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भूत

मुरादाबाद के पंडित सीताराम चौबे गत ३० वर्षों से वहाँ के वकीलों के नेता हैं। उनके पिता उन्हें बाल्यावस्था में ही छोड़कर परलोक सिधारे थे। घर में कोई संपत्ति न थी। माता ने बड़े-बड़े कष्ट झेलकर उन्हें पाला और पढ़ाया। सबसे पहले वह कचहरी में १५ रु॰ मासिक पर नौकर हुए। फिर वकालत की परीक्षा दी। पास हो गए। प्रतिभा थी, दो-ही-चार वर्षों में वकालत चमक उठी। जब माता का स्वर्गवास हुआ, तब पुत्र का शुमार जिले के गण-मान्य व्यक्तियों में हो गया था। उनकी आमदनी एक हज़ार रुपये महीने से कम न थी। एक विशाल भवन बनवा लिया था; कुछ ज़मींदारी ले ली थी, कुछ रुपये बैंक में रख दिये और कुछ लेन-देन में लगा दिए थे। इस समृद्धि पर चार पुत्रों का होना उनके भाग्य को आदर्श बनाए हुए था। चारों लड़के भिन्न-भिन्न दर्जों में पढ़ते थे। मगर यह कहना कि सारी विभूति चौबेजी के अनवरत परिश्रम का फल थी, उनकी पत्नी मंगला देवी के साथ अन्याय करना है।

मंगला बड़ी सरल, गृह-कार्य में कुशल और पैसे का काम धेले में चलाने-वाली स्त्री थी। जब तक अपना घर न बना, उसने ३ रु॰ महीने से अधिक का मकान किराए पर नहीं लिया; और रसोई के लिए मिसराइन तो उसने अब तक न रखी थी। उसे अगर कोई व्यसन था, तो गहनों का; और चौबेजी को भी अगर कोई व्यसन था, तो स्त्री को गहने पहनाने का। वह सच्चे पत्नी-परायण मनुष्य थे। साधारणतः महफ़िलों में वेश्याओं से हँसी-मज़ाक़ कर लेना उतना बुरा नहीं समझा जाता; पर पंडितजी अपने जीवन में कभी नाच-गाने की महफ़िलों में गये ही नहीं। पाँच बजे तड़के से लेकर बारह बजे रात तक उनका व्यसन, मनोरंजन, पढ़ना-लिखना, अनुशीलन जो कुछ था, क़ानून था। न उन्हें राजनीति से प्रेम था, न जाति-सेवा से। ये सभी काम उन्हें व्यर्थ-से जान पड़ते थे। उनके विचार में अगर कोई काम करने लायक था, तो बस, कचहरी जाना, बहस करना, रुपए जमा करना और भोजन करके सो रहना। जैसे वेदांती को ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् मिथ्या जान पड़ता है, वैसे ही चौबेजी को क़ानून के सिवा सारा संसार मिथ्या प्रतीत होता था। सब माया थी, एक क़ानून ही सत्य था।

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चौबेजी के सुख-चंद्र में केवल एक कला की कमी थी। उनके कोई कन्या न थी। पहलौठी कन्या के बाद फिर कन्या हुई ही नहीं; और न अब होने की आशा ही थी। स्त्री-पुरुष, दोनों उस कन्या को याद करके रोया करते थे। लड़कियाँ बचपन में लड़कों से ज़्यादा चोंचले करती हैं। उन चोंचलों के लिए दोनों प्राणी विकल रहते। माँ सोचती, लड़की होती, तो उसके लिए गहने बनवाती, उसके बाल गूँथती। लड़की पैजनियाँ पहने ठुमुक-ठुमुक आँगन में चलती तो कितना आनंद आता! चौबेजी सोचते, कन्यादान के बिना मोक्ष कैसे होगा? कन्यादान महादान है। जिसने यह दान न दिया, उसका जन्म ही वृथा गया!

