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प्रेम का उदय

भोंदू पसीने में तर, लकड़ी का एक गट्ठा सिर पर लिये आया और उसे ज़मीन पर पटककर बंटी के सामने खड़ा हो गया, मानो पूछ रहा हो -- क्या अभी तेरा मिज़ाज ठीक नहीं हुआ?

संध्या हो गई थी, फिर भी लू चलती थी और आकाश पर गर्द छायी हुई थी। प्रकृति रक्तशून्य देह की भाँति शिथिल हो रही थी।

भोंदू प्रातःकाल घर से निकला था। दोपहर उसने एक पेड़ की छाँह में काटी थी। समझा था, इस तपस्या से देवीजी का मुँह सीधा हो जाएगा; लेकिन आकर देखा, तो वह अब भी कोप-भवन में थी।

भोंदू ने बातचीत छेड़ने के इरादे से कहा -- लो, एक लोटा पानी दे दे, बड़ी प्यास लगी है। मर गया सारे दिन। बाज़ार में जाऊँगा, तो तीन आने से बेसी न मिलेंगे। दो-चार साँडे मिल जाते, तो मेहनत सुफल हो जाती।

बंटी ने सिरकी के अंदर बैठे-बैठे कहा -- धरम भी लूटोगे और पैसे भी। मुँह धो रखो।

भोंदू ने भँवें सिकोड़कर कहा -- क्या धरम-धरम बकती है! धरम करना हँसी-खेल नहीं है। धरम वह करता है, जिसे भगवान ने माना हो। हम क्या खाकर धरम करेंगे? भर पेट चबेना तो मिलता नहीं, धरम करेंगे।

बंटी ने अपना वार ओछा पड़ते देखकर चोट पर चोट की -- संसार में कुछ ऐसे भी महात्मा हैं, जो अपना पेट चाहे न भर सकें, पर पड़ोसियों को नेवता देते फिरते हैं; नहीं तो सारे दिन बन-बन लकड़ी न तोड़ते फिरते। ऐसे धरमात्मा लोगोंको मेहरिया रखने की क्यों सूझती है, यही मेरी समझ में नहीं आता। धरम की गाड़ी क्या अकेले नहीं खींचते बनती?

भोंदू इस चोट से तिलमिला गया। उसकी जिरहदार नसें तन गईं, माथे पर बल पड़ गए। इस अबला का मुँह वह एक डपट में बंद कर सकता था; पर डाँट-डपट उसने न सीखी थी। जिसके पराक्रम की सारे कंजड़ों में धूम थी, जो अकेला सौ-पचास जवानों का नशा उतार सकता था, वह इस अबला के सामने चूँ तक न कर सका। दबी ज़बान से बोला -- मेहरिया धरम बेचने के लिए नहीं लायी जाती, धरम पालने के लिए लायी जाती है।

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यह कंजड़-दंपति आज तीन दिन से और कई कंजड़-परिवारों के साथ इस बाग़ में उतरा हुआ था। सारे बाग़ में सिरकियाँ ही सिरकियाँ दिखाई देती थीं। उसी तीन हाथ चौड़ी और चार हाथ लंबी सिरकी के अंदर एक-एक पूरा परिवार जीवन के समस्त व्यापारों के साथ कल्पवास-सा कर रहा था। एक किनारे चक्की थी, एक किनारे रसोई का स्थान, एक किनारे दो-एक अनाज के मटके। द्वार पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के लिए पड़ी थी। हरेक परिवार के साथ दो-दो भैंसे या गधे थे । जब डेरा कूच होता था, तो सारी गृहस्थी इन जानवारों पर लाद दी जाती थी। यही इन कंजड़ों का जीवन था। सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस ही में शादी-ब्याह, लेन-देन, भगड़े-टंटे होते रहते थे। इस दूनिया के बाहरवाला अखिल संसार उनके लिए केवल शिकार का मैदान था। उनके किसी इलाके में पहुँचते ही वहाँ की पुलिस तुरंत आकर उन्हें अपनी निगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारों तरफ़ चौकीदार का पहरा हो जाता था। स्त्री या पुरुष किसी गाँव में जाते तो दो चार चौकीदार उनके साथ हो लेते थे। रात को भी उनकी हाज़िरी ली जाती थी। फिर भी आस-पास के गाँवों में आतंक छाया हुआ था; क्योंकि कंजड़ लोग बहुधा घरों में घुसकर जो चीज़ चाहते, उठा लेते और उनके हाथ में जाकर कोई चीज़ लौट न सकती थी। रात में ये लोग अकसर चोरी करने निकल जाते थे। चौकीदारों को उनसे मिले रहने में ही अपनी कुशल दीखती थी। कुछ हाथ भी लगता था और जान भी बची रहती थी। सख़्ती करने में प्राणों का भय था, कुछ मिलने का तो ज़िक्र ही क्या, क्योंकि कंजड़ लोग एक सीमा के बाहर किसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंदू अपनी मेहनत की कमाई खाता था; मगर इसलिए नहीं कि वह पुलिसवालों की ख़ुशामद न कर सकता था। उसकी स्वतंत्र आत्मा अपने बाहुबल से प्राप्त किसी वस्तु में हिस्सा देना स्वीकार न करती थी, इसीलिए वह यह नौबत आने ही न देती थी।

