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मृतक-भोज

सेठ रामनाथ ने रोग-शय्या पर पड़े-पड़े निराशापूर्ण दृष्टि से अपनी स्त्री सुशीला की ओर देखकर कहा -- मैं बड़ा अभागा हूँ, शीला। मेरे साथ तुम्हें सदैव ही दुःख भोगना पड़ा। जब घर में कुछ न था, तो दिन-रात गृहस्थी के धंधों और बच्चों के लिए मरती रहती थी। जब ज़रा कुछ सँभला और तुम्हारे आराम करने के दिन आये, तो यों छोड़े चला जा रहा हूँ। आज तक मुझे आशा थी, पर आज वह आशा टूट गई। देखो शीला, रोओ मत। संसार में सभी मरते हैं, कोई दो साल आगे, कोई दो साल पीछे। अब गृहस्थी का भार तुम्हारे ऊपर है। मैंने रुपये नहीं छोड़े; लेकिन जो कुछ है, उससे तुम्हारा जीवन किसी तरह कट जाएगा ॰॰॰ यह राजा क्यों रो रहा है?

सुशीला ने आँसू पोंछकर कहा -- ज़िद्दी हो गया है और क्या। आज सबेरे से रट लगाए हुए है कि मैं मोटर लूँगा। ५ रु॰ से कम में आएगी मोटर?

सेठजी को इधर कुछ दिनों से दोनों बालकों पर बहुत स्नेह हो गया था। बोले -- तो मँगा दो न एक। बेचारा कब से रो रहा है। क्या-क्या अरमान दिल में थे। सब धूल में मिल गए। रानी के लिए विलायती गुड़ियाँ भी मँगा दो। दूसरों के खिलौने देखकर तरसती रहती है। जिस धन को प्राणों से भी प्रिय समझा, वह अंत को डाक्टरों ने खाया। बच्चे मुझे क्या याद करेंगे कि बाप था। अभागे बाप ने तो धन को लड़के-लड़की से प्रिय समझा। कभी पैसे की चीज़ भी लाकर नहीं दी।

अंतिम समय जब संसार की असारता कठोर सत्य बनकर आँखों के सामने खड़ी हो जाती है, तो जो कुछ न किया, उसका खेद और जो कुछ किया, उस पर पश्चात्ताप, मन को उदार और निष्कपट बना देता है।

सुशीला ने राजा को बुलाया और उसे छाती से लगाकर रोने लगी। वह मातृस्नेह, जो पति की कृपणता से भीतर ही भीतर तड़पकर रह जाता था, इस समय जैसे खोल उठा। लेकिन मोटर के लिए रुपये कहाँ थे?

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सेठजी ने पूछा -- मोटर लोगे बेटा, अपनी अम्माँ से रुपये लेकर भैया के साथ चले आओ। ख़ूब अच्छी मोटर लाना।

राजा ने माता के आँसू और पिता का यह स्नेह देखा, तो उसका बालहठ जैसे पिघल गया। बोला -- अभी नहीं लूँगा।

सेठजी ने पूछा -- क्यों?

{जब आप अच्छे हो जाएँगे तब लूँगा।}

सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे।

तीसरे दिन सेठ रामनाथ का देहांत हो गया।

धनी के जीने से दुःख बहुतों को होता है, सुख थोड़ों को। उसके मरने से दुःख थोड़ों को होता है सुख बहुतों को। महाब्राह्मणों की मंडली अलग सुखी है, पंडितजी अलग ख़ुश हैं, और शायद बिरादरी के लोग भी प्रसन्न हैं; इसलिए कि एक बराबर का आदमी कम हुआ। दिल से एक काँटा दूर हुआ। और पट्टीदारों का तो पूछना ही क्या? अब वह पुरानी कसर निकालेंगे। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर बहुत दिनों के बाद मिला है।

आज पाँचवाँ दिन है। वह विशाल भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हँसते हैं। मन मारे माँ के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अपार चिंताओं के भार से दबी हुई निर्जीव-सी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे दाह-क्रिया की भेंट हो गए और अभी सारे संस्कार बाक़ी पड़े हैं। भगवान्, कैसे बेड़ा पार लगेगा।

किसी ने द्वार पर आवाज़ दी। महरी ने आकर सेठ धनीराम के आने की सूचना दी। दोनों बालक बाहर दौड़े। सुशीला का मन भी एक क्षण के लिए हरा हो गया। सेठ धनीराम बिरादरी के सरपंच थे। अबला का क्षुब्ध हृदय सेठजी की इस कृपा से पुलकित हो उठा। आख़िर बिरादरी के मुखिया हैं। ये लोग अनाथों की खोज-ख़बर न लें, तो कौन ले। धन्य हैं ये पुण्यात्मा लोग, जो मुसीबत में दीनों की रक्षा करते हैं!

यह सोचती हुई सुशीला घूँघट निकाले बरोठे में आकर खड़ी हो गई। देखा तो धनीरामजी के अतिरिक्त और भी कई सज्जन खड़े हैं।

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धनीराम बोले -- बहूजी, भाई रामनाथ की अकाल-मृत्यु से हम लोगों को जो दुःख हुआ है, वह हमारा दिल ही जानता है। अभी उनकी उम्र ही क्या थी; लेकिन भगवत की इच्छा। अब तो हमारा यही धर्म है कि ईश्वर पर भरोसा रखें और आगे के लिए कोई राह निकालें। काम ऐसा करना चाहिए कि घर की आबरू भी बनी रहे और भाईजी की आत्मा संतुष्ट भी हो।

कुबेरदास ने सुशीला को कनखियों से देखते हुए कहा -- मर्यादा बड़ी चीज़ है। उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। लेकिन कमली के बाहर पाँव निकालना भी तो उचित नहीं। कितने रुपये हैं तेरे पास, बहू? क्या कहा, कुछ नहीं?

सुशीला -- घर में रुपये कहाँ हैं, सेठजी! जो थोड़े-बहुत थे, वह बीमारी में उठ गए।

धनीराम -- तो यह नई समस्या खड़ी हुई। ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिए, कुबेरदासजी?

