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डिमांस्ट्रेशन

महाशय गुरुप्रसादजी रसिक जीव हैं, गाने-बजाने का शौक़ है, खाने-खिलाने का शौक़ है और सैर-तमाशे का शौक़ है, पर उसी मात्रा में द्रव्योपार्जन का शौक़ नहीं है। यों वह किसी के मोहताज नहीं हैं, भले आदमियों की तरह हैं और हैं भी भले आदमी; मगर किसी काम में चिमट नहीं सकते। गुड़ होकर भी उनमें लस नहीं है। वह कोई ऐसा काम उठाना चाहते हैं, जिसमें चटपट कारूँ का ख़ज़ाना मिल जाय और हमेशा के लिए बेफ़िक़्र हो जाएँ। बैंक से छमाही सूद चला आए, खाएँ और मज़े से पड़े रहें। किसी ने सलाह दी, नाटक-कंपनी खोलो। उनके दिल में भी बात जम गई। मित्रों को लिखा -- मैं ड्रामेटिक कंपनी खोलने जा रहा हूँ, आप लोग ड्रामे लिखना शुरू कीजिए। कंपनी का प्रास्पेक्टस बना, कई महीने उसकी ख़ूब चर्चा रही, कई बड़े-बड़े आदमियों ने हिस्से खरीदने के वादे किए। लेकिन न हिस्से बिके, न कंपनी खड़ी हुई। हाँ, इसी धुन में गुरुप्रसादजी ने एक नाटक की रचना कर डाली। और यह फ़िक़्र हुई कि इसे किसी कंपनी को दिया जाए। लेकिन यह तो मालूम ही था, कंपनीवाले एक ही घाघ होते हैं। फिर हरेक कंपनी में उसका एक नाटककार भी होता है। वह कब चाहेगा कि उसकी कंपनी में किसी बाहरी आदमी का प्रवेश हो। वह इस रचना में तरह-तरह के ऐब निकलेगा और कंपनी के मालिक को भड़का देगा। इसलिए प्रबंध किया गया कि मालिकों पर नाटक का कुछ ऐसा प्रभाव जमा दिया जाए कि नाटककार महोदय की कुछ दाल न गल सके। पाँच सज्जनों की एक कमेटी बनाई गई, उसमें सारा प्रोग्राम विस्तार के साथ तय किया गया और दूसरे दिन पाँचों सज्जन गुरुप्रसादजी के साथ नाटक दिखाने चले! ताँगे आ गए। हारमोनियम, तबला आदि सब उस पर रख दिए गए, क्योंकि नाटक का डिमांस्ट्रेशन (demonstration) करना निश्चित हुआ था।

सहसा विनोदबिहारी ने कहा -- यार, ताँगे पर जाने में तो कुछ बदरोबी होगी। मालिक सोचेगा यह महाशय यों ही हैं। इस समय दस-पाँच रुपये का मुँह न देखना चाहिए। मैं तो अँग्रेजों की विज्ञापनबाज़ी का क़ायल हूँ कि रुपये में पंद्रह आने उसमें लगाकर शेष एक आने में रोज़गार करते हैं! कहीं से दो मोटरें मँगानी चाहिए।

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रसिकलाल बोले -- लेकिन किराए की मोटरों से यह बात न पैदा होगी, जो आप चाहते हैं। किसी रईस से दो मोटरें माँगनी चाहिए, मारिस हो या नए चाल की आस्टिन।

बात सच्ची थी। भेख से भीख मिलती है। बिचार होने लगा कि किस रईस से याचना की जाए। अजी, वह महाखूसट हैं। सवेरे उसका नाम ले लो तो दिन भर पानी न मिले। अच्छा, सेठजी के पास चलें तो कैसा? मुँह धो रखिए, उसकी मोटरें अफ़सरों के लिए रिजर्व हैं, अपने रड़के तक को कभी बैठने नहीं देता, आपको दिये देता है! तो फिर कपूर साहब के पास चलें। अभी उन्होंने नई मोटर ली है। अजी, उसका नाम न लो। कोई न कोई बहाना करेगा: ड्राइवर नहीं है, मरम्मत में है।

गुरुप्रसाद ने अधीर होकर कहा -- तुम लोगों ने तो व्यर्थ का बखेड़ा कर दिया। ताँगों पर चलने में क्या हरज था?

