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स्मृति का पुजारी

महाशय होरीलाल की पत्नी का जब से देहांत हुआ, वह एक तरह से दुनिया से विरक्त हो गए हैं। यों रोज़ कचहरी जाते हैं -- अब भी उनकी वकालत बुरी नहीं है। मित्रों से राह-रस्मी भी रखते हैं, मेलों-तमाशों में भी जाते हैं; पर इसलिए नहीं कि इन बातों से उन्हें कोई ख़ास दिलचस्पी है; बल्कि इसलिए कि वे भी मनुष्य हैं और मनुष्य एक सामाजिक जीव है। जब उनकी स्त्री जीवित थी, तब कुछ और ही बात थी। किसी न किसी बहाने से आये-दिन मित्रों की दावतें होती रहतीं। कभी गार्डन-पार्टी है, कभी संगीत है, कभी जन्माष्टमी है, कभी होली है। मित्रों का सत्कार करने में जैसे उन्हें मज़ा आता था। लखनऊ से सुफ़ेदे आये हैं। अब, जब तक दोस्तों को खिला न लें, उन्हें चैन नहीं। कोई अच्छी चीज़ ख़रीदकर उन्हें यही धुन हो जाती थी कि इसे किसी की भेंट कर दें, जैसे और लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचा करते हैं, वह सेवा के लिए षड्यंत्र रचते थे। आपसे मामूली जान-पहचान है; लेकिन उनके घर चले जाइए तो चाय और फलों से आपका सत्कार किए बिना न रहेंगे। मित्रों के हित के लिए प्राण देने को तैयार और बड़े ही ख़ुशमिज़ाज। उनके कहकहे ग्रामोफ़ोन में भरने लायक़ होते थे। कोई संतान न थी; लेकिन किसी ने उन्हें दुखी या निराश नहीं देखा।

मुहल्ले के सारे बच्चे उनके बच्चे थे। और स्त्री भी उसी रंग में रँगी हुई। आप कितने ही चिंतित हों, उस देवी से मुलाक़ात होते ही आप फूल की तरह खिल जाएँगे। न-जाने इतनी लोकोक्तियाँ कहाँ से याद कर ली थीं। बात-बात पर कहावतें कहती थीं। और जब किसी को बनाने पर आ जातीं, तो रुलाकर छोड़ती थीं। गृह-प्रबंध में तो उनका जोड़ था, दोनों एक दूसरे के आशिक़ थे, और उनका प्रेम पौधों के कलम की भाँति दिनों के साथ और भी घनिष्ठ होता जाता था। समय की गति उस पर जैसे आशीर्वाद का काम कर रही थी। कचहरी से छुट्टी पाते हि वह प्रेम का पथिक दीवानों की तरह घर भागता था। आप कितना ही आग्रह करें; पर उस वक़्त रास्ते में एक मिनट के लिए भी न रुकता था और अगर कभी महाशयजी के आने में देर हो जाती, तो वह प्रेम-योगिनी छज्जे पर खड़ी होकर उनकी राह देखा करती थी और पच्चीस साल के अभिन्न सहचार ने उनकी आत्माओं में इतनी समानता पैदा कर दी थी कि जो बात एक के दिल में आती थी, वही दूसरे के दिल में बोल उठती थी। यह बात नहीं कि उनमें मतभेद न होता हो। बहुत-से विषयों में उनके विचारों में आकाश-पाताल का अंतर था, और अपने पक्ष के समर्थन और परपक्ष के खंडन में उनमें ख़ूब झाँव-झाँव होती थी। कोई बाहर का आदमी सुने तो समझे कि दोनों लड़ रहे हैं, और अब हाथापाई की नौबत आनेवाली है; मगर उनके मुबाहसे मस्तिष्क से होते थे। हृदय दोनों के एक, दोनों सहृदय, दोनों प्रसन्न चित्त, स्पष्ट कहनेवाले, निःस्पृह, मानो देवलोक के निवासी हों; इसलिए पत्नी का देहांत हुआ, तो कई महीने तक हम लोगों को यह अंदेशा रहा कि यह महाशय आत्महत्या न कर बैठें।

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हम लोग सदौव उनकी दिलजोई करते रहते, कभी एकांत में न बैठने देते। रात को भी कोई न कोई उनके साथ लेटता था। ऐसे व्यक्तियों पर दूसरों को दया आती ही है। मित्रों की पत्नियाँ तो इन पर जान देती थीं। उनकी नज़रों में वह देवताओं के भी देवता थे। उनकी मिसाल दे-देकर अपने पुरुषों से कहतीं -- इसे कहते हैं प्रेम! ऐसा पुरुष हो, तो क्यों न स्त्री उसकी ग़ुलामी करे? जब से बीवी मरी है, ग़रीब ने कभी भरपेट भोजन नहीं किया, कभी नींद भर नहीं सोया; नहीं तो तुम लोग दिल में मनाते रहते हो कि यह मर जाए, तो नया ब्याह रचाएँ। दिल में ख़ुश होंगे कि अच्छा हुआ मर गई, रोग टला, अब नई-नवेली स्त्री लाएँगे।