कुबेरदास -- जैसे हो, भोज तो करना ही पड़ेगा। हाँ, अपनी सामर्थ्य देख कर काम करना चाहिए। मैं क़र्ज़ा लेने को न कहूँगा। हाँ, घर में जितने रुपयों का प्रबंध हो सके, उसमें हमें कोई कसर न छोड़नी चाहिए। मृत जीव के साथ भी तो हमारा कुछ कर्तव्य है। अब तो वह फिर कभी न आएगा, उससे सदैव के लिए नाता टूट रहा है। इसलिए सब-कुछ हैसियत के मुताबिक़ होना चाहिए। ब्रह्मणों को तो देना ही पड़ेगा कि मर्यादा का निर्बाह हो।

धनीराम -- तो क्या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, बहूजी? दो-चार हज़ार भी नहीं!

सुशीला -- मैं आपसे सत्य कहती हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है। ऐसे समय झूठ बोलूँगी?

धनीराम ने कुबेरदास की ओर अर्ध-अविश्वास से देखकर कहा -- तब तो यह मकान बेचना पड़ेगा।

कुबेरदास -- इसके सिवा और क्या हो सकता है? नाक कटाना तो अच्छा नहीं। रामनाथ का कितना नाम था, बिरादरी के स्तंभ थे। यही इस समय एक उपाय है। २० हज़ार मेरे आते हैं। सूद-बट्टा लगाकर कोई २५ हज़ार मेरे हो जाएँगे। बाक़ी भोज में ख़र्च हो जाएगा। अगर कुछ बच रहा, तो बाल-बच्चों के काम आ जाएगा।

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धनीराम -- आपके यहाँ कितने पर बंधक रखा था?

कुबेर॰ -- २० हज़ार पर। रुपये सैकड़े सूद।

धनी॰ -- मैंने तो कुछ कम सुना है।

कुबेर॰ -- उसका तो रेहननामा रखा है। ज़बानी बातचीत थोड़े ही है। मैं दो-चार हज़ार के लिए झूठ नहीं बोलूँगा।

धनी॰ -- नहीं-नहीं, यह मैं कब कहता हूँ। तो तूने सुन लिया, बाई! पंचों की सलाह है कि मकान बेच दिया जाए।

सुशीला का छोटा भाई संतलाल भी इसी समय आ पहुँचा। यह अंतिम वाक्या उसके कान में पड़ गया। बोल उठा -- किस लिए मकान बेच दिया जाए? बिरादरी के भोज के लिए? बिरादरी तो खा-पीकर राह लेगी, इन अनाथों की रक्षा कैसे होगी? इनके भविष्य के लिए भी कुछ सोचना चाहिए।

धनीराम ने कोप-भरी आँखों से देखकर कहा -- आपको इन मामलों में टाँग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं। केवल भविष्य की चिंता करने से काम नहीं चलता। मृतक का पीछा भी किसी तरह सुधारना ही पड़ता है। आपका क्या बिगड़ेगा? हँसी तो हमारी होगी। संसार में मर्यादा से प्रिय कोई वस्तु नहीं। मर्यादा के लिए प्राण तक दे देते हैं। जब मर्यादा ही नहीं रही, तो क्या रहा? अगर हमारी सलाह पूछोगे, तो हम यही कहेंगे। आगे बाई का अख़त्यार है, जैसा चाहे करे; पर हमसे कोई सरोकार न रहेगा। चलिए कुबेरदासजी, चलें।

सुशीला ने भयभीत होकर कहा -- भैया की बातों का विचार न कीजिए, इनकी तो यह आदत है। मैंने तो आपकी बात नहीं टाली, आप मेरे बड़े हैं। घर का हाल आपको मालूम है। मैं अपने स्वामी की आत्मा को दुखी करना नहीं चाहती; लेकिन जब उनके बच्चे ठोकरें खाएँगे, तो क्या उनकी आत्मा दुखी न होगी? बेटी का ब्याह करना ही है। लड़के को पढ़ाना-लिखाना है ही। ब्राह्मणों को खिला दीजिए; लेकिन बिरादरी करने की मुझमें सामर्थ नहीं है।

दोनों महानुभावों को जैसे थप्पड़ लगा -- इतना बड़ा अधर्म! भला, ऐसी बात भी ज़बान से निकाली जाती है। पंच लोग अपने मुँह कालिख न लगने देंगे। दुनिया विधवा को न हँसेगी, हँसी होगी पंचों की। यह जगहँसाई वे कैसे सह सकते हैं। ऐसे घर के द्वार पर झाँकना भी पाप है।

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सुशीला रोकर बोली -- मैं अनाथ हूँ, नादान हूँ, मुझ पर क्रोध न कीजिए। आप लोग ही मुझे छोड़ देंगे, तो मेरा कैसे निर्वाह होगा?

इतने में दो महाशय और आ बिराजे। एक बहुत मोटे और दूसरे बहुत दुबले। नाम भी गुणों के अनुसार ही -- भीमचंद और दुर्बलदास। धनीराम ने संक्षेप में यह परिस्थिति उन्हें समझा दी। दुर्बलदास ने सहृदयता से कहा -- तो ऐसा क्यों नहीं करते कि हम लोग मिलकर कुछ रुपये दे दें। जब इसका लड़का सयाना हो जाएगा, तो रुपये मिल जाएँगे। अगर न भी मिलें, तो एक मित्र के लिए कुछ बल खा जाना कोई बड़ी बात नहीं।

संतलाल ने प्रसन्न होकर कहा -- इतनी दया आप करेंगे, तो क्या पूछना।

कुबेरदास त्योरी चढ़ाकर बोले -- तुम तो बे-सिर-पैर की बातें करने लगे, दुर्बलदासजी! इस बख़त के बाज़ार में किसके पास फ़ालतू रुपये रखे हुए हैं?

भीमचंद -- सो तो ठीक है, बाज़ार की ऐसी मंदी तो कभी देखी नहीं; पर निबाह तो करना चाहिए।

कुबेरदास अकड़ गए। वह सुशीला के मकान पर दाँत लगाए हुए थे। ऐसी बातों से उनके स्वार्थ में बाधा पड़ती थी। वह अपने रुपये अब वसूल करके छोड़ेंगे। औरतों के झमेले में नहीं पड़ेंगे।

भीमचंद ने उन्हें किसी तरह सचेत किया; लेकिन भोज तो देना ही पड़ेगा। उस कर्तव्य का पालन न करना समाज की नाक काटना है।

सुशीला ने दुर्बलदास में सहृदयता का आभास देखा। उनकी ओर दीन नेत्रों से देखकर बोली -- मैं आप लोगों से बाहर थोड़े ही हूँ। आप लोग मालिक हैं, जैसा उचित समझें, वैसा करें।

दुर्बलदास -- तेरे पास कुछ थोड़े-बहुत गहने तो होंगे, बाई?

