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दो क़ब्रें

अब न यौवन है, न वह नशा है, न वह उन्माद। वह महफ़िल उठ गई, वह दीपक बुझ गया, जिससे महफ़िल की रौनक थी। वह प्रेममूर्ति क़ब्र की गोद में सो रही है। हाँ, उसके प्रेम की छाप अब भी हृदय पर है और उसकी अमर स्मृति आँखों के सामने। वारांगनाओं में ऐसी वफ़ा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दुर्लभ है और रईसों में ऐसा विवाह, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी दुर्लभ।

कुँवर रनवीरसिंह रोज़ बिला नागा संध्या समय जुहरा की क़ब्र के दर्शन करने जाते थे, उसे फूलों से सजाते, आँसुओं से सींचते। पंद्रह साल गुज़र गए, एक दिन भी नागा नहीं हुआ। प्रेम की उपासना ही उनके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम की, जिसमें उन्होंने जो कुछ देखा वही पाया और जो कुछ अनुभव किया, उसी की याद अब भी उन्हें मस्त कर देती है। इस उपासना में सुलोचना भी उनके साथ होती, जो जुहरा का प्रसाद और कुँवर साहब की सारी अभिलाषाओं की केंद्र थी।

कुँवर साहब ने दो शादियों की थीं, पर दोनों स्त्रियों में से एक भी संतान का मुँह न देख सकी। कुँवर साहब ने फिर विवाह न किया। एक दिन एक महफ़िल में उन्हें जुहरा के सर्शन हुए। उस निराश पति और अतृप्त युवती में ऐसा मेल हुआ, मानो चिरकाल से बिछुड़े हुए दो साथी फिर मिल गए हों। जीवन का वसंत-विकास संगीत और सौरभ से भरा हुआ आया, मगर अफ़सोस! पाँच वर्षों के अल्पकाल में उसका भी अंत हो गया। वह मधुर स्वप्न निराशा से भरी हुई जागृति में लीन हो गया। वह सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सुलोचना को उनकी गोद में सौंपकर सदा के लिए सिधार गई।

कुँवर साहब ने इस प्रेमादेश का इतने अनुराग से पालन किया कि देखनेवालों को आश्चर्य होता था। कितने ही तो उन्हें पागल समझते थे। सुलोचना ही की नींद सोते, उसी की नींद जागते, ख़ुद पढ़ाते, उसके साथ सैर करते -- इतनी एकाग्रता के साथ, जैसे कोई विधवा अपने अनाथ बच्चे को पाले।

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जब से वह यूनिवर्सिटी में दाख़िल हुई, उसे ख़ुद मोटर में पहुँचा आते और शाम को ख़ुद जाकर ले आते। वह उसके माथे पर से कलंक धो डालना चाहते थे, जो मानो विधाता ने क्रूर हाथों से लगा दिया था। धन तो उसे न धो सका, शायद विद्या धो डाले।

एक दिन शाम को कुँवर साहब जुहरा के मज़ार को फलों से सजा रहे थे और सुलोचना कुछ दूर पर खड़ी अपने कुत्ते को गेंद खेला रही थी कि सहसा उसने अपने कालेज के प्रोफ़ेसर डाक्टर रामेंद्र को आते देखा। सकुचाकर मुँह फेर लिया, मानो उन्हें देखा ही नहीं। शंका हुई, कहीं रामेंद्र इस मज़ार के विषय में कुछ पूछ न बैठें।

यूनिवर्सिटी में दाख़िल हुई उसे एक साल हुआ। इस एक साल में उसने प्रणय के विविध रूपों को देख लिया था। कहीं क्रीड़ा था, कहीं विनोद था, कहीं कुत्सा था, कहीं लालसा था, कहीं उच्छृंखलता थी, किंतु कहीं वह सहृदयता न थी, जो प्रेम का मूल है। केवल रामेंद्र ही एक ऐसे सज्जन थे, जिन्हें अपनी और ताकते देखकर उसके हृदय में सनसनी होने लगती थी; पर उनकी आँखों में कितनी विवशता, कितनी पराजय, कितनी वेदना छिपी होती थी।

रामेंद्र ने कुँवर साहब की और देखकर कहा -- तुम्हारे बाबा इस क़ब्र पर क्या कर रहे हैं?

सुलोचना के चेहरा कानों तक लाल हो गया। बोली -- यह इनकी प्रानी आदत है।

रामेंद्र -- किसी महात्मा की समाधि है?

सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा। रामेंद्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की दासता औरत की लड़की है; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसी की क़ब्र है और कुँवर साहब अतीत प्रेम के इतने उपासक हैं। मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था। कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह प्रशन उनके कान में पड़ गया। जल्दी से जूता पहन लिया और समीप जाकर बोले -- संसार की आँखों में तो वह महात्मा न थीं; पर मेरी आँखों में थीं, और हैं। यह मेरे प्रेम की समाधि है।

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सुलोचना की इच्छा होती थी, यहाँ से भाग जाऊँ; लेकिन कुँवर साहब को जुहरा के यशोगान में आत्मिक आनंद मिलता था। रामेंद्र का विस्मय देखकर बोले -- इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी का प्रसाद है।

रामेंद्र ने क़ब्र की तरफ़ देखकर आश्चर्य से कहा -- अच्छा!

कुँवर साहब ने मन में उस प्रेम का आनंद उठाते हुए कहा -- वह जीवन ही और था, प्रोफ़ेसर साहब! ऐसी तपस्या मैंने और कहीं नहीं देखी। आपको फ़ुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यौवन-स्मृतियों ॰॰॰॰

सुलोचना बोल उठी -- वह सुनने की चीज़ नहीं है, दादा!

कुँवर -- मैं रामेंद्र बाबू को ग़ैर नहीं समझता।

रामेंद्र को प्रेम का यह अलौकिक रूप मनोविज्ञान का एक रत्न-सा मालूम हुआ। वह कुँवर सहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन हसरत में डूबी हुई प्रेम-स्मृतियों को सुनते रहे।

जो वरदान माँगने के लिए उन्हें साल भर से साहस न होता था, दुविधे में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने माँग लिया।

लेकिन विवाह के बाद रामेंद्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना-जाना प्रायः बंद हो गया। इसके साथ ही मर्द दोस्तों की आमद-रफ़्त बढ़ गई। दिन भर उनका ताँता लगा रहता था। सुलोचना उनके आदर-सत्कार में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेंद्र ने इधर ध्यान नहीं दिया; लेकिन जब कई महीने गुज़र गए और स्त्रियों ने बहिष्कार का त्याग न किया, तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा -- यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं!

सुलोचना ने धीरे से कहा -- हाँ, देखती तो हूँ।

रामेंद्र -- इनकी औरतें तो तुमसे परहेज़ नहीं करतीं?

सुलोचना -- शायद करती हों।

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रामेंद्र -- मगर ये लोग तो विचारों के बड़े स्वाधीन हैं। इनकी औरतें भी शिक्षित हैं, फिर क्या बात है?

सुलोचना ने दबी ज़बान से कहा -- मेरी समझ में कुछ नहीं आता।

रामेंद्र ने कुछ देर असमंजस में पड़कर कहा -- हम लोग किसी दूसरी जगह चले जाएँ तो क्या हर्ज़? वहाँ तो कोई हमें न जानता होगा।

सुलोचना ने अबकी तीव्र में कहा -- दूसरी जगह क्यों जाएँ? हमने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी से कुछ माँगते नहीं। जिसे आना हो आये, न आना हो, न आये। मुँह क्यों छिपाएँ?

धीरे-धीरे रामेंद्र पर एक और रहस्य खुलने लगा, जो महिलाओं के व्यवहार से कहीं अधिक घृणास्पद और अपमानजनक था। रामेंद्र को अब मालूम होने लगा कि ये महाशय जो आते हैं और घंटों बैठे सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर बहसें किया करते हैं, वास्तव में विचार-विनिमय के लिए नहीं, बल्कि रूप की उपासना के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं। उनके कान उसी की बातों की और लगे रहते हैं। उनकी रूप-माधुरी का आनंद उठाना ही उनका अभीष्ट है। यहाँ उन्हें वह संकोच नहीं होता, जो किसी भले आदमी की बहू-बेटी की और आँखें नहीं उठने देता। शायद वे सोचते हैं, यहाँ उन्हें कोई रोक-टोक नहीं है।

कभी-कभी जब रामेंद्र की अनुपस्थिति में कोई महाशय आ जाते, तो सुलोचना को बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। वे अपनी चितवनों से, अपने कुत्सित संकेतों से, अपनी रहस्यपूर्ण बातों से, अपनी लंबी साँसो से उस दिखाना चाहते थे कि हम भी तुम्हारी कृपा के भिखारी हैं, मगर रामेंद्र का तुम पर सोलहों आना अधिकार है, तो थोड़ी-सी दक्षिणा के अधिकारी हम भी हैं। सुलोचना उस वक़्त ज़हर का घूँट पीकर रह जाती।