आख़िर यह लालसा इतनी प्रबल हुई कि मंगला ने अपनी छोटी बहन को बुलाकर कन्या की भाँति पालने का निश्चय किया। उनके माँ-बाप निर्धन थे। राज़ी हो गए। यह बालिका मंगला की सौतेली माँ की कन्या थी। बड़ी सुंदर और बड़ी चंचल थी। नाम था बिन्नी। चौबेजी का घर उसके आने से खिल उठा। दो-चार ही दिनों में लड़की अपने माँ-बाप को भूल गई! उसकी उम्र तो केवल चार वर्ष की थी; पर उसे खेलने की अपेक्षा कुछ काम करना अच्छा लगता था। मंगला रसोई बनाने जाती तो बिन्नी भी उसके पीछे-पीछे जाती, उससे आटा गूँधने के लिए झगड़ा करती। तरकारी काटने में उसे बड़ा मज़ा आता था। जब तक वकील साहब घर पर रहते, तब तक उनके साथ दीवान-खाने में बैठी रहती! कभी किताबें उलटती, कभी दावात-कलम से खेलती। चौबेजी मुस्कराकर कहते -- बेटी, मार खाओगी। बिन्नी कहती -- तुम मार खाओगे; मैं तुम्हारे कान काट लूँगी, जूजू को बुलाकर पकड़ा दूँगी। इस पर दीवानखाने में ख़ूब कहकहे उठते। वकील साहव कभी इनने बाल्यवत्सल न थे। अब बाहर से आते तो कुछ न कुछ सौगात बिन्नी के वास्ते ज़रूर लाते और घर में क़दम रखते ही पुकारते -- बिन्नी बेटी, चलो। बिन्नी दौड़ती हुई आकर उनकी गोद में बैठ जाती।

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मंगला एक दिन बिन्नी को लिये बैठी थी। इतने में पंडितजी आ गए। बिन्नी दौड़कर उनकी गोद में जा बैठी। पंडितजी ने पूछा -- तू किसकी बेटी है?

बिन्नी -- न बताऊँगी?

मंगला -- कह दे बेटा, जीजी की बेटी हूँ।

पंडित -- तू मेरी बेटी है बिन्नी कि इनकी?

बिन्नी -- न बताऊँगी।

पंडित -- अच्छा, हम लोग आँखें बंद किए बैठे हैं; बिन्नी जिसकी बेटी होगी, उसकी गोद में बैठ जाएगी।

बिन्नी उठी और फिर चौबेजी की गोद में बैठ गई।

पंडित -- मेरी बेटी है, मेरी बेटी है; (स्त्री से) अब न कहना कि मेरी बेटी है।

मंगला -- अच्छा, जाओ बिन्नी, अब तुम्हें मिठाई न दूँगी, गुड़ियाँ भी न मँगा दूँगी?

बिन्नी -- भैयाजी मँगवा देंगे, तुम्हें न दूँगी।

वकील साहब ने हँसकर बिन्नी को छाती से लगा लिया और गोद में लिये हुए बाहर चले गए। वह अपने इष्ट-मित्रों को भी उस बालक्रीड़ा का रसास्वादन कराना चाहते थे।

आज से जो कोई बिन्नी से पूछता कि तू किसकी बेटी है, तो बिन्नी चट कह देती -- भैया की।

एक बार बिन्नी का बाप आकर उसे अपने साथ ले गया। बिन्नी ने रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। इधर चौबेजी को भी दिन काटना कठिन हो गया। एक महीना भी न गुज़रने पाया था कि वह फिर ससुराल गये और बिन्नी को लिवा लाए। बिन्नी अपनी माता और पिता को भूल गई। वह चौबेजी को अपना बाप और मंगला को अपनी माँ समझने लगी। जिन्होंने उसे जन्म दिया था, वह ग़ैर हो गए।

कई साल गुज़र गए। वकील साहब के बेटों के विवाह हुए। उनमें से दो अपने बाल-बच्चों को लेकर अन्य ज़िलों में वकालत करने चले गए, दो कालेज में थे। बिन्नी भी कली से फूल हुई। ऐसी रूप-गुण-शीलवा ली बालिका बिरादरी में और न थी -- पढ़ने-लिखने में चतुर, घर के काम-धंधों में कुशल, बेटे-कसीदे और सीने-पिरोने में दक्ष, पाककला में निपुण, मधुर-भाषिणी, लज्जाशील, अनुपम रूप की राशि। अँधेरे घर में उसके सौंदर्य की दिव्य ज्योति से उजाला होता था। उषा की लालिमा में, ज्योत्स्ना की मनोहर छटा में, खिले हुए गुलाब के ऊपर सूर्य की किरणों से चमकते हुए तुषार-बिंदु में भी वह प्राणप्रद सुषमा और वह शोभा न थी, श्वेत हेम-मुकुटधारी पर्वत में भी वह शीतलता न थी, जो बिन्नी अर्थात् विंध्येश्वरी के विशाल नेत्रों में थी।

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चौबेजी ने बिन्नी के लिए सुतोग्य वर खोजना शुरू किया। लड़कों की शादियों में दिल का अरमान निकाल चुके थे। अब कन्या के विवाह में हौसले पूरे करना चाहते थे। धन लुटाकर कीर्ति पा चुके थे, अब दान-दहेज़ में नाम कमाने की लालसा थी। बेटे का विवाह कर लेना आसान है, पर कन्या के विवाह में आबरू निबाह ले जाना कठिन है। नौका पर सभी यात्रा करते हैं; जो तैरकर नदी पार करे, वही प्रशंसा का अधिकारी है।