{हाँ, गहने हैं। आधे तो बीमारी में बिक गए, आधे बचे हैं।} सुशीला ने सारे गहने लाकर पंचों के सामने रख दिए; पर यह तो मुश्किल से तीन हज़ार में उठेंगे।

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दुर्बलदास ने पोटली को हाथ में तौलकर कहा -- तीन हज़ार को कैसे जाएँगे। मैं साढ़े तीन हज़ार दिला दूँगा।

भीमचंद ने फिर पोटली को तौलकर कहा -- मेरी बोली चार हज़ार की है।

कुबेरदास को मकान की बिक्री का प्रश्न छेड़ने का अवसर फिर मिला -- चार हज़ार ही में क्या हुआ जाता है। बिरादरी का भोज है या दोष मिटाना है। बिरादरी में कम से कम दस हज़ार का ख़रचा है। मकान तो निकालना ही पड़ेगा।

संतलाल ने ओठ चबाकर कहा -- मैं कहता हूँ, आप लोग क्या इतने निर्दयी हैं! आप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया नहीं आती? क्या उन्हें रास्ते का भिखारी बनाकर छोड़ेंगे?

लेकिन संतलाल की फ़रियाद पर किसी ने ध्यान न दिया। मकान की बातचीत अब नहीं टाली जा सकती थी। बाज़ार मंदा है। ३० हज़ार से बेसी नहीं मिल सकते, २५ हज़ार तो कुबेरदास के हैं। पाँच हज़ार बचेंगे। चार हज़ार गहनों से आ जाएँगे। इस तरह ९ हज़ार में बड़ी किफ़ायत से ब्रह्म-भोज और बिरादरी-भोज दोनों निबटा दिए जाएँगे।

सुशीला ने दोनों बालकों को सामने करके करबद्ध होकर कहा -- पंचो, मेरे बच्चों का मुँह देखिए। मेरे घर में जो कुछ है, वह आप सब ले लीजिए; लेकिन मकान छोड़ दीजिए -- मुझे कहीं ठिकाना न मिलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, मकान इस समय न बेचें।

इस मूर्खता का क्या जवाब दिया जाए। पंच लोग तो ख़ुद चाहते थे कि मकान न बेचना पड़े। उन्हें अनाथों से कोई दुश्मनी नहीं थी; किंतु बिरादरी का भोज और किस तरह किया जाए? अगर विधवा कम से कम पाँच हज़ार का जोगाड़ और कर दे, तो मकान बच सकता है; पर जब वह ऐसा नहीं कर सकती, तो मकान बेचने के सिवा और तो कोई उपाय नहीं।

कुबेरदास ने अंत में कहा -- देखो बाई, बाज़ार की दशा इस समय ख़राब है। रुपये किसी से उधार नहीं मिल सकते। बाल-बच्चों के भाग में लिखा होगा, तो भगवान् और किसी हीले से देगा। हीले रोज़ी, बहाने मौत। बाल-बच्चों की चिंता मत कर। भगवान् जिसको जन्म देते हैं, उसकी जीविका की जुगत पहले ही से कर देते हैं। हम तुझे समझाकर हार गए। अगर तू अब भी अपना हठ न छोड़ेगी, तो हम बात भी न पूछेंगे। फिर यहाँ तेरा रहना मुश्किल हो जाएगा। शहरवाले तेरे पीछे पड़ जाएँगे।

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विधवा सुशीला अब और क्या करती? पंचों से लड़कर वह कैसे रह सकती थी? पानी में रहकर मगर से कौन बैर कर सकता है? घर में जाने के लिए उठी, पर वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। अभी तक आशा सँभाले हुई थी। बच्चों के पालन-पोषण में वह अपना वैधव्य भूल सकती थी; पर अब तो अंधकार था, चारों ओर।

सेठ रामनाथ के मित्रों का उनके घर पर पूरा अधिकार था। मित्रों का अधिकार न हो तो किसका हो? स्त्री कौन होती है? जब वह इतनी मोटी-सी बात नहीं समझती कि बिरादरी करना और धूम-धाम से दिल खोलकर करना लाज़िमी बात है, तो उससे और कुछ कहना व्यर्थ है। गहने कौन खरीदे? भीम-चंद चार हज़ार दाम लगा चुके थे; लेकिन अब उन्हें मालूम हुआ कि उनसे भूल हुई थी। दुर्बलदास ने तीन हज़ार लगाए थे। इसलिए सौदा उन्हीं के हाथ हुआ। इस बात पर दुर्बलदास और भीमचंद में तकरार भी हो गई; लेकिन भीमचंद को मुँह की खानी पड़ी। न्याय दुर्बल के पक्ष में था।

धनीराम ने कटाक्ष किया -- देखो दुर्बलदास, माल तो ले जाते हो; पर तीन हज़ार से बेसी का है। मैं नीति की हत्या नहीं होने दूँगा।

कुबेरदास बोले -- अजी, तो घर में ही तो है, कहीं बाहर तो नहीं गया। एक दिन मित्रों की दावत हो जाएगी।

इस पर चारों महानुभाव हँसे। इस काम से फ़ुरसत पाकर अब मकान का प्रश्न उठा। कुबेरदास ३० हज़ार देने पर तैयार थे; पर कानूनी कार्रवाई किए बिना संदेह की गुंजाइश थी। यह गुंजाइश क्योंकर रखी जाए। एक दलाल बुलाया गया। नाटा-सा आकमी था, पोपला मुँह, कोई ७० की अवस्था। नाम था चोखेलाल।

कुबेरदास ने कहा -- चोखेलालजी से हमारी तीन साल की दोस्ती है। आदमी क्या रत्न हैं।

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भीमचंद -- देखो चोखेलाल, हमें यह मकान बेचना है। इसके लिए कोई अच्छा ग्राहक लाओ। तुम्हारी दलाली पक्की।

कुबेरदास -- बाज़ार का हाल अच्छा नहीं है; लेकिन फिर भी हमें यह तो देखना पड़ेगा कि रामनाथ के बाल्-बच्चों को टोटा न हो। (चोखेलाल के कान में) तीस से आगे न जाना।

