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लांछन

मुंशी श्यामकिशोर के द्वार पर मुन्नू मेहतर ने झाड़ू लगायी, गुसलखाना धो-धोकर साफ़ किया और तब द्वार पर आकर गृहिणी से बोला -- माँ जी, देख लीजिए, सब साफ़ कर दिया। आज कुछ खाने को मिल जाय, सरकार!

देवीरानी ने द्वार पर आकर कहा -- अभी तो तुम्हें महीना पाये दस दिन भी नहीं हुए। फिर इतनी जल्द माँगने लगे?

मुन्नू -- क्या करूँ, माँजी, ख़र्च नहीं चलता। अकेला आदमी, घर देखूँ कि काम करूँ?

देवी -- तो ब्याह क्यों नहीं कर लेते?

मुन्नू -- रुपये माँगते हैं, सरकार! यहाँ खाने से ही नहीं बचता, थैली कहाँ से लाऊँ?

देवी -- अभी तो तुम जवान हो, कब तक अकेले बैठे रहोगे?

मन्नू -- हुज़ूर की इतनी निगाह है, तो कहीं न कहीं ठीक ही हो जायगी; सरकार कुछ मदद करेंगी न?

देवी -- हाँ-हाँ, तुम ठीक-ठीक करो। मुझसे जो कुछ हो सकेगा, मैं भी दे दूँगी।

मुन्नू -- सरकार का मिज़ाज बड़ा अच्छा है। हुज़ूर इतना ख़्याल करती हैं। दूसरे घरों में तो मालकिनें बात भी नहीं पूछतीं। सरकार को अल्लाह ने जैसी सकल-सूरत दी है, वैसा ही दिल भी दिया है। अल्लाह जानता है, हुज़ूर को देखकर भूख-प्यास जाती रहती है। बड़े-बड़े घर की औरतें देखी हैं, मुदा आपके तलुवों की बराबरी भी नहीं कर सकतीं।

देवी -- चल झूठे! मैं ऐसी कौन ख़ूबसूरत हूँ।

मुन्नू -- अब सरकार से क्या कहूँ। बड़ी-बड़ी खत्रानियों को देखता हूँ; मगर गोरेपन के सिवा और कोई बात नहीं। उनमें यह नमक कहाँ, सरकार!

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देवी -- एक रुपये में तुम्हारा काम चल जायगा?

मुन्नू -- भला सरकार, दो रुपये तो दे दें।

देवी -- अच्छा, यह लो और जाओ!

मुन्नू -- जाता हूँ, सरकार! आप नाराज़ न हों, तो एक बात पूछूँ?

देवी -- क्या पूछते हो, पूछो? मगर जल्दी, मुझे चूल्हा जलाना है।

मुन्नू -- तो सरकार जायँ; फिर कभी कहूँगा।

देवी -- नहीं-नहीं, कहो, क्या बात है? अभी कुछ ऐसी जल्दी नहीं है।

मुन्नू -- दालमंडी में सरकार के कोई रहते हैं क्या?

देवी -- नहीं, यहाँ तो कोई नातेदार नहीं है।

मुन्नू -- तो कोई दोस्त होंगे। सरकार को अक्सर एक कोठे पर से उतरते देखता हूँ।

देवी -- दालमंडी तो रंडियों का मुहल्ला है?

मुन्नू -- हाँ सरकार, रंडियाँ बहुत हैं यहाँ; लेकिन सरकार तो सीधे-साधे आदमी मालूम होते हैं। यहाँ रात को देर से तो नहीं आते?

देवी -- नहीं, शाम से पहले ही आ जाते हैं और फिर कहीं नहीं जाते। हाँ, कभी-कभी लाइब्रेरी अलबत्ता जाते हैं।

मुन्नू -- बस-बस, यही बात है, हुज़ूर? मौक़ा मिले, तो इशारे से समझा दीजिएगा सरकार, कि रात को उधर न जाया करें। आदमी का दिल कितना ही साफ़ हो, लेकिन देखनेवाले तो शक करने लगते हैं।

इतने में ही बाबू श्यामकिशोर आ गए। मुन्नू ने उन्हें सलाम किया, बाल्टी उठायी और चलता हुआ।

श्यामकिशोर ने पूछा -- मुन्नू क्या कह रहा था?

देवी -- कुछ नहीं, अपने दुखड़े रो रहा था। खाने को माँगता था। दो रुपये दे दिये हैं। बातचीत बड़े ढंग से करता है।

श्याम॰ -- तुम्हें तो बातें करने का मरज़ है। और कोई नहीं तो मेहतर ही सही। इस मुतने से न-जाने तुम कैसे बातें करती हो!

देवी -- मुझे उसकी सूरत लेकर क्या करना है। ग़लीब आदमी है। अपना दुःख सुनाने लगता है, तो कैसे न सुनूँ?

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बाबू साहब ने बेले का गजरा रूमाल से निकाल देवी के गले में डाल दिया; किंतु देवी के मुख पर प्रसन्नता का कोई चिह्न न दिखाई दिया। तिरछी निगाहों से देखकर बोलीं -- आप आजकल दालमंडी की सैर बहुत किया करते हैं?

श्याम॰ -- कौन? मैं?

देवी -- जी हाँ, तुम। मुझसे तो लाइब्रेरी का बहाना करके जाते हो, और वहाँ जलसे होते हैं!

श्याम॰ --बिलकुल झूठ, सोलहों आने झूठ। तुमसे कौन कहता था? यही मुन्नू?

देवी -- मुन्नू ने मुझसे कुछ नहीं कहा; पर मुझे तुम्हारी टोह मिलती रहती है।

श्याम॰ -- तुम मेरी टोह मत लिया करो।शक करने से आदमी शक्की हो जाता है, और तब बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं। भला, मैं दालमंडी क्यों जाने लगा? तुमसे बढ़कर दालमंडी में और कौन है? मैं तो तुम्हारी इन मदभरी आँखों का आशिक हूँ। अगर अप्सरा भी सामने आ जाय, तो भी आँख उठाकर न देखूँ। आज शारदा कहाँ है?

देवी -- नीचे खेलने चली गयी है।

श्याम॰ -- नीचे मत जाने दिया करो। इक्के, मोटरें, बग्घियाँ दौड़ती रहती हैं। न जाने कब क्या हो जाय। आज ही अरदली बाज़ार में एक वारदात हो गई। तीन लड़के एक साथ दब गए।

देवी -- तीन लड़के!! बड़ा ग़ज़ब हो गया। किसकी मोटर थी?

श्याम॰ -- इसका अभी तक पता नहीं चला। ईश्वर जानता है, तुम्हें यह गजरा बहुत खिल रहा है!

देवी (मुस्कराकर) -- चलो, बातें न बनाओ।

तीसरे दिन मुन्नू ने देवी से कहा -- सरकार, एक जगह सगाई ठीक हो रही है; देखिए, कौल से फिर न जाइएगा। मुझे आपका बड़ा भरोसा है।

देवी -- देख ली औरत? कैसी है!

मुन्नू -- सरकार जैसी तक़दीर में है, वैसी है। घर की रोटियाँ तो मिलेंगी, नहीं तो अपने हाथों ठोकना पड़ता था। है क्या कि मिज़ाज की सीधी है। हमारे जात की औरतें बड़ी चंचल होती हैं, हुज़ूर! सैकड़े पीछे एक भी पाक न मिलेगी।

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देवी -- मेहतर लोग अपनी औरतों को कुछ कहते नहीं!

मुन्नू -- क्या कहें हुज़ूर! डरते हैं कि कहीं अपने आसना से चुगली खाकर हमारी नौकरी-चाकरी न छुड़ा दे। मेहतरानियों पर बाबू साहबों की बहुत निगाह रहती है, सरकार!

देवी -- (हँसकर) चल झूठे! बाबू साहबों की औरतें क्या मेहतरानियों से भी गयी-गुज़री होती हैं!

मुन्नू -- अब सरकार कुछ न कहलाएँ, हुज़ूर को छोड़कर और तो कोई ऐसी बबुआइन नहीं देखता, जिसका कोई बखान करे। बहुत ही छोटा आदमी हूँ, सरकार; पर बबुआइनों की तरह मेरी औरत होती, तो उससे बोलने को जी न चाहता। हुज़ूर के चेहरे-मोहरे की कोई औरत मैंने तो नहीं देखी।

देवी -- चल झूठे, इतनी ख़ुशामद करना किससे सीखा?

मुन्नू -- ख़ुशामद नहीं करता, सरकार; सच्ची बात कहता हूँ। हुज़ूर एक दिन खिड़की के सामने खड़ी थीं। रजा मियाँ की निगाह आप पर पड़ गई। जूते की बड़ी दूकान है उनकी। अल्लाह ने जैसा धन दिया है, वैसा ही दिल भी। आपको देखते ही आँखें नीचे कर लीं। आज बातों-बातों में हुज़ूर की सकल-सूरत को सराहने लगे। मैंने कहा -- जैसी सूरत है, वैसा सरकार को अल्लाह ने दिल भी दिया है।

देवी -- अच्छा, वह लाँबा-सा साँवले रंग का जवान है?