धन की कमी न थी। अच्छा घर और सुयोग्य वर मिल गया। जन्मपत्र मिल गए, बनावत बन गया। फलदान और तिलक की रस्में अदा कर दी गईं। पर हाय रे दुर्देव! कहाँ तो विवाह की तैयारी हो रही थी, द्वार पर दरजी, सुनार, हलवाई, सब अपना-अपना काम कर रहे थे, कहाँ निर्दय विधाता ने और ही लीला रच दी! विवाह के एक सप्ताह पहले मंगला अनायास बीमार पड़ी, तीन ही दिन में अपने सारे अरमान लिये परलोक सिधार गई।

संध्या हो गई थी। मंगला चारपाई पर पड़ी हुई थी। बेटे, बहुएँ, पोते, पोतियाँ सब चारपाई के चारों ओर खड़े थे। बिन्नी पैंताने बैठी मंगला के पैर दबा रही थी। मृत्यु के समय की भयंकर निस्तब्धता छायी हुई थी। कोई किसी से न बोलता था; दिल में सब समझ रहे थे, क्या होनेवाला है। केवल चौबेजी वहाँ न थे।

सहसा मंगला ने इधर-उधर इच्छा-पूर्ण दृष्टि से देखकर कहा -- ज़रा उन्हें बुला दो; कहाँ हैं?

पंडितजी अपने कमरे में बैठे रो रहे थे। संदश पाते ही आँसू पोंछते हुए घर में आये बड़े धैर्य के साथ मंगला के सामने खड़े हो गए। डर रहे थे कि मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद भी निकली, तो घर में हाहाकार मच जाएगा।

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मंगला ने कहा -- एक बात पूछती हूँ -- बुरा न मानना -- बिन्नी तुम्हारी कौन है?

पंडित -- बिन्नी कौन है? मेरी बेटी है, और कौन?

मंगला -- हाँ, मैं तुम्हारे मुँह से यही सुनना चाहती थी। उसे सदा अपनी बेटी समझते रहना। उसके विवाह के लिए मैंने जो-जो तैयारियाँ की थीं, उनमें कुछ काट-छाँट मत करना।

पंडित -- इसकी कुछ चिंता न करो। ईश्वर ने चाहा, तो उससे कुछ ज़्यादा धूम-धाम के साथ विवाह होगा।

मंगला -- उसे हमेशा बुलाते रहना, तीज-त्योहार में कभी मत भूलना।

पंडित -- इन बातों की मुझे याद दिलाने की ज़रूरत नहीं।

मंगला ने कुछ सोचकर कहा -- इसी साल विवाह कर देना।

पंडित -- इस साल कैसे होगा?

मंगला -- यह फागुन का महीना है। जेठ तक लगन है।

पंडित -- हो सकेगा तो इसी साल कर दूँगा।

मंगला -- हो सकने की बात नहीं, ज़रूर कर देना।

पंडित -- कर दूँगा।

इसके बाद गोदान की तैयारी होने लगी।

बुढ़ापे में पत्नी का मरना बरसात में घर का गिरना है। फिर उसके बनने की आशा नहीं होती।

मंगला की मृत्यु से पंडितजी का जीवन अनियमित और विशृंखल-सा हो गया। लोगों से मिलना-जुलना छूट गया। कई-कई दिन कचहरी ही न जाते। जाते भी तो बड़े आग्रह से। भोजन से अरुचि हो गई। विंध्येश्वरी उनकी दशा देख-देखकर दिल में कुढ़ती और यथासाध्य उनका दिल बहलाने की चेष्टा किया करती थी। वह उन्हें पुराणों की कथाएँ पढ़कर सुनाती, उनके लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री पकाती और उन्हें आग्रह-अनुरोध के साथ खिलाती थी। जब तक वह न खा लेते, आप कुछ न खाती थी। गरमी के दिन थे ही। रात को बड़ी देर तक उनके पैताने बैठी पंखा झला करती, और जब तक वह न सो जाते, तब तक आप भी सोने न जाती। वह ज़रा भी सिर दर्द की शिकायत करते, तो तुरंत उनके सिर में तेल डालती। यहाँ तक कि रात को जब उन्हें प्यास लगती, तब ख़ुद दौड़कर आती और उन्हें पानी पिलाती। धीरे-धीरे चौबेजी के हृदय में मंगला केवल एक सुख की स्मृति रह गई।

