी! क़ज़ाक़ी} पुकारने लगीं; पर क़ज़ाक़ी का कहीं पता न था। मैंने बार-बार पुकारा; लेकिन क़ज़ाक़ी वहाँ न था!

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खाना तो मैंने खा लिया -- बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने हो; मगर बड़ी रात तक पड़े सोचता रहा -- मेरे पास रुपये होते, तो एक लाख रुपये क़ज़ाक़ी को दे देता और कहता -- बाबूजी से कभी मत बोलना। बेचारा भूखों मर जायगा! देखूँ, कल आता है कि नहीं। अब क्या करेगा आकर? मगर आने को तो कह गया है। मैं कल उसे अपने साथ खाना खिलाऊँगा।

यही हवाई किले बनाते-बनाते मुझे नींद आ गई।

दूसरे दिन मैं दिन भर अपने हिरन के बच्चे के सेवा-सत्कार में व्यस्त रहा। पहले उसका नामकरण संस्कार हुआ। {मुन्नू} नाम रखा गया। फिर मैंने उसका अपने सब हमजोलियों और सहपाठियों से परिचय कराया। दिन ही भर में वह मुझसे इतना हिल गया की मेरे पीछे-पीछे दौड़ने लगा। इतनी ही देर में मैंने उसे अपने जीवन में एक महत्तवपूर्ण स्थान दे दिया। अपने भविष्य में बननेवाले विशाल भवन में उसके लिए अलग कमरा बनाने का भी निश्चय कर लिया; चारपाई, सैर करने की फिटन आदि की भी आयोजना कर ली।

लेकिन संध्या होने ही मैं सब कुछ छोड़-छोड़कर सड़क पर जा खड़ा हुआ और क़ज़ाक़ी की बाट जोहने लगा। जानता था कि क़ज़ाक़ी निकाल दिया गया है, अब उसे यहाँ आने कि कोई ज़रूरत नहीं रही। फिर भी न-जाने मुझे क्यों यह आशा हो रही थी कि वह आ रहा है। एकाएक मुझे ख़याल आया कि क़ज़ाक़ी भूखों मर रहा होगा। मैं तुरंत घर आया। अम्माँ दिया-बत्ती कर रही थीं। मैंने चुपके से एक टोकरी में आटा निकाला, आटा हाथों में लपेटे, टोकरी से गिरते आटे की एक लकीर बनाता हुआ भागा। आकर सड़क पर खड़ा हुआ ही था कि क़ज़ाक़ी सामने से आता दिखलाई दिया। उसके पास बल्लम भी थी, कमर में चपरास भी थी, सिर पर साफ़ा भी बँधा हुआ था। बल्लम में डाक का थैला भी बँधा हुआ था। मैं दौड़कर उसकी कमर से चिपट गया और विस्मित होकर बोला -- तुम्हें चपरास और बल्लम कहाँ से मिल गया, क़ज़ाक़ी?

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क़ज़ाक़ी ने मुझे उठाकर कंधे पर बैठालते हुए कहा -- वह चपरास किस काम की थी, भैया? वह तो ग़ुलामी की चपरास थी, यह पुरानी ख़ुशी की चपरास है। पहले सरकार का नौकर था, अब तुम्हारा नौकर हूँ।

यह कहते-कहते उसकी निगाह टोकरी पर पड़ी, जो वहीं रखी थी। बोला -- यह आटा कैसा है, भैया?

मैंने सकुचाते हुए कहा -- तुम्हारे ही लिए तो लाया हूँ। तुम भूखे होगे, आज क्या खाया होगा?

क़ज़ाक़ी की आँखें तो मैं न देख सका, उसके कंधे पर बैठा हुआ था; हाँ, उसकी आवाज़ से मालूम हुआ कि उसका गला भर आया है। बोला -- भैया, क्या रूखी ही रोटियाँ खाऊँगा? दाल, नमक, घी -- और तो कुछ नहीं है।

मैं अपनी भूल पर बहुत लज्जित हुआ। सच तो है, बेचारा रूखी रोटियाँ कैसे खायगा? लेकिन नमक, दाल, घी कैसे लाऊँ? अब तो अम्माँ चौके में होंगी। आटा लेकर तो किसी तरह भाग आया था (अभी तक मुझे न मालूम था कि मेरी चोरी पकड़ ली गई; आटे की लकीर ने सुराग दे दिया है)। अब ये तीन-तीन चीज़ें कैसे लाऊँगा? अम्माँ से माँगूँगा, तो कभी न देंगी। एक-एक पैसे के लिए तो घंटों रुलाती हैं, इतनी सारी चीज़ें क्यों देने लगीं? एकाएक मुझे एक बात याद आई। मैंने अपनी किताबों के बस्तों में कई आने पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे जमा करके रखने में बड़ा आनंद आता था। मालूम नहीं, अब वह आदत क्यों बदल गई। अब भी वही हालत होती तो शायद इतना फाकेमस्त न रहता।