और तब महाशयजी का पैंतालीसवाँ साल था, सुगठित शरीर था, स्वास्थ्य अच्छा, रूपवान्, विनोदशील, संपन्न। चाहते तो तुरंत दूसरा ब्याह कर लेते। उनके हाँ करने की देर थी। ग़रज़ बावले कन्यावालों ने संदेश भेजे, मित्रों ने भी उजड़ा घर बसाना चाहा; पर इस स्मृति के पुजारी ने प्रेम के नाम को दाग़ न लगाया। अब हफ़्तों बाल नहीं बनते; कपड़े नहीं बदले जाते। घसिहारों-सी सूरत बनी हुई है, कुछ परवाह नहीं। कहाँ तो मुँह अँधेरे उठते थे और चार मील का चक्कर लगा आते थे। कभी अलसा जाते थे तो देवीजी घुड़कियाँ जमातीं और बाहर खदेड़कर द्वार बंद कर लेतीं। कहाँ अब आठ बजे तक चारपाई पर पड़े करवटें बदल रहे हैं। उठने का जी नहीं चाहता! ख़िदमतगार ने हुक़्क़ा लाकर रख दिया, दो-चार कश लगा दिए। न लाये, तो ग़म नहीं। चाय आयी पी ली, न आये तो परवाह नहीं। मित्रों ने बहुत गला दबाया, तो सिनेमा देखने चले गये; लेकिन क्या देखा और क्या सुना, इसकी ख़बर नहीं। कहाँ तो अच्छे-अच्छे सूटों का ख़ब्त था, कोई ख़ुशनुमा डिज़ाइन का कपड़ा आ जाए, आप एक सूट ज़रूर बनाएँगे। वह क्या बनवाएँगे, उनके लिए देवीजी बनवाएँगी। कहाँ अब वही पुराने-धुराने, बदरंग, सिकुड़े-सिकुड़ाए, ढीले-ढाले कपड़े लटकाए चले जा रहे हैं, जो अब दुबलेपन के कारण उतारे-से लगते हैं और जिन्हें अब किसी तरह सूट नहीं कहा जा सकता।

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महीनों बाज़ार जाने की नौबत नहीं आती। अबकी कड़ाके का जाड़ा पड़ा, तो आपने एक रूईदार नीचा लबादा बनवा लिया और ख़ासे भगतजी बन गए। सिर्फ़ कंटोप की कसर थी। देवीजी होतीं, तो यह लबादा छीनकर किसी फ़क़ीर को दे देतीं; मगर अब कौन देखनेवाला है? किसे परवाह है, वह क्या पहनते हैं और कैसे रहते हैं। ४५ की उम्र में जो आदमी ३५ का लगता था, वह अब ५० की उम्र में ७० का लगता है, कमर भी झुक गई है, बाल भी सफ़ेद हो गए हैं, दाँत भी ग़ायब हो गए। जिसने उन्हें तब देखा हो, आज पहचान भी न सके।

मज़ा यह है कि तब वह जिन विषयों पर देवीजी से लड़ा करते थे, वही अब उनकी उपासना के अंग बन गए हैं। मालूम नहीं, उनके विचारों में क्रांति हो गई है या मृतात्मा ने उनकी आत्मा में लीन होकर भिन्नताओं को मिटा दिया है। देवीजी को विधवा-विवाह से घृणा थी। महाशयजी इसके पक्के समर्थक थे; लेकिन अब आप भी विधवा-विवाह का विरोध करते हैं। आप पहले पच्छिमी या नई सभ्यता के भक्त थे और देवीजी का मज़ाक़ उड़ाया करते थे। अब इस सभ्यता की उनसे ज़्यादा तीव्र आलोचना शायद ही कोई कर सके। इस बार यों ही अँग्रेज़ों के समय-नियंत्रण की चर्चा चल गई। मैंने कहा -- इस विषय में हमें अँग्रेज़ों से सबक़ लेना चाहिए। बस, आप तड़पकर उठ बैठे और उन्मत्त स्वर में बोले -- कभी नहीं, प्रलय तक नहीं। मैं इस नियंत्रण को स्वार्थ का स्तंभ, अहंकार का हिमालय और दुर्जनता का सहारा समझता हूँ। एक व्यक्ति मुसीबत का मारा आपके पास आता है। मालूम नहीं, कौन-सी ज़रूरत उसे आपके पास खींच लायी है; लेकिन आप फ़रमाते हैं -- मेरे पास समय नहीं। यह उन्हीं लोगों का व्यवहार है, जो धन को मनुष्यता के ऊपर समझते हैं, जिनके लिए जीवन केवल धन है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह कभी इस नीति को पसंद न करेगा। हमारी सभ्यता धन को इतना ऊँचा स्थान नहीं देती थी। हम अपने द्वार हमेशा खुले रखते थे। जिसे जब ज़रूरत हो, हमारे पास आये।हम पूर्ण सभ्यता से उसका वृत्तांत सुनेंगे और उसके हर्ष या शोक में शरीक होंगे। अच्छी सभ्यता है! जिस सभ्यता की स्पिरिट स्वार्थ हो, वह सभ्यता नहीं है; संसार के लिए अभिशाप है; समाज के लिए विपत्ति है।