एक दिन चौबेजी ने बिन्नी को मंगला के सब गहने दे दिये। मंगला का यह अंतिम आदेश था। बिन्नी फूली न समायी। उसने एक दिन ख़ूब बनाव-सिंगार किया। जब संध्या के समय पंडितजी कचहरी से आये, तो वह गहनों से लदी हुई उनके सामने कुछ लजाती और मुस्कराती हुई आकर खड़ी हो गई।

पंडितजी ने सतृष्ण नेत्रों से देखा। विंध्येश्वरी के प्रति अब उनके मन में एक नया भाव अंकुरित हो रहा था। मंगला जब तक जीवित थी, वह उनके पिता-पुत्रों के भाव को सजग और पुष्ट करती रहती थी। अब मंगला न थी। अतएव वह भाव दिन-दिन शिथिल होता जाता था। मंगला के सामने बिन्नी एक बालिका थी। मंगला की अनुपस्थिति में वह एक रूपवती युवती थी। लेकिन सरल हृदय बिन्नी को इसकी रत्ती भर भी ख़बर न थी कि भैया के भावों में क्या परिवर्तन हो रहा है। उसके लिए वह वही पिता के तुल्य भैया थे। वह पुरुषों के स्वभाव से अनभिज्ञ थी।

नारी-चरित्र में अवस्था के साथ मातृत्व का भाव दृढ़ होता जाता है। यहाँ तक कि एक समय ऐसा आता है, जब नारी की दृष्टि में युवक-मात्र पुत्र तुल्य हो जाते हैं। उसके मन में विषय-वासना का लेश भी नहीं रह जाता। किंतु पुरुषों में यह अवस्था कभी नहीं आती। उनकी कामेंद्रियाँ क्रियाहीन भले ही हो जायँ, पर विषय-वासना संभवतः और भी बलवती हो जाती है। पुरुष वासनाओं से कभी मुक्त नहीं हो पाता, बल्कि ज्यों-ज्यों अवस्था ढलती है, त्यों-त्यों ग्रीष्म-ऋतु के अंतिम काल की भाँति उसकी वासना की गरमी भी प्रचंड होती जाती है। वह तृप्ति के लिए नीच साधनों का सहारा लेने को भी प्रस्तुत हो जाता है। जवानी में मनुष्य इतना नहीं गिरता। उसके चरित्र में गर्व की मात्रा अधिक रहती है, जो नीच साधनों से घृणा करती है। वह किसी के घर में घुसने के लिए जबरदस्ती कर सकता है, किंतु परनाले के रास्ते नहीं जा सकता।

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पंडितजी ने बिन्नी को सतृष्ण नेत्रों से देखा, और फिर अपनी इस उच्छृं-खलता पर लज्जित होकर आँखें नीची कर लीं। बिन्नी इसका कुछ मतलब न समझ सकी।

पंडितजी बोले -- तुम्हें देखकर मुझे मंगला की उस समय की याद आ रही है -- जब वह विवाह के समय यहाँ आती थी। बिलकुल ऐसी ही सूरत थी -- यही गोरा रंग, यही प्रसन्न-मुख, यही कोमल गात, ये ही लजीली आँखें। वह चित्र अभी तक मेरे हृदय-पट पर खिंचा हुआ है, कभी नहीं मिट सकता। ईश्वर ने तुम्हारे रूप में मेरी मंगला मुझे फिर दे दी।

बिन्नी -- आपके लिए क्या जलपान लाऊँ?

पंडित -- ले आना, अभी बैठो, मैं बहुत दुखी हूँ। तुमने मेरे शोक को भुला दिया है। वास्तव में तुमने मुझे जिला लिया, नहीं तो मुझे आशा न थी कि मंगला के पीछे मैं जीवित रहूँगा। तुमने मुझे प्राणदान दिया। नहीं जानता, तुम्हारे चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी।

बिन्नी -- कहाँ चले जाने के बाद? मैं तो कहीं नहीं जा रही हूँ।

पंडित -- क्यों तुम्हारे विवाह की तिथि आ रही है। चली ही जाओगी।

बिन्नी -- (सकुचाती हुई) ऐसी जल्दी क्या है?