विनोदबिहारी ने कहा -- आप तो घास खा गए हैं। नाटक लिख लेना दूसरी बात है और मुआमले को पटाना दूसरी बात है। रुपये पृष्ठ सुना देगा, अपना-सा मुँह लेकर रह जाओगे।

अमरनाथ ने कहा -- मैं तो समझता हूँ, मोटर के लिए किसी राजा-रईस की ख़ुशामद करना बेकार है। तारीफ़ तो जब है कि पाँव-पाँव चलें और वहाँ ऐसा रंग जमाएँ कि मोटर से भी ज्यादा शान रहे।

विनोदबिहारी उछल पड़े। सब लोग पाँव-पाँव चले। वहाँ पहुँचकर किस तरह बातें शुरू होंगी, किस तरह तारीफ़ों के पुल बाँधे जाएँगे, किस तरह ड्रामेटिस्ट साहब को ख़ुश किया जाएगा, इस पर बहस होती जाती थी।

ये लोग कंपनी के केंप में कोई दो बजे पहुँचे। वहाँ मालिक साहब, उनके ऐक्टर, नाटककार सब पहले ही से उनका इंतज़ार कर रहे थे। पान, इलाइची, सिगरेट मँगा लिये गए थे।

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ऊपर जाते ही रसिकलाल ने मालिक से कहा -- क्षमा कीजिएगा, हमें आने में देर हुई। हम मोटर से नहीं, पाँव-पाँव आये हैं। आज यही सलाह हुई कि प्रकृति की छटा का आनंद उठाते चलें। गुरुप्रसादजी तो प्रकृति के उपासक हैं। इनका बस होता तो आज चिमटा लिये या तो कहीं भीख माँगते होते, या किसी पहाड़ी गाँव में वटवृक्ष के नीचे बैठे पक्षियों का चहकना सुनते होते।

विनोद ने रद्दा जमाया -- और आये भी तो सीधे रास्ते से नहीं, जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते, ख़ाक छानते। पैरों में जैसे सनीचर हैं।

अमर ने और रंग जमाया -- पूरे सतजुगी आदमी हैं। नौकर-चाकर तो मोटरों पर सवार होते हैं और आप गली-गली मारे-मारे फिरते हैं। जब और रईस मीठी नींद में मज़े लेते होते हैं, तो आप नदी के किनारे ऊषा का शृंगार देखते हैं!

मस्तराम ने फ़रमाया -- कवि होना, मानो दिन-दुनिया से मुक्त हो जाना है। गुलाब ने ही यूरोप के बड़े-बड़े कवियों का आसमान पर पहुँचा दिया है। यूरोप में होते तो आज इनके द्वार पर हाथी झूमता होता। एक दिन एक बालक को रोते देखकर आप रोने लगे। पूछता हूँ, भई, क्यों रोते हो, तो और रोते हैं। मुँह से आवाज़ नहीं निकलती। बड़ी मुश्किल से आवाज़ निकली।

विनोद -- जनाब! कवि का हृदय कोमल भावों का स्रोत है, मधुर संगीत का भंडार है, अनंत का आईना है।

रसिक -- क्या बात कही है आपने, अनंत का आईना है! वाह! कवि की सोहबत में आप भी कुछ कवि हुए जा रहे हैं।

गुरुप्रसाद ने नम्रता से कहा -- मैं कवि नहीं हूँ और न मुझे कवि होने का दावा है। आप लोग मुझे ज़बरदस्ती कवि बनाए देते हैं। कवि स्रष्टा की वह अद्भुत रचना है, जो पंचभूतों की जगह नौ रसों से बनती है।

मस्तराम -- आपका यही एक वाक्य है, जिस पर सैकड़ों कविताएँ न्योछावर हैं। सुनी आपने रसिकलालजी, कवि की महिमा। याद कर लीजिए, रट डालिए।