बाबूजी मुझे प्यार तो कभी न करते थे; पर पैसे ख़ूब देते थे, शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे। इनकार करने में मेरे रोने और मचलने का भय था। इस बाधा को वह दूर ही से टाल देते थे। अम्माँजी का स्वभाव इससे ठीक प्रतिकूल था। उन्हें मेरे रोने और मचलने से किसी काम में बाधा पड़ने का भय न था। आदमी लेटे-लेटे दिन भर रोना सुन सकता है; हिसाब लगाते हुए ज़ोर की आवाज़ से ध्यान बँट जाता है। अम्माँ मुझे प्यार तो बहुत करती थीं; पर पैसे का नाम सुनते ही उनकी त्योरियाँ बदल जाती थीं। मेरे पास किताबें न थीं। हाँ, एक बस्ता था, जिसमें डाकख़ाने के दो-चार फ़ार्म तह करके पुस्तक रूप में रखे हुए थे। मैंने सोचा -- दाल, नमक और घी के लिए क्या उतने पैसे काफ़ी न होंगे? मेरी तो मुट्ठी में नहीं आते। यह निश्चय करके मैंने कहा -- अच्छा, मुझे उतार दो, तो मैं दाल और नमक ला दूँ; मगर रोज़ आया करोगे न?

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क़ज़ाक़ी -- भैया, खाने को दोगे, तो क्यों न आऊँगा।

मैंने कहा -- मैं रोज़ खाने को दूँगा।

क़ज़ाक़ी बोला -- तो मैं रोज़ आऊँगा।

मैं नीचे उतरा और दौड़कर सारी पूँजी उठा लाया। क़ज़ाक़ी को रोज़ बुलाने के लिए उस वक़्त मेरे पास कोहनूर हीरा भी होता, तो उसकी भेंट करने में मुझे पसोपेश न होता।

क़ज़ाक़ी ने विस्मित होकर पूछा -- ये पैसे कहाँ पाये, भैया?

मैंने गर्व से कहा -- मेरे ही तो हैं।

क़ज़ाक़ी -- तुम्हारी अम्माँजी तुमको मारेंगी -- क़ज़ाक़ी ने फुसलाकर मँगवा लिए होंगे। भैया, इन पैसों की मिठाई ले लेना और आटा मटके में रख देना। मैं भूखों नहीं मरता। मेरे दो हाथ हैं। मैं भला, भूखों मर सकता हूँ?

मैंने बहुत कहा कि पैसे मेरे हैं, लेकिन क़ज़ाक़ी ने न लिये। उसने बड़ी देर तक इधर-उधर की सैर कराई, गीत सुनाए और मुझे घर पहुँचाकर चला गया। मेरे द्वार पर आटे की टोकरी भी रख दी।

मैंने घर में क़दम रखा ही था कि अम्माँजी ने डाँटकर कहा -- क्यों रे चोर, तू आटा कहाँ ले गया था? अब चोरी करना सीखता है? बता, किसको आटा दे आया, नहीं तो तेरी खाल उधेड़कर रख दूँगी।

मेरी नानी मर गई। अम्माँ क्रोध में सिंहनी हो जाती थीं। सिटपिटाकर बोला -- किसी को तो नहीं दिया।

अम्माँ -- तूने आटा नहीं निकाला? देख कितना आटा सारे आँगन में बिखरा पड़ा है?

मैं चुप खड़ा था। वह कितना ही धमकाती थीं; चुमकारती थीं, पर मेरी ज़बान न खुलती थी। आनेवाली विपत्ति के भय से प्राण सूख रहे थे। यहाँ तक कि यह भी कहने की हिम्मत न पड़ती थी कि बिगड़ती क्यों हो, आटा तो द्वार पर रखा हुआ है, और न उठाकर लाते ही बनता था, मानो क्रिया-शक्ति ही लुप्त हो गई हो; मानो पैरों में हिलने की सामर्थ्य ही नहीं।

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सहसा क़ज़ाक़ी ने पुकारा -- बहूजी, आटा द्वार पर रखा हुआ है। भैया मुझे देने को ले गये थे।