पंडित -- जल्दी क्यों नहीं है? ज़माना हँसेगा।

बिन्नी -- हँसने दीजिए। मैं यहीं आपकी सेवा करती रहूँगी।

पंडित -- नहीं बिन्नी, मेरे लिए तुम क्यों हलकान होगी। मैं अभागा हूँ, जब तक ज़िंदगी है, जिऊँगा; चाहे रोकर जिऊँ, चाहे हँसकर। हँसी मेरे भाग्य से उठ गई। तुमने इतने दिनों सँभाल लिया, यही क्या कम एहसान किया? मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारे जाने के बाद कोई ख़बर लेनेवाला नहीं रहेगा, यह घर तहस-नहस हो जाएगा, और मुझे घर छोड़कर भागना पड़ेगा। पर क्या किया जाए, लाचारी है। तुम्हारे बिना अब मैं क्षण भर भी नहीं रह सकता। मंगला की ख़ाली जगह तो तुमने पूरी की, अब तुम्हारा स्थान कौन पूरा करेगा?

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बिन्नी -- क्या इस साल रुक नहीं सकता? मैं इस दशा में आपको छोड़कर न जाऊँगी।

पंडित -- अपने बस की बात तो नहीं? वे लोग आग्रह करेंगे, तो मजबूर होकर करना ही पड़ेगा।

बिन्नी -- बहुत जल्दी मचाएँ तो आप कह दीजिएगा, अब नहीं करेंगे। उन लोगों के जी में जो आये, करें। क्या यहाँ कोई उनका दबैल बैठा हुआ है?

पंडित -- वे लोग तो अभी से आग्रह कर रहे हैं।

बिन्नी -- आप फटकार क्यों नहीं देते?

पंडित -- करना तो है ही, फिर विलंब क्यों करूँ? यह दुःख और वियोग तो एक दिन होना ही है। अपनी विपत्ति का भार तुम्हारे सिर क्यों रखूँ?

बिन्नी -- दुःख-सुख में काम न आऊँगी, तो और किस दिन काम आऊँगी?

पंडितजी के मन में कई दिनों तक घोर संग्राम होता रहा। वह अब बिन्नी को पिता की दृष्टि से न देख सकते थे। बिन्नी अब मंगला की बहन और उनकी साली थी। ज़माना हँसेगा, तो हँसे; ज़िंदगी तो आनंद से गुज़रेगी। उनकी भावनाएँ कभी इतनी उल्लासमयी न थीं। उन्हें अपने अंगों में फिर जवानी की स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था।

वह सोचते, बिन्नी को मैं अपनी पुत्री समझता था; पर वह मेरी पुत्री है तो नहीं। इस तरह समझने से क्या होता है? कौन जाने, ईश्वर को यही मंज़ूर हो; नहीं तो बिन्नी यहाँ आती ही क्यों? उसने इसी बहाने से यह संयोग निश्चित कर दिया होगा। उसकी लीला तो अपरंपार है!

पंडितजी ने वर के पिता को सूचना दे दी कि कुछ विशेष कारणों से इस साल विवाह नहीं हो सकता।

विंध्येश्वरी को अभी तक कुछ ख़बर न थी कि मेरे लिए क्या-क्या षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। वह ख़ुश थी कि मैं भैयाजी की सेवा कर रही हूँ; और भैयाजी मुझसे प्रसन्न हैं। बहन का उन्हें बड़ा दुःख है। मैं न रहूँगी, तो वह कहीं चले जायँगे -- कौन जाने, साधु-संन्यासी हो जाएँ! घर में कैसे मन लगेगा?

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वह पंडितजी का मन बहलाने का निरंतर प्रयत्न करती रहती थी। उन्हें कभी मन मारे न बैठने देती। पंडितजी का मन अब कचहरी में न लगता था। घंटे दो घंटे बैठकर चले आते थे। युवकों के प्रेम में विकलता होती है और वृद्धों के प्रेम में श्रद्धा। वे अपने यौवन की कमी को ख़ुशामद से, मीठी बातों से और हाज़िरबाशी से पूर्ण करना चाहते हैं।

मंगला को अरे अभी तीन ही महीने गुज़रे थे कि चौबेजी ससुराल पहुँचे। सास ने मुँह-माँगी मुराद पायी। उनके दो पुत्र थे। घर में कुछ पूँजी न थी। उनके पालन और शिक्षा के लिए कोई ठिकाना नज़र न आता था। मंगला मर ही चुकी थी। लड़की का ज्यों ही विवाह हो जाएगा, वह अपने घर की हो रहेगी। फिर चौबेजी से नाता ही टूट जाएगा। वह इसी चिंता में पड़ी हुई थी कि चौबेजी पहुँचे, मानो देवता स्वयं वरदान देने आये हों।

जब चौबेजी भोजन करके लेटे, तो सास ने कहा -- भैया, अभी कहीं बातचीत हुई कि नहीं?

पंडित -- अम्माँ, अब मेरे विवाह की बातचीत क्या होगी?

सास -- क्यों भैया, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है?