रसिकलाल -- कहाँ तक याद करें, भैया, यह तो सूक्तियों में बातें करते हैं और नम्रता का यह हाल है कि अपने को कुछ समझते ही नहीं। महानता का यही लक्षण है। जिसने अपने को कुछ समझा, वह गया। (कंपनी के स्वामी से) आप तो अब ख़ुद ही सुनेंगे, ड्रामे में अपना हृदय निकालकर रख दिया है। कवियों में जो एक प्रकार का अल्हड़पन होता है, उसकी आपमें कहीं गंध भी नहीं। इस ड्रामे की सामग्री जमा करने के लिए आपने कुछ नहीं तो एक हज़ार बड़े-बड़े पोथों का अध्ययन किया होगा। वाजिदअली शाह को स्वार्थी इतिहास-लेखकों ने कितना कलंकित किया है, आप लोग जानते ही हैं। उस लेख-राशि को छाँटकर उसमें से सत्य के तत्त्व खोज निकालना आप ही का काम था!

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विनोद -- इसी लिए हम और आप दोनों कलकत्ते गये और वहाँ से कोई छः महीने मटियाबुर्ज की ख़ाक छानते रहे। वाजिदअली शाह की हस्तलिखित एक पुस्तक की तलाश की। उसमें उन्होंने ख़ुद अपनी जीवन-चर्या लिखी है। एक बुढ़िया की पूजा की गई, तब कहीं जाके छः महीने में किताब मिली।

अमरनाथ -- पुस्तक नहीं, रत्न है!

मस्तराम -- उस वक्त तो उसकी दशा कोयले की थी, गुरुप्रसादजी ने उस पर मोहर लगाकर अशरफ़ी बना दिया। ड्रामा ऐसा चाहिए कि जो सुने, दिल हाथों से थाम ले। एक-एक वाक्य दिल में चुभ जाए।

अमरनाथ -- संसार-साहित्य के सभी नाटकों को आपने चाट डाला और नाट्य-रचना पर सैकड़ों किताबें पढ़ डालीं।

विनोद-जभी तो चीज़ भी लासानी हुई है।

अमरनाथ -- लाहौर ड्रामेटिक क्लब का मालिक हफ़्ते भर यहाँ पड़ा रहा, पैरों पड़ा कि मुझे यह नाटक दे दीजिए; लेकिन आपने न दिया। जब ऐक्टर ही अच्छे नहीं, तो उसे अपना ड्रामा खेलवाना उसकी मिट्टी ख़राब करना था। इस कंपनी के ऐक्टर माशाअल्लाह अपना जवाब नहीं रखते और इसके नाटककार की सारे ज़माने में घूम है। आप लोगों के हाथों में पड़कर यह ड्रामा घूम मचा देगा।

विनोद -- एक तो लेखक साहब ख़ुद शैतान से ज्यादा मशहूर हैं, उस पर यहाँ के ऐक्टर का नाट्य-कौशल! शहर लुट जाएगा।

मस्तराम -- रोज़ ही तो किसी न किसी कंपनी का आदमी सिर पर सवार रहता है; मगर बाबू साहब किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते।

विनोद -- बस एक यह कंपनी है, जिसके तमाशों के लिए दिल बेकरार रहता है, नहीं तो और जितने ड्रामे खेले जाते हैं, दो कौड़ी के। मैंने तमाशा देखना ही छोड़ दिया।

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गुरुप्रसाद -- नाटक लिखना-खेलना बच्चों का खेल नहीं है, ख़ूने जिगर पीना पड़ता है। मेरे ख़याल में एक नाटक लिखने के लिए पाँच साल का समय भी काफ़ी नहीं, बल्कि अच्छा ड्रामा ज़िंदगी में एक ही लिखा जा सकता है। यों कलम घिसना दूसरी बात है। बड़े-बड़े धुरंधर आलोचकों का यही निर्णय है कि आदमी ज़िंदगी में एक ही नाटक लिख सकता है। रूस, फ़्रांस, जर्मनी सभी देशों के ड्रामे पढ़े; पर कोई न कोई दोष सभी में मौजूद। किसी में भाव है तो भाषा नहीं, भाषा है तो भाव नहीं। हास्य है तो गाना नहीं, गाना है तो हास्य नहीं। जब तक भाव, भाषा, हास्य और गाना यह चारों अंग न पूरे हों, उसे ड्रामा कहना ही न चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ आदमी हूँ, कुछ आप लोगों की सोहबत में शुदबुद आ गया। मेरी रचना की हस्ती ही क्या! लेकिन ईश्वर ने चाहा, तो ऐसे दोष आपको न मिलेंगे।

विनोद -- जब आप उस विषय के मर्मज्ञ हैं, तो दोष रह ही कैसे सकते हैं!