मुन्नू -- हाँ हुज़ूर, वही। मुझसे कहने लगे कि किसी तरह एक बार फिर उन्हें देख पाता, लेकिन मैंने डाँटकर कहा -- ख़बरदार! मियाँ, जो मुझसे ऐसी बातें कीं। वहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी।

देवी -- तुमने बहुत अच्छा किया। निगोड़े की आँख फूट जाय; जब इधर से जाता है, खिड़की की ओर उसकी निगाह रहती है। कह देना, इधर भूल कर भी न ताके! मुन्नू -- कह दिया है, हुज़ूर, हुकुम हो तो चलूँ। और तो कुछ साफ़ नहीं करना है? सरकार के आने की बेला हो गई है। मुझे देखेंगे तो कहेंगे -- यह क्या बातें कर रहा है।

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देवी -- ये रोटियाँ लेते जाओ। आज चूल्हे से बच जाओगे।

मुन्नू -- अल्लाह हुज़ूर को सलामत रखे! मेरा तो यही जी चाहता है कि इसी दरवाज़े पर पड़ा रहूँ और एक टुकड़ा खा लिया करूँ। सच कहता हूँ, हुज़ूर को देखकर भूख-प्यास जाती रहती है।

मुन्नू जा ही रहा था कि बाबू श्यामकिशोर ऊपर आ पहुँचे। मुन्नू की पिछली बात उनके कान में पड़ गई थी। मुन्नू ज्यों ही नीचे गया, बाबू साहब देवी से बोले -- मैंने तुमसे कह दिया था कि मुन्नू को मुँह न लगाओ, पर तुमने मेरी बात न मानी। छोटे आदमी एक घर की बात दूसरे घर पहुँचा देते हैं, इन्हें कभी मुँह न लगाना चाहिए। भूख-प्यास बंद होने की क्या बात थी?

देवी -- क्या जानें, भूख-प्यास कैसी? ऐसी तो कोई बात न थी।

श्याम॰ -- थी क्यों नहीं, मैंने साफ़ सुना।

देवी -- मुझे तो ख़्याल नहीं आता। होगी कोई बात। मैं कौन उसकी सब बातें बैठी सुना करती हूँ।

श्याम॰ -- तो क्या वह दीवार से बातें करता है? देखो, नीचे एक आदमी इस खिड़की की तरफ़ ताकता चला जाता है। इसी मुहल्ले का मुसलमाना लौंडा है। जूते की दूकान करता है। तुम क्यों इस खिड़की पर खड़ी रहा करती हो?

देवी -- चिक तो पड़ी हुई है।

श्याम॰ -- चिक के पास खड़ी होने से बाहर का आदमी तुम्हें साफ़ देख सकता है।

देवी -- यह मुझे मालूम न था। अब कभी खिड़की खोलूँगी ही नहीं।

श्याम॰ -- हाँ, फ़ायदा क्या? मुन्नू को अंदर मत आने दिया करो।

देवी -- गुसलखाना कौन साफ़ करेगा?

श्याम॰ -- ख़ैर आये, मगर उससे बातें न करनी चाहिए। आज एक नया थिएटर आया है। चलो देख आयें। सुना है, इसके एक्टर बहुत अच्छे हैं।

इतने में शारदा नीचे से निठाई का दोना लिये दौड़ती हुई आयी। देवी ने पूछा -- अरी, यह मिठाई किसने दी?

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शारदा -- राजा भैया ने तो दी है। कहते थे, तुमको अच्छे-अच्छे खिलौने ला दूँगा।

श्याम॰ -- राजा भैया कौन है?

शारदा -- वही तो हैं, जो अभी इधर से गये हैं!

श्याम॰ -- वही तो नहीं, जो लंबा-सा साँवले रंग का आदमी है?

शारदा -- हाँ-हाँ, वही-वही। मैं अब उनके घर रोज़ जाऊँगी?

देवी -- क्या तू उनके घर गई थी?

शारदा -- वही तो गोद में उठाकर ले गए थे।

श्याम॰ -- तू नीचे खेलने मत जाया कर। किसी दिन मोटर के नीचे दब जायगी। देखती नहीं, कितनी मोटरें आती रहती हैं।

शारदा -- राजा भैया कहते थे, तुम्हें मोटर पर हवा खिलाने ले चलेंगे।

श्याम॰ -- तुम बैठी-बैठी क्या किया करती हो, जो तुमसे एक लड़की की निगरानी भी नहीं हो सकती?

देवी -- इतनी बड़ी लड़की को संदूक में बंद करके नहीं रखा जा सकता।

श्याम॰ -- तुम जवाब देने में तो बहुत तेज़ हो, वह मैं जानता हूँ। यह क्यों नहीं कहतीं कि बातें करने से फुरसत नहीं मिलती।

देवी -- बातें मैं किससे करती हूँ? यहाँ तो कोई पड़ोसिन भी नहीं?

श्याम॰ -- मुन्नू तो हुई है!

देवी -- (ओठ दबाकर) मुन्नू क्या मेरा कोई सगा है, जिससे बैठी बातें किया करती हूँ? ग़रीब आदमी है, अपना दुःख रोता है, तो क्या कह दूँ? मुझसे तो दुतकारते नहीं बनता।

श्याम॰ -- ख़ैर, खाना बना लो, नौ बजे तमाशा शुरू हो जायगा। सात बज गए हैं।

देवी -- तुम जाओ, देख आओ, मैं न जाऊँगी।

श्याम॰ -- तुम्हीं तो महीनों से तमाशे कि रट लगाए हुए थीं। अब क्या हो गया? क्या तुमने क़सम खा ली है कि यह जो बात कहें, वह कभी न मानूँगी?

देवी -- जाने क्यों तुम्हारा ऐसा ख़याल है। मैं तो तुम्हारी इच्छा पाकर ही कोई काम करती हूँ। मेरे जाने से कुछ और पैसे ख़र्च हो जायँगे और रुपये कम पड़ जायँगे तो तुम मेरी जान खाने लगोगे, यही सोचकर मैंने कहा था। अब तुम कहते हो, तो चली चलूँगी। तमाशा देखना किसे बुरा लगता है?

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नौ बजे श्यामकिशोर एक ताँगे पर बैठकर देवी और शारदा के साथ थिएटर देखने चले। सड़क पर थोड़ी ही दूर गए थे कि पीछे से एक और ताँगा आ पहुँचा। इस पर रजा बैठा हुआ था, और उसके बग़ल में -- हाँ, उसके बग़ल में -- बैठा था मुन्नू मेहतर, जो बाबू साहब के घर में सफ़ाई करता था। देवी ने उन दोनों को देखते ही सिर झुका लिया। उसे आश्चर्य हुआ कि रजा और मुन्नू में इतनी गाढ़ी मित्रता है कि रजा उसे ताँगे पर बिठाकर सैर कराने ले जाता है। शारदा रजा को देखते ही बोल उठी -- बाबूजी, देखो, वह राजा भैया आ रहे हैं। (ताली बजाकर) राजा भैया; इधर देख, हम लोग तमाशा देखने जा रहे हैं।

रजा ने मुस्करा दिया; मगर बाबू साहब मारे क्रोध के तिलमिला उठे। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि ये दुष्ट केवल मेरा पीछा करने केलिए आ रहे हैं। इन दोनों में ज़रूर साँठ-गाँठ है। नहीं तो रजा मुन्नू को साथ क्यों लेता? उनसे पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने ताँगेवाले से कहा -- और तेज़ ले चलो, देर हो रही है। ताँगा तेज़ हो गया। रजा ने भी अपना ताँगा तेज़ किया। बाबू साहब ने जब ताँगे को धीमा करने को कहा, तो रजा का ताँगा भी धीमा हो गया। आख़िर बाबू साहब ने झुँझलाकर कहा -- तुम ताँगे को छावनी की ओर ले चलो, हम थिएटर देखने नहीं जायँगे। ताँगेवाले ने उनकी ओर कुतूहल से देखा और ताँगा फेर दिया। रजा का ताँगा भी फिर गया। बाबू साहब को इतना क्रोध आ रहा था कि रजा को ललकारूँ; पर डरते थे कि कहीं झगड़ा हो गया, तो बहुत से आदमी जमा हो जायँगे और व्यर्थ ही झेंप होगा। लहू का घूँट पीकर रह गए। अपने ऊपर झुँझलाने लगे कि नाहक आया। क्या जानता था कि ये दोनों शैतान सिर पर सवार हो जायँगे। मुन्नू को तो कल ही निकाल दूँगा। बारे रजा का ताँगा कुछ दूर चलकर दूसरी तरफ़ मुड़ गया, और बाबू साहब का क्रोध कुछ शांत हुआ; किंतु अब थिएटर जाने का समय न था। छावनी से घर लौट आये।

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देवी ने कोठे पर आकर कहा -- मुफ़्त में ताँगेवाले को दो रुपये देने पड़े। श्यामकिशोर ने उसकी ओर रक्त-शोषक दृष्टि से देखकर कहा -- और मुन्नू से बातें करो, और खिड़की पर खड़ी हो-होकर रजा को छवि दिखाओ। तुम न जाने क्या करने पर तुली हुई हो!

देवी -- ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम मेरा व्यर्थ ही अपमान करते हो, इसका फल अच्छा न होगा। मैं किसी मर्द को तुम्हारे पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझती, उस अभागे मेहतर की क्या हक़ीक़त है! तुम मुझे इतनी नीच समझते हो?

श्याम॰ -- नहीं, मैं तुम्हें इतना नीच नहीं समझता; मगर बेसमझ ज़रूर समझता हूँ। तुम्हें इस बदमाश को कभी मुँह न लगाना चाहिए था। अब तो तुम्हें मालूम हो गया कि वह छटा हुआ शोहदा है, या अब भी कुछ शक है?