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बंटी को पति की यह आचार-निष्ठा एक आँख न भाती थी। उसकी और बहनें नई-नई साड़ियाँ और नए-नए आभूषण पहनतीं, तो बंटी उन्हें देख-देख कर पति की अकर्मण्यता पर कुढ़ती थी। इस विषय पर दोनों में कितने ही संग्राम हो चूके थे, लेकिन भोंदू अपना परलोक बिगाड़ने पर राज़ी न होता था। आज भी प्रातःकाल यही समस्या आ खड़ी हुई थी और भोंदू लकड़ी काटने जंगलों में निकल गया था। साँड़े मिल जाते, तो आँसू पुँछते, पर आज साँड़े भी न मिले।

बंटी ने कहा -- जिससे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते हैं। राँड़ अपने माँड़ में ही ख़ुश है।

भोंदू ने कहा -- तो मैं निखट्टू हूँ?

बंटी ने इस प्रश्न का सीध-सादा उत्तर न देकर कहा -- मैं क्या जानूँ, तुम क्या हो? मैं तो यही जानती हूँ कि यहाँ धेले-धेले की चीज़ के लिए तरसना पड़ता है। यहीं सबको पहनते-ओढ़ते, हँसते-खेलते देखती हूँ। क्या मुझे पहनने-ओढ़ने, हँसने-खेलने की साध नहीं है? तुम्हारे पल्ले पड़कर ज़िंदगी नष्ट हो गई।

भोंदू ने एक क्षण विचार-मग्न रहकर कहा -- जानती है, पकड़ जाऊँगा तो तीन साल से कम की सज़ा न होगी।

बंटी विचलित न हुई। बोली -- जब और लोग नहीं पकड़ जाते, तो तुम्हीं क्यों पकड़ जाओगे।

{और लोग पुलिस को मिला लेते हैं, थानेदार के पाँव सहलाते हैं, चौकीदार की ख़ुशामद करते हैं। तू चाहती है, मैं भी औरों की तरह सबकी चिरौरी करता फिरूँ।}

बंटी ने अपना हठ न छोड़ा -- मैं तुम्हारे साथ सती होने नहीं आयी। तुम्हारे छुरी-गँड़ासे को कोई कहाँ तक डरे? जानवर को भी जब घार-भूसा नहीं मिलता, तो पगहा तुड़ाकर किसी के खेत में पैठ जाता है। मैं तो आदमी हूँ।

भोंदू ने इसका कुछ जवाब न दिया। उसकी स्त्री कोई दूसरा घर कर ले, यह कल्पना उसके लिए अपमान से भरी थी। आज बंटी ने पहली बार यह धमकी दी। अब तक भोंदू इस तलफ़ से निश्चिंत था। अब यह नई संभावना उसके सम्मुख उपस्थित हुई। उस दुर्दिन को वह अपना काबू चलते, अपने पास न आने देगा।

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आज भोंदू की दृष्टि में वह इज्ज़त नहीं रही, वह भरोसा नहीं रहा। मज़बूत दीवार को टिकाने का ज़रूरत नहीं। जब दीवार हिलने लगती है, तब हमें उसे सँभालने की चिंता होती है। आज भोंदू को अपनी दीवार हिलती हुई मालूम होती थी।