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इस तरह धर्म के विषय में भी दंपति में काफ़ी वितंडा होता रहता था। देवीजी हिंदू धर्म की अनुगामिनी थीं, आप इस्लामी सिद्धांतों के क़ायल थे; मगर अब आप भी पक्के हिंदू हैं; बल्कि यों कहिए कि आप मानवधर्मी हो गए हैं! एक दिन बोले -- मेरी कसौटी तो है मानवता! जिस धर्म में मानवता को प्रधानता दी गई है, बस, उसी धर्म का दास हूँ। कोई देवता हो या नबी या पैग़ंबर, अगर वह मानवता के विरुद्ध कुछ कहता है, तो मेरा उसे दूर से सलाम है। इसलाम का मैं इसलिए क़ायल था कि वह मनुष्य मात्र को एक समझता है, ऊँच-नीच का वहाँ कोई स्थान नहीं है; लेकिन अब मालुम हुआ कि यह ममता और भाईपन व्यापक नहीं, केवल इसलाम के दायरे तक परिमित है। दूसरे शब्दों में, अन्य धर्मों की भाँति यह गुटबंदी है और इसके सिद्धांत केवल उस गुट या समूह को सबल और संगठित बनाने के लिए रचे गए हैं। और जब मैं देखता हूँ कि यहाँ भी जानवरों की क़ुरबानी शरीयत में दाख़िल है और हरेक मुसलमान के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेड़, बकरी, गाय या ऊँट की क़ुरबानी फ़र्ज़ बताई गई है, तो मुझे उसके अपौरुषेय होने में संदेह होने लगता है। हिंदुओं में एक संप्रदाय पशु-बलि को अपना धर्म समझता है। यहूदियों, ईसाइयों और अन्य मतों में भी क़ुरबानी की महिमा गायी गई है। इसी तरह एक समय नर-बलि का भी रिवाज़ था। आज भी कहीं-कहीं उस संप्रदाय के नामलेवा मौजूद हैं, मगर क्या सरकार ने नर-बलि को अपराध नहीं ठहराया और ऐसे मज़हबी दीवानों को फाँसी नहीं दी? अपने स्वाद के लिए अपने भेड़ को ज़बह कीजिए, या गाय, ऊँट या घोड़े को, मुझे कोई आपत्ति नहीं। लेकिन धर्म के नाम पर क़ुरबानी मेरी समझ में नहीं आती। अगर आज इन जानवरों का राज हो जाए, तो कहिए, वे इन क़ुरबानियों के जवाब में हमें और आपको क़ुरबान कर दें या नहीं? मगर हम जानते हैं, जानवरों में कभी यह शक्ति न आएगी, इसलिए हम बेधड़क क़ुरबानियाँ करते हैं। स्वार्थ और लोभ के लिए हम चौबीसों घंटे अधर्म करते हैं। कोई ग़म नहीं, लेकिन क़ुरबानी का पुण्य लूटे बग़ैर हमसे नहीं रहा जाता। तो जनाब, मैं ऐसे रक्तशोषक धर्मों का भक्त नहीं। यहाँ तो मानवता के पुजारी हैं, चाहे इसलाम में हों या हिंदू धर्म में या बौद्ध में या ईसाइयत में; अन्यथा मैं विधर्मी ही भला। मुझे किसी मनुष्य से केवल इसलिए द्वेष तो नहीं है कि वह मेरा सहधर्मी नहीं है। मैं किसी का ख़ून तो नहीं बहाता, इसलिए कि मुझे पुण्य होगा।

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इस तरह के कितने ही परिवर्तन महाशयजी के विचारों में आ गए।

और महाशयजी के पास संभाषण का केवल एक ही विषय है, जिससे वह कभी नहीं थकते और वह है -- उन स्वर्गवासिनी का गुणगान। कोई मेहमान आ जाए, आप बावले से इधर-उधर दौड़ रहे हैं, कुछ नहीं सूझता, कैसे उसकी ख़ातिर करें। क्षमा-याचना के लिए शब्द ढूँढ़ते फिरते हैं -- भाईजान, मैं आपकी क्या ख़ातिर करूँ, जो आपकी सच्ची ख़ातिर करता, वह नहीं रहा। इस वक़्त तक आपके सामने चाय और टोस्ट और बादाम का हलवा आ जाता। संतरे और सेब छिले-छिलाए तश्तरियों में रख दिए जाते। मैं तो निरा उल्लू हूँ, भाई साहब -- बिलकुल काठ का उल्लू। मुझमें जो कुछ अच्छा था, वह सब उसका प्रसाद था। उसी की बुद्धि से मैं बुद्धिमान् था, उसी की सज्जनता से सज्जन,उसी की उदारता से उदार। अब तो निरा मिट्टी का पुतला हूँ भाई साहब, बिलकुल मुर्दा। मैं उस देवी के योग्य न था। न जाने किन शुभ-कर्मों के फल से वह मुझे मिली थी। आइए, आपको उसकी तसवीर दिखाऊँ। मालूम होता है, अभी-अभी उठकर चली गई है। भाई साहब, आपसे साफ़ कहता हूँ, मैंने ऐसी सुंदरी कभी नहीं देखी। उसके रूप में केवल रूप की गरिमा ही न थी; रूप का माधुर्य भी था और मादकता भी, एक-एक अंग साँचे में ढला था, साहब! आप उसे देखकर कवियों ने नख-शिख को लात मारते।

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आप उत्सुक नेत्रों से वह तस्वीर-देखते हैं। आपको उसमें कोई विशेष सौंदर्य नहीं मिलता। स्थूल शरीर है, चौड़ा-सा मुँह, छोटी-छोटी आँखें, रंग-ढंग से दहकानीपन झलक रहा है। पर उस तसवीर की ख़ूबियाँ कुछ इस अनुराग और इस आडंबर से बयान किए जाते हैं कि आपको सचमुच उस चीज़ में सौंदर्य का आभास होने लगता है। इस गुणानुवाद में जितना समय जाता है, वही महाशयजी के जीवन के आनंद की घड़ियाँ हैं। इतनी ही देर में वह जीवित रहते हैं। शेष जीवन निरानंद है, निस्पंद है।