देवी -- मैं उसे कल ही निकाल दूगी।

मुंशीजी लेटे; पर चित्त अशांत था। वह दिन भर दफ़्तर में रहते थे। क्या जान सकते थे कि उनके पीछे देवी क्या करती है। वह यह जानते थे कि देवी पतिव्रता है; पर यह भी जानते थे कि अपनी छवि दिखाने का सुंदरियों को मरज़ होता है। देवी ज़रूर बन-ठनकर खिड़की पर खड़ी होती है, और मुहल्ले के शोहदे उसको देख-देखकर मन में न जाने क्या-क्या कल्पना करते होंगे। इस व्यापार को बंद कराना उन्हें अपने काबू से बाहर मालूम होता था। शोहदे वशीकरण की कला में निपुण होते हैं। ईश्वर न करे, इन बदमाशों की निगाह किसी भले घर की बहू-बेटी पर पड़े! इनसे पिंड कैसे छुड़ाऊँ?

बहुत सोचने के बाद अंत में उन्होंने वह मकान छोड़ देने का निश्चय किया। इसके सिवा उन्हें दूसरा कोई उपाय न सूझा। देवी से बोले -- कहो, तो यह घर छोड़ दूँ। इन शोहदों के बीच में रहने से आबरू बिगड़ने का भय है। देवी ने आपत्ति के भाव से कहा -- जैसी तुम्हारी इच्छा!

श्याम॰ -- आख़िर तुम्हीं कोई उपाय बताओ।

देवी -- मैं कौन-सा उपाय बताऊँ, और किस बात का उपाय? मुझे तो घर छोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं मालूम होती। एक-दो नहीं, लाख-दो लाख शोहदे हों, तो क्या। कुत्तों के भूकने के भय से भला कोई अपना मकान छोड़ देता है?

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श्याम॰ -- कभी-कभी कुत्ते काट भी तो लेते हैं।

देवी ने इसका कोई जवाब न दिया और तर्क करने से पति की दुश्चिंताओं ले बढ़ जाने का भय था। यह शक्की तो हैं ही, न जाने उसका क्या आशय समझ बैठें।

तीसरे ही दिन श्याम बाबू ने वह मकान छोड़ दिया।

इस नए मकान में आने के एक सप्ताह पीछे एक दिन मुन्नू सिर में पट्टी बाँधे, लाठी से टेकता हुआ आया और आवाज़ दी। देवी उसकी आवाज़ पहचान गई, पर उसे दुतकारा नहीं। जाकर किवाड़ खोल दिए। पुराने घर के समाचार जानने के लिए उसका चित्त लालायित हो रहा था। मुन्नू ने अंदर आकर कहा -- सरकार, जब से आपने वह मकान छोड़ दिया, क़सम ले लीजिए जो उधर एक बार भी गया हूँ। उस घर को देखकर रोना आने लगता है। मेरा भी जी चाहता है कि इसी महल्ले में आऊँ। पागलों को तरह इधर-उधर मारा-मारा फिरा करता हूँ, सरकार, किसी काम में जी नहीं लगता। बस हर घड़ी आप ही की याद आती रहती है। हुज़ूर जितनी परवरिस करती थीं, उतनी अब कौन करेगा? यह मकान तो बहुत छोटा है।

देवी -- तुम्हारे ही कारन तो वह मकान छोड़ना पड़ा।

मुन्नू -- मेरे कारन! मुझसे कौन-सी ख़ता हुई, सरकार?

देवी -- तुम्हीं तो ताँगे पर रजा के साथ बैठे मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे। ऐसे आदमी पर आदमी का एक होता ही है!

मुन्नू -- अरे सरकार, उस दिन की बात न पूछिए। रजा मियाँ को एक वकील साहब से मिलने जाना था। वह छावनी में रहते थे। मुझे भी साथ बिठा लिया। उनका साईस कहीं गया हुआ था। मारे लिहाज़ के आपके ताँगे के आगे न निकलते थे। सरकार उसे शोहदा कहती हैं। उसका-सा भला आदमी महल्ले भर में नहीं है। पाँचों बखत की नमाज़ पढ़ता है, हुज़ूर, तीसों रोज़े रखता है। घर में बीवी-बच्चे सभी मौजूद हैं। क्या मजाल कि किसी पर बदनिगाह हो।

देवी -- ख़ैर होगा, तुम्हारे सिर में पट्टी क्यों बँधी है?

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मुन्नू -- इनका माजरा न पूछिए, हुज़ूर! आपकी बुराई करते किसी को देखता हूँ, तो बदन में आग लग जाता है। दरवाज़े पर जो हलवाई रहता था,कहने लगा -- मेरे कुछ पैसे बाबूजी पर आते हैं। मैंने कहा -- वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि तुम्हारे पैसे हज़म कर जाते। बस, हुज़ूर, इसी बात पर तकरार हो गई। मैं तो दूकान के नीचे नाली धो रहा था। वह ऊपर से कूदकर आया। और मुझे ढकेल दिया। मैं बेख़बर खड़ा था, चारों खाने चित्त सड़क पर गिर पड़ा। चोट तो आई; मगर मैंने भी दूकान के सामने बचा को इतनी गालियाँ सुनाईं कि याद ही करते होंगे। अब घाव अच्छा हो रहा है, हुज़ूर।

देवी -- राम! राम! नाहक लड़ाई लेने गए। सीधी-सी बात तो थी। कह देते -- तुम्हारे पैसे आते हैं, तो जाकर माँग लाओ। हैं तो शहर ही में, दूसरे देश में तो नहीं भाग गए?

मुन्नू -- हुज़ूर, आपकी बुराई सुनके नहीं रहा जाता, फिर चाहे वह अपने घर लाट ही क्यों न हो, भिड़ पड़ूँगा। वह महाजन होगा, तो अपने घर का होगा। यहाँ कौन उसका दिया खाते हैं।

देवी -- उस घर मैं अभी कोई आया कि नहीं?

मुन्नू -- कई आदमी देखने आए, हुज़ूर; मगर जहाँ आप रह चुकी हैं, कहाँ अब दूसरा कौन रह सकता है? हम लोगों ने उन लोगों को भड़का दिया। रजा मियाँ तो हुज़ूर, उसी दिन से खाना-पीना छोड़ बैठे हैं। बिटिया को याद कर-करके रोया करते हैं। हुज़ूर को हम ग़रीबों की याद काहे को आती होगी?

देवी -- याद क्यों नहीं आती? मैं आदमी नहीं हूँ? जानवर तक थान छूटने पर दो-चार दिन चारा नहीं खाते। यह पैसे लो, कुछ बाज़ार से लाकर खा लो, भूखे होगे।

मुन्नू -- हुज़ूर की दुआ से खाने की तंगी नहीं है। आदमी का दिल देखा जाता है, हुज़ूर! पैसा की कौन बात है। आकपा दिया तो खाते ही हैं। हुज़ूर का मिज़ाज ऐसा है कि आदमी बिना कौड़ी का ग़ुलाम हो जाता है। तो अब चलूँगा, हुज़ूर, बाबूजी आते होंगे। कहेंगे -- यह शैतान यहाँ फिर आ पहुँचा।

देवी -- अभी उनके आने में बड़ी देर है।

मुन्नू -- ओ हो, एक बात तो भूला ही जाता था। रजा मियाँ ने बिटिया के लिए ये खिलौने दिये थे। बातों में ऐसा भूल गया कि इन की सुध ही न रही। कहाँ है बिटिया?

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देवी -- अभी तो मदरसे से नहीं आई, मगर इतने खिलौने लाने की क्या ज़रूरत थी? अरे! रजा ने तो ग़ज़ब ही कर दिया। भेजना ही था, तो दो-चार आने के खिलौने भेजे देते। अकेली मेम तीन-चार रुपये से कम की न होगी। कुल मिलाकर तीस-पैंतीस रुपये से कम के खिलौने नहीं हैं।

मुन्नू -- क्या जाने सरकार, मैंने तो कभी खिलौने नहीं खरीदे। तीस-पैंतीस रुपये के ही होंगे, तो उनके लिए कौन-सी बड़ी बात है? अकेली दूकान से पचास रुपये रोज़ की आमदनी है, हुज़ूर!

देवी -- नहीं, इनको लौंटा ले जाओ। इतने खिलौने लेकर वह क्या करेगी? मैं सिर्फ़ एक मेम रखे लेती हूँ।

मुन्नू -- हुज़ूर रजा मियाँ को बड़ा रंज होगा। मुझे तो जीता ही न छोड़ेंगे। बड़े ही मुहब्बती आदमी हैं, हुज़ूर! बीवी दो-चार दिन के लिए मैके चली जाती है, तो बेचैन हो जाते हैं।

सहसा शारदा पाठशाला से आ गई और खिलौने देखते ही उन पर टूट पड़ी। देवी ने डाँटकर कहा -- क्या करती है, क्या करती है? मेम ले ले, और सब लेकर क्या करेगी?

शारदा -- मैं तो सब लूँगी। मेम को मोटर पर बैठाकर दौड़ाऊँगी। कुत्ता पीछे-पीछे दौड़ेगा। इन बरतनों में गुड़िया के खाने बनाऊँगी। कहाँ से आये हैं, अम्माँ? बता दो।

देवी -- कहीं से नहीं आये, मैंने देखने को मँगवाए थे। तू इनमें से कोई एक ले ले।

शारदा -- मैं सब लूँगी, मेरी अम्माँ सब ले लीजिए न। कौन लाया है, अम्माँ?

देवी -- मुन्नू, तुम खिलौने लेकर जाओ! सिर्फ़ एक मेम रहने दो।

शारदा -- कहाँ से लाये हो मुन्नू, बता दो?