पंडित -- करना भी चाहूँ तो बदनामी के डर से नहीं कर सकता । फिर मुझे पूछता ही कौन है?

सास -- पूछने को हज़ारों हैं। दूर क्यों जाओ, अपने घर ही में लड़की बैठी हुई है। सुना है, तुमने मंगला के सब गहने बिन्नी को दे दिये हैं। कहीं और विवाह हुआ तो ये कई हज़ार की चीज़ें तुम्हारे हाथों से निकल जाएँगी। तुमसे अच्छा वर मैं कहाँ पाऊँगी? तुम उसे अंगीकार कर लो, तो मैं तर जाऊँ।

अंधा क्या माँगे, दो आँखें! चौबेजी ने मानो विवश होकर सास की प्रार्थना स्वीकार कर ली।

बिन्नी अपने गाँव के कच्चे मकान में अपनी माँ के पास बैठी हुई है। अबकी चौबेजी ने उसकी सेवा के लिए एक लौंडी भी साथ कर दी है। विंध्येश्वरी के दोनों छोटे भाई विस्मित हो-होकर उसके आभूषणों को देख रहे हैं। गाँव की और कई स्त्रियाँ उसे देखने आयी हुई हैं। और उसके रूप-लावण्य का विकास देखकर चकित हो रही हैं। यह वही बिन्नी है, जो यहाँ मोटी फरिया पहने खेला करती थी! रंग-रूप कैसा निखर आया है! सुख की देह है न!

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जब भीड़ कम हुई, एकांत हुआ, तो माता ने पूछा -- तेरे भैयाजी तो अच्छी तरह हैं न बेटी? यहाँ आये थे, तो बहुत दुखी थे। मंगला का शोक उन्हें खाए जाता है। संसार में ऐसे मर्द भी होते हैं, जो स्त्री के लिए प्राण दे देते हैं। नहीं तो यहाँ स्त्री मरी, और चट दूसरा ब्याह रचाया गया। मानो मनाते हैं कि यह मरे तो नई-नवेली बहू घर लायें!

विंध्ये॰ -- उन्हें याद करके रोया करते हैं। चली आयी हूँ, न जाने कैसे होंगे!

माता -- मुझे तो डर लगता है कि तेरा ब्याह हो जाने पर कहीं घबराकर साधू-फ़क़ीर न हो जाएँ।

विंध्ये॰ -- मुझे भी तो यही डर लगता है। इसी तो मैंने कह दिया कि अभी जल्दी क्या है।

माता -- जितने ही दिन उनकी सेवा करोगी, उतना ही उनका स्नेह बढ़ेगा; और तुम्हारे जाने से उन्हें उतना ही दुःख भी अधिक होगा। बेटी, सच तो यह है कि वह तुम्हीं को देखकर जीते हैं। इधर तुम्हारी डोली उठी और उधर उनका घर सत्यानाश हुआ। मैं तुम्हारी जगह होती, तो उन्हीं से ब्याह कर लेती।

विंध्ये॰ -- हे हटो अम्माँ, गाली देती हो? उन्होंने मुझे बेटी करके पाला है। मैं भी उन्हें अपना पिता ॰॰॰

माता -- चुप रह पगली, कहने से क्या होता है!

विंध्ये॰ -- अरे, सच तो अम्माँ, कितनी बेढंगी बात है!

माता -- मुझे तो इसमें कोई बेढंगापन नहीं देख पड़ता।

विंध्ये॰ -- क्या कहती हो अम्माँ; उनसे मेरा ॰॰॰ मैं तो लाज के मारे मर जाऊँ, उनके सामने ताक न सकूँ। वह भी कभी न मानेंगे। मानने की बात भी हो कोई।

माता -- उनका ज़िम्मा मैं लेती हूँ। मैं उन्हें राज़ी कर लूँगी। तू राज़ी हो जा। याद रख, यह कोई हँसी-ख़ुशी का ब्याह नहीं है, उनकी प्राणरक्षा की बात है, जिसके सिवा संसार में हमारा और कोई नहीं है। फिर अभी उनकी कुछ ऐसी उम्र भी तो नहीं है। पचास से दो ही चार साल ऊपर होंगे। उन्होंने एक ज्योतिषी से पूछा भी था। उसने उनकी कुंडली देखकर बताया है कि आपकी ज़िंदगी कम से कम ७० वर्ष की है। देखने-सुनने में भी वह सौ-दो-सौ में एक आदमी हैं।