आज तक बंटी अपनी थी। वह जितनी अपनी ओर से निश्चिंत था, उतना ही उसकी ओर से था। वह जिस तरह ख़ुद रहता था, उसी तरह उसको भी रखता था। जो ख़ुद खाता था, वही उसको खिलाता था। उसके लिए विशेष फ़िक़्र न थी; पर आज उसे मालूम हुआ कि वह अपनी नहीं है, अब उसका विशेष रूप से सत्कार करना होगा, विशेष रूप से दिलजोई करनी होगी।

सूर्यास्त हो रहा था। उसने देखा, उसका गधा चरकर चुपचाप सिर झुकाए चला आ रहा है। भोंदू ने कभी उसके खाने-पीने की चिंता न की, क्योंकि गधा कभी किसी और को अपना स्वामी बनाने की धमकी न दे सकता था। भोंदू ने बाहर आकर आज गधे को पुचकारा, उसकी पीठ सहलायी और तुरंत उसे पानी पिलाने के लिए डोल और रस्सी लेकर चल दिया।

इसके दूसरे ही दिन कस्बे में एक धनी ठाकुर के घर चोरी हो गई। उस रात भोंदू अपने डेरे पर न था। बंटी ने चौकीदार से कहा -- वह जंगल से नहीं लौटा। प्रातःकाल भोंदू आ पहुँचा। उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी। कुछ सोने के गहने भी थे। बंटी ने तुरंत गहनों को ले जाकर एक वृक्ष की जड़ में गाड़ दिया। रुपयों की क्या पहचान हो सकती थी।

भोंदू ने पूछा -- अगर कोई पूछे, इतने सारे रुपये कहाँ मिले, तो क्या कहोगी?

बंटी ने आँखें नचाकर कहा -- कह दूगी, क्यों बताऊँ? दुनिया कमाती है, तो किसी को हिसाब देने जाती है? हमीं क्यों अपना हिसाब दें?

भोंदू ने संदिग्ध भाव से गर्दन हिलाकर कहा -- यह कहने से गला न छूटेगा, बंटी! तू कह देना, मैं तीन-चार मास से दो-दो चार-चार रुपये महीना जमा करती आयी हूँ। हमारा ख़रच ही कौन लंबा है।

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दोनों ने मिलकर बहुत-से जवाब सोच निकाले -- जड़ी-बूटियाँ बेचते हैं। एक-एक जड़ी के लिए मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपये मिल जाते हैं। ख़स, साँड़े, जानवरों की खालें, नख और चर्बी, सभी बेचते हैं।

इस ओर से निश्चिंत होकर दोनों बाज़ार चले। बंटी ने अपने लिए तरह-तरह के कपड़े, चूड़ियाँ, टिकुलियाँ, बुंदे, सेंदुर, पान-तमाखू, तेल और मिठाई ली। फिर दोनों जने शराब की दूकान गये। ख़ूब शराब पी। फिर दो बोतल शराब रात के लिए लेकर दोनों घूमते-घामते, गाते-बजाते बड़ी रात गए, डेरे पर लौटे। बंटी के पाँव आज ज़मीन पर न पड़ते थे। आते ही बन-ठनकर पड़ोसियों को अपनी छवि दिखाने लगी।

जब वह लौटकर अपने घर आयी और भोजन पकाने लगी, तब पड़ोसियों ने टिण्पणियाँ करनी शुरू कीं --

{कहीं गहरा हाथ मारा है}

{बड़ा धरमात्मा बना फिरता था।}

{बगला-भगत है।}

{बंटी तो आज जैसे हवा में उड़ रही है।}

{आज भोंदुआ की कितनी ख़ातिर हो रही है, नहीं तो कभी एक लुटिया पानी देने भी न उठती थी।}

रात को भोंदू को देवी की याद आयी। आज तक कभी उसने देवी की वेदी पर बकरे का बलिदान न किया था। पुलिस को मिलाने में ज़्यादा ख़र्च था। कुछ आत्म-सम्मान भी खोना पड़ता। देवीजी केवल एक बकरे में राज़ी हो जाती है। हाँ, उससे एक ग़लती ज़रूर हुई थी। उसकी बिरादरी के और लोग साधारतणया कार्यसिद्धि के पहले ही बलिदान किया करते थे। भोंदू ने यह ख़तरा न लिया। जब तक माल हाथ न आ जाय, उसके भरोसे पर देवी-देवताओं को खिलाना उसकी व्यावसायिक बुद्धि को न जँचा। औरों से अपने कृत्य को गुप्त रखना भी चाहता था, इसलिए किसी को सूचना भी न दी, यहाँ तक कि बंटी से भी न कहा -- बंटी तो भोजन बना रही थी, वह बकरे की तलाश में घर से निकल पड़ा।

बंटी ने पूछा -- अब भोजन करने के जून कहाँ चले?