पहले कुछ दिनों तक वह हमारे साथ हवा खाने जाते रहे -- वह क्या जाते रहे, मैं ज़बरदस्ती ठेल-ठालकर ले जाता रहा, लेकिन रोज़ आध घंटे तक उनका इंतज़ार करना पड़ता था। किसी तरह घर से निकलते भी, तो जनवासी चाल से चलते और आध मील में ही हिम्मत हार जाते और लौट चलने का तक़ाज़ा करने लगते। आख़िर मैंने उन्हें साथ ले जाना छोड़ दिया। और तबसे उनकी चहलक़दमी चालीस क़दम रह गई है। सैर क्या है -- बेगार है, और वह भी इसलिए कि देवीजी के सामने उनका यह नियम था।

एक दिन उन्के द्वार के सामने से निकला, तो देखा कि ऊपर की खिड़कियाँ, जो बरसों से बंद पड़ी थीं, खुली हुई हैं। अचरज हुआ। द्वार पर नौकर बैठा नारियल पी रहा था। उससे पूछा, तो मालूम हुआ, आप घूमने गये हैं। मुझे मीठा विस्मय हुआ। आज यह नई बात क्यों! इतने सबेरे तो यह कभी नहीं उठते। जिस तरफ़ वह गये थे, उधर ही मैंने भी क़दम बढ़ाए। इधर एक हफ़्ते के लिए मैं एक नेवते में चला गया था। इस बीच यह क्या काया-पलट हो गई। ज़रूर कोई न कोई रहस्य है। और भला आदमी निकल कितनी दूर गया। दो मील तक कहीं पता नहीं। मैं निराश हो गया; मगर यह महाशय रास्ते में कहाँ रह गए, यहाँ तो किसी से उनकी मुलाक़ात भी नहीं है, जहाँ ठहर गए हों। कुछ चिंता भी हो रही थी। कहीं कुएँ में तो नहीं कूद पड़े। मैं लौटने ही वाला था कि आप लौटते हुए नज़र आए। चित्त शांत हुआ। आज तो कैंड़ा ही और था। बाल नए फ़ैशन से कटे हुए, मूँछें साफ़, दाढ़ी चिकनी, चेहरा खिला हुआ, चाल में चपलता, सूट पुराना, ब्रश किया हुआ और शायद इस्तरी भी की हुई, बूट पर ताज़ा पालिश। मुस्कराते चले आते थे। मुझे देखते ही लपककर हाथ मिलाया और बोले -- आज कई दिन के बाद मिले! कहीं गये थे क्या?

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मैंने अपने ग़ैरहाज़िरी का कारण बताकर कहा -- मैं डरता हूँ, आज तुम्हें नज़र न लग जाए। अब मैं नित्य तुम्हारे साथ घूमने आया करूँगा। आज बहुत दिनों के बाद तुमने आदमी का चोला धारण किया है।

झेंपकर बोले -- नहीं भई, मुझे अकेला ही रहने दो। तुम लगोगे दौड़ने और ऊपर से घुड़कियाँ भी जमाओगे। मैं अपने हौले-हौले चला जाता हूँ। जब थक जाता हूँ, कहीं बैठ लेता हूँ। मेरा तुम्हारा क्या साथ?

{यह दशा तो तुम्हारी एक सप्ताह पहले थी। आज तो तुम बिलकुल अप-टू-डेट हो। इस चाल से तो शायद मैं तुमसे पीछे ही रहूँगा।}

{तुम तो बनाने लगे।}

{मैं कल से तुम्हारे साथ घूमने आऊँगा। मेरा इंतज़ार करना।}

{नहीं भई, मुझे दिक़ न करो। मैं आजकल बहुत सबेरे ही उठ जाता हूँ। रात को नींद नहीं आती। सोचता हूँ, लाओ टहल ही आऊँ। तुम मेरे साथ क्यों परेशान होगे।}

मेरा विस्मय बढ़ता जा रहा था। यह महाशय महेशा मेरे पैरों पड़ते रहते थे कि मुझे भी साथ ले लिया करो। जब मैंने इनकी मंथरता से हारकर इनका साथ छोड़ दिया, तब इन्हें बड़ा दुःख हुआ। दो-एक बार मुझसे शिकायत भी की -- हाँ भई, अब क्यों साथ दोगे! अभागों का साथ किसी ने दिया है, या तुम नई नीति निकालोगे? ज़माने का दस्तूर है, जो लँगड़ाता हो, उसे ढकेल दो; बीमार हो, उसे ज़हर दे दो, और यही आदमी आज मुझसे पीछा छुड़ा रहा है। यह क्या रहस्य है? यह चपलता, प्रसन्नता और सजीवता कहाँ से आ गई? कहीं आपने बंदर की गिल्टी तो नहीं लगवा ली? यह नया सिविल सार्जन गिल्टी-आरोपण-कला में सिद्धहस्त। मुमकिन है, इन्हें किसी ने सुझा दिया हो और आपने हज़ार-पाँच सौ ख़र्च करके गिल्टी बदलवा ली हो।इस पहेली को बुझे बग़ैर हमें चैन कहाँ? उनके सात ही लौट पड़ा।

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दो-चार क़दम चलकर मैंने पूछा -- सच बताओ, भाईजान! गिल्टी-विल्टी तो नहीं लगवा ली?