अब तक रामेंद्र और सुलोचना दोनों क्लब जाया करते थे। वहाँ उदार सज्जनों का अच्छा जमघट रहता था। जब तक रामेंद्र को किसी की और से संदेह न था, वह उसे आग्रह करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के पहुँचते ही वहाँ एक स्फूर्ति-सी उत्पन्न हो जाती थी। जिस मेज़ पर सुलोचना बैठती, उसे लोग घेर लेते थे। कभी-कभी सुलोचना गाती भी थी। उस वक़्त सबके सब उन्मत्त हो जाते।

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क्लब में महिलाओं की संख्या अधिक न थी। मुश्किल से पाँच-छः लेडियाँ आती थीं, मगर वे भी सुलोचना से दूर-दूर रहती थीं, बल्कि अपनी भाव-भंगियों और कटाक्षों से वे उसे जता देना चाहती थीं कि तुम पुरुषों का दिल ख़ुश करो, हम कुल-बधुओं के पास नहीं आ सकतीं।

लेकिन जब रामेंद्र पर इस कटु सत्य का प्रकाश हुआ, तो उन्होंने क्लब जाना छोड़ दिया, मित्रों के यहाँ भी आना-जाना कम कर दिया, और अपने यहाँ आनेवालों की भी उपेक्षा करने लगे। वह चाहते थे कि मेरे एकांतवास में कोई विघ्न न डाले। आख़िर उन्होंने बाहर आना-जाना छोड़ दिया। अपने चारों ओर छल-कपट का जाल-सा बिछा हुआ मालूम होता था, किसी पर विश्वास न कर सकते थे, किसी से सद्व्यवहार की आशा नहीं। सोचते ऐसे धूर्त, कपटी, दोस्ती की आड़ में गला काटनेवाले आदमियों से मिलें ही क्यों?

वे स्वभाव से मिलनसार आदमी थे। पक्के यारबाश। यह एकांतवास जहाँ न कोई सैर थी, न विनोद, न कोई चहल-पहल, उनके लिए कठिन कारा-वास से कम न था। यद्यपि कर्म और वचन से सुलोचना की दिलाजोई करते रहते थे; लेकिन सुलोचना की सूक्ष्म और सशंक आँखों से अब यह बात छिपी न थी कि यह अवस्था इसके लिए दिन-दिन असह्य होती जाती थी। वह दिल में सोचती, इनकी यह दशा मेरे ही कारण तो है, मैं ही तो इनके जीवन का काँटा हो गई!

एक दिन उसने रामेंद्र से कहा -- आजकल क्लब क्यों नहीं चलते? कई सप्ताह हुए, घर से निकले तक नहीं?

रामेंद्र ने बेदिली से कहा -- मेरा जी कहीं जाने को नहीं चाहता। अपना घर सबसे अच्छा।

सुलोचना -- जी तो ऊबता ही होगा। मेरे कारण यह तपस्या क्यों करते हो? मैं तो न जाऊँगी। उन स्त्रियों से मुझे घृणा होती है। उनमें एक भी ऐसी नहीं, जिसके दामन पर काले दाग़ नहीं; लेकिन सब सीता बनी फिरती हैं। मुझे तो उनकी सूरत से चिढ़ हो गई है; मगर तुम क्यों नहीं जाते? कुछ दिल ही बहल जाएगा।

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रामेंद्र -- दिल नहीं, पत्थर बहलेगा। जब अंदर आग लगी हुई हो, तो बाहर शांति कहाँ?

सुलोचना चौंक पड़ी। आज पहली बार उसने रामेंद्र के मुँह से ऐसी बात सुनी। वह अपने ही को बहिष्कृत समझती थी। अपना अनादर जो कुछ था, उसका था। रामेंद्र के लिए तो अब भी सब दरवाज़े खुले हुए थे। वह जहाँ चाहें जा सकते हैं, जिनसे चाहें मिल सकते हैं, उनके लिए कौन-सी रुकावट है; लेकिन नहीं, अगर उन्होंने किसी कुलीन स्त्री से विवाह किया होता, तो उनकी यह दशा क्यों होती? प्रतिष्ठित घरानों की औरतें आतीं, आपस में मैत्री बढ़ती, जीवन सुख से कटता, रेशम में रेशम का पैबंद लग जाता। अब तो उसमें टाट का प्रबंद लग गया। मैंने आकर सारे तालाब को गंदा कर दिया। उसके मुख पर उदासी छा गई।