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{अभी आता हूँ।}

{मत जाओ, मुझे डर लगता है।}

भोंदू स्नेह के नवीन प्रकाश से खिलकर बोला -- मुझे देर न लगेगी। तू यह गँड़ासा अपने पास रख ले।

उसने गँड़ासा निकालकर बंटी के पास रख दिया और निकला। बकरे की समस्या बेढब थी। रात को बकरा कहाँ से लाता? इस समस्या को भी उसने एक नए ढंग से हल किया। पास की बस्ती में एक गड़ेरिए के पास कई बकरे पले थे। उसने सोचा, वहीं से एक बकरा उठा लाऊँ। देवीजी को अपने बलिदान से मतलब है, या इससे कि बकरा कैसे आया और कहाँ से आया।

मगर बस्ती के समीप पहुँचा ही था कि पुलिस के चार चौकीदारों ने उसे गिरफ़्तार कर लिया और मुश्कें बाँधकर थाने ले चले।

बंटी भोजन पकाकर अपना बनाव-सिंगार करने लगी। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ता था। आनंद से खिली जाती थी। आज जीवन में पहली बार उसके सिर में सुगंधित तेल पड़ा। आईना उसके पास एक पुराना अंधा-सा पड़ा हुआ था। आज वह नया आईना लायी थी। उसके सामने बैठ कर उसने अपने केश सँवारे। मुँह पर उबटन मला। साबुन लाना भूल गई थी। साहब लोग साबुन लगाने से ही तो इतने गोरे हो जाते हैं। साबुन होता, तो उसका रंग कुछ तो निखर जाता। कल वह अवश्य साबुन की कई बट्टियाँ लाएगी और रोज़ लगाएगी। केश गूँथकर उसने माथे पर अलसी का लुआब लगाया, जिसमें बाल न बिखरने पाएँ। फिर पान लगाए, चूना ज़्यादा हो गया था। गलफड़ों में छाले पड़ गए; लेकिन उसने समझा, शायद पान खाने का यही मज़ा है। आख़िर कड़वी मिर्च भी तो लोग मज़े से खाते हैं। गुलाबी साड़ी पहन और फूलों का गजरा गले में डालकर उसने आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसके आबनूसी रंग पर लाली दौड़ गई। आप ही आप लज्जा से उसकी आँखें झुक गईं। दरिद्रता की आग से नारीत्व भी भस्म हो जाता है, नारीत्व की लज्जा का क्या ज़िक्र। मैले-कुचैले कपड़े पहनकर लजाना ऐसा ही है, जैसे कोई चबैने में सुगंध लगाकर खाए।

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इस तरह सजकर बंटी भोंदू की राह देखने लगी। जब अब भी वह न आया, तो उसका जी झुँझलाने लगा। रोज़ तो साँझ ही से द्वार पर पड़ रहते थे, आज न जाने कहाँ जाकर बैठ रहे। शिकारी अपनी बंदूक़ भर लेने के बाद इसके सिवा और क्या चाहता है कि शिकार सामने आये। बंटी के सूखे हृदय में आज पानी पड़ते ही उसका नारीत्व अंकुरित हो गया। झुँझलाहट के साथ उसे चिंता भी होने लगी। उसने बाहर निकलकर कई बार पुकारा। उसके कंठस्वर में इतना अनुराग कभी न था। उसे कई बार भान हुआ कि भोंदू आ रहा है, वह हर बार सिरकी के अंदर दौड़ आती और आईने में सूरत देखती कि कुछ बिगड़ न गया हो। ऐसी धड़कन, ऐसी उलझन उसकी अनुभूति से बाहर थी।

बंटी सारी रात भोंदू के इंतजार में उद्विग्न रही। ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी शंका तीव्र होती जाती थी। आज ही उसके वास्तविक जीवन का आरंभ हुआ था और आज ही यह हाल!