यह सुनते ही अम्माँ द्वार की ओर चली गईं। क़ज़ाक़ी से वह परदा न करती थीं। उन्होंने क़ज़ाक़ी से कोई बात की या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता; लेकिन अम्माँजी खाली टोकरी लिए हुए घर में आईं। फिर कोटरी में जाकर संदूक़ से कुछ निकाला और द्वार की ओर गईं। मैंने देखा कि उनकी मुट्ठी बंद थी। अब मुझसे वहीं खड़े न रहा गया।

अम्माँजी के पीछे-पीछे मैं भी गया। अम्माँ ने द्वार पर कई बार पुकारा; मगर क़ज़ाक़ी चला गया था।

मैंने बड़ी धीरता से कहा -- मैं जाकर खोज लाऊँ, अम्माँजी? अम्माँजी ने किवाड़े बंद करते हुए कहा -- तुम अँधेरे में कहाँ जाओगे, अभी तो यहीं खड़ा था। मैंने कहा कि यहीं रहना; मैं आती हूँ। तब तक न-जाने कहाँ खिसक गया। बड़ा संकोची है! आटा तो लेता ही न था। मैंने ज़बरदस्ती उसके अँगोछे में बाँध दिया। मुझे तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। न-जाने बेचारे के घर में कुछ खाने को है कि नहीं। रुपये लाई थी कि दे दूँगी; पर न-जाने कहाँ चला गया। अब तो मुझे भी साहस हुआ। मैंने अपनी चोरी की पूरी कथा कह डाली। बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर माँ-बाप उन पर जितना असर डाल सकते हैं, जितनी शिक्षा दे सकते हैं, उतने बूढ़े बनकर नहीं।

अम्माँजी ने कहा -- तुमने मुझसे पूछ क्यों न लिया? क्या मैं क़ज़ाक़ी को थोड़ा-सा आटा न देती?

मैंने इसका उत्तर न दिया। दिल में कहा -- इस वक़्त तुम्हें क़ज़ाक़ी पर दया आ गई है, जो चाहे दे डालो; लेकिन में माँगता, तो मारने दौड़तीं। हाँ, यह सोचकर चित्त प्रसन्न हुआ कि अब क़ज़ाक़ी भूखों न मरेगा। अम्माँजी उसे रोज़ खाने को देंगी और वह रोज़ मुझे कंधे पर बिठाकर सैर कराएगा।

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दुसरे दिन मैं दिन भर मुन्नू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर जाकर खड़ा हो गया। मगर अँधेरा हो गया और क़ज़ाक़ी का कहीं पता नहीं। दिये जल गए, रास्ते में सन्नाटा छा गया; पर क़ज़ाक़ी न आया।

मैं रोता हुआ घर आया। अम्माँजी ने पूछा -- क्यों रोते हो, बेटा? क्या क़ज़ाक़ी नहीं आया?

मैं और ज़ोर से रोने लगा। अम्माँजी ने मुझे छाती से लगा लिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उनका भी कंठ गद्गद हो गया है।

उन्होंने कहा -- बेटा, चुप हो जाओ। मैं कल किसी हरकारे को भेजकर क़ज़ाक़ी को बुलावाऊँगी।

मैं रोते ही रोते सो गया। सबेरे ज्यों ही आँखें खुलीं, मैंने अम्माँजी से कहा -- क़ज़ाक़ी को बुलवा दो।

अम्माँ ने कहा -- आदमी गया है, बेटा! क़ज़ाक़ी आता होगा। मैं ख़ुश होकर खेलने लगा। मुझे मालूम था कि अम्माँजी जो बात कहती हैं, उसे पूरा ज़रूर करती हैं। उन्होंने सबेरे ही एक हरकारे को भेज दिया था। दस बजे जब मैं मुन्नू को लिए हुए घर आया, तो मालूम हुआ कि क़ज़ाक़ी अपने घर पर नहीं मिला। वह रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो रही थी कि न-जाने कहाँ चले गए। उसे भय था कि वह कहीं भाग गया है।

बालकों का हृदय कितना कोमल होता है, इसका अनुमान दूसरा नहीं कर सकता। उनमें अपने भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता कि कौन-सी बात उन्हें विकल कर रही है, कौन-सा काँटा उनके हृदय में खटक रहा है; क्यों बार-बार उन्हें रोना आता है, क्यों वे मन मारे बैठे रहते हैं, खेलने में जी नहीं लगता? मेरी भी यही दशा थी। कभी घर में आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा पहुँचता। आँखें क़ज़ाक़ी को ढूँढ़ रही थीं। वह कहाँ चला गया? कहीं भाग तो नहीं गया?