भीमचंद -- देखिए कुबेरदास, यह अच्छी बात नहीं है।

कुबेरदास -- तो मैं क्या कर रहा हूँ! मैं तो यही कह रहा था कि अच्छा दाम लगवाना।

चोखेलाल -- आप लोगों को मुझसे यह कहने की ज़रूर नहीं। मैं अपना धर्म समझता हूँ। रामनाथजी मेरे भी मित्र थे। मुझे यह भी मालूम है कि इस मकान के बनवाने में एक लाख से कम एक पाई भी नहीं लगे; लेकिन बाज़ार का हाल क्या आप लोगों से छिपा है? इस समय इसके २५ हज़ार से बेसी नहीं मिल सकते। सुभीते से कोई ग्राहक मिल जाय, तो दस-पाँच हज़ार और मिल जाएँगे; लेकिन इस समय तो २५ हज़ार भी मुश्किल से लिलेंगे लो दही और लाव दही की बात है।

धनीराम -- २५ हज़ार तो बहुत कम हैं भाई, और न सही ३० हज़ार तो करा दो।

चोखेलाल -- ३० क्या मैं ४० करा दूँ, पर कोई ग्राहक तो मिले। आप लोग कहते हैं, तो मैं ३० हज़ार की बातचीत करूँगा।

धनीराम -- जब तीस हज़ार में ही देना है तो कुबेरदास ही क्यों न ले लें। इतना सस्ता माल दूसरों को क्यों दिया जाए?

कुबेरदास -- आप सब लोगों की राय हो, तो ऐसा ही कर लिया जाए।

धनीराम ने {हाँ, हाँ} कहकर हामी भरी। भीमचंद मन में ऐंठकर रह गए। यह सौदा भी पक्का हो गया। आज ही वकील ने बैनामा लिखा। तुरंत रजिस्ट्री भी हो गई। सुशीला के सामने बैनामा लाया गया, तो उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से उस पर हस्ताक्षर कर दिए। अब उसे उसके सिवा और कहीं शरण नहीं है। बेवफ़ा मित्र की भाँति यह घर भी सुख के दिनों में साथ देकर दुख के दिनों में उसका साथ छोड़ रहा है।

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पंच लोग सुशीला के आँगन में बैठ, बिरादरी के रुक्के लिख रहे हैं और अनाथा विधवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो रही है। इधर रुक्का तैयार हुआ, उधर विधवा की आँखों से आँसू की बूँदें निकलकर रुक्के पर गिर पड़ीं।

धनीराम ने ऊपर देखकर कहा -- पानी का छींटा कहाँ से आया?

संतलाल -- बाई बैठी रो रही है। उसने रुक्के पर अपने रक्त के आँसुओं की मुहर लगा ही है।

धनीराम -- (ऊँचे स्वर में) अरे, तो तू रो क्यों रही है, बाई? यह रोने का समय नहीं है, तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पंच लोग तेरे घर में आज यह शुभ-कार्य करने के लिए जमा हैं। जिस पति के साथ तूने इतने दिनों भोग-विलास किया, उसी का पीछा सुधारने में तू दुःख मानती है?

बिरादरी में रुक्का फिरा। इधर तीन-चार दिन पंचों ने भोज की तैयारियों में बिताए। घी धनीराम की आढ़त से आया। मैदा-चीनी की आढ़त भी उन्हीं की थी। पाँचवें दिन प्रातःकाल ब्रह्मभोज हुआ। संध्या-समय बिरादरी की ज्योनार। सुशीला के द्वार पर बग्घियों और मोटरों की क़तारें खड़ी थीं। भीतर मेहमानों की पंगतें थीं। आँगन, बैठक, दालान, बरोठा, ऊपर की छत, नीचे-ऊपर मेहमानों से भर हुआ था। लोग भोजन करते थे और पंचों को सराहते थे।

{ख़र्च तो सभी करते हैं; पर इंतज़ाम का सलीक़ा चाहिए। ऐसे स्वादिष्ट पदार्थ बहुत कम खाने में आते हैं।}

{सेठ चंपाराम के भोज के बाद ऐसा भोज रामनाथजी का ही हुआ है।}

{अमृतियाँ कैसी कुरकुरी हैं!}

{रसगुल्ले मेवों से भरे हैं।}

{सारा श्रेय पंचों को है।}

धनीराम ने नम्रता से कहा -- आप भाइयों की दया है, जो ऐसा कहते हो। रामनाथ से भाईचारे का व्यवहार था। हम न करते तो कौन करता? चार दिन से सोना नसीब नहीं हुआ।

{आप धन्य हैं! मित्र हों तो ऐसे हों।}

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{क्या बात है! आपने रामनाथजी का नाम रख लिया। बिरादरी यही खाना-खिलाना देखती है। रोकड़ देखने नहीं आती।}

मेहमान लोग बखान-बखानकर तर माल उड़ा रहे थे और उधर कोठरी में बैठी हुई सुशील सोच रही थी -- संसार में ऐसे स्वार्थी लोग भी हैं। सारा संसार स्वार्थमय हो गया है? सब पेटों पर हाथ फेर-फेरकर भोजन कर रहे हैं। कोई इतना भी नहीं पूछता कि अनाथों के लिए भी कुछ बचा या नहीं।

एक महीना गुज़र गया। सुशीला को एक-एक पैसे की तंगी हो रही थी। नक़द था ही नहीं, गहने मिकल गए थे। अब थोड़े से बरतन बच रहे थे। उधर छोटे-छोटे बहुत से बिल चुकाने थे। कुछ रुपये डाक्टर के, कुछ दरज़ी के, कुछ बनियों के। सुशीला को यह रक़में घर का बचा-खुचा सामान बेचकर चुकानी पड़ीं। और महीना पूरा होते-होते उसके पास कुछ न बचा। बेचारा संतलाल एक दुकान पर मुनीम था। कभी-कभी वह आकर एकाध रुपया दे देता। इधर ख़र्च का हाथ फैला हुआ था। लड़के अवस्था को समझते थे। माँ को छेड़ते न थे; पर मकान के सामने से कोई खोंचेवाला निकल जाता और वे दूसरे लड़कों को फल या मिठाइयाँ खाते देखते, तो उनके मुँह में चाहे पानी न आए, आँखों में अवश्य भर जाता था। ऐसी ललचायी आँखों से ताकते थे कि दया आती थी। वह बच्चे, जो थोड़े दिन पहले मेवे-मिठाई की ओर ताकते न थे, अब एक-एक पैसे की चीज़ को तरसते थे। वही सज्जन, जिन्होंने बिरादरी को भोजन करवाया था, अब घर के सामने से निकल जाते; पर कोई झाँकता न था।

शाम हो गई थी। सुशीला चूल्हा जलाए रोटियाँ सेंक रही थी और दोनों बालक चूल्हे के पास रोटियों को क्षुधित नेत्रों से देख रहे थे। चूल्हे के दूसरे ऐले पर दाल थी। दाल के पकने का इंतज़ार था। लड़की ग्यारह साल की थी, लड़का आठ साल का।

मोहन अधीर होकर बोला -- अम्माँ, मुझे सूखी रोटियाँ ही दे दो। बड़ी भूख लगी है।

सुशीला -- अभी दाल कच्ची है भैया।

p.164

रेवती -- मेरे पास एक पैसा है। मैं उसका दही लिये आती हूँ।

सुशीला -- तूने पैसा कहाँ पाया?