रामेंद्र को भी तुरंत मालूम हो गया कि उनकी ज़बान से एक ऐसी बात निकल गई, जिसके दो अर्थ हो सकते हैं। उन्होंने फ़ौरन बात बनायी -- क्या तुम समझती हो कि हम और तुम अलग-अलग हैं? हमारा और तुम्हारा जीवन एक है। जहाँ तुम्हारा आदर नहीं, वहाँ मैं कैसे जा सकता हूँ? फिर मुझे भी समाज के इन रँगे सियारों से घृणा हो रही है। मैं इन सबों के कच्चे चिट्ठे जानता हूँ। पद या उपाधि या धन से किसी की आत्मा शुद्ध नहीं हो जाती। जो ये लोग करते हैं, वह अगर कोई नीचे दरजे का आदमी करता, उसे कहीं मुँह दिखाने की हिम्मत न होती: मगर यह लोग अपनी सारी बुराइयाँ उदारतावाद के पर्दे में छिपाते हैं। इन लोगों से दूर रहना ही अच्छा।

सुलोचना का चित्त शांत हो गया।

दूसरे साल सुलोचना की गोद में एक चाँद-सी बालिका का उदय हुआ। उसका नाम रखा गया शोभा। कुँवर साहब का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ अच्छा न था। मंसूरी गए हुए थे। यह ख़बर पाते ही रामेंद्र को तार दिया कि ज़च्चा और बच्चा को लेकर यहाँ आ जाओ।

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लेकिन रामेंद्र इस अवसर पर न जाना चाहते थे। अपने मित्रों की सज्ज्नता और उदारता की अंतिम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर हो सकता था। सलाह हुई, एक शानदार दावत दी जाए। प्रोग्राम में संगीत भी शामिल था। कई अच्छे-अच्छे गवैए बुलाए गए, अँग्रेज़ी, हिंदुस्तानी, मुसलमानी, सभी प्रकार के भोजनों का प्रबंध किया गया।

कुँवर साहब गिरते-पड़ते मंसूरी से आए। उसी दिन दावत थी। नियत समय पर निमंत्रित लोग एक-एक करके आने लगे। कुँवर साहब स्वयं उनका स्वागत कर रहे थे। ख़ाँ साहब आये, मिर्ज़ा साहब आये, मीर साहब आये; मगर पंडितजी और बाबूजी और लाला साहब और चौधरी साहब और कक्कड़, मेहरा और चोपड़ा, कौल और हुक्कू, श्रीवास्तब और खरे, किसी का पता न था।

यही सब लोग होटलों में सब-कुछ खाते थे, अंडे और शराब उड़ाते थे -- इस विषय में किसी तरह का विवेक या विचार न करते थे। फिर आज क्यों तशरीफ़ नहीं लाये? इसलिए नहीं लि छूत-छात का विचार था; बल्कि इसलिए कि वह अपनी उपस्थिति को इस विवाह के समर्थन की सनद समझते थे और वह सनद देने की उनकी इच्छा न थी।

दस बजे रात तक कुँवर साहब फाटक पर खड़े रहे। जब उस वक़्त तक कोई न आया, तो कुँवर साहब ने आकर रामेंद्र से कहा -- अब लोगों का इंतज़ार फ़ज़ूल है। मुसलमानों को खिला दो और बाक़ी सामान ग़रीबों को दिला दो।

रामेंद्र एक कुर्सी पर हतबुद्धि-से बैठे हुए थे। कुँठित स्वर में बोले -- जी हाँ, यही तो मैं सोच रहा हूँ।

कुँवर -- मैंने तो पहले ही समझ लिया था। हमारी तौहीन नहीं हुई। ख़ुद उन लोगों की कलई खुल गई।

रामेंद्र -- ख़ैर, परीक्षा तो हो गई। कहिए तो अभी जाकर एक-एक की ख़बर लूँ।

कुँवर साहब ने विस्मित होकर कहा -- क्या -- क्या उनके घर जाकर?

रामेंद्र -- जी हाँ । पूछूँ, कि आप लोग जो समाज-सुधार का राग अलापते फिरते हैं, वह किस बल पर?

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कुँवर -- व्यर्थ है। जाकर आराम से लेटो। नेक और बद की सबसे बड़ी पहचान अपने दिल है। अगर हमारा दिल गवाही दे कि यह काम बुरा नहीं, तो फिर सारी दुनिया मुँह फेर ले, हमें किसी की परवाह न करनी चाहिए।

रामेंद्र -- लेकिन मैं इन लोगों को यों न छोड़ूँगा -- एक-एक की बखिया उधेड़कर रख न दूँ, तो नाम नहीं।

यह कहकर उन्होंने पत्तल और कसोरे उठवा-उठवाकर कंगालों को देना शुरू किया।

रामेंद्र सैर करके लौटे ही थे कि वेश्याओं का एक दल सुलोचना को बधाई देने के लिए आ पहुँचा! जुहरा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार। सुलोचना के यहाँ पहले बराबर आती-जाती थी। इधर दो साल से न आयी थी। यह उसी का बधावा था। दरवाज़े पर अच्छी ख़ासी भीड़ हो गई थी। रामेंद्र न यह शोर-गुल सुना। गुलनार ने आगे बढ़कर उन्हें सलाम किया और बोली -- बाबूजी, बेटी मुबारक, बधावा लायी हूँ।