तीसरे पहर को मैं खोया हुआ-सा सड़क पर खड़ा था। सहसा मैंने क़ज़ाक़ी को एक गली में देखा। हाँ, वह क़ज़ाक़ी ही था। मैं उसकी ओर चिल्लाता हुआ दौड़ा; पर गली में उसका पता न था, न-जाने किधर ग़ायब हो गया। मैंने गली के इस सिरे से उस सिरे तक देखा; मगर कहीं क़ज़ाक़ी की गंध तक न मिली।

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घर आकर मैंने अम्माँजी से यह बात कही। मुझे ऐसा जान पड़ा कि वह यह बात सुनकर बहुत चिंतित हो गईं।

इसके बाद दो-तीन दिन तक क़ज़ाक़ी न दिखलाई दिया। मैं भी अब उसे कुछ-कुछ भूलने लगा। बच्चे पहले जितना प्रेम करते हैं, बाद को उतने ही निष्ठुर भी हो जाते हैं। जिस खिलौने पर प्राण देते हैं, उसी को दो-चार दिन के बाद पटककर फोड़ भी डालते हैं।

दस-बारह दिन और बीत गए। दोपहर का समय था। बाबूजी खाना खा रहे थे। मैं मुन्नू के पैरों में पीनस की पैजनियाँ बाँध रहा था। एक औरत घूँघट निकाले हुए आई और आँगन में खड़ी हो गई। उसके कपड़े फटे हुए और मैले थे, पर गोरी, सुंदर स्त्री थी। उसने मुझसे पूछा -- भैया, बहूजी कहाँ हैं?

मैंने उसके पास जाकर उसका मुँह देखते हुए कहा -- तुम कौन हो, क्या बेचती हो?

औरत -- कुछ बेचती नहीं हूँ, तुम्हारे लिए ये कमल गट्टे लायी हूँ। भैया, तुम्हें तो कमल गट्टे बहुत अच्छे लगते हैं न?

मैंने उसके हाथों से लटकती हुई पोटली को उत्सुक नेत्रों से देखकर पूछा -- कहाँ से लायी हो? देखें?

औरत -- तुम्हारे हरकारे न भेजा है, भैया!

मैंने उछलकर पूछा -- क़ज़ाक़ी ने?

औरत ने सिर हिलाकर {हाँ} कहा और पोटली खोलने लगी। इतने में अम्माँजी भी रसोई से निकल आईं। उसने अम्माँ के पैरों का स्पर्श किया। अम्माँ ने पूछा -- तू क़ज़ाक़ी की घरवाली है?

औरत ने सिर झुका लिया।

अम्माँ -- आजकल क़ज़ाक़ी क्या करता है?

औरत ने रोकर कहा -- बहूजी, जिस दिन से आपके पास से आटा लेकर गये हैं, उसी दिन से बीमार पड़े हैं। बस भैया-भैया किया करते हैं। भैया ही में उनका मन बसा रहता है। चौंक-चौंककर {भैया! भैया!} कहते हुए द्वार की ओर दौड़ते हैं। न जाने उन्हें क्या हो गया है, बहूजी! एक दिन मुझसे कुछ कहा न सुना, घर से चल दिए और एक गली में छिपकर भैया को देखते रहे। जब भैया ने उन्हें देख लिया, तो भागे। तुम्हारे पास आते हुए लजाते हैं।

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मैंने कहा -- हाँ-हाँ, मैंने उस दिन तुमसे जो कहा था, अम्माँजी!

अम्माँ -- घर में कुछ खाने-पीने को है?

औरत -- हाँ बहूजी, तुम्हारे आसिरबाद से खाने-पीने का दुःख नहीं है। आज सबेरे उठे और तालाब की ओर चले गए। बहुत कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जायगी। मगर न माना! मारे कमज़ोरी के पैर काँपने लगते हैं; मगर तालाब में घुसकर ये कमल गुट्टे तोड़ लाए। तब मुझसे कहा -- ले जा, भैया को दे आ। उन्हें कमल गट्टे बहुत अच्छे लगते हैं। कुशल-छेम पूछती आना।

मैंने पोटली से कमल गट्टे निकाल लिए थे और मज़े से चख रहा था। अम्माँ ने बहुत आँखें दिखाईं, मगर यहाँ इतना सब्र कहाँ!

अम्माँ ने कहा -- कह देना सब कुशल है।

मैंने कहा -- यह भी कह देना कि भैया ने बुलाया है। न जाओगे तो फिर तुमसे कभी न बोलेंगे, हाँ!