रेवती -- मुझे कल अपनी गुड़ियों की पेटारी में मिल गया था।

सुशीला -- लेकिन जल्द आइयो।

रेवती दौड़कर बाहर गयी और थोड़ी देर में एक पत्ते पर ज़रा-सा देही ले आयी। माँ ने रोटी सेंककर दे दी। मोहन दही से खाने लगा। आम लड़कों की भाँति वह भी स्वार्थी था। बहन से पूछा भी नहीं।

सुशीला ने कड़ी आँखों से देखकर कहा -- बहन को भी दे दे। अकेला ही खा जाएगा।

मोहन लज्जित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आयीं।

रेवती बोली -- नहीं अम्माँ, मिला ही कितना है। तुम खाओ मोहन, तुम्हें जल्दी ही नींद आती है। मैं तो दाल पक जाएगी, तो खाऊँगी।

उसी वक़्त दो आदमियों ने आवाज़ दी। रेवती ने बाहर आकर पूछा। यह सेठ कुबेरदास के आदमी थे। मकान ख़ाली कराने आये थे। क्रोध से सुशीला की आँखें लाल हो गईं।

बरोठे में आकर कहा -- अभी मेरे पति को पीछे हुए एक महीना भी नहीं हुआ, मकान ख़ाली कराने की धुन सवार हो गई। मेरा ५० हज़ार का धर ३० हज़ार में ले लिया, पाँच हज़ार सूद के उड़ाए, फिर भी तस्कीन नहीं होती। कह दो, मैं अभी ख़ाली नहीं करूँगी।

मुनीम ने नम्रता से कहा -- बाईजी, मेरा क्या अख़त्यार है। मैं तो केवल संदेशिया हूँ। जब चीज़ दूसरे की हो गई, तो आपको छोड़नी ही पड़ेगी। झंझट करने से क्या मतलब।

सुशीला भी समझ गई, ठीक ही कहता है। गाय हत्या के बल के दिन खेत चरेगी। नर्म होकर बोली -- सेठजी से कहो, मुझे दस-पाँच दिन की मुहलत दें। लेकिन नहीं, कुछ मत कहो। क्यों दस-पाँच दिन के लिए किसी का एहसान मूँ? मेरे भाग्य में इस घर में रहना लिखा होता, तो मिकलता ही क्यों?

मुनीम ने पूछा -- तो कल सबेरे तक ख़ाली हो जाएगा?

सुशीला -- हाँ, हाँ कहती तो हूँ। लेकिन सबेरे तक क्यों, मैं अभी ख़ाली किए देती हूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान है। तुम्हारे सेठजी का रात भर का किराया मारा जाएगा। जाकर ताला-वाला लाओ या लाये हो?

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मुनाम -- ऐसी क्या जल्दी है, बाई! कल सावधनी से ख़ाली कर दीजिएगा।

सुशीला -- कल का झगड़ा क्यों रखूँ! मुनीमजी, आप जाइए, ताला लाकर डाल दीजिए। यह कहती हुई सुशीला अंदर गयी, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी आप किसी तरह निगली, बरतन धोए, फिर एक एक्का मँगवाकर उस पर अपना मुख़्तसर सामान लादा और भारी हृदय से उस घर से हमेशा के लिए बिदा हो गई।

जिस वक़्त वह घर बनवाया था, मन में कितनी उमंगें थीं। इसके प्रवेश में कई हज़ार ब्राह्मणों का भोज हुआ था। सुशीला को इतनी दौड़-धूप करनी पड़ी थी कि वह महीने भर बीमार रही थी। इसी घर में उनके दो लड़के मरे थे। यहीं उसका पति मरा था। मरनेवालों की स्मृतियों ने उसकी एक-एक इँट को पवित्र कर दिया था। एक-एक पत्थर मानो उसके हर्ष से सुखी और उसके शोक से दुखी होता था। वह घर आज उससे छूटा जा रहा है।

उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दूसरे दिन १० रु॰ महीने पर एक गली में दूसरा मकान ले लिया।

इस नए कमरे में इन अनाथों ने तीन महीने जिस कष्ट से काटे, वह समझनेवाले ही समझ सकते हैं। भला हो बेचारे संतलाल का। वह दस-पाँच रुपये से मदद कर दिया करता था। अगर सुशीला दरिद्र घर की होती, तो पिसाई करती, कपड़े सीती, किसी के घर में टहल करती; पर जिन कामों को बिरादरी नीचा समझती है, उनका सहारा कैसे लेती? नहीं तो लोग कहते, यह सेठ रामनाथ की स्त्री है! उस नाम की भी तो लाज रखनी थी। समाज के चक्रव्यूह से किसी तरह भी तो छुटकारा नहीं होता। लड़की के दो-एक गहने बच रहे थे। वह भी बिक गए। जब रोटियों के ही लाले थे, तो घर का किराया कहाँ से आता? तीन महीने बाद घर का मालिक, जो उसी बिरादरी का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था और जिसने मृतक-भोज में ख़ूब बढ़-बढ़कर हाथ मारे थे, अधीर हो उठा। बेचारा कितना धैर्य रखता! ३० रु॰ का मामला है, रुपये आठ आने की बात नहीं है। इतनी बड़ी रक़म नहीं छोड़ी जाती।

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आख़िर एक एक दिन सेठजी ने आकर लाल-लाल आँखें करके कहा -- अगर तू किराया नहीं दे सकती, तो घर ख़ाली कर दे। मैंने बिरादरी के नाते इतनी मुरौवत की। अब किसी तरह काम नहीं चल सकता।

सुशीला बोली -- सेठजी, मेरे पास रुपये होते, तो पहले आपका किराया देकर तब पानी पीती। आपने इतनी मुरौवत की, इसके लिए मेरा सिर आपके चरणों पर है; लेकिन अभी मैं बिलकुल ख़ाली-हाथ हूँ। यह समझ लीजिए कि, एक भाई के बाल-बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। और क्या कहूँ!