उन्होंने प्रश्न की आँखों से देखा -- कैसी गिल्टी? मैंने नहीं समझा।

{मुझे संदेह हो रहा है कि तुमने बंदर की गिल्टियाँ लगवा ली है।}

{अरे यार, क्यों कोसते हो। गिल्टियाँ किस लिए लगवाता? मुझे तो इसका कभी ख़याल भी नहीं आया।}

{तो क्या कोई बिजली का यंत्र मँगवा लिया है?}

{तुम आज मेरे पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हो? विधवा भी तो कभी सिंगार कर लेती है? जी ही तो है। एक दिन मुझे अपने आलस्य और बेदिली पर खेद हुआ। मैंने सोचा, जब संसार में रहना है, तो ज़िंदों की तरह क्यों न रहूँ। मुर्दों की तरह जीने से क्या फ़ायदा। बस, और न कोई बात है, न रहस्य।}

मुझे इस व्याख्या से संतोष न हुआ। दूसरे दिन ज़रा और सबेरे आकर मुंशीजी के द्वार पर आबाज़ दी; लेकिन आज भी आप निकल चुके थे। मैं उनके पीछे भागा। ज़िद पड़ गई की इसे अकेले न जाने दूँगा। देखूँ कब तक मुझे भागता है। कोई रहस्य है अवश्य। अच्छा बचा, आधी रात को आकर बिस्तर न उठाऊँ तो सही। दौड़ तो न सका; लेकिन जितना तेज़ चल सकता था, चला। एक मील के बाद आप नज़र आए। बगटुट भागे चेले जा रहे थे। अब मैं बार-बार पुकार रहा हूँ -- हज़रत, ज़रा ठहर जाइए मेरी साँस फूल रही है; मगर आप हैं कि सुनते ही नहीं। आख़िर जब मैंने अपने सिर की क़सम दिलायी, तब जाकर आप रुके। मैं झपाटे से पहुँचा, तो तिनककर बोले -- मैंने तो तुमसे कह दिया था, मेरे घर मत आना, फिर क्यों आये और क्यों मेरे पीछे पड़े? मुझे अपने धीरे-धीरे घूमने दो। तुम अपना रास्ता लो।

मैंने उनका हाथ पकड़कर ज़ोर से एक झटका दिया और बोला -- देखो, होरीलाल, मुझे उड़ो नहीं, वरना मुझे जानते हो, कितना बेमुरौवत आदमी हूँ। तुम यह धीरे-धीरे टहल रहे हो या डबल मार्च कर रहे हो, मेरी पिंडलियों में दर्द होने लगा और पसलियाँ दुख रही हैं। डाक का हरकारा भी तो इस चाल से नहीं दौड़ता। उस पर ग़ज़ब यह कि तुम थके नहीं हो, अब भी उसी दम-ख़म के साथ चले जा रहे हो। अब तो तुम डंडे लेकर भगाओ, तो भी तुम्हारा दामन न छोड़ूँ। तुम्हारे साथ दो मील चलूँगा, तो अच्छी ख़ासी कसरत हो जाएगी, मगर अब साफ़-साफ़ बतलाओ, बात क्या है। तुममें यह जवानी कहाँ से आ गई? अगर किसी अकसीर का सेवन कर रहे हो, तो मुझे भी दो। कम से कम उसे मँगाने का पता दो, मैं मँगवा लूँगा; अगर किसी दुआ-ताबीज़ की करामात है, तो मुझे भी उस पीर के पास ले चलो।

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मुस्कराकर बोले -- तुम तो पागल हो, झूठ-मूठ मुझे दिक़ कर रहे हो। बूढ़े हो गए, मगर लड़कपन न गया। क्या तुम चाहते हो कि मैं हमेशा उसी तरह मुर्दा पड़ा रहूँ? इतना भी तुमसे नहीं देखा जाता! तब तो तुम्हारे मिज़ाज ही न मिलते थे। कितनी चिरौरी की कि भाईजान, मुझ भकुवे को भी साथ ले लिया करो। मगर आप नख़रे दिखाने लगे। अब क्यों मेरे पीछे पड़े हो? यह समझ लो, जो आदमी मदद आप करता है, उसकी मदद परमात्मा भी करते हैं। मित्रों और बंधुओं की मुरौवत देख ली। अब अपने बूते पर चलूँगा।

वह इसी तरह मुझे कोसते जा रहे थे और मैं उन्हें छेड़-छेड़कर और भी उत्तेजित कर रहा था कि एकाएक उन्होंने उँगली मुँह पर रखकर मुझे चुप रहने का इशारा किया, और ज़रा क़द और सीधा करके और चेहरे पर प्रसन्नता और पुरुषार्थ का रंग भर, मस्तानी चाल से चलने लगे। मेरी समझ में ज़रा भी न आया, यह संकेत और बहुरूप किस लिए? वहाँ तो कोई दूसरा था भी नहीं। हाँ, सामने से एक स्त्री चली आ रही थी; मगर उसके सामने इस पर्देदारी की क्या ज़रूरत? मैंने तो उसे कभी देखा भी न था। आसमानी रंग की रेशमी साड़ी, जिस पर पीला लैस टका था, उस पर ख़ूब खिल रही थी। रूपवती कदापि न थी, मगर रूप से ज़्यादा मोहक थी उसकी सरलता और प्रसन्नता। एक बहुत ही मामूली शक्ल-सूरत की औरत इतनी नयनाभिराम हो सकती है, यह मैं न समझ सकता था।

उसने होरीलाल के बराबर आकर नमस्कार किया। होरीलाल ने जवाब में सिर तो झुका दिया, मगर बिना कुछ बोले आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने कोयल के स्वर में कहा -- क्या अब लौटिएगा नहीं? आप अपनी सीमा से आगे बढ़े जारहे हैं। और हाँ, आज तो आपने मुझे देवीजी की तसवीर देने का वादा किया था। शायद भूल गए, आपके साथ चलूँ?