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बातचीत में चतुर माता ने कुछ ऐसा शब्द-ब्यूह रचा कि सरला बालिका उसमें से निकल न सकी। माता जानती थी कि प्रलोभन का जादू इस पर न चलेगा। धन का, आभूषणों का, कुल-सम्मान का, सुखमय जीवन का उसने जिक्र तक न किया। केवल उसने चौबेजी की दयनीय दशा पर ज़ोर दिया। अंत को विंध्येश्वरी ने कहा -- अम्माँ, मैं जानती हूँ कि मेरे न रहने से उनको बड़ा दुःख होगा; यह भी जानती हूँ कि मेरे जीवन में सुख नहीं लिखा है। अच्छा, उनके हित के लिए मैं अपना जीवन बलिदान कर दूँगी। ईश्वर की यही इच्छा है, तो यही सही।

चौबेजी के घर में मंगल-गान हो रहा था। विंध्येश्वरी आज वधू बनकर इस घर में आयी है। कई वर्ष पहले वह चौबेजी की पुत्री बनकर आयी थी! उसने कभी स्वप्न में भी न सोचा था कि मैं एक दिन इस घर की स्वामिनी बनूँगी।

चौबेजी की सज-धज आज देखने योग्य है। तनज़ेब का रंगीन कुरता, कतरी और सँवारी हुई मूँछें, ख़िज़ाब से चमकते हुए बाल, हँसता हुआ चेहरा, चढ़ी हुई आँखें -- यौवन का पूरा स्वाँग था!

रात बीत चुकी थी। विंध्येश्वरी आभूषणों से लदी हुई, भारी जोड़े पहने, फ़र्श पर सिर झुकाए बैठी थी। उसे कोई उत्कंठा न थी। भय न था, केवल यह संकोच था कि मैं उनके सामने कैसे मुँह खोलूँगी? उनकी गोद में खेली हूँ; उनके कंधों पर बैठी हूँ; उनकी पीठ पर सवार हुई हूँ, कैसे उन्हें मुँह दिखाऊँगी। -- मगर वे पिछली बातें क्यों सोचूँ! ईश्वर उन्हें प्रसन्न रखे। जिसके लिए मैंने पुत्री से पत्नी बनना स्वीकार किया, वह पूर्ण हो। उनका जीवन आनंद से व्यतीत हो।

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इतने में चौबेजी आये। विंध्येश्वरी उठ खड़ी हुई। उसे इतनी लज्जा आयी कि जी चाहा कहीं भाग जाए, खिड़की से नीचे कूद पड़े।

चौबेजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले -- बिन्नी, मुझसे डरती हो?

बिन्नी कुछ न बोली। मूर्ति की तरह वहीं खड़ी रही। एक क्षण में चौबेजी ने उसे बिठा दिया; वह बैठ गई। उसका गला भर-भर आता था। भाग्य की यह निर्दय लीला, यह क्रूर क्रीड़ा उसके लिए असह्य हो रही थी।

पंडितजी ने पूछा -- बिन्नी, बोलती क्यों नहीं? क्या मुझसे नाराज़ हो?

विंध्येश्वरी ने अपने कान बंद कर लिए। यही परिचित आवाज़ वह कितने दिनों से सुनती चली आती थी। आज वह व्यंग्य से भी तीव्र और उपहास से भी कटु प्रतीत होती थी।

सहसा पंडितजी चौंक पड़े; आँखें फैल गई और दोनों हाथ मेंढक के पैरों की भाँति सिकुड़ गए। वह दो क़दम पीछे हट गए। खिड़की से मंगला अंदर झाँक रही थी! छाया नहीं, मंगला थी! मंगला थी -- संदेह, साकार, सजीव! उसकी आँखों में क्रोध और तिरस्कार भरा हुआ था।

चौबेजी काँपती हुई टूटी-फूटी आवाज़ में बोले -- बिन्नी देखो, वह क्या है?

बिन्नी ने घबड़ाकर खिड़की की ओर देखा। कुछ न था। बोली -- क्या है? मुझे तो कुछ नहीं दिखाई देता।

चौबेजी -- अब ग़ायब हो गई; लेकिन ईश्वर जानता है, मंगला थी

बिन्नी -- बहन?