रसिकलाल -- दस साल तक तो आपने केवल संगीत-कला का अभ्यास किया है। घर के हज़ारों रुपये उस्तादों को भेंट कर दिये, फिर भी दोष रह जाय, तो दुर्भाग्य है।

रिहर्सल

रिहर्सल शुरू और वाह! वाह! हाय! हाय! का तार बँधा। कोरस सुनते ही ऐक्टर और प्रोप्राइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूमिका ने उन्हें विशेष प्रभावित न किया था, पर असली चीज़ सामने आते ही आँखें खुलीं! समाँ बँध गया। पहला सीन आया। आँखों के आगे वाजिदअली शाह के दरबार की तसवीर खिंच गई। दरबारियों की हाज़िरजवाबी और फड़कते हुए लतीफ़े! वाह! वाह! क्या कहना है! क्या वाक्य-रचना थी, क्या शब्द योजना थी, रसों का कितना सुरुचि से भरा हुआ समावेश था! तीसरा दृश्य हास्यमय था। हँसते-हँसते लोगों की पसलियाँ दुखने लगीं; स्थूलकाय स्वामी की संयत अविचलता भी आसन से डिग गई। चौथा सीन करुणाजनक था। हास्य के बाद करुणा, आँधी के बाद आनेवाली शांति थी।

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विनोद आँखों पर हाथ रखे सिर झुकाए, जैसे रो रहे थे। मस्तराम बार-बार ठंढी आहें खींच रहे थे और अमरनाथ बार-बार सिसकियाँ भर रहे थे। इसी तरह सीन पर सीन और अंक पर अंक समाप्त होते गए, यहाँ तक कि अब रिहर्सल समाप्त हुआ, तो दीपक जल चुके थे।

सेठजी अब तक सोंठ बने हुए बैठे थे। ड्रामा समाप्त हो गया, पर उनके मुखारविंद पर उनके मनोविचार का लेशमात्र भी आभास न था। जड़भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुस्कराहट थी, न कुतूहल, न हर्ष, न कुछ। विनोद-बिहारी ने मुआमले की बात पछी -- तो इस ड्रामा के बारे में श्रीमान् की क्या राय है?

सेटजी ने उसी विरक्त भाव से उत्तर दिया -- मैं इसके विषय में कल निवेदन करूँगा। कल यहीं भोजन भी कीजिएगा। आप लोगों के लायक भोजन तो क्या होगा, उसे केवल विदुर का साग समझकर स्वीकार कीजिएगा।

पंच पांडव बाहर निकले, तो मारे ख़ुशी के सबके बाँछें खिली जाती थीं।

विनोद -- पाँच हज़ार की थैली है। नाक बद सकता हूँ।

अमरनाथ -- पाँच हज़ार है कि दस, यह तो नहीं कह सकता, पर रंग ख़ूब जम गया।

रसिक -- मेरा अनुमान तो चार हज़ार का है।

मस्तराम -- और मेरा विश्वास है कि दस हज़ार से कम वह कहेगा ही नहीं। मैं तो सेठ के चेहरे की तरफ़ ध्यान से देख रहा था। आज ही कह देता, पर डरता था, कहीं ये लोग अस्वीकार न कर दें। उसके होठों पर तो हँसी न थी, पर मगन हो रहा था।

गुरुप्रसास -- मैंने पढ़ा भी तो जी तोड़कर।

विनोद -- ऐसा जान पड़ता था, तुम्हारी वाणी पर सरस्वती बैठ गई हैं। सभी की आँखें खुल गई।

रसिक -- मुझे उसकी चुप्पी से ज़रा संदेह होता है।

अमर -- आपके संदेह का क्या कहना! आपको ईश्वर पर भी संदेह है।

मस्तराम -- ड्रामैटिस्ट भी बहुत ख़ुश हो रहा था। दस-बारह हज़ार का वारा-न्यारा है। भई, आज इस ख़ुशी में एक दावत होनी चाहिए।