सेठ -- चल-चल, इस तरह की बातें बहुत सुन चुका। बिरादरी का आदमी है, तो उसे चूस लो। कोई मुसलमान होता, तो उसे चुपके से महीने-महीने दे देतीं, नहीं तो वह निकाल बाहर किया होता। मैं बिरादरी का हूँ, इसलिए किराया देने की दरकार नहीं। मुझे माँगना ही नहीं चाहिए। यही तो बिरादरी के साथ करना चाहिए।

इसी समय रेवती भी आकर खड़ी हो गई। सेठजी ने उसे सिर से पाँव तक देखा और तब किसी कारण से बोले -- अच्छा, यह लड़की तो सयानी हो गई। कहीं इसकी सगाई की बातचीत नहीं कीं?

रेवती तुरंत भाग गई। सुशीला ने इस्न शब्दों में आत्मीयता की झलक पाकर पुलिकत कंठ से कहा -- अभी तो कहीं बातचीत नहीं हुई सेठजी। घर का किराया तक तो अदा नहीं कर सकती, सगाई क्या करूँगी; फिर अभी छोटी भी तो है।

सेठजी ने तुरंत शास्त्रों का आधार दिया। कन्याओं के विवाह की यही अवस्था है। धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। किराये की कोई बात नहीं है। हमें क्या मालूम था कि सेठ रामनाथ के परिवार की यह दशा है।

सुशीला -- तो आपकी निगाह में कोई अच्छा वर है! यह तो आप जानते ही हैं, मेरे पास लेने-देने को कुछ नहीं है।

झाबरमल -- (इन सेठजी का यही नाम था) -- लेने-देने का कोई झगड़ा नहीं होगा, बाईजी। ऐसा घर है कि लड़की आजीवन सुखी रहेगी। लड़का भी उसके साथ रह सकता है। कुल का सच्चा, हर तरह से संपन्न परिवार है। हाँ, वर दोहाजू (दुज़बर) है।

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सुशीला -- उम्र अच्छी होनी चाहिए, दोहाजू होने से क्या होता है।

झाबरमल -- उम्र कुछ ज़्यादा नहीं, अभी चालीसवाँ ही साल है उसका; पर देखने में अच्छा हृष्ट-पुष्ट है। मर्द की उम्र उसका भोजन है। बस, यह समझ लो कि परिवार का उद्धार हो जाएगा।

सुशीला ने अनिच्छा के भाव से कहा -- अच्छा, मैं सोचकर जवाब दूँगी। एक बार मुझे दिखा देना।

झाबरमल -- दिखाने को कहीं नहीं जाना है, बाई। वह तेरे सामने ही खड़ा है।

सुशीला ने घृणापूर्ण नेत्रों से इसकी ओर देखा। इस पचास साल के बुड्ढे की यह हवस! छाती का मांस लटककर नाभी तक आ पहुँचा है, फिर भी विवाह की धुन सवार है। यह दुष्ट समझता है कि प्रलोभनों में पड़कर मैं अपनी लड़की उसके गले बाँध दूँगी। वह अपनी बेटी को आजीवन क्वाँरी रखेगी; पर ऐसे मृतक से विवाह करके उसका जीवन नष्ट न करेगी; पर उसने अपने क्रोध को शांत किया। समय का फेर है, नहीं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का साहस ही क्यों होता। बोली -- आपकी इस कृपा के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ, सेठजी; पर मैं कन्या का विवाह आपसे नहीं कर सकती।

झाबरमल -- तो और तू समझती है कि तेरी कन्या के लिए बिरादरी में कोई कुमार मिल जाएगा?

सुशीला -- मेरी लड़की क्वाँरी रहेगी।

झाबरमल -- और रामनाथजी के नाम को कलंकित करेगी?

सुशीला -- तुम्हें मुझसे ऐसी बात करते लाज नहीं आती? नाम के लिए घर खोया, संपत्ति खोया; पर कन्या को कुएँ में नहीं डुबा सकती।

झाबरमल -- तो मेरा केराया दे दे ।

सुशीला -- अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।

झाबरमल ने भीतर घुसकर गृहस्थी की एक-एक वस्तु निकालकर गली में फेंक दी। घड़ा फूट गया, मटके टूट गए। संदूक़ के कपड़े बिखर गए। सुशीला तटस्थ खड़ी अपने अदिन की यह क्रूर क्रीड़ा देखती रही।

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घर का यों विध्वंस करके झाबरमल ने घर में ताला डाल दिया और अदालत से रुपये वसूल करने की धमकी देकर चले गए।

बड़ों के पास धन होता है, छोटों के पास हृदय होता है। धन से बड़े-बड़े व्यापार होते हैं, बड़े-बड़े महल बनते हैं, नौकर-चाकर होते हैं, सवारी-शिकारी होती है। हृदय से समवेदना होती है; आँसू निकलते हैं।

उसी मकान से मिली हुई एक साग-भाजी बेचनेवाली खटकिन की दूकान थी। वृद्धा, विधवा, निपूती स्त्री थी, बाहर से आग, भीतर से पानी। झाबरमल को सैकड़ों सुनायीं और सुशीला की एक-एक चीज़ उठाकर अपने घर में ले गई। मेरे घर में रहो बहू। मुरौवत में आ गई, नहीं तो उसकी मूँछें उखाड़ लेती। मौत सिर पर नाच रही है, आगे नाथ, न पीछे पगहा! और धन के पीछे मरा जाता है। जाने छाती पर लादकर ले जाएगा। तुम चलो, मेरे घर में रहो। मेरे यहाँ किसी बात का खटका नहीं। बस, मैं अकेली हूँ। एक टुकड़ा मुझे भी दे देना।

सुशीला ने डरते-डरते कहा -- माता, मेरे पास सेर-भर आटे के सिवा और कुछ नहीं है। मैं तुम्हें केराया कहाँ से दूँगी?