मुन्नू -- तुम्हारे राजा भैया ने तुम्हारे लिए भेजे हैं।

शारदा -- राजा भैया ने भेजे हैं। ओ हो! (नाचकर) राजा भैया बड़े अच्छे हैं। कल अपनी सहेलियों को दिखाऊँगी। किसी के पास ऐसे खिलौने न निकलेंगे।

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सिवी -- अच्छा, मुन्नू, तुम अब जाओ। रजा मियाँ से कह देना, फिर यहाँ खिलौने न भेजें।

मुन्नू चला गया, तो देवी ने शारदा से कहा -- ला बेटी, तेरे खिलौने रख दूँ। बाबूजी देखेंगे, तो बिगड़ेंगे और कहेंगे कि रजा मियाँ के खिलौने क्यों लिये? तोड़-ताड़कर फेंक देंगे। भूलकर भी उनसे खिलौनों की चर्चा न करना।

शाराद -- हाँ, अम्मा, रख दो। बाबूजी तोड़ देंगे।

देवी -- उनसे कभी मत कहना कि राजा भैया ने खिलौने भेजे हैं, नहीं तो बाबूजी राजा भैया को मारेंगे और तुम्हारे कान भी काट लेंगे। कहेंगे, लड़की भिखमंगी है, सबसे खिलौने माँगती फिरती है।

शारदा -- हाँ, अम्माँ, रख दो। बाबूजी तोड़ देंगे।

इतने में बाबू श्यामकिशोर भी दफ़्तर से आ गए। भौंहें चढ़ी हुई थीं। आते ही आते बोले -- वह शैतान मुन्नू इस मुहल्ले में भी आने लगा। मैंने आज उसे देखा। क्या यहाँ भी आया था?

देवी ने हिचकिचाते हुए कहा -- हाँ, आया तो था।

श्याम॰ -- और तुमने आने दिया? मैंने मना न किया था कि उसे कभी अंदर क़दम न रखने देना।

देवी -- आकर द्वार खटखटाने लगा, तो क्या करती?

श्याम॰ -- उसके साथ वह शोहदा भी रहा होगा?

देवी -- उसके साथ और कोई नहीं था।

श्याम॰ -- तुमने आज भी न कहा होगा, यहाँ मत आया कर!

देवी -- मुझे तो इसका ख़्याल न रहा। और अब वह यहाँ क्या करने आएगा?

श्याम॰ -- जो करने आज आया था, वही करने फिर आएगा। तुम मेरे मुँह में कालिख लगाने पर तुली हुई हो।

देवी ने क्रोध ऐंठकर कहा -- मुझसे तुम ऐसी ऊटपटाँग बातें मत किया करो, समझ गए? तुम्हें ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आती? एक बार पहले भी तुमने कुछ ऐसी ही बातें कही थीं। आज फिर तुम वही बात कर रहे हो। अगर तीसरी बार ये शब्द मैंने सुने, तो नतीजा बुरा होगा, इतना कहे देती हूँ। तुमने मुझे कोई वेश्या समझ लिया है?

p.132

श्याम॰ -- मैं नहीं चाहता कि वह मेरे घर आये।

देवी -- तो मना क्यों नहीं कर देते? मैं तुम्हें रोकती हूँ?

श्याम॰ -- तुम क्यों नहीं मना कर देतीं?

देवी -- तुम्हें कहते क्या शर्म आती है?

श्याम॰ -- मेरा मना करना व्यर्थ है। मेरे मना करने पर भी तुम्हारी इच्छा पाकर उसका आना-जाना होता रहेगा।

देवी ने ओंठ चबाकर कहा -- अच्छा, अगर वह आता ही रहे, तो क्या हानि है? मेहतर सभी घरों में आया-जाया करते हैं।

श्याम॰ -- अगर मैंने मुन्नू को कभी अपने द्वार पर फिर देखा, तो तुम्हारी कुशल नहीं, इतना समझाए देता हूँ।

यह कहते हुए श्यामकिशोर नीचे चले गए, और देवी स्तंभित-सी खड़ी रह गई। तब उसका हृदय इस अपमान, लांछन और अविश्वास के आघात से पीड़ित हो उठा। वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसको सबसे बड़ी चोट जिस बात से लगी, वह यह थी कि मेरे पति मुझे इतनी नीच, इतनी निर्लज्ज समझते हैं। जो काम वेश्या भी न करेगी, उसका संदेह मुझ पर कर रहे हैं।

श्यामकिशोर के आते ही शारदा अपने खिलौने उठाकर भाग गई थी कि कहीं बाबूजी तोड़ न डालें। नीचे जाकर वह सोचने लगी कि इन्हें कहाँ छिपा कर रखूँ। वह इसी सोच में थी कि उसकी एक सहेली आँगन में आ गई। शारदा उसे अपने खिलौने दिखाने के लिए आतुर हो गई। इस प्रलोभन को वह किसी तरह न रोक सकी। अभी तो बाबूजी ऊपर हैं, कौन इतनी जल्दी आए जाते हैं। तब तक क्यों न सहेली को अपने खिलौने दिखा दूँ? उसने सहेली को बुला लिया और दोनों नए खिलौने देखने में मग्न हो गईं, कि बाबू श्यामकिशोर के नीचे आने की भी उन्हें ख़बर न हुई। श्यामकिशोर खिलौने देखते ही झपटकर शारदा के पास जा पहुँचे और पूछा -- तूने यह खिलौने कहाँ पाए?

p.133

शारदा की घिग्घी बँध गई। मारे भय के थर-थर काँपने लगी। मुँह से एक शब्द भी न निकला।

श्यामकिशोर ने फिर ग़रज़कर पूछा -- बोलती क्यों नहीं, तुझे किसने खिलौने दिए?

शारदा रोने लगी। तब श्यामकिशोर ने उसे फुसलाकर कहा -- रो मत, हम तुझे मारेंगे नहीं। तुझसे इतना ही पूछते हैं, तूने ऐसे सुंदर खिलौने कहाँ पाए?

इस तरह दो-चार बार दिलासा देने से शारदा को कुछ धैर्य बँधा। उसने सारी कथा कह सुनाई। हा अनर्थ! इससे कहीं अच्छा होता कि शारदा मौन ही रहती। उसका गूँगी हो जाना भी इससे अच्छा था। देवी कोई बहाना करके बला सिर से टाल देती; पर होनहार को कौन टाल सकता है? श्यामकिशोर के रोम-रोम से ज्वाला निकलने लगी। खिलौने वहीं छोड़कर वह धम-धम करते हुए ऊपर गए और देवी के कंधे दोनों हाथों से झँझोड़कर बोले -- तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? साफ़-साफ़ कह दो।

देवी अभी तक खड़ी सिसकियाँ ले रही थी। यह निर्मम प्रश्न सुनकर उसके आँसू ग़ायब हो गए। किसी भारी विपत्ति की आशंका ने इस हलके-से आघात को भुला दिया, जैसे घातक की तलवार देखकर कोई प्राणी रोग-शय्या से उठकर भागे। श्यामकिशोर की ओर भयातुर नेत्रों से देखा; पर मुँह से कुछ न बोली। उसका एक-एक्क रोम मौन भाषा में पूछ रहा था -- इस प्रश्न का क्या मतलब है?

श्यामकिशोर ने फिर कहा -- तुम्हारी जो इच्छा हो, साफ़-साफ़ कह दो। अगर मेरे साथ रहते-रहते तुम्हारा जी ऊब गया हो, तो तुम्हें अख़्त्यार है। मैं तुम्हें क़ैद करके नहीं रखना चाहता। मेरे साथ तुम्हें छल-कपट करने की ज़रूरत नहीं। मैं सहर्ष तुम्हें विदा करने को तैयार हूँ। जब तुमने मन में एक बात निश्चय कर ली, तो मैंने भी निश्चय कर लिया। तुम इस घर में अब नहीं रह सकतीं; रहने योग्य नहीं हो।

देवी ने आवाज़ को सँभालकर कहा -- तुम्हें आजकल क्या हो गया है, जो हर वक़्त ज़हर अगलते रहते हो? अगर मुझसे जी ऊब गया है, तो ज़हर दे दो, जला-जलाकर क्यों जान मारते हो? मेहतर से बातें करना तो ऐसा अपराध न था। जब उसने आकर पुकारा, तो मैंने आकर द्वार खोल दिया। अगर मैं जानती कि ज़रा-सी बात का बतंगड़ हो जायगा, तो उसे दूर ही से दुतकार देती।

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श्याम॰ -- जी चाहता है, तालू से ज़बान खींच लें। बातें होने लगीं, इशारे होने लगे, तोहफ़े आने लगे। अब बाक़ी क्या रहा?

देवी -- क्यों नाहक घाव पर नमक छिड़कते हो? एक अबला की जान लेकर कुछ पा न जाओगे?

श्याम॰ --मैं झूठ कहता हूँ?

देवी -- हाँ, झूठ कहते हो।

श्याम॰ -- ये खिलौने कहाँ से काए?

देवी का कलेजा धक्-से हो गया। काटो, तो बदन में लहू नहीं। समझ गई, इस वक़्त ग्रह बिगड़े हुए हैं, सर्वनाश के सभी संयोग मिलते जाते हैं। ये निगोड़े खिलौने न जाने किस बुरी साइत में आए! मैंने लिये ही क्यों , उसी वक़्त लौटा क्यों न दिए! बात बनाकर बोली -- आग लगे वही खिलौने तोहफ़े हो गए! बच्चों को कोई कैसे रोके, किसी की मानते हैं! कहती रही, मत ले; मगर न मानी, तो मैं क्या करती! हाँ, यह जानती कि इन खिलौनों पर मेरी जान मारी जायगी तो ज़बरदस्ती छीनकर फेंक देती।

श्याम॰ -- इनके साथ और कौन-कौन-सी चीज़ें आयी हैं, भला चाहती हो, तो अभी लाओ।

देवी -- जो कुछ आया होगा, इसी घर ही में होगा। देख क्यों नहीं लेते? इतना बड़ा घर भी नहीं है कि दो-चार दिन देखते लग जायँ?