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महाशयजी कुछ ऐसे बौखलाए हुए थे, कि मामूली शिष्टाचार भी न कर सके। यों वह बड़े ही भद्र पुरुष हैं और शिष्टाचार में निपुण; लेकिन इस वक़्त जैसे उनके हाथ-पाँव फूले हुए थे। एक क़दम और आगे बढ़कर बोले -- आप क्षमा कीजिए। मैं एक काम से जा रहा हूँ।

महिला ने कुछ चिढ़कर कहा -- आप तो जैसे भागे जा रहे हैं। मुझे तसवीर दीजिएगा या नहीं?

महाशयजी ने मेरी ओर कुपित नेत्रों से देखकर कहा -- तलाश करूँगा।

सुंदरी ने शिकायत के स्वर में कहा -- आपने तो फ़रमाया था कि वह हमेशा आपकी मेज़ पर रहती है। और सब आप कहते हैं -- तलाश करूँगा। आपकी तबियत तो अच्छी है? जबसे आपने उनका चरित्र सुनाया है, मैं उनके दर्शनों के लिए व्याकुल हो रही हूँ। अगर आप यों न देंगे, तो मैं आपकी मेज़ पर से उठा ले जाऊँगी (मेरी ओर देखकर) आप मेरी मदद कीजिएगा महाशय! यद्यपि मैं जानती हूँ, आप इनके मित्र हैं और इनके साथ दग़ा न करेंगे। आपको ताज्जुब हो रहा होगा, यह कौन औरत महाशयजी से इतनी निस्संकोच होकर बातें कर रही है। इनसे पहली बार मेरा परिचय सब्ज़ी-मंडी में हुआ था। मैं शाक-भाजी ख़रीदने गयी हुई थी। अपनी भाजी मैं ख़ुद लाती हूँ। जिस चीज़ पर जीवन का आधार है, उसे नौकरों के हाथ नहीं छोड़ना चाहती। भाजी लेकर मैंने दाम देने के लिए रुपया निकाला, तो कुँजड़े ने उसे ठनकारकर कहा -- दूसरा रुपया दो, यह खोटा है। अब मैंने जो ख़ुद ठनकारा, तो मालूम हुआ, सचमुच कुछ ठस है। अब क्या करूँ! मेरे पास दूसरा रुपया न था, यद्यपि इस तरह के कटु अनुभव मुझे कितनी ही बार हो चुके हैं; मगर घर से रुपया लेकर चलते वक़्त मुझे उसे परख लेने की याद नहीं रहती। न किसी से लेती ही बार परखती हूँ। इस वक़्त मेरे संदूक़ में ज़्यादा नहीं, तो बीच-पचीस खोटे रुपये पड़े होंगे और रेजगारियाँ तो सैकड़ों की ही होंगी। मेरे लिए अब इसके सिवाय दूसरा उपाय न था कि भाजी लौटाकर ख़ाली हाथ चली आऊँ। संयोग से महाशयजी उसी दूकान पर भाजी लेने आये थे। मुझे इस विपत्ति में देखकर आपने तुरंत एक रुपया निकालकर दे दिया ॰॰॰

महाशयजी ने बात काटकर कहा -- तो इस वक़्त आप वह सारी कथा क्यों सुना रही हैं? हम दोनों एक ज़रूरी काम से जा रहे हैं। व्यर्थ में देर हो रही है।

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उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा।

मुझे उनकी यह अभद्रता बुरी लगी। कुछ-कुछ इसका रहस्य भी समझ में आ गया। बोला -- तो आप जाइए, मुझे ऐसा कोई ज़रूरी काम नहीं है। मैं भी अब लौटना चाहता हूँ।

महाशयजी ने दाँत पीस लिए। अगर वह सुंदरी वहाँ न होती, तो न जाने मेरी क्या दुर्दशा करते। एक क्षण मेरी ओर अग्नि-भरे नेत्रों से ताकते रहे, मानो कह रहे हों, -- अच्छा बच्चा; इसका मज़ा न चखाया तो कहना; और चल दिए। मैं देवी के साथ लौटा।

सहसा उसने हिचकिचाते हुए कहा -- मगर नहीं, आप जाइए, मैं उनके साथ जाऊँगी। शायद मुझसे नाराज़ हो गए हैं। आज एक सप्ताह से मेरा और उनका रोज़ साथ हो जाता और अब अपनी जीवन-कथा सुनाया करते हैं। कैसी नसीब वाली थी वह औरत, जिसका पति आज भी उसके नाम की पूजा करता है। आपने उन्हें देखा होगा। क्या सचमुच इन पर जान देती थीं?