प्रातःकाल वही उठी, तो अभी कुछ अँधेरा ही था। इस रतजगे से उसका चित्त खिन्न और सारी देह अलसायी हुई थी। रह-रहकर भीतर से एक लहर-सी उठती थी, आँखें भर-भर आती थीं।

सहसा किसी ने कहा -- अरे बंटी, भोंदू रात पकड़ा गया।

बंटी थाने पहुँची तो पसीने में तर थी और दम फूल रहा था। उसे भोंदू पर दया न थी, क्रोध आ रहा था। सारा ज़माना यही काम करता है और चैन की बंसी बजाता है। इन्होंने कहते-कहते हाथ भी लगाया, तो चूक गए। नहीं सहूर था, तो साफ़ कह देते, मुझसे यह काम न होगा। मैं यह थोड़े ही कहती थी कि आग में फाँद पड़ो।

उसे देखते ही थानेदार ने धौंस जमायी -- यही तो है भोंदुआ की औरत, इसे भी पकड़ लो।

बंटी ने हेकड़ी जतायी -- हाँ-हाँ, पकड़ लो। यहाँ किसी से नहीं डरते। जब कोई काम ही नहीं करते, तो डरें क्यों?

अफ़सर और मातहत सभी की अनुरक्त आँखें बंटी की ओर उठने लगीं। भोंदू की तरफ़ से लोगों के दिल कुछ नर्म हो गए। उसे धूप से छाँह में बैठा दिया गया। उसके दोनों हाथ पीछे बँधे हुए थे और धूल-धूसरित काली देह पर भी जूतों और कोड़ों की रक्तमय मार साफ़ नज़र आ रही थी। उसने एक बार बंटी की ओर देखा, मानो कह रहा था -- देखना, कहीं इन लोगों के धोखे में मत आ जाना।

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थानेदार ने डाँट बतायी -- ज़रा इसकी दीदा-दिलोरी देखो, जैसे देवी ही तो है; मगर इस फेर में मत रहना। यहाँ तुम लोगों की नस-नस पहचानता हूँ। इतने कोड़े लगवाऊँगा कि चमड़ी उड़ जाएगी; नहीं तो सीधे से क़बूल दो। सारा माल लौटा दो। इसी में ख़ैरियत है।

भोंदू ने बैठे-बैठे कहा -- क्या क़बूल दें। जो देश को लूटते हैं, उनसे तो कोई नहीं बोलता। जो बेचारे अपनी गाढ़ी कमाई की रोटी खाते हैं, उनका गला काटने को पुलिस भी तैयार रहती है। हमारे पास किसी की नज़र-भेंट देने के लिए पैसे नहीं हैं।

थानेदार ने कठोर स्वर से कहा -- हाँ-हाँ, जो कुछ कोर-कसर रह गई हो, वह पूरी कर दे। किरकिरी न होने पाए। मगर इन बैठकबाज़ियों से बच नहीं सकते। अगर एकबाल न किया, तो तीन साल को जाओगे मेरा क्या बिगड़ता है? अरे छोटेसिंह, ज़रा लाल मिर्च की धूनी तो दो इसे। कोठरी बंद करके पसेरी भर मिरचे सुलगा दो। अभी माल बरामद हुआ जाता है।

भोंदू ने ढिठाई से कहा -- दोरोगाजी, बोटी-बोटी काट डालो; लेकिन कुछ हाथ न लगेगा। तुमने मुझे रात भर पिटवाया है, मेरी एक-एक हड्डी चूर-चूर हो गई है। कोई दूसरा होता तो अब तक सिधार गया होता! क्या तुम समझते हो, आदमी को रुपये-पैसे जान से भी प्यारे होते हैं? जान ही के लिए तो आदमी सब तरह के कुकरम करता है। धूनी लगाकर भी देख लो।