श्याम॰ -- मुझे इतनी फ़ुरसत नहीं है। ख़ैरियत इसी में है कि जो चीज़ें आयी हों, लाकर मेरे सामने रख दो। यह तो हो नहीं सकता कि लड़की के लिए खिलौने आयें और तुम्हारे लिए कोई सौगात न आये। तुम भरी गंगा में क़सम खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आएगा।

देवी -- तो घर में देख क्यों नहीं लेते?

श्यामकिशोर ने घूँसा तानकर कहा -- कह दिया, मुझे फ़ुरसत नहीं है। सीधे से सारी चीज़ें लाकर रख दो; नहीं तो इसी दम गला दबाकर मार डालूँगा।

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देवी -- मारना हो, तो मार डालो; जो चीज़ें आई ही नहींम् उन्हें मैं दिखा कहाँ से दूँ?

श्यामकिशोर ने क्रोध से उन्मत्त होकर देवी को इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि वह चारों खाने चित्त ज़मीन पर गिर पड़ी। तब उसके गले पर हाथ रखकर बोले -- दबा दूँ गला! न दिखलाएगी तू उन जीज़ों को?

देवी -- जो अरमान हों, पूरे कर लो।

श्याम॰ -- ख़ून पी जाऊँगा? तूने समझा क्या है?

देवी -- अगर दिल की प्यास बुझती हो, तो पी जाओ।

श्याम॰ -- फिर तो उस मेहतर से बातें न करोगी? अगर अब कभी मुन्नू या उस शोहदे को द्वार पर देखा, तो गला काट लूँगा।

यह कहकर बाबूजी ने देवी को छोड़ दिया, और बाहर चले गये; लेकिन देवी उसी दशा में बड़ी देर तक पड़ी रही। उसके मन में इस समय पति प्रेम की मर्यादा-रक्षा का लेश भी न था। उसका अंतःकरण प्रतिकार के लिए विकल हो रहा था। इस वक़्त अगर वह सुनती कि श्यामकिशोर को किसी ने बाज़ार में जूता से पीटा, तो कदाचित् वह ख़ुश होती। कई दिनों तक पानी से भीगने के बाद, आज यह झोंका पाकर प्रेम की दीवार भूमि पर गिर पड़ी, और मन की रक्षा करनेवाली कोई साधना न रही। आज केवल संकोच और लोक-लाज की हलकी-सी रस्सी रह गई है, जो एक झटके में टूट सकती है।

श्यामकिशोर बाहर चले गये, तो शारदा भी अपने खिलौने लिये हुए घर से बाहर निकली। बाबूजी खिलौनों को देखकर कुछ बोले नहीं, तो अब उसे किसकी चिंता और किसका भय! अब वह क्यों न अपनी सहेलियों को खिलौने दिखाए। सड़क के उस पार एक हलवाई का मकान था। हलवाई की लड़की अपने द्वार पर खड़ी थी। शारदा उसे खिलौने दिखाने चली। बीच में सड़क थी, सवारी-गाड़ियों और मोटरों का ताँता बँधा हुआ। शारदा को अपनी धुन में किसी बात का ध्यान न रहा। बालोचित उत्सुकता से भरी हुई वह खिलौने लिये दौड़ी। वह क्या जानती थी कि मृत्यु भी उसी तरह प्राणों का खिलौना खेलने के लिए दौड़ी आ रही है। सामने एक मोटर आती हुई दिखाई दी। दूसरी ओर से एक बग्घी आ रही थी। शारदा ने चाहा, दौड़कर उस पार निकल जाय। मोटर ने बिगुल बजाया; शारदा ने ज़ोर मारा कि सामने से निकल जाय; पर होनहार को कौन टालता! मोटर बालिका को रौंदती हुई चली गई। सड़क पर एक मांस की लोथ पड़ी रह गई। खिलौने ज्यों के त्यों थे। उनमें से एक भी न टूटा था! खिलौने रह गए, खेलनेवाला चला गया। दोनों में कौन स्थायी है और कौन अस्थायी, इसका फ़ैसला कौन करे!

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चारों ओर से लोग दौड़ पड़े। अरे! यह तो बाबूजी की लड़की है, जो ऊपरवाले मकान में रहते हैं। लोथ कौन उठाए? एक आदमी ने लपककर द्वार पर पुकारा -- बाबूजी! आपकी लड़की तो सड़क पर नहीं खेल रही थी! ज़रा नीचे तो आ जाइए।

देवी ने छज्जे पर खड़े होकर सड़क की ओर देखा, तो शारदा की लोथ पड़ी हुई थी। चीख मारकर बेतहाशा नीचे दौड़ी, और सड़क पर आकर बालिका को गोद में उठा लिया। उसके पैर थर-थर काँपने लगे। इस वज्रपात ने उसे स्तंभित कर दिया। रोना भी न आया।

मुहल्ले के कई आदमी पूछने लगे -- बाबूजी कहाँ गये हैं? उनको कैसे बुलाया जाय?

देवी क्या जवाब देती? वह तो संज्ञाहीन हो गई थी। लड़की की लाश को गोद में लिये, उसके रक्त से अपने वस्त्रों को भिगोती, आकाश की ओर ताक रही थी, मानो देवता से पूछ रही हो -- क्या सारी विपत्तियाँ मुझी पर?

अँधेरा होता जाता था; पर बाबूजी का पता नहीं। कुछ मालूम भी नहीं, वह कहाँ गये हैं। धीरे-धीरे नौ बजे; पर अब तक बाबूजी न लौटे। इतनी देर तक बाहर न रहते थे। क्या आज ही उन्हें भी ग़ायब होना था? दस बज गए अब देवी रोने लगी। उसे लड़की की मृत्यु का इतना दुःख न था, जितना अपनी असमर्थता का। वह कैसे शव की दाहक्रिया करेगी? कौन उसके साथ जायगा? क्या इतनी रात गए, कोई उसके साथ चलने पर तैयार होगा? अगर कोई न गया, तो क्या उसे अकेली जाना पड़ेगा? क्या रात भर लोथ पड़ी रहेगी?

ज्यों-ज्यों सन्नाटा होता जाता था, देवी को भय होता था। वह पछता रही थी कि शाम ही को क्यों न इसे लेकर चली गई।

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ग्यारह बजे थे। सहसा किसी ने द्वार खोला। देवी उठकर खरी हो गई। समझी, बाबूजी आ गए। उसका हृदय उमड़ आया और वह रोती हुई बाहर आई; पर आह! यह बाबूजी न थे, पुलिस के आदमी थे, जो इस मामले की तहक़ीक़ात करने आए थे। पाँच बजे की घटना थी। तहक़ीक़ात होने लगी ग्यारह बजे। आख़िर थानेदार भी तो आदमी है; वह भी तो संध्या-समय घूमने-फिरने जाता ही है।

घंटे भर तक तहक़ीक़ात होती रही। देवी ने देखा, अब संकोच से काम न चलेगा। थानेदार ने उससे जो कुछ पूछा, उसका उत्तर उसने निस्संकोच भाव से दिया। ज़रा भी न शरमाई, ज़रा भी न झिझकी। थानेदार भी दंग रह गया।

जब सबके बयान लिखकर दारोगाजी चलने लगे, तो देवी ने कहा -- आप उस मोटर का पता लगाएँगे?

दारोगा -- अब तो शायद ही उसका पता लगे।

देवी -- तो उसको कुछ सज़ा न होगी?

दारोगा -- मजबूरी है। किसी को नंबर भी तो मालूम नहीं।

देवी -- सरकार इसका कुछ इंतज़ाम नहीं करती? ग़रीबों को बच्चे इसी तरह कुचले जाते रहेंगे?

दारोगा -- इसका क्या इंतज़ाम हो सकता है? मोटरें तो बंद नहीं हो सकतीं?

देवी -- कम से कम पुलिसवालों को यह तो देखना चाहिए कि शहर में कोई बहुत तेज़ न चलाए? मगर आप लोग ऐसा क्यों करने लगे? आपके अफ़सर भी तो मोटरों पर बैठते हैं। आप उनकी मोटरें रोकेंगे, तो नौकरी कैसे रहेगी?

थानेदार लज्जित हो, चला गया। जब लोग सड़क पर पहुँचे, तो एक सिपाही ने कहा -- मेहरिया बड़ी टनमन दिखात है।

थानेदार -- अजी, इसने तो मेरा नातका बंद कर दिया। किस ग़ज़ब का हुस्न पाया है! मगर क़सम ले लो, जो मैंने एक बार भी उसकी तरफ़ निगाह की हो। ताकने की हिम्मत ही न पड़ती थी!

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बाबू श्यामकिशोर बारह बजे के बाद नशे में चूर घर पहुँचे। उन्हें यह ख़बर रास्ते ही में मिल गई थी। रोते हुए घर में दाख़िल हुए। देवी भरी बैठी थी, सोच रखा था -- आज चाहे जो हो जाय; पर फटकारूँगी ज़रूर। पर उनको रोते देखा, तो सार गुस्सा ग़ायब हो गया। ख़ुद भी रोने लगी। दोनों बड़ी देर तक रोते रहे। इस विपत्ति ने दोनों के हृदयों को एक-दूसरे की ओर बड़े ज़ोर से खींचा। उन्हें ऐसा ज्ञात हुआ कि उनमें फिर पहले का-सा प्रेम जागृत हो गया है।

प्रातःकाल जब लोग दाह-क्रिया करके लौटे, तो श्यामकिशोर ने देवी की ओर स्नेह से देखकर करुण स्वर में कहा -- तुम्हारा जी अकेले कैसे लगेगा?