मैंने गर्व से कहा -- दोनों में इश्क़ था।

{और जब से उनका देहांत हुआ, यह दुनिया से मुँह मोड़ बैठे?}

{इससे भी अधिक! उसकी स्मृति के सिवाय जीवन में इनके लिए कोई रस ही न रहा।}

{वह रूपवती थीं?}

{इनकी दृष्टि में तो उससे बढ़कर रूपवती संसार में न थी।}

उसने एक मिनट तक किसी विचार में मग्न रहकर कहा -- अच्छा, आप जाएँ। मैं उनके साथ बात करूँगी। ऐसे देवता पुरुष की मुझसे जो सेवा हो सकती है, उनमें क्यों दरेग़ करूँ? मैं तो उनका वृत्तांत सुनकर सम्मोहित हो गई हूँ।

मैं अपना-सा मुँह लेकर घर चला आया। इत्तफ़ाक से उसी दिन मुझे एक ज़रूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा। वहाँ से एक महीन में लौटा। और सबसे पहला काम जो मैंने किया, वह महाशय होरीलाल का क्षेम-कुशल पूछना था। इस बीच में क्या-क्या नई बातें हो गईं -- यह जानने के लिए अधीर हो रहा था। दिल्ली से इन्हें एक पत्र लिखा था; पर इन हज़रत में यह बुरी आदत है कि पत्रों का जवाब नहीं देते। उस सुंदरी से इनका अब क्या संबंध है, आमद-रफ़्त है, या बंद हो गई, उसने इनके पत्नी-व्रत का पुरस्कार दिया या देनेवाली है? इस तरह के प्रश्न दिल में उबल रहे थे।

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मैं महाशयजी के घर पहुँचा, तो आठ बज रहे थे। खिड़कियों के पट बंद थे। सामने बरामदे मे कूड़े-करकट का ढेर था। वही दशा थी, जो पहले नज़र आती थी। चिंता और बढ़ी। ऊपर गया तो देखा, आप उसी फ़र्श पर पड़े हुए -- जहाँ दुनिया भर की चीज़ें बेढंगेपन से अस्त-व्यस्त पड़ी हुई हैं -- एक पत्रिका के पन्ने उलट रहे हैं। शायद एक सप्ताह से बाल नहीं बने थे। चेहरे पर ज़र्दी छायी थी।

मैंने पूछा -- आप सैर करके लौट आये क्या?

सिटपिटाकर बोले -- अजी, सैर-सपाटे को कहाँ फ़ुर्सत है भई, और फ़ुर्सत भी हो, तो वह दिल कहाँ है। तुम तो कहीं बाहर गये थे?

{हाँ, ज़रा देहली तक गया था। अब सुंदरी से आपकी मुलाक़ात नहीं होती?}

{इधर तो बहुत दिनों से नहीं हुई।}

{कहीं चली गयी क्या?}

{मुझे क्या ख़बर।}

{मगर आप तो उस पर बेतरह रीझे हुए थे।}

{मैं उस पर रीझा! आप सनक तो नहीं गए हैं। जिस पर रीझा था, उसी ने साथ न दिया, तो अब दूसरों पर क्या रीझूँगा?}

मैंने बैठकर उनकी गर्दन में हाथ डाल दिया और धमकाकर बोला -- देखो होरीलाल, मुझे चकमा न दो। पहले मैं तुम्हें ज़रूर व्रतधारी समझता था, लेकिन तुम्हारी वह रसिकता देखकर, जिसका दौरा तुम्हारे ऊपर एक महीना पहले हुआ था, मैं यह नहीं मान सकता कि तुमने अपनी अभिलाषाओं को सदा के लिए दफ़न कर दिया है। इस बीच में जो कुछ हुआ है, उसका पूरा-पूरा वृत्तांत मुझे सुनाना पड़ेगा, वरना समझ लो, मेरी तुम्हारी दोस्ती का अंत है।