दारोग़ाजी को अब विश्वास आया कि इस फ़ौलाद को झुकाना मुश्किल है। भोंदू की मुखाकृति से शहीदों का-सा आत्मसमर्पण झलक रहा था। यद्यपि उनके हुकुम की तालीम होने लगी, दो कान्स्टेबलों ने भोंदू को एक कोठरी में बंद कर दिया, दो आदमी मिर्चे लाने दौड़े, लेकिन दारोग़ा की युद्धनीति बदल गई थी। बंटी का हृदय क्षोभ से फटा जाता था। वह जानती थी, चोरी करके एकबाल कर लेना कंजड़ जाति की नीति में महान लज्जा की बात है; लेकिन क्या यह सचमुच मिर्च की धूनी सुलगा देंगे? इतना कठोर है इनका हृदय? सालन बघारने में कभी मिर्च जल जाती है, तो छींकों और खाँसियों के मारे दम निकलने लगता है। जब नाक के पास धूनी सुलगाई जाएगी, तब तो प्राण ही निकल जाएँगे। उसने जान पर खेलकर कहा -- दारोग़ाजी, तुम समझते होंगे कि इन ग़रीबों की पीठ पर कोई नहीं है; लेकिन मैं कहे देती हूँ, हाकिम से रत्ती-रत्ती हाल कह दूँगी। भला चाहते हो तो उसे छोड़ दो, नहीं तो इसका फल बुरा होगा।

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थानेदार ने मुस्कराकर कहा -- तुझे क्या, वह मर जाएगा, किसी और के नीचे बैठ जाना। जो कुछ जमा-जथा लाया होगा, वह तो तेरे ही हाथ में होगी। क्यों नहीं एकबाल करके उसे छुड़ा लेती? मैं वादा करता हूँ, मुक़दमा न चलाऊँगा। सब माल लौटा दे। तुने ही उसे मंत्र दिया होगा। गुलाबी साड़ी और पान और ख़ुशबूदार-तेल के लिए तू ही ललच रही होगी। उसकी इतनी साँसत हो रही है और तू खड़ी देख रही है।

शायद बंटी की अंतरात्मा को यह विश्वास न था कि ये लाग इतने अमानुषीय अत्याचार कर सकते हैं; लेकिन जब सचमुच धूनी सुलगा दी गई, मिर्च की तीखी ज़हरीली झार फैली और भोंदू के खाँसने की आवाजें कानों में आयीं, तो उसकी आत्मा कातर हो उठी। उसका वह दुस्साहस भूठे रंग की भाँति उड़ गया। उसने दारोग़ाजी के पाँव पकड़ लिए और दीन भाव से बोली -- मालिक, मुझ पर दया करो। मैं सब-कुछ दे दूँगी।

भोंदू ने सशंक होकर पूछा -- धूनी क्यों हटाते हो?

एक चौकीदार ने कहा -- तेरी औरत ने एकबाल कर लिया।

भोंदू की नाक, आँख, मुँह से पानी जारी था। सिर चक्कर खा रहा था। गले की आवाज़ बंद-सी हो गई थी; पर वह वाक्य सुनते ही वह सचेत हो गया। उसकी दोनों मुट्ठियाँ बँधग् गईं। बोला -- क्या कहा?

{कहा क्या, चोरी खुल गई। दारोग़ाजी माल बरामद करने गए हुए हैं। पहले ही एकबाल कर लिया होता, तो क्यों इतनी साँसत होती।}

भोंदू ने गरजकर कहा -- वह झूठ बोलती है।

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{वहाँ माल बरामद हो गया, तुम अभी अपनी ही गा रहे हो।}

परंपरा की मर्यादा के अपने हाथों से भंग होने की लज्जा से भोंदू का मस्तक झुक गया। इस घोर अपमान के बाद अब उसे अपना जीवन दया और घृणा और तिरस्कार इन सभी दशाओं से निषिद्ध जान पड़ता था। वह अपने समाज में पतित हो गया था।

सहसा बंटी आकर खड़ी हो गई और कुछ कहना ही चाहती थी कि भोंदू की रौद्र मुद्रा देखकर उसकी ज़बान बंद हो गई। उसे देखते ही भोंदू की आहत मर्यादा किसी आहत सर्प की भाँति तड़प उठी। उसने बंटी को अंगारों से तपती हुई लाल आँखों से देखा। उन आँखों में हिंसा की आग जल रही थी। बंटी सिर से पाँव तक काँप उठी। वह उलटे पाँव वहाँ से भागी। किसी देवता के अग्निबाण के समान वे दोनों अंगारे-सी आँखें उसके हृदय में चुभने लगीं।