देवी -- तुम दस-पाँच दिन की छुट्टी न ले सकोगे?

श्याम॰ -- यही तो मैं भी सोचता हूँ। पंद्रह दिन की छुट्टी ले लूँ।

श्याम बाबू दफ़्तर छुट्टी लेने चले गए। इस विपत्ति में भी आज देवी का हृदय जितना प्रसन्न था, उतना उधर महीनों से न हुआ था। बालिका को खो कर वह विश्वास और प्रेम पा गई थी, और यह उसके आँसू पोंछने के लिए कुछ कम न था।

आह! अभागिनी! ख़ुश मत हो । तेरे जीवन का वह अंतिम काँड होना अभी बाक़ी है, जिसकी आज तू कल्पना भी नहीं कर सकती।

दूसरे दिन बाबू श्यामकिशोर घर ही पर थे कि मुन्नू ने आकर सलाम किया। श्यामकिशोर ने ज़रा कड़ी आवाज़ में पूछा -- क्या है जी, तुम क्यों बार-बार यहाँ आया करते हो?

मुन्नू बड़े दीन भाव से बोला -- मालिक, कल की बात जो सुनता है, उसी को रंज होता है। मैं तो हुज़ूर का ग़ुलाम ठहरा। अब नौकर नहीं हूँ तो क्या, सरकार का नमक तो खा चुका हूँ। भला, वह कभी हड्डियों से निकल सकता है? कभी-कभी हाल-हवाल पूछने आ जाता हूँ। जब से कलवाली बात सुनी है हुज़ूर, ऐसा क़लक़ हो रहा है कि क्या कहूँ। कैसी प्यारी-प्यारी बच्ची थी कि देखकर दुख दूर हो जाता था। मुझे देखते ही मुन्नू-मुन्नू करके दौड़ती थी; जब ग़ैरों का यह हाल है, तो हुज़ूर के दिल पर जो कुछ बीत रही होगी, हुज़ूर ही जानते होंगे।

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श्याम बाबू कुछ नर्म होकर बोले -- ईश्वर की मरज़ी में इंसान का क्या चारा? मेरा तो घर ही अँधेरा हो गया। अब यहाँ रहने को जी नहीं चाहता।

मुन्नू -- मालकिन तो और भी बेहाल होंगी।

श्याम॰ -- हुआ ही चाहें। मैं तो उसे शाम-सबेरे लिखा लिया करता था। माँ तो दिन भर साथ रहती थी। मैं तो काम-धंधों में भूल भी जाऊँगा। वह कहाँ भूल सकती हैं। उनको तो सारी ज़िंदगी का रोना है।

पति को मुन्नू से बातें करते सुनकर देवी ने कोठे पर से आँगन की ओर देखा। मुन्नू को देखकर उसकी आँखों में बे-अख़्तियार आँसू भर आए। बोली -- मुन्नू, मैं तो लुट गई!

मुन्नू -- हुज़ूर, अब सबर कीजिअय, रोने-धोने से क्या फ़ायदा? यही सब अंधेर देखकर तो कभी-कभी अल्लाह मियाँ को ज़ालिम कहना पड़ता है। जो बाईमान हैं, दूसरों का गला काटते फिरते हैं, उनसे अल्लाह मियाँ भी डरते हैं। जो सीधे और सच्चे हैं, उन्हीं पर आफ़त आती है।

मुन्नू देवी को दिलासा देता रहा। श्याम बाबू भी उसकी बातों का समर्थन करते जाते थे। जब वह चला गया, तो बाबू साहब ने कहा -- आदमी तो कुछ बुरा नहीं मालूम होता।

देवी ने कहा -- मोहब्बती आदमी है। रंज न होता, तो यहाँ क्यों आता?

पंद्रह दिन गुज़र गए। बाबू साहब फिर दफ़्तर जाने लगे। मुन्नू इस बीच में फिर कभी न आया। अब तक तो देवी का दिन पति से बातें करने में कट जाता था; लेकिन अब उनके चले जाने पर उसे बार-बार शारदा की याद आती। प्रायः सारा दिन रोते ही कटता था। मुहल्ले की दो-चार नीच जाति की औरतें आती थीं; लेकिन देवी का उनसे मन न मिलता था, वे झूठी सहानुभूति दिखाकर देवी से कुछ ऐंठना चाहती थीं!

एक दिन कोई चार बजे मुन्नू फिर आया, और आँगन में खड़ा होकर बोला -- मालकिन, मैं हूँ मुन्नू, ज़रा नीचे आ जाइएगा।

p.140

देवी ने ऊपर ही से पूछा -- क्या काम है? कहो तो।

मुन्नू -- ज़रा आइए तो!

देवी नीचे आई, तो मुन्नू ने कहा -- रजा मियाँ बाहर खड़े हैं; और हुज़ूर से मातमपुरसी करते हैं।

देवी ने कहा -- जाकर कह दो, ईश्वर की जो मरज़ी थी, वह हुई।

रजा दरवाज़े पर खड़ा था। ये बातें उसने साफ़ सुनीं। बाहर ही से बोला-ख़ुदा जानता है, जब से यह ख़बर सुनी है, दिल के टुकड़े हुए जाते हैं। मैं ज़रा दिल्ली चला गया था। आज ही लौटकर आया हूँ। अगर मेरी मौजूदगी में यह वारदात हुई होती, तो और तो क्या कर सकता था; मगर मोटरवाले को बिला सज़ा कराए न छोड़ता, चाहे वह किसी राजा ही की मोटर होती। सारा शहर छान डालता। बाबू साहब चुपके होके बैठे रहे, यह भी कोई बात है। मोटर चलाकर क्या कोई किसी की जान ले लेगा! फूल-सी मासूम बच्ची को जालिमों ने मार डाला। हाय! अब कौन मुझे राजा भैया कहकर पुकारेगा! ख़ुदा की क़सम, उसके लिए दिल्ली से टोकरी भर खिलौने ले आया हूँ। क्या जानता था कि यहाँ यह सितम हो गया। मुन्नू देख, यह तावीज़ ले जाकर बहूजी को दे दे। इसे अपने जूड़े में बाँध लेंगी। ख़ुदा ने चाहा, तो उन्हें किसी तरह की दहशत या खटका न रहेगी। उन्हें बुरे-बुरे ख़्वाब किखाई देते होंगे, रात को नींद उचत जाती होगी, दिल घबराया करता होगा। ये सारी शिकायतें इस तावीज़ से दूर हो जायँगी। मैंने एक पहुँचे हुए फ़क़ीर से यह तावीज़ लिखाया है।

इसी तरह से रजा और मुन्नू उस वक़्त तक एक न एक बहाने से द्वार से न टले, जब तक बाबू साहब आते न दिखाई दिए। श्यामकिशोर ने उन दोनों को जाते देख लिया। ऊपर जाकर गंभीर भाव से बोले -- रजा क्या करने आया था?

देवी -- यों ही मातमपुरसी करने आया था। आज दिल्ली से आया है। यह ख़बर सुनकर दौड़ा आया था।

श्याम॰ -- मर्द मर्दों से मातमपुरसी करते हैं या औरतों से?

देवी -- तुम न मिले, तो मुझी से शोक प्रकट करके चला गया।

p.141

श्याम॰ -- इसके यह माने हैं कि जो आदमी मुझसे मिलने आए, वह मेरे न रहने पर तुमसे मिल सकता है। इसमें कोई हरज नहीं, क्यों?

देवी -- सबसे मिलने मैं थोड़े ही जा रही हूँ?

श्याम॰ -- तो रजा क्या मेरा साला है या ससुरा?

देवी -- तुम तो ज़रा-ज़रा सी बात पर झल्लाने लगते हो।

श्याम॰ -- यह ज़रा-सी बात है! एक भले घर की स्त्री एक शोहदे से बातें करे, यह ज़रा-सी बात है! तो बड़ी-सी बात किसे करते हैं? यह ज़रा-सी बात नहीं है कि यदि मैं तुम्हारी गर्दन घोंट दूँ तो भी मुझे पाप न लगेगा; देखता हूँ, फिर तुमने वही रंग पकड़ा। इतनी बड़ी सज़ा पाकर भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलीं। अबकी क्या मुझे ले बीतना चाहती हो?

देवी सन्नाटे में आ गई। एक तो लड़की का शोक! उस पर यह अपशब्दों की बौछार और भीषण आक्षेप! उसके सिर में चक्कर-सा आ गया। बैठकर रोने लगी। {इस जीवन से तो मौत कहीं अच्छी!} केवल यही शब्द उसके मुँह से निकले।

बाबू साहब ग़रज़कर बोले -- यही होगा, मत घबराओ, मत घबराओ, यही होगा। तुम मरना चाहती हो, तो मुझे भी तुम्हारे अमर होने की आकांक्षा नहीं है। जितनी जल्द तुम्हारे जीवन का अंत हो जाय, उतना ही अच्छा। कुल में कलंक तो न लगेगा?

देवी ने सिसकियाँ लेते हुए कहा -- क्यों एक अबला पर इतना अन्याय करते हो? तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आती?

श्याम॰ -- मैं कहता हूँ, चुप रह!