होरीलाल की आँखें सजल हो गईं। हिचक-हिचककर बोले -- मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय मत करो, भाईजान! अगर तुम्हीं मुझ पर ऐसे संदेह करने लगोगे तो मैं कहीं का न रहूँगा। उस स्त्री का नाम मिस इंदिरा है। यहाँ जो लड़कियों का हाईस्कूल है, उसी की हेद मिस्ट्रेस होकर आयी है। मेरा उससे कैसे परिचय हुआ, यह तुम्हें मालूम ही है। उसकी सहृदयता ने मुझे उसका प्रेमी बना दिया। इस उम्र में और शोक का यह भार सिर पर रखे हुए, सहृदयता के सिवा मुझे उसकी ओर और कौन-सी चीज़ खींच सकती थी? मैं केवल अपनी मनोव्यथा की कहानी सुनाने के लिए नित्य विरहियों की उमंग के साथ उसके पास जाता था। वह रूपवती है, ख़ुशमिज़ाज है, दूसरों का दुःख समझती है और स्वभाव की बहुत कोमल है, लेकिन तुम्हारी भाभी से उसकी क्या तुलना? वह तो स्वर्ग की देवी थी। उसने मुझ पर जो रंग जमा दिया, उस पर दूसरा रंग क्या जमेगा! मैं उसी ज्योति से जीवित था। उस ज्योति के साथ मेरा जीवन भी बिदा हो गया। अब तो मैं उसी प्रतिमा का उपासक हूँ, जो मेरे हृदय में है। किसी हमदर्द की सूरत देखता हूँ, तो निहाल हो जाता हूँ और अपनी दुःख कथा सुनाने दौड़ता हूँ। यह दुर्बलता है, यह जानता हूँ, मेरे सभी मित्र इसी कारण मुझसे भागते हैं, यह भी जानता हूँ। लेकिन क्या करूँ भैया; किसी न किसी को दिल की लगी सुनाए बग़ैर मुझसे नहीं रहा जाता। ऐसा मालूम होता है, मेरा दम घुट जाएगा। इसीलिए अब मिस इंदिरा की मुझ पर दया हुई, तो मैंने इसे दैवी अनुरोध समझा और उस धुन में -- जिसे मेरे मित्रवर्ग दुर्भाग्यवश उन्माद समझते हैं -- वह सब कुछ कह गया, जो मेरे मन में था, और है, एवं मरते दम तक रहेगा। उन शुभ दिनों की याद कैसे भुला दूँ? मेरे लिए तो वह अतीत वर्तमान से भी ज़्यादा सजीव और प्रत्यक्ष है। मैं तो अब भी उसी अतीत में रहता हूँ। मिस इंदिरा को मुझ पर दया आ गई। एक दिन उन्होंने मेरी दावत की और कई स्वादिष्ट खाने अपने हाथ से बनाकर खिलाए। दूसरे दिन मेरे घर आयीं और यहाँ सारी चीज़ों को व्यवस्थित रूप में सजा गईं। तीसरे दिन कुछ कपड़े लायीं और मेरे लिए ख़ुद एक सूट तैयार किया! इस कला में बड़ी चतुर हैं!

p.308

{एक दिन शाम को क़्वींस पार्क में मुझसे बोलीं -- आप अपनी शादी क्यों नहीं कर लेते?

p.309

{मैंने हँसकर कहा -- इस उम्र में अब शादी क्या करूँगा इंदिरा! दुनिया क्या कहेगी?

मिस इंदिरा बोली -- आपकी उम्र अभी ऐसी क्या है। आप चालीस से ज़्यादा नहीं मालूम होते।

{मैंने उनकी भूल सुधारी -- मेरा पचासवाँ साल है।

{उन्होंने मुझे प्रोत्साहन देकर कहा -- उम्र का हिसाब साल से नहीं होता, महाशय; सेहत से होता है। आपकी सेहत बहुत अच्छी है। कोई आपको पान की तरह फेरनेवाला चाहिए। किसी युवती के प्रेम-पाश में फँस जाइए, फिर देखिए, यह नीरसता कहाँ ग़ायब हो जाती है।

{मेरा दिल धड़-धड़ करने लगा। मैंने देखा, मिस इंदिरा के गोरे मुख-मंडल पर हलकी-सी लाली दौड़ गई है। उनकी आँखें शर्म से झुक गई हैं और कोई बात बार-बार उनके होठों तक आकर लौट जाती है। आख़िर उन्होंने आँख उठायी और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं -- अगर आप समझते हों कि मैं आपकी कुछ सेवा कर सकती हूँ, तो मैं हर तरह हाज़िर हूँ, मुझे आपसे जो भक्ति और प्रेम है, वह इसी रूप में चरितार्थ हो सकता है।

{मैंने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया और काँपते हुए स्वर में बोला -- मैं तुम्हारी इस कृपा को कहाँ तक धन्यवाद दूँ, मिस इंदिरा; मगर मुझे ख़ेद है कि मैं सजीव मनुष्य नहीं, केवल मधुर स्मृतियों का पुतला हूँ। मैं उस देवी की स्मृति को अपनी लिप्सा और तुम्हारी सहानुभूति को अपनी आसक्ति से भ्रष्ट नहीं करना चाहता।}

{मैंने इसके बाद बहुत-सी चिकनी-चुपड़ी बातें कीं, लेकिन वह जब तक यहाँ रहीं, मुँह से कुछ न बोलीं। जाते समय भी उनकी भँवें तनी हुई थीं। मैंने अपने आँसुओं से उनकी ज्वाला को शांत करना चाहा; लेकिन कुछ असर न हुआ, तबसे वह नज़र नहीं आयीं। न मुझे ही हिम्मत पड़ी कि उनकी तलाश करता, हालाँकि चलती बर उन्होंने मुझसे कहा था -- जब आपको कोई कष्ट हो और आप मेरी ज़रूरत समझें, तो मुझे बुला लीजिएगा।}

होरीलाल ने अपनी कथा समाप्त करके मेरी ओर ऐसी आँखों से देखा, जो चाहती थीं कि मैं उनके व्रत और संतोष की प्रशंसा करूँ; मगर मैंने उनकी भर्त्सना की -- कितने बदनसीब हो तुम होरीलाल, मुझे तुम्हारे ऊपर दया भी आती है और क्रोध भी! अभागे, तेरी ज़िंदगी सँवर जाती। वह स्त्री नहीं थी, ईश्वर की भेजी कोई देवी थी, जो तेरे अँधरे जीवन को अपनी मधुर ज्योति से आलोकित करने के लिए आयी थी, तूने स्वर्ण का-सा अवसर हाथ से खो दिया।

p.310

होरीलाल ने दीवार पर लटके हुए अपनी पत्नी के चित्र की ओर देखा और प्रेम-पुलकित स्वर में बोले -- मैं तो उसी का आशिक़ हूँ भाईजान, और उसी का आशिक़ रहूँगा।