थाने से निकलकर बंटी ने सोचा, अब कहाँ जाऊँ? भोंदू उसके साथ होता तो वह पड़ोसियों के तिरस्कार को सह लेती। इस दशा में उसके लिए अपने घर जाना असंभव था। वे दोनों अंगारे-सी आँखें उसके हृदय में चुभी जाती थीं; लेकिन कल की सौभाग्य-विभूतियों का मोह उसे डेरे की ओर खींचने लगा। शराब की बोतल अब भी भरी पड़ी थी। फुलौड़ियाँ छींके पर हाँड़ी में धरी थीं। वह तीव्र लालसा, जो मृत्यु को सम्मुख देखकर भी संसार के भोग्य पदार्थों की ओर मन को चलायमान कर देती है, उसे खींचकर डेरे की ओर ले चली।

दोपहर हो गया था। वह पड़ाव पर पहुँची, तो सन्नाटा छाया हुआ था। अभी कुछ देर पहले जो स्थान जीवन का क्रीड़ा-क्षेत्र बना हुआ था, बिलकुल निर्जन हो गया था। बिरादरीवालों के तिरस्कार का यह सबसे भयंकर रूप था। सभी ने उसे त्याज्य समझ लिया। केवल उसकी सिरकी उस निर्जनता में रोती हुई खड़ी थी। बंटी ने उसके अंदर पाँव रखे, तो उसके मन की कुछ वही दशा हुई, जो अकेला घर देखकर किसी चोर की होती है। कौन-कौन सी चीज़ समेटे। उस कुटी में उसने रो-रिकर पाँच वर्ष काटे थे; पर आज उसे उससे वही ममता हो रही थी, जो किसी माता को अपने दुर्गुणी पुत्र को देखकर होती है, जो बरसों के बाद परदेश से लौटा हो। हवा से कुछ चीजें इधर की उधर हो गई थीं। उसने तुरंत उन्हें सँभालकर रखा। फुलौड़ियों की हाँड़ी छींके पर कुछ ठंढी हो गई थी। शायद उस पर बिल्ली झपटी थी। उसने जल्दी से हाँड़ी उतारकर देखी। फुलौड़ियाँ अछूती थीं। पानों पर जो गीली कपड़ा लपटा लपेटा था, वह सूख गया था। उसने तुरंत कपड़ा तर कर दिया।

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किसी के पाँव की आहट पाकर उसका कलेजा धक-से हो गया। भोंदू आ रहा है। उसकी वह दोनों अँगारे-सी आँखें! उसके रोएँ खड़े हो गए? भोंदू के क्रोध का उसे दो-एक बार अनुभव हो चुका था; लेकिन उसने दिल को मज़बूत किया। क्यों मारेगा? कुछ कहेगा, कुछ पूछेगा, कुछ सवाल-जवाब करेगा कि यों ही गँड़ासा चला देगा? उसने उसके साथ कोई बुराई नहीं की। आफ़त से उसकी जान बचाई। मरजाद जान से प्यारी नहीं होती। भोंदु को होगी, उसे नहीं है। क्या इतनी-सी बात के लिए वह उसकी जान ले लेगा?

उसने सिरकी के द्वार से झाँका। भोंदू न था, केवल उसका गधा चला आ रहा था।

बंटी आज उस अभागे-से गधे को देखकर ऐसी प्रसन्न हुई, मानो अपना भाई नैहर से बतासों की पोटली लिये थका-माँदा चला आता हो। उसने जाकर उसकी गर्दन सहलायी और उसके थूथन को अपने मुँह से लगा लिया। वह उसे फूटी आँखों न भाता था; पर आज उससे उसे कितनी आत्मीयता हो गई थी। वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसे घूर रही थीं। वह सिहर उठी।

उसने फिर सोचा -- क्या किसी तरह न छोड़ेगा? वह रोती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ेगी। क्या तब भी न छोड़ेगा? इन आँखों की वह कितनी सराहना किया करता था। उनमें आँसू बहते देखकर भी उसे दया न आएगी!