देवी -- क्यों चुप रहूँ; क्या किसी की ज़बान बंद कर दोगे?

श्याम॰ -- फिर बोले जाती है? मैं उठकर सिर तोड़ दूँगा?

देवी -- क्या सिर तोड़ दोगे, कोई ज़बरदस्ती है?

श्याम॰ -- अच्छा तो बुला, देखें तेरा कौन हिमायती है?

यह कहते हुए बाबू साहब झल्लाकर उठे, और देवी को कई थप्पड़ और घूँसे गला दिये; मगर वह न रोई, न चिल्लाई, न ज़बान से एक शब्द निकाला, केवल अर्थ-शून्य नेत्रों से पति की ओर ताकती रही, मानो यह निश्चय करना चाहती थी कि यह आदमी है या कुछ और।

p.142

जब श्यामकिशोर मार-पीटकर अलग खड़े हो गए, तो देवी ने कहा -- किल के अरमान अभी न निकले हों तो और निकाल लो। फिर शायद यह अवसर न मिले।

श्यामकिशोर ने जवाब दिया -- सिर काट लूँगा, सिर, तू है किस फेर में?

यह कहते हुए वह नीचे चले गये, झटके के साथ किवाड़ खोले, धमाके के साथ बंद किए और कहीं चले गये।

अब देवी की आँखों से आँसू की नदी बहने लगी।

रात के दस बज गए; पर श्यामकिशोर घर न लौटे। रोते-रोते देवी की आँखें सूज आईं। क्रोध में मधुर स्मृतियों का लोप हो जाता है। देवी को ऐसा ज्ञात होता था कि श्यामकिशोर को उसके साथ कभी प्रेम ही न था। हाँ, कुछ दिनों वह उसक मुँह अवश्य जोहते रहते थे; लेकिन वह बनावटी प्रेम था। उसके यौवन का आनंद लूटने ही के लिए उससे मीठी-मीठी प्यार की बातें की जाती थीं। उसे छाती से लगाया जाता था, उसे कलेजे पर सुलाया जाता था। वह सब दिखावा था, स्वाँग था। उसे याद ही न आता था कि कभी उससे सच्चा प्रेम किया गया हो! अब वह रूप नहीं रहा, वह यौवन नहीं रहा, वह नवीनता नहीं रही! फिर उसके साथ क्यों न अत्याचार किए जायँ? उसने सोचा -- कुछ नहीं! अब इनका दिल मुझसे फिर गया है, नहीं तो क्या इस ज़रा-सी बात पर यों मुझ पर टूट पड़ते। कोई न कोई लांछन लगाकर मुझसे गला छुड़ाना चाहते हैं। यही बात है, तो मैं क्यों इनकी रोटियाँ और इनकी मार खाने के लिए इस घर में पड़ी रहूँ? जब प्रेम ही नहीं रहा, तो मेरे यहाँ रहने को धिक्कार है! मैके में कुछ न सही, यह दुर्गति न होगी। इनकी यही इच्छा है, तो यही सही। मैं भी समझ लूँगी कि विधवा हो गई।

ज्यों-ज्यों रात गुज़रती थी, देवी के प्राण सूखे जाते थे। उसे यह धड़का समाया हुआ था कि कहीं वह आकर फिर न मार-पीट शुरू कर दें। कितने क्रोध में भरे हुए यहाँ से गए। वाह री तक़दीर! अब मैं इतनी नीच हो गई कि मेहतरों से जूतेवालों से आशनाई करने लगी। इस भले आदमी को ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आती! न जाने इनके मन में ऐसी बातें कैसे आती हैं। कुछ नहीं, वह स्वभाव के नीचे, दिल के मैले, स्वार्थी आदमी हैं। नीचों के साथ नीच ही बनना चाहिए। मेरी भूल थी कि इतने दिनों से इनकी घुड़कियाँ सहती रही। जहाँ इज़्ज़त नहीं, मर्यादा नहीं, प्रेम नहीं, विश्वास नहीं, वहाँ रहना बेहयाई है। कुछ मैं इनके हाथ बिक तो गई ही नहीं कि यह जो चाहें करें, मारें या काटें, पड़ी सहा करूँ। सीता-जैसी पत्नियाँ होती थीं, तो राम-जैसे पति भी होते थे!

p.143

देवी को अब ऐसी शंका होने लगी कि कहीं श्यामकिशोर आते ही आते सचमुच उसका गला न दबा दें, या छुरी भोंक दें। वह समाचार-पुत्रों में ऐसी कई हरजाइयों की ख़बरें पढ़ चुकी थी। शहर ही में ऐसी कई घटनाएँ हो चुकी थीं। मारे भय के वह थरथरा उठी। यहाँ रहने से प्राणों की कुशल न थी।

देवी ने कपड़ों की एक छोटी-सी बकुची बाँधी और सोचने लगी -- यहाँ से कैसे निकलूँ? और फिर वहाँ से निकलकर जाऊँ कहाँ? कहीं इस वक़्त मुन्नू का पता लग जाता, तो बड़ा काम निकलता। वह मुझे क्या मैके न पहुँचा देता? एक बार मैके पहुँच भर जाती। फिर तो लाला सिर पटककर रह जायँ, भूलकर भी न आऊँ। यह भी क्या याद करेंगे। रुपये क्यों छोड़ दूँ, जिसमें यह मज़े से गुलछर्रे उड़ाएँ? मैंने ही तो काट-छाँटकर जमा किए हैं। इनकी कौन-सी ऐसी बड़ी कमाई थी। ख़र्च करना चाहती, तो कौड़ी न बचती। पैसा-पैसा बचाती रहती थी।

देवी ने जाकर नीचे के किवाड़ बंद कर दिए। फिर संदूक़ खोलकर अपने सारे जेवर और रुपये निकालकर बकुची में बाँध लिये। सबके सब करेंसी नोट थे; विशेष बोझ भी न हुआ।

एकाएक किसी ने सदर दरवाज़े में ज़ोर से धक्का मारा। देवी सहम उठी। ऊपर से झाँककर देखा, श्याम बाबू थे। उसकी हिम्मत न पड़ी कि जाकर द्वार खोल दे। फिर तो बाबू साहब ने इतने ज़ोर से धक्के मारने शुरू किए, मानो किवाड़ हो तोड़ डालेंगे। इस तरह द्वार खुलवाना ही उनके चित्त की दशा को साफ़ प्रकट कर रहा था। देवी शेर के मुँह में जाने का साहस न कर सकी।

p.144

आख़िर श्यामकिशोर ने चिल्लाकर कहा -- ओ डैम! किवाड़ खोल, ओ ब्लाडी! किवाड़ खोल, अभी खोल!

देवी की रही-सही हिम्मत भी जाती रही। श्यामकिशोर नशे में चूर थे। होश में शायद दया आ जाती, इसलिए शराब पीकर आये हैं। किवाड़ तो न खोलूँगी चाहे तोड़ ही डालो। अब तुम मुझे इस घर में पाओगे ही नहीं, मारोगे कहाँ से? तुम्हें ख़ूब पहचान गई।

श्यामकिशोर पंद्रह-बीस मिनट एक शोर मचाने और किवाड़ हिलाने के बाद ऊल-जलूल बकते चले गये। दो-चार पड़ोसियों ने फटकारें भी सुनाईं। आप भी तो पढ़े-लिखे आदमी होकर आधी रात को घर चलते हैं। नींद ही तो है, नहीं खुलती, तो क्या कीजिएगा? जाइए, किसी यार-दोस्त के घर लेट रहिए; सबेरे आइएगा।

श्यामकिशोर के जाते ही देवी न बकुची उठाई और धीरे-धीरे नीचे उतरी। ज़रा देर उसने कान लगाकर आहट ली के कहीं श्यामकिशोर खड़े तो नहीं हैं। जब विश्वास हो गया कि वह चले गये, तो धीरे से द्वार खोला और बाहर निकल आई। उसे ज़रा भी क्षोभ, ज़रा भी दुःख न था। बस, केवल एक इच्छा थी कि यहाँ से बचकर भाग जाऊँ। कोई ऐसा आदमी न था, जिस पर वह भरोसा कर सके, जो इस संकट में काम आ सके। था तो बस वही मुन्नू मेहतर। अब उसी के मिलने पर उसकी सारी आशाएँ अवलंबित थीं। उसी से मिलकर वह निश्चय करेगी कि कहाँ जाय, कैसे रहे। मैके जाने का अब उसका इरादा न था। उसे भय होता था कि मैके में श्यामकिशोर से वह अपनी जान न बचा सकेगी। उसे यहाँ न पाकर वह अवश्य उसके मैके जायँगे, और उसे ज़बरदस्ती खींच लाएँगे। वह सारी यातनाएँ, सारे अपमान सहने को तैयार थी, केवल श्यामकिशोर की सूरत नहीं देखना चाहती थी। प्रेम अपमानित होकर द्वेष में बदम जाता है।

थोड़ी ही दूर पर चौराहा था, कई ताँगेवाले खड़े थे। देवी ने एक इक्का किया और उससे स्टेशन चलने को कहा।

१०

देवी ने रात स्टेशन पर काटी। प्रातःकाल उसने एक ताँगा किराए पर किया और परदे में बैठकर चौक जा पहुँची। अभी दुकानें न खुली थीं; लेकिन पूछने से रजा मियाँ का पता चल गया। उसकी दूकान पर एक लौंडा झाड़ू दे रहा था। देवी ने उसे बुलाकर कहा -- जाकर रजा मियाँ से कह दे कि शारदा की अम्मा तुमसे मिलने आई हैं, अभी चलिए।