रामेंद्र पर मानो लकवा-सा गिर गया। सिर झुक गया और चेहरे पर कालिमा-सी पुत गई। न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले। बस, मूर्तिवत् खड़े रह गए। एक बाज़ारी औरत से नाता पैदा करने का ख़याल इतना लज्जास्पद था, इतना जघन्य कि उसके सामने सज्जनता भी मौन रह गई। इतना शिष्टाचार भी न कर सके कि सबों को कमरे में जा कर बिठा तो देते। आज पहली ही बार उन्हें अपने अधःपतन का अनुभव हुआ। मित्रों की कुटिलता और महिलाओं की उपेक्षा को वह उनका अन्याय समझते थे, अपना अपमान नहीं; लेकिन यह बधावा उनकी अबाध्य उदारता के लिए भी भारी था।

सुलोचना का जिस वातावरण में पालन-पोषण हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित हिंदू कुल का वारावरण था। यह सच है कि अब भी सुलोचना नित्य जुहरा के मज़ार की परिक्रमा करने जाती थी; मगर जुहरा अब एक पवित्र स्मृति थी, दुनिया की मलिनताओं और कलुषताओं से रहित। गुलनार से नातेदारी और परस्पर का निबाह दूसरी बात थी। जो लोग तसवीरों के सामने सिर झुकाते हैं, उन पर फूल चढ़ाते हैं, वे भी तो मूर्ति-पूजा की निंदा करते हैं। एक स्पष्ट है, दूसरा सांकेतिक। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा आँखों से छिपा हुआ।

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सुलोचना अपने कमरे में चिक की आड़ में खड़ी रामेंद्र का असमंजस और क्षोभ देख रही थी। जिस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चाहा था, जिसके द्वार सिजदे करते उसे बरसों हो गए थे, उसकी तरफ़ से निराश होकर, उसका हृदय इस समय उससे विद्रोह करने पर तुला हुआ था। उसके जी में आता था, गुलनार को बुलाकर गले लगा लूँ। जो लोग मेरी बात भी नहीं पूछते, उनकी ख़ुशामद क्यों करूँ? यह बेचारियाँ इतनी दूर से आयी हैं मुझे अपना ही समझकर तो; उनके दिल में प्रेम तो है, यह मेरे दुख-सुख में शरीक होने को तैयार तो हैं।

आख़िर रामेंद्र ने सिर उठाया और शुष्क मुस्कान के साथ गुलनार से बोले -- आइए, आप लोग अंदर चली आइए। यह कहकर वह आगे-आगे रास्ता दिखाते हुए दीवानख़ाने की ओर चले कि सहसा महरी निकली और गुलनार के हाथ में एक पुर्ज़ा देकर चली गयी। गुलानार ने वह पुर्ज़ा लेकर देखा और उसे रामेंद्र के हाथ में देकर वहीं खड़ी हो गई। रामेंद्र ने पुर्ज़ा देखा, लिखा था -- बहन गुलनार, तुम यहाँ नाहक़ आयीं। हम लोग यों ही बदनाम हो रहे हैं। अब और बदनाम मत करो, बधावा वापस ले आओ। कभी मिलने का जी चाहे, तो रात को आना और अकेली। मेरा जी तुम्हारे गले लिपटकर रोने के लिए तड़प रहा है; मगर मजबूर हूँ।

रामेंद्र ने पुर्ज़ा फाड़कर फेंक दिया और उद्दंद होकर बोले -- इन्हें लिखने दो। मैं किसी से नहीं डरता। अंदर आओ।

गुलनार ने एकदम पीछे फिरकर कहा -- नहीं, बाबूजी, अब हमें आज्ञा दीजिए।

रामेंद्र -- एक मिनट तो बैठो!