बंटी ने चुक्कड़ में शराब उँड़ेलकर पी ली और छींके से फुलौड़ियाँ उतार कर खायीं। जब उसे मरना ही है, तो साध क्यों रह जाए? वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसके सामने चमक रही थीं। उसने दूसरा चुक्कड़ भरा और पी गई। ज़हरीला ठर्रा, जिसे दोपहर की गर्मी ने और भी घातक बना दिया था, देखते-देखते उसके मस्तिष्क को खौलाने लगा। बोतल आधी हो गई थी।

उसने सोचा -- भोंदू कहेगा, तूने इतनी दारू क्यों पी, तो वह क्या कहेगी? कह देगी -- हाँ, पी; क्यों न पीए, इसी के लिए तो यह सब-कुछ हुआ। वह एक बूँद भी न छोड़ेगी। जो होना हो, हो। भोंदू उसे मार नहीं सकता। इतना निर्दयी नहीं है, इतना कायर नहीं है। उसने फिर चुककड़ भरा और पी गई। पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन की अतीत स्मृतियाँ उसकी आँखों के सामने खिंच गईं। सैकड़ों ही बार दोनों में गृह-युद्ध हुए थे। आज बंटी को हर बार अपनी ही ज़्यादती मालूम हो रही थी। बेचारा जो कुछ कमाता है, उसी के हाथों पर रख देता है। अपने लिए कभी एक पैसे की तंबाकू भी लेता है तो पैसा उसी से माँगता है। भोर से साँझ तक वन-वन फिरा ही तो करता है? जो काम उससे नहीं होता, वह कैसे करे?

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यकायक एक कांस्टेबल ने आकर कहा -- अरी बंटी, कहाँ है? चल देख, भोंदुआ का हाल-बेहाल हो रहा है। अभी तक तो चुपचाप बैठा था। फिर न जाने क्या जी में आया कि एक पत्थर पर अपना सिर पटक दिया। ख़ून बह रहा है। हम लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ही दे दी थी।

एक महीना बीत गया था। संध्या का समय था। काली-काली घटाएँ छायी और मूसलाधार वर्षा हो रही थी। भोंदू की सिरकी अब भी उस निर्जन स्थान पर खड़ी थी, भोंदू खटोली पर पड़ा हुआ था। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और देह जैसे सूख गई थी। वह सशंक आँखों से वर्ष की ओर देखता है, चाहता है उठकर बाहर देखूँ; पर उठा नहीं जाता।

बंटी सिर पर घास का एक बोझ लिये पानी में लथ-पथ आती दिखाई दी। वही गुलाबी साड़ी है, पर तार-तार; किंतु उसका चेहरा प्रसन्न है। विषाद और ग्लानि के बदले आँखों से अनुराग टपक रहा है। गति में वह चपलता, अंगों में वह सजीवता है, जो चित्त की शांति का चिह्न है। भोंदू ने क्षीण स्वर में कहा -- तू इतना भीग रही है, कहीं बीमार पड़ गई, तो कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी न रहेगा। मैं कहता हूँ, तू क्यों इतना मरती है। दो गट्ठे तो बेच चुकी थी। तीसरा गट्ठा लाने का काम क्या था? यह हाँड़ी में क्या लायी है?

बंटी ने हाँड़ी को छिपाते हुए कहा -- कुछ तो नहीं है, कैसी हाँड़ी?

भोंदू ज़ोर लगाकर खटोली से उठा, अंचल के नीचे छिपी हुई हाँड़ी खोल दी और उसके भीतर नज़र डालकर बोला -- अभी लौटा, नहीं तो मैं हाँड़ी फोड़ दूँगा।

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बंटी ने धाती से पानी निचोड़ते हुए कहा -- ज़रा आईने में सूरत देखो। घी-दूध कुछ न मिलेगा, तो कैसे उठोगे? -- कि सदा खाट सेने का ही विचार है।

भोंदू ने खटोली पर लेटते हुए कहा -- अपने लिए तो एक साड़ी नहीं लायी, कितना कहके हार गया; मेरे लिए घी और दूध सब चाहिए! मैं घी न खाऊँगा।

बंटी ने मुस्कराकर कहा -- इसी लिए तो घी खिलाती हूँ कि तुम जल्दी से काम-धंधा करने लगो और मेरे लिए साड़ी लाओ।

भोंदू ने मुस्कराकर कहा -- तो आज जाकर कही सेंध मारूँ?

बंटी ने उसके गाल पर एक ठोकर देकर कहा -- पहले मेरा गला काट देना, तब जाना।