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गुरुप्रसाद -- अरे, तो कुछ बोहनी-बट्टा तो हो जाए।

मस्तराम -- जी नहीं, तब तो जलसा होगा। आज दावत होगी।

विनोद -- भाग्य के बली हो तुम गुरुप्रसाद।

रसिक -- मेरी राय है, ज़रा उस ड्रामैटिस्ट को गाँठ लिया जाए। उसका मौन मुझे भयभीत कर रहा है।

मस्तराम -- आप तो वाही हुए हैं। वह नाक रगड़कर रह जाए तब भी यह सौदा होकर रहेगा। सेठजी अब बचकर निकल नहीं सकते।

विनोद -- हम लोगों की भूमिका भी तो ज़ोरदार थी।

अमर -- उसी ने तो रंग जमा दिमा। अब कोई छोटी रक़म कहने का उसे साहस न होगा।

अभिनय

रात को गुरुप्रसाद के घर मित्रों की दावत हुई। दूसरे दिन कोई छः बजे पाँचों आदमी सेठजी के पास जा पहुँचे। संध्या का समय हवाखोरी का है। आज मोटर पर न आने के लिए बना-बनाया बहाना था। सेठजी आज बेहद ख़ुश नज़र आते थे। कल की वह मुहर्रमी सूरत अंतर्धान हो गई थी। बात-बात पर चहकते थे, हँसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस हो। दावत का सामान तैयार था। मेज़ों पर भोजन चुना जाने लगा। अंगूर, संतरे, केले, सूखे मेवे, कई क़िस्म की मिठाइयाँ, कई तरह के मुरब्बे, शराब आदि सजा दिये गए और यारों ने ख़ूब मज़े से दावत खायी।

सेठजी मेहमांनवाज़ी के पुतले बने हुए हरेक मेहमान के पास आ-आकर पूछते -- कुछ और मँगवाऊँ? कुछ तो और लीजिए। आप लोगों के लायक भोजन यहाँ कहाँ बन सकता है।

भोजन के उपरांत लोग बैठे, तो मुआमले की बातचीत होने लगी। गुरुप्रसाद का हृदय आशा और भय से काँपने लगा।

सेठजी -- हजूर ने बहुत ही सुंदर नाटक लिखा है। क्या बात है!

ड्रामैटिस्ट -- यहाँ जनता अच्छे ड्रामों की कद्र नहीं करती, नहीं तो यह ड्रामा लाजवाब होता।

सेठजी -- जनता कद्र नहीं करती न करे, हमें जनता की बिलकुल परवाह नहीं है, रत्ती बराबर परवाह नहीं है। मैं इसकी तैयारी में ५० हज़ार केवल बाबू साहब की ख़ातिर से खर्च कर दूँगा। आपने इतनी मेहनत से एक चीज़ लिखी है, तो मैं उसका प्रचार भी उतने ही हौसले से करूँगा। हमारे साहित्य के लिए क्या यह कुछ कम सौभाग्य की बात है कि आप जैसे महान् पुरुष इस क्षेत्र में आ गए। वह कीर्ति हुज़ूर को अमर बना देगी।

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ड्रामैटिस्ट -- मैंने ऐसा ड्रामा आज तक नहीं देखा। लिखता मैं भी हूँ, और लोग भी लिखते हैं। लेकिन आपकी उड़ान को कोई क्य पहुँचेगा! कहीं-कहीं तो आपने शेक्सपियर को भी मात कर दिया है।

सेठजी -- तो जनाब, जो चीज़ दिल की उमंग से लिखी जाती है, वह ऐसी ही अद्वितीय होती है। शेक्सपियर ने जो कुछ लिखा, रुपये के लोभ से लिखा। हमारे दूसरे नाटककार भी धन ही के लिए लिखते हैं। उनमें वह बात कहाँ पैदा हो सकती है? गोसाईजी की रामायण क्यों अमर है? इसी लिए कि वह भक्ति और प्रेम से प्रेरित होकर लिखी गई है। सादी की गुलिस्ताँ और बोस्ताँ, होमर की रचनाएँ, इसीलिए स्थायी हैं कि उन कवियों ने दिल की उमंग से लिखा। जो उमंग से लिखता है, वह एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य, एक-एक उक्ति पर महीनों ख़र्च कर देता है। धनेच्छु को तो एक काम जल्दी से समाप्त करके दूसरा काम शुरू करने की फ़िक़्र होती है।