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दस मिनट में रजा और मुन्नू आ पहुँचे।

देवी ने सजल नेत्र होकर कहा -- तुम लोगों के पीछे मुझे घर छोड़ना पड़ा। कल रात को तुम्हारा मेरे घर ग़ज़ब हो गया। जो कुछ हुआ, वह फिर कहूँगी। मुझे कहीं एक घर दिला दो। घर ऐसा हो कि बाबू साहब को मेरा पता न मिले। नहीं तो वह मुझे जीती न छोड़ेंगे।

रजा ने मुन्नू की ओर देखा, मानो कह रहा है -- देखो, चाल कैसी ठीक थी! देवी से बोला -- आप निसाख़ातिर रहें, ऐसा घर दिला दूँगा कि बाबू साहब के बाबा साहब को भी पता न चलेगा! आपको किसी बात की तक़लीफ़ न होगी। हम आपके पसीने की जगह ख़ून बहा देंगे। सच पूछो तो बहूजी, बाबू साहब आपके लायक़ थे नहीं।

मुन्नू -- कहाँ की बात भैया, आप रानी होने लायक़ हैं। मैं मालकिन से कहता था कि बाबूजी को दालमंडी की हवा लग गई है; पर आप मानती ही न थीं। आज रात ही को मैंने गुलाबजान के कोठे पर से उतरते देखा। नशे में चूर थे।

देवी -- झूठी बात। उनकी यह आदत नहीं। ग्य्स्सा उन्हें ज़रूर बहुत है, और गुस्से में आकर उन्हें नेक-बद कुछ नहीं सूझता; लेकिन निगाह के बुरे नहीं।

मुन्नू -- हुज़ूर मानती ही नहीं, तो क्या करूँ। अच्छा, कभी दिखा दूँगा, तब तो मानिएगा।

रजा -- अब दिखाना पीछे, इस वक़्त आपको मेरे घर पहुँचा दे। ऊपर ले जाना। तब तक मैं एक मकान देखने जाता हूँ। आपके लायक़ बहुत ही अच्छा है।

देवी -- तुम्हारे घर में बहुत-सी औरतें होंगी?

रगा -- कोई नहीं है, बहूजी, सिर्फ़ एक बुढ़िया मामी है। वह आपके लिए एक कहारिन बुला देगी। आपको किसी बात की तक़कीफ़ न होगी। मैं मकान देखने जा रहा हूँ।

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देवी -- ज़रा बाबू साहब की तरफ़ भी होते आना। देखना घर आये कि नहीं?

रजा -- बाबू साहब से तो मुझे चिढ़ हो गई है। शायद नज़र में आ जायँ तो मेरी उनसे लड़ाई हो जाय। जो मर्द आप-जैसी हुस्न की देवी की क़दर नहीं कर सकता, वह आदमी नहीं।

मुन्नू -- बहुत ठीक कहते हो भैया। ऐसी सरीफ़ज़ादी को न जाने किस मुँह से डाँटते हैं! मुझे इतने दिन हुज़ूर की ग़ुलामी करते हो गए, कभी एक बात न कही।

रजा मकान देखने गया, और ताँगा रजा के घर कि तरफ़ चला।

देवी के मन में इस समय एक शंका का आभास हुआ -- कहीं ये दोनों सचमुच शोहदे तो नहीं हैं? लेकिन कैसे मालूम हो? यह सत्य है कि देवी ने जीवन पर्यंत के लिए स्वामी का परित्याग किया था; पर इतनी ही देर में उसे कुछ पश्चात्ताप होने लगा था! अकेली एक घर में कैसे रहेगी, बैठी-बैठी क्या करेगी; यह कुछ उसकी समझ में न आता था। उसने दिल में कहा -- क्यों न घर लौट चलूँ? ईश्वर करे, वह अभी घर न आये हों। मुन्नू से बोली -- तुम ज़रा दौड़कर देखो तो, बाबूजी घर आये कि नहीं?

मुन्नू -- आप चलकर आराम से बैठें, मैं देख आता हूँ।

देवी -- मैं अंदर न जाऊँगी।

मुन्नू -- ख़ुदा की क़सम खाके कहता हूँ, घर बिलकुल खाली है। आप हम लोगों पर शक करती हैं। हम वह लोग हैं कि आपका हुक़्म पाएँ तो आग में कूद पड़ें।

देवी इक्के से उतरकर अंदर चली गई। चिड़िया एक बार पकड़ जाने पर भी फड़फड़ाई; किंतु पैरों में लासा लगे होने के कारण उड़ न सकी, और शिकारी ने उसे अपनी झोली में रख लिया। वह अभागिनी क्या फिर कभी आकाश में उड़ेगी? क्या फिर उसे डालियों पर चहकना नसीब होगा?

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११

श्यामकिशोर सबेरे घर लौटे, तो उनका चित्त शांत हो गया था। उन्हें शंका हो रही थी कि कदाचित् देवी घर में न होगी। द्वार के दोनों पट खुले देखे तो कलेजा सन-से हो गया। इतने सबेरे किवाड़ों का खुला रहना अमंगलसूचक था। एक क्षण द्वार पर खड़े होकर अंदर की आहट ली। कोई आवाज़ न सुनाई दी। आँगन में गये, वहाँ भी सन्नाटा, ऊपर चारों तरफ़ सूना! घर काटने को दौड़ रहा था! श्यामकिशोर ने अब ज़रा सतर्क होकर देखना शुरू किया। संदूक़ भी खाली। अब क्या भ्रम हो सकता था? कोई गंगा-स्नान के लिए जाता है, तो घर के रुपये नहीं उठा ले जाता। वह चली गई। अब इसमें लेश-मात्र भी संदेह नहीं था। यह भी मालूम था कि वह कहाँ गई है। शायद इसी वक़्त लपककर जाने से वह वापस भी लाई जा सकती है; लेकिन दुनिया क्या कहेगी?

श्यामकिशोर ने अब चारपाई पर बैठकर ठंडे दिल से इस घटना की विवेचना करनी शुरू की। इसमें तो संदेह न था कि रजा और उसके पिट्ठू मुन्नू ने ही बहकाया है। आख़िर बाबूजी का कर्तव्य क्या था? उन्होंने वह पुराना मकान छोड़ दिया, देवी को बार-बार समझाया। इसके उपरांत वह क्या कर सकते थे? क्या मारना अनुचित था? अगर एक क्षण के लिए अनुचित ही मान लिया जाय, तो क्या देवी को इस तरह घर से निकल जाना चाहिए था? कोई दूसरी स्त्री, जिसके हृदय में पहले ही से विष न भर दिया गया हो, केवल मार खाकर घर से न निकल जाती? अवश्य ही देवी का हृदय कलुषित हो गया है।

बाबू साहब ने फिर सोचा -- अभी ज़रा देर में महरी आएगी। वह देवी को घर में न देखकर पूछेगी, तो क्या जवाब दूँगी? दम के दम में सारे मुहल्ले में यह ख़बर फैल जायगी। हाय भगवान्! क्या करूँ? श्यामकिशोर के मन में इस वक़्त ज़रा भी पश्चात्ताप, ज़रा भी दया न थी। अगर देवी किसी तरह उन्हें मिल सकती; तो वह उसकी हत्या कर डालने में ज़रा भी पसोपेश न करते। उनका घर से निकल जाना, चाहे आवेश के सिवा उसका और कोई कारण न हो, उनकी निगाह में अक्षम्य था। क्रोध बहुधा विरक्ति का रूप धारण कर लिया करता है। श्यामकिशोर को संसार से घृणा हो गई। जब अपनी पत्नी ही दग़ा कर जाय तो किसी से क्या आशा की जाए? जिस स्त्री के लिए हम जीते भी हैं और मरते भी, जिसको सुखी रखने के लिए हम अपने प्राणों का बलिदान कर देते हैं, जब वह अपनी न हुई, तो फिर दूसरा कौन अपना हो सकता है? इसी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया? घरवालों से लड़ाई की, भाइयों से नाता तोड़ा, यहाँ तक कि वे अब उनकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। उसकी कोई ऐसी इच्छा न थी, जो उन्होंने पूरी न की हो। उसका ज़रा-सा सिर भी दुखता था, तो उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। रात की रात उसकी सेवा-शुश्रूषा में बैठे रह जाते थे। वही स्त्री आज उनसे दग़ा कर गई, केवल एक गुँडे के बहकाने में आकर उनके मुँह में कालिख लगा गई। गुँडे पर इलज़ाम लगाना तो एक प्रकार से मन को समझाना है! जिसके दिल में खोट न हो, उसे कोई क्या बहका सकता है? जब इस स्त्री ने धोखा दिया, तो फिर समझना चाहिए कि संसार में प्रेम और विश्वास का अस्तित्व ही नहीं। यह केवल भावुक प्राणियों की कल्पना-मात्र है। ऐसे संसार में रहकर दुःख और दुराशा के सिवा और क्या मिलना है? हा दुष्टा! ले आज से तू स्वतंत्र है; जो चाहे कर; अब कोई तेरा हाथ पकड़नेवाला नहीं रहा। जिसे तू {{प्रियतम}} कहते नहीं थकती थी, उसके साथ तूने यह कुटिल व्यवहार किया! चाहूँ, तो तुझे अदालत में घसीटकर इस पाप का दंड दे सकता हूँ; मगर क्या फ़ायदा! इसका फल तुझे ईश्वर देंगे।

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श्यामकिशोर चुपचाप नीचे उतरे, न किसी से कुछ कहा न सुना, द्वार खुले छोड़ दिए और गंगा-तट की ओर चले।