गुलनार -- जी नहीं। एक सेकिंड भी नहीं।

गुलनार के चले जाने के बाद रामेंद्र अपने कमरे में जा बैठे। जैसी पराजय उन्हें आज हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। वह आत्माभिमान, वह सच्चा क्रोध, जो अन्याय के ज्ञान से पैदा होता है लुप्त हो गया था। उनकी जगह लज्जा थी और ग्लानि। इसे बधावे की क्यों सूझ गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न जाने कहाँ से फट पड़ी। कुँवर साहब होंगे इतने उदार। उन्होंने जुहरा के नातेदारों से भाईचारे का निबाह किया होगा, मैं इतना उदार नहीं हूँ। कहीं सुलोचना छिपकर इसके पास आती-जाती तो नहीं! लिखा भी तो है कि मिलने का जी चाहे, तो रात को आना और अकेली -- क्यों न हो, ख़ून तो वही है। मनोवृत्ति वही, विचार वही, आदर्श वही। माना, कुँवर साहब के घर में पालन-पोष्ण हुआ; मगर रक्त का प्रभाव इतनी जल्दी नहीं मिट सकता। अच्छा, दोनों बहिनें मिलती होंगी, तो उनमें क्या बातें होती होंगी? इतिहास या नीति की चर्चा तो हो नहीं सकती। वही निर्लज्जता की बातें होती होंगी। गुलनार अपना वृत्तांत कहती होगी, उस बाज़ार के ख़रीदारों और दूकानदारों के गुण-दोषों पर बहस होती होगी। यह तो हो ही नहीं सकता कि गुलनार इसके पास आते ही अपने को भूल जाए और कोई भद्दी, अनर्गल और कलुषित बात न करे। एक क्षण में उनके विचारों ने पलटा खाया; मगर आदमी बिना किसी से मिले-जुले रह भी तो नहीं सकता। यह भी तो एक तरह की भूक है। भूख में अगर शुद्ध भोजन न मिले, तो आदमी जूठा खाने से भी परहेज़ नहीं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया होता, उनका यों बहिष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राणियों से मिलने की इच्छा होती? उसका कोई दोष नहीं, यह सारा दोष परिस्थितियों का है, जो हमारे अतीत की याद दिलाती रहती हैं।

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रामेंद्र इन्हीं विचारों पड़े हुए थे कि कुँवर साहब आ पहुँचे और कटु स्वर में बोले -- मैंने सुना, गुलनार अभी बधावा लायी थी, तुमने उसे लौटा दिया।

रामेंद्र का विरोध सजीव हो उठा। बोले -- मैंने तो नहीं लौटाया, सुलोचना ने लौटाया; पर मेरे ख़याल में अच्छा किया।

कुँवर -- तो यह कहो, तुम्हारा इशारा था। तुमने इन पतितों को अपनी ओर खींचने का कितना अच्छा अवसर हाथ से खो दिया है! सुलोचना को देखकर जो कुछ असर पड़ा, वह तुमने मिटा दिया। बहुत संभव था कि एक प्रतिष्ठिति आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नए युग का आरंभ करता; मगर तुमने इन बातों पर ज़रा भी ध्यान न दिया।

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रामेंद्र ने कोई ज़बान न दिया। कुँवर साहब ज़रा उत्तेजित होकर बोले -- आप लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हरेक बुराई मजबूरी से होती है। चोर इसलिए चोरी नहीं करता कि चोरी में उसे विशेष आनंद आता है, बल्कि केवल इसलिए कि ज़रूरत उसे मजबूर करती है। हाँ, वह ज़रूरत वास्तविक है या काल्पनिक, इसमें मतभेद हो सकता है। स्त्री के मैके जाते समय कोई गहना बनवाना एक आदमी के लिए ज़रूरी हो सकता है; दूसरे के लिए बिलकुल ग़ैरज़रूरी। क्षुधा से व्यथित होकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता है, दूसरा मर जाएगा, पर किसी के सामने हाथ न फैलाएगा; पर प्रकृति का यह नियम आप-जैसे विद्वानों को न भूलना चाहिए कि जीवन-लालसा प्राणि-मात्र में व्यापक है। ज़िंदा रहने के लिए आदमी सब-कुछ कर सकता है। ज़िंदा रहना जितना ही कठिन होगा, बुराइयाँ भी उसी मात्रा में बढ़ेंगी, जितना ही आसान होगा, उतनी ही बुराइयाँ कम होंगी। हमारा यह पहला सिद्धांत होना चाहिए कि ज़िंदा रहना हरेक के लिए सुलभ हो। रामेंद्र बाबू, आपने इस वक़्त इन लोगों के साथ वही व्यवहार किया, जो दूसरे आपके साथ कर रहे हैं और जिससे आप बहुत दुःखी हैं।

रामेंद्र ने इस लंबे व्याख्यान को इस तरह सुना, जैसे कोई पागल बक रहा हो। इस तरह की दलीलों का वह ख़ुद कितनी ही बार समर्थन कर चुके थे; पर दलीलों से व्यथित अंग की पीड़ा नहीं शांत होती। पतित स्त्रियों का नातेदार की हैसियत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कि रामेंद्र किसी दलील से पराभूत होकर उसे भूल न सकते थे। बोले -- मैं ऐसे प्राणियों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता। यह विष अपने घर में नहीं फैलाना चाहता।