ड्रामैटिस्ट -- आप बिलकुल सत्य कह रहे हैं। हमारे साहित्य की अवनति केवल इसलिए हो रही है कि हम सब धन के लिए या नाम के लिए लिखते हैं।

सेठजी -- सोचिए, आपने दस साल केवल संगीतालय में ख़र्च कर दिए। लाखों रुपये कलावंतों और गायकों को दे डाले होंगे। कहाँ-कहाँ से और कितने परिश्रम और खोज से इस नाटक की सामग्री एकत्र की। न जाने कितने राजों-महाराजों को सुनाया। इस परिश्रम और लगन का पुरस्कार कौन दे सकता है?

ड्रामैटिस्ट -- मुमकिन ही नहीं। ऐसी रचनाओं के पुरस्कार की कल्पना करना उनका अनादर करना है। इनका पुरस्कार यदि कुछ है, तो वह अपनी आत्मा का संतोष है, वह संतोष आपके एक-एक शब्द से प्रकट होता है।

सेटजी -- आपने बिलकुल सत्य कहा कि ऐसी रचनाओं का पुरस्कार अपनी आत्मा का संतोष है। यश तो बहुधा ऐसी रचनाओं को मिल जाता है, जो साहित्य का कलंक हैं। आपसे ड्रामा ले लीजिए और आज ही पार्ट तकसीम कर दीजिए। तीन महीने के अंदर इसे खेल डालना होगा।

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मेज़ पर ड्रामे की हस्तलिपि पड़ी हुई थी। ड्रामैटिस्ट ने उसे उठा लिया। गुरुप्रसाद ने दीन नेत्रों से विनोद की ओर देखा, विनोद ने अमर की ओर, अमर ने रसिक की ओर, पर शब्द किसी के मुँह से न निकला। सेठजी ने मानो सभी के मुँह सी दिये हों। ड्रामैटिस्ट साहब किताब लेकर चल दिये।

सेठजी ने मुस्कराकर कहा -- हुज़ूर को थोड़ी-सी तकलीफ़ और करनी होगी। ड्रामा का रिहर्सल शुरू हो जाएगा, तो आपको थोड़े दिनों कंपनी के साथ रहने का कष्ट उठाना पड़ेगा। हमारे ऐक्टर अधिकांश गुजराती हैं। वह हिंदी भाषा के शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते। कहीं-कहीं शब्दों पर अनावश्यक ज़ोर देते हैं। आपकी निगरानी से यह सारी बुराइयाँ दूर हो जाएँगी। ऐक्टरों ने यदि पार्ट अच्छा न किया, तो आपके सारे परिश्रम पर पानी पड़ जाएगा। यह कहते हुए उसने लड़के को आवाज़ दी -- बॉय! आप लोगों के लिए सिगार लाओ!

सिगार आ गया। सेठजी उठ खड़े हुए। यह मित्र-मंडली के लिए बिदाई की सूचना थी। पाँचों सज्जन भी उठे। सेठजी आगे-आगे द्वार तक आये। फिर सबसे हाथ मिलाते हुए कहा -- आज इस ग़रीब कंपनी का तमाशा देख लीजिए। फिर यह संयोग न जाने कब प्राप्त हो।

गुरुप्रसाद ने मानो किसी क़ब्र के नीचे से कहा -- हो सका तो आ जाउँगा।

सड़क पर आकर चारों मित्र खड़े होकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। तब पाँचों ही ज़ोर से कहकहा मारकर हँस पड़े।

विनोद ने कहा -- यह हम सबका गुरुघंटाल निकला।

अमर -- साफ़ आँखों में घूल झोंक दी।

रसिक -- मैं उसकी चुप्पी देखकर पहले ही से डर रह था कि यह कोई पल्ले सिरे का घाघ है।

मस्तराम -- मान गया इसकी खोपड़ी को। यह चपत उम्र भर न भूलेगी।

गुरुप्रसाद इस आलोचना में शरीक न हुए। वह इस तरह सिर झुकाए चले जा रहे थे, मानो अभी तक वह स्थिति को समझ ही न पाए हों।