चौबे -- हाँ, हाँ, वही। खिड़की से अंदर झाँक रही थी। मेरे तो रोएँ खड़े हो गए।

विंध्येश्वरी काँपती हुई बोली -- मैं यहाँ नहीं रहूँगी।

चौबे -- नहीं, नहीं; बिन्नी, कोई डर नहीं है, मुझे धोखा हुआ होगा। बात यह है कि वह इस घर में रहती थी, यहीं सोती थी, इसी से कदाचित् मेरी भावना ने उसकी मूर्ति लाकर खड़ी कर दी। कोई बात नहीं है। आज का दिन कितना मंगलमय है कि मेरी बिन्नी यथार्थ में मेरी हो गई ॰॰॰

यह कहते-कहते चौबेजी फिर चौंके। फिर वही मूर्ति खिड़की से झाँक रही थी -- मूर्ति नहीं, सदेह, सजीव, साकार मंगला! अब की उसकी आँखों में क्रोध न था, तिरस्कार न था; उनमें हास्य भरा हुआ था, मानो वह इस दृश्य पर हँस रही है -- मानो उसके सामने कोई अभिनय हो रहा है।

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चौबेजी ने काँपते हुए कहा -- बिन्नी, फिर वही बात हुई! वह देखो, मंगला खड़ी है!

विंध्येश्वरी चीखकर उनके गले से चिमट गई।

चौबेजी ने महावीरजी का नाम जपते हुए कहा -- मैं किवाड़े बंद किए देता हूँ।

बिन्नी -- मैं इस घर में नहीं रहूँगी। (रोकर) भैयाजी, तुमने बहन के अंतिम आदेश को नहीं माना, इसी से उनकी आत्मा दुखी हो रही है। मुझे तो किसी अमंगल की आशंका हो रही है।

चौबेजी ने उठकर खिड़की के द्वार बंद कर दिए और कहा -- मैं कल से दुर्गापाठ कराऊँगा। आज तक कभी ऐसी शंका न हुई थी। तुमसे क्या कहूँ, मालूम होता है ॰॰॰ होगा, उस बात को जाने दो। यहाँ बड़ी गरमी पड़ रही है। अभी पानी गिरने को दो महीने से कम नहीं हैं। हम लोग मंसूरी क्यों न चलें!

विंध्ये॰ -- मेरा तो कहीं जाने का जी नहीं चाहता -- कल से दुर्गापाठ ज़रूर कराना। मुझे अब इस कमरे में नींद न आएगी।

चौबे -- ग्रंथों में तो यही देखा है कि मरने के बाद केवल सूक्ष्म शरीर रह जाता है। फिर समझ में नहीं आता, यह स्वरूप क्योंकर दिखाई दे रहा है। कुछ नहीं, यह मेरी कल्पना का दोष है। कभी-कभी ऐसे भ्रम हो जाते हैं। मैं सच कहता हूँ बिन्नी, अगर तुमने मुझ पर यह दया न की होती, तो मैं कहीं का न रहता। शायद इस वक़्त मैं बदरीनाथ के पहाड़ों पर सिर टकराता होता; या कौन जाने विष खाकर प्राणांत कर चुका होता!

विंध्ये॰ -- मंसूरी में किसी होटल में ठहरना पड़ेगा?

चौबे -- नहीं, मकान भी मिलते हैं। मैं अपने एक मित्र को लिखे देता हूँ, वह कोई मकान ठीक कर रखेंगे। वहाँ ॰॰॰

बात पूरी न होने पाई थी कि न-जाने कहाँ से -- जैसे आकाशवाणी हो -- आवाज़ आयी -- बिन्नी तुम्हारी पुत्री है!

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चौबेजी ने दोनों कान बंद कर लिए। भय से थर-थर काँपते हुए बोले -- बिन्नी, यहाँ से चलो। न जाने कहाँ से आवाज़ें आ रही हैं।

{बिन्नी तुम्हारी पुत्री है!} -- यह ध्वनि सहस्रों कानों से चौबेजी को सुनाई पड़ने लगी, मानो उस कमरे की एक-एक वस्तु से यही सदा आ रही है।

बिन्नी ने रोकर पूछा -- कैसी आवाज़ थी?

चौबे -- क्या बताऊँ, कहते लज्जा आती है।

बिन्नी -- ज़रूर बहनजी की आत्मा है। बहन, मुझ पर दया करो, मैं सर्वथा निर्दोष हूँ।

चौबे -- फिर वही आवाज़ आ रही है। हाय ईश्वर! कहाँ जाऊँ? मेरे तो रोम-रोम में वे शब्द गूँज रहे हैं। बिन्नी, मैंने बुरा किया। मंगला सती थी, उसके आदेश की उपेक्षा करके मैंने अपने हक़ में ज़हर बोया। कहाँ जाऊँ, क्या करूँ?

यह कहकर चौबेजी ने कमरे के किवाड़े खोल दिए और बेतहाशा भागे। अपने मरदाने कमरे में पहुँचकर वह गिर पड़े। मूर्च्छा आ गई। विंध्येश्वरी भी दौड़ी, पर चौखट से बाहर निकलते ही गिर पड़ी!