बुढ़िया ने कहा -- मैं झाबरमल नहीं हूँ बहू, न कुबेरदास हूँ। मैं तो समझती हूँ, ज़िंदगी में सुख भी है, दुःख भी है। सुख में इतराओ मत, दुःख में घबराओ मत। तुम्हीं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती हूँ। तुम्हें उस दिन भी देखा था, जब तुम महल में रहती थीं, और आज भी देख रही हूँ, जब तुम अनाथ हो। जो मिज़ाज तब था, वही अब है। मेरे धन्य भाग कि तुम मेरे घर में आओ । मेरे आँखें फूटी हैं, जो तुमसे केराया माँगने जाऊँगी?

इन सांत्वना से भरे हुए सरल शब्दों ने सुशीला के हृदय का बोझ हलका कर दिया। उसने देखा, सच्ची सज्जनता भी दरिद्रों और नीचों ही के पास रहती है। बड़ों की दया भी होती है, अहंकार का दूसरा रूप!

इस खटकिन के साथ रहते हुए सुसीला को छः महीने हो गए थे। सुशीला का उससे दिन-दिन स्नेह बढ़ता जाता था। वह जो कुछ पाती, लाकर सुशीला के हाथ में रख देती। दोनों बालक उसकी दो आँखें थीं। मज़ाल न थी कि पड़ोस का कोई आदमी उन्हें कड़ी आँखों से देख ले। बुढ़िया दुनिया सिर पर उठा लेती। संतलाल हर महीने कुछ न कुछ दे दिया करता था। इससे रोटी-दाल चल जाती थी।

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कातिक का महीना था, ज्वर का प्रकोप हो रहा था। मोहन एक दिन खेलता-कूदता बीमार पड़ गया और तीन दिन तक अचेत पड़ा रहा। ज्वर इतने ज़ोर का था कि पास खड़े रहने से लपट-सी निकलती थी। बुढ़िया ओझे-सयानों के पास दौड़ती फिरती थी; पर ज्वर उतरने का नाम न लेता था। सुशीला को भय हो रहा था, यह टाइफ़ाइड है। इससे उसके प्राण सूख रहे थे।

चौथे दिन उसने रेवती से कहा -- बेटी, तूने बड़े पंचजी का घर तो देखा है। जाकर उनसे कह --भैया बीमार हैं, कोई डाक्टर भेज दें।

रेवती को कहने भर की देर थी। दौड़ती हुई सेठ कुबेरदास के पास गयी।

कुबेरदास बोलें -- डाक्टर की फ़ीस १६ रु॰ है। तेरी माँ दे देगी?

रेवती ने निराश होकर कहा -- अम्माँ के पास रुपये कहाँ हैं?

कुबेर॰ -- तो फिर किस मुँह से मेरे डाक्टर को बुलाती है। तेरा मामा कहाँ हैं? उनसे जाकर कह, सेवा समिति से कोई डाक्टर बुला ले जायँ, नहीं तो खैराती अस्पताल में क्यों नहीं लड़के को ले जाती? या अभी वही पुरानी बू समायी हुई है। कैसी मूर्ख स्त्री है, घर में टका नहीं है और डाक्टर का हुकुम लगा दिया। समझती होगी, फ़ीस पंचजी दे देंगे। पंचजी क्यों फ़ीस दें? बिरादरी का धन धर्म-कार्य के लिए है, यों उड़ाने के लिए नहीं है।

रेवती माँ के पास लौटी, पर जो कुछ सुना था, वह उससे न कह सकी। घाव पर नमक क्यों छिड़के? बहाना कर दिया; बड़े पंचजी कहीं गये हैं।

सुशीला -- तो मुनीम से क्यों नहीं कहा? यहाँ क्या कोई मिठाई खाए जाता था, जो दौड़ी चली आयी?

इसी वक़्त संतलाल एक वैद्यजी को लेकर आ पहुँचा।

वैद्यजी भी एक दिन आकर दूसरे दिन न लौटे। सेवा-समिति के डाक्टर भी दो दिन बड़ी मिन्नतों से आये। फिर उन्हें भी अवकाश न रहा और मोहन की दशा दिनोंदिन बिगड़ती जाती थी। महीना बीत गया, पर ज्वर ऐसा चढ़ा कि एक क्षण के लिए भी न उतरा। उसका चेहरा इतना सूख गया था कि देख कर दया आती थी। न कुछ बोलता, न कहता, यहाँ तक कि करवत भी न बदल सकता था। पड़े-पड़े देह की खाल फट गई, सिर के बाल गिर गए। हाथ-पाँव लकड़ी हो गए। संतलाल काम से छुट्टी पाता, तो आ जाता, पर इससे क्या होता, तीमारदारी दवा तो नहीं है।

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एक दिन संध्या समय उसके हाथ ठंढे हो गए। माता के प्राण पहले ही से सूख गए थे। यह हाल देखकर रोने-पीटने लगी। मन्नतें तो बहुतेरी हो चुकी थीं, रोती हुई मोहन की खाट के सात फेरे करके हाथ बाँधकर बोली -- भगवन्! यही मेरे जन्म की कमाई है। अपना सर्वस्व खोकर भी मैं बालक को छाती से लगाए हुए संतुष्ट थी; लेकिन यह चोट न सही जाएगी। तुम इसे अच्छा कर दो। इसके बदले मुझे उठा लो। बस, मैं यही दया चाहती हूँ, दयामय!

संसार के रहस्य को कौन समझ सकता है? क्या हममें से बहुतों का यह अनुभव नहीं कि जिस दिन हमने बेईमानी करके कुछ रक़म उड़ाई, उसी दिन उस रक़म का दुगना नुकसान हो गया। सुशीला को उसी दिन रात को ज्वर आ गया और उसी दिन मोहन का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा-शुश्रूषा में आधी तो यों ही रह गई थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कि फिर न छोड़ा । मालूम नहीं, देवता बैठे सुन रहे थे या क्या, उसकी याचना अक्षरक्षः पूरी हुई।

पंद्रहवें दिन मोहन चारपाई से उठकर माँ के पास आया और उसकी छाती पर सिर रखकर रोने लगा। माता ने उसके गले में बाहें डालकर उसे छाती से लगा लिया और बोली -- क्यों रोते हो बेटा! मैं अच्छी हो जाऊँगी। अब मुझे क्या चिंता। भगवान् पालनेवाले हैं। वही तुम्हारे रक्षक हैं। वही तुम्हारे पिता हैं। अब मैं सब तरफ़ से निश्चिंत हूँ। जल्द अच्छी हो जाऊँगी।

मोहन बोला -- जिया तो कहती है, अम्माँ अब न अच्छी होगी।

सुशीला ने बालक का चुंबन लेकर कहा -- जिया पगली है, उसे कहने दो। मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी। मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी। हाँ, जिस दिन तुम कोई अपराध करोगे, किसी की कोई चीज़ उठा लोगे, उसी दिन मैं मर जाऊँगी!