सहसा सुलोचना भी कमरे में आ गई। प्रसवकाल का असर अभी बाक़ी था; पर उत्तेजना ने चेहरे को आरक्त कर रखा था। रामेंद्र सुलोचना को देख कर और तेज़ हो गए। वह उसे जता देना चाहते थे कि इस विषय में मैं एक रेखा तक जा सकता हूँ, उसके आगे किसी तरह नहीं जा सकता। बोले -- मैं यह कभी पसंद न करूँगा कि कोई बाज़ारी औरत किसी वक़्त और किसी भेष में मेरे घर आये। रात को अकेले या सूरत बदलकर आने से इस बुराई का असर नहीं मिट सकता। मैं समाज के दंड से नहीं डरता, इस नैतिक विष से डरता हूँ।

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सुलोचना अपने विचार में मर्यादा-रक्षा के लिए काफ़ी आत्मसमर्पण कर चकी थी। उसकी आत्मा ने अभी तक क्षमा न किया था। तीव्र स्वर में बोली -- क्या तुम चाहते हो कि मैं इस क़ैद में अकेले जान दे दूँ? कोई तो हो, जिससे आदमी हँसे, बोले!

रामेंद्र ने गर्म होकर कहा -- हँसने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ विवाह न करना चाहिए था। विवाह का बंधन बड़ी हद तक त्याग का बंधन है। जब तक संसार में इस विधान का राज्य है, और स्त्री कुल-मर्यादा की रक्षक समझी जाती है, उस वक़्त तक कोई मर्द यह स्वीकार न करेगा कि उसकी पत्नी बुरे आचरण के प्राणियों से किसी प्रकार का संसर्ग रखे।

कुँवर साहब समझ गए कि इस वाद-विवाद से रामेंद्र और भी ज़िद पकड़ लेंगे और मुख्य विषय लुप्त हो जाएगा, इसलिए नम्र स्वर में बोले -- लेकिन बेटा, यह क्यों ख़याल करते हो कि एक ऊँचे दरजे की पढ़ी-लिखी स्त्री दूसरों के प्रभाव में आ जाएगी, अपना प्रभाव न डालेगी?

रामेंद्र -- इस विषय में शिक्षा पर मेरा विश्वास नहीं। शिक्षा ऐसी कितनी बातों को मानती है, जो रीति-नीति और परंपरा की दृष्टि में त्याज्य हैं? अगर पाँव फिसल जाए, तो हम उसे काटकर फेंक नहीं देते; पर मैं इस analogy के सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हूँ। मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि मेरे साथ रहकर पुराने संबंधों का त्याग करना पड़ेगा! इतना ही नहीं, मन को ऐसा बना लेना पड़ेगा कि ऐसे लोगों से उसे ख़ुद घृणा हो। हमें इस तरह अपना संस्कार करना पड़ेगा कि समाज अपने अन्याय पर लज्जित हो, न कि हमारे आचरण ऐसे भ्रष्ट हो जाएँ कि दूसरों की निगाह में यह तिरस्कार औचित्य का स्थान पा जाए।

सुलोचना ने उद्धत होकर कहा -- स्त्री इसके लिए मजबूर नहीं है कि वह आपकी आँखों से देखे और आपके कानों से सुने। उसे यह निश्चय करने का अधिकार है कि कौन-सी चीज़ उसके हित की है, कौन-सी नहीं।

कुँवर साहब भयभीत होकर बोले -- सिल्लो, तुम भूली जाती हो कि बातचीत में हमेशा मुलायम शब्दों का व्यवहार करना चाहिए। हम झगड़ा नहीं कर रहे हैं, केवल एक प्रश्न पर अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

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सुलोचना ने निर्भीकता से कहा -- जी नहीं, मेरे लिए बेड़ियाँ तैयार की जा रही हैं। मैं इन बेड़ियों को नहीं पहन सकती। मैं अपनी आत्मा को उतना ही स्वाधीन समझती हूँ, जितना कोई मर्द समझता है।

रामेंद्र ने अपनी कठोरता पर कुछ लज्जित होकर कहा -- मैंने तुम्हारी आत्मा की स्वाधीनता को छीनने की कभी इच्छा नहीं की और न मैं इतना विचारहीन हूँ। शायद तुम भी इसका समर्थन करोगी; लेकिन क्या तुम्हें विपरीत मार्ग पर चलते देखूँ, तो मैं समझा नहीं सकता?

सुलोचना -- उसी तरह, जैसे मैं तुम्हें समझा सकती हूँ। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकते।

रामेंद्र -- मैं इसे नहीं मान सकता।

सुलोचना -- अगर मैं अपने किसी नातेदार से मिलने जाऊँ, तो आपकी इज़्ज़त में बट्टा लगता है। क्या इसी तरह आप यह स्वीकार करेंगे कि आपका व्यभिचारियों से मिलना-जुलना मेरी इज़्ज़त में दाग़ लगाता है?