बाबूजी खाना खाकर निकल आये थे। तौलिये से हाथ-मुँह पोंछते हुए बोले -- और यह भी कह देना कि साहब ने तुमको बहाल कर दिया है। जल्दी जाओ, नहीं तो कोई दूसरा आदमी रख लिया जायगा।

औरत ने अपना कपड़ा उठाया और चली गई। अम्माँ ने बहुत पुकारा; पर वह न रुकी। शायद अम्माँजी उसे सीधा देना चाहती थीं।

अम्माँ ने पूछा -- सचमुच बहाल हो गया?

बाबूजी -- और क्या झूठे ही बुला रहा हूँ। मैंने तो पाँचवें ही दिन उसकी बहाली की रिपोर्ट की थी।

अम्माँ -- यह तुमने बहुत अच्छा किया।

बाबूजी -- उसकी बीमारी की यही दवा है।

प्रातःकाल मैं उठा, तो क्या देखता हूँ कि क़ज़ाक़ी माठी टेकता हुआ चला आ रहा है। वह बहुत दुबला हो गया था। मालूम होता था, बूढ़ा हो गया है। हरा-भरा पेड़ सूखकर ठूँठ हो गया था। मैं उसकी ओर दौड़ा और उसकी कमर से चिमट गया। क़ज़ाक़ी ने मेरे गाल चूमे और मुझे उठाकर कंधे पर बैठालने की चेष्टा करने लगा; पर मैं न उठ सका। तब वह जानवरों की भाँति भूमि पर हाथों और घुटनों के बल खड़ा हो गया और मैं उसकी पीठ पर सवार होकर डाकख़ाने की ओर चला। मैं उस वक़्त फूला न समाता था और शायद क़ज़ाक़ी मुझसे भी ज़्यादा ख़ुश था।

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बाबूजी ने कहा -- क़ज़ाक़ी, तुम बहाल हो गए। अब कभी देर न करना।

क़ज़ाक़ी रोता हुआ पिताजी के पैरों पर गिर पड़ा; मगर शायद मेरे भाग्य में दोनों सुख भोगना न लिखा था -- मुन्नू मिला, तो क़ज़ाक़ी छूटा; क़ज़ाक़ी आया, तो मुन्नू हाथ से गया और ऐसा गया कि आज तक उसके जाने का दुःख है। मुन्नू मेरी ही थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूँ, वह भी कुछ न खाता था। उसे भात से बहुत ही रुचि थी; लेकिन जब तक ख़ूब घी न पड़ा हो, उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता था और मेरे ही साथ उठता भी था। सफ़ाई तो उसे इतनी पसंद थी कि मल-मूत्र त्याग करने के लिए घर से बाहर मैदान में निकल जाता था। कुत्तों से उसे चिढ़ थी, कुत्तों को घर में न घुसने देता। कुत्ते को देखते ही थाली से उठ जाता और उसे दौड़कर घर से बाहर निकाल देता था।

क़ज़ाक़ी को डाकख़ाने में छोड़कर जब मैं खाने खाने गया, तो मुन्नू भी आ बैठा। अभी दो-चार ही कौर खाये थे कि एक बड़ा-सा झबरा कुत्ता आँगन में दिखाई दिया। मुन्नू उसे देखते ही दौड़ा। दूसरे घर में जाकर कुत्ता चूहा हो जाता है। झबरा कुत्ता उसे आते देखकर भागा। मुन्नू को अब लौट आना चाहिए था; मगर वह कुत्ता उसके लिए यमराज का दूत था। मुन्नू को उसे घर से निकालकर ही संतोष न हुआ। वह उसे घर के बाहर मैदान में भी दौड़ाने लगा। मुन्नू को शायद ख़याल न रहा कि यहाँ मेरी अमलदारी नहीं है। वह उस क्षेत्र में पहुँच गया था, जहाँ झबरे का भी उतना ही अधिकार था, जितना मुन्नू का। मुन्नू कुत्तों को भगाते-भगाते कदाचित् अपने बाहुबल पर घमंड करने लगा था। वह यह न समझता था कि घर में उसकी पीठ पर घर के स्वामी का भय काम किया करता है। झबरे ने इस मैदान में आते ही उलटकर मुन्नू की गर्दन दबा दी। बेचारे मुन्नू के मुँह से आवाज़ तक न निकली। जब पड़ोसियों ने शोर मचाया, तो मैं दौड़ा। देखा, तो मुन्नू मरा पड़ा है और झबरे का कहीं पता नहीं।