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मोहन ने प्रसन्न होकर कहा -- तो तुम मेरे पास से कभी नहीं जाओगी माँ?

सुशीला ने कहा -- कभी नहीं बेटा, कभी नहीं।

उसी रात को दुख और विपत्ति की मारी हुई यह अनाथ विधवा दोनों अनाथ बालकों को भगवान् पर छोड़कर परलोक सिधार गई।

इस घटना को तीन साल हो गए हैं; मोहन और रेवती दोनों उसी वृद्धा के पास रहते हैं। बुढ़िया माँ तो नहीं है; लेकिन माँ से बढ़कर है। रोज़ मोहन को रात की रखी रोटियाँ खिलाकर गुरुजी की पाठशाला में पहुँचा आती है। छुट्टी के समय जाकर लिवा आती है। रेवती का अब चौदहवाँ साल है। वह घर का सारा काम -- पीसना-कूटना, चौका-बरतन, झाड़ू-बहारू --करती है। बुढ़िया सौदा बेचने चली जाती है, तो वह दूकान पर भी आ बैठती है।

एक दिन बड़े पंच सेठ कुबेरदास ने उसे बुला भेजा और बोले -- तुझे दूकान पर बैठते शर्म नहीं आती, सारी बिरादरी की नाक कटा रही है? ख़बरदार, जो कल से दूकान पर बैठी। मैंने तेरे पाणिग्रहण के लिए झाबरमलजी को पक्का कर लिया है।

सेठानी ने समर्थन किया -- तू अब सयानी हुई बेटी, अब तेरा इस तरह बैठना अच्छा नहीं। लोग तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। सेठ झाबरमल तो राज़ी ही न होते थे, हमने बहुत कह-सुनकर राज़ी किया है। बस, समझ ले कि रानी हो जाएगी। लाखों की संपत्ति है, लाखों की। तेरे धन्य भाग्य कि ऐसा वर मिला। तेरा छोटा भाई है, उसको भी कोई दूकान करा दी जाएगी।

सेठ -- बिरादरी की कितनी बदनामी है!

सेठानी -- है ही।

रेवती ने लज्जित होकर कहा -- मैं क्या जानूँ, आप मामा से कहें!

सेठ(बिगड़कर) -- वह कौन होता है! टके पर मुनीमी करता है। उससे मैं क्या पूछूँ? मैं बिरादरी का पंच हूँ। मुझे अधिकार है, जिस काम से बिरादरी का कल्याण देखूँ, वह करूँ। मैंने और पंचों से राय ले ली है। सब मुझसे सहमत हैं। अगर तू यों नहीं मानेगी, तो हम अदालती कारवाई करेंगे। तुझे ख़रच-बरच का काम होगा, यह लेती जा।

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यह कहते हुए उन्होंने २० रु॰ के नोट रेवती की तरफ़ फेंक दिए।

रेवती ने नोट उठाकर वहीं पुरजे-पुरजे कर डाले और तमतमाए मुख से बोली -- बिरादरी ने तब हम लोगों की बात न पूछी , जब हम रोटियों को मोहताज थे। मेरी माता मर गई, कोई झाँकने तक न गया। मेरा भाई बीमार हुआ, किसी ने ख़बर तक न ली। ऐसी बिरादरी की मुझे परवाह नहीं है।

रेवती चली गई, तो झाबरमल कोठरी से निकल आए। चेहरा उदास था। सेठानी ने कहा -- लड़की बड़ी घमंडिन है। आँख का पानिअ मर गया है। झाबरमल -- बीस रुपये ख़राब हो गए। ऐसा फाड़ा है कि जुड़ भी नहीं सकते।

कुबेरदास -- तुम घबराओ नहीं; मैं इसे अदालत से ठीक करूँगा। जाती कहाँ है।

झाबरमल -- अब तो आपकी ही भरोसा है।

बिरादरी के बड़े पंच की बात कहीं मिथ्या हो सकती है? रेवती नाबालिग थी। माता-पिता नहीं थे। ऐसी दशा में पंचों का उस पर पूरा अधिकार था। वह बिरादरी के दबाव में नहीं रहना चाहती है, न चाहे। क़ानून बिरादरी के अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकता।

संतलाल ने यह माजरा सुना, तो दाँत पीसकर बोले -- न-जाने इस बिरादरी का भगवान् कब अंत करेंगे।

रेवती -- क्या बिरादरी मुझे ज़बरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती है?

संतलाल -- हाँ बेटी, धनिकों के हाथ में तो क़ानून भी है।

रेवती -- मैं कह दूँगी कि मैं उनके पास नहीं रहना चाहती।

संतलाल -- तेरे कहने से क्या होगा! तेरे भाग्य में यही लिखा था, तो किसका बस है? मैं जाता हूँ बड़े पंच के पास।

रेवती -- नहीं मामाजी, तुम कहीं न जाओ। जब भाग्य ही का भरोसा है, तब जो कुछ भाग्य में लिखा होगा, वह होगा।

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रात तो रेवती ने घर में काटी। बार-बार निद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। यह अनाथ अकेला कैसे रहेगा, यह सोचकर उसका मन कायर हो जाता; पर झाबरमल की सूरत याद करके उसका संकल्प दृढ़ हो जाता।

प्रातःकाल रेवती गंगा-स्नान करने गयी। यह इधर कई महीनों से उसका नित्य का नियम था। आज ज़रा अँधेरा था; पर यह कोई संदेह की बात न थी। संदेह तब हुआ, जब आठ बज गए और वह लौटकर न आयी। तीसरे पहर सारी बिरादरी में ख़बर फैल गई -- सेठ रामनाथ की कन्या गंगा में डूब गई। उसकी लाश पायी गई।

कुबेरदास ने कहा -- चलो, अच्छा हुआ; बिरादरी की बदनामी तो न होगी।

झाबरमल ने दुखी मन से कहा -- मेरे लिए अब कोई उपाय कीजिए।

उधर मोहन सिर पीट-पीटकर रो रहा था और बुढ़िया उसे गोद में लिये समझा रही थी -- बेटा, उस देवी के लिए क्यों रोते हो। ज़िंदगी में उसके दुःख ही दुःख था। अब वह अपनी माँ की गोद में आराम कर रही है।