रामेंद्र -- हाँ, मैं मानता हूँ।

सुलोचना --आपका कोई व्यभिचारी भाई आ जाए, तो आप उसे दरवाज़े से भगा देंगे?

रामेंद्र -- तुम मुझे इसके लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।

सुलोचना -- और आप मुझे मजबूर कर सकते हैं?

{बेशक।}

{क्यों?}

{इसलिए कि मैं पुरुष हूँ, इस छोटे-से परिवार का मुख्य अंग हूँ। इस लिए कि तुम्हारे ही कारण मुझे॰॰॰} रामेंद्र कहते-कहते रुक गए; पर सुलोचना उनके मुँह से निकलनेवाले शब्दों को ताड़ गई। उसका चेहरा तमतमा उठा, मानो छाती में बरछी-सी लग गई। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी क्षण यह घर छोड़कर, सारी दुनिया से नाता तोड़कर चली जाऊँ और फिर उन्हें कभी मुँह न दिखाऊँ। अगर इसी का नाम विवाह है कि किसी की मर्ज़ी की ग़ुलाम होकर रहूँ, अपमान सहन करूँ, तो ऐसे विवाह को दूर ही से सलाम है।

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वह तैश में आकर कमरे से निकलना चाहती थी कि कुँवर साहब ने लपककर उसे पकड़ लिया और बोले -- क्या करती हो बेटी, घर में जाओ, क्यों रोती हो? अभी तो मैं जीता हूँ, तुम्हें क्या ग़म है! रामेंद्र बाबू ने कोई ऐसी बात नहीं कही और न कहना चाहते थे। फिर आपस की बातों का क्या बुरा मानना! किसी अवसर पर तुम भी जो जी में आए, कह लेना।

यों समझाते हुए कुँवर साहब उसे अंदर ले गए। वास्तव में सुलोचना कभी गुलनार से मिलने की इच्छुक न थी। वह उससे स्वयं भागती थी। एक क्षणिक आवेश में उसने गुलानार को वह पुरजा लिख दिया था । मन में स्वयं समझती थी, इन लोगों से मेल-जोल रखना मुनासिब नहीं; लेकिन रामेंद्र ने यह विरोध किया, यही उसके लिए असह्य था। यह मुझे मना क्यों करें? क्या इतना भी नहीं समझती? क्या इन्हें मेरी ओर से इतना शंका है! इसी लिए तो, कि मैं कुलीन नहीं हूँ! मैं अभी-अभी गुलनार से मिलने जाऊँगी, ज़िद्दन जाऊँगी; देखूँ मेरा क्या करते हैं।

लाड़-प्यार में पली हुई सुलोचना को कभी किसी ने तीखी आँखों से न देखा था। कुँवर साहब उसकी मर्ज़ी के ग़ुलाम थे। रामेंद्र भी इतने दिनों उसका मुँह जोहते रहे। अब अकस्मात् यह तिरस्कार और फटकार पाकर उसकी स्वेच्छा प्रेम और आत्मीयता के सारे नातों को पैरों से कुचल डालने के लिए विकल हो उठी। वह सब कुछ सह लेगी; पर यह धौंस, यह अन्याय, यह अपमान उससे न सहा जाएगा।

उसने खिड़की से सिर निकालकर कोचवान को पुकारा और बोली -- गाड़ी लाओ, मुझे चौक जाना है, अभी लाओ।

कुँवर साहब न चुमकारकर कहा -- बेटी सिल्लो, क्या कर रही हो, मेरे ऊपर दया करो। इस वक़्त कहीं मत जाओ, नहीं हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा। रामेंद्र बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी हैं। फिर तुमसे बड़े हैं, ज़्यादा विचारवान हैं, उन्हीं का कहना मान जाओ। मैं तुमने सच कहता हूँ, तुम्हारी माँ जब थीं, तो कई बार ऐसी नौबत आयी कि मैंने उनसे कहा, घर से निकल जाओ। पर उस प्रेम की देवी ने कभी ड्योढ़ी के बाहर पाँव नहीं निकाला। इस वक़्त धैर्य से काम लो। मुझे विश्वास है, ज़रा देर में रामेंद्र बाबू ख़ुद लज्जित होकर तुम्हारे पास अपना अपराध क्षमा कराने आएँगे।

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सहसा रामेंद्र ने आकर पूछा -- गाड़ी क्यों मँगवायी? कहाँ जा रही हो?

रामेंद्र का चेहरा इतना क्रोधोन्मत्त हो रहा था कि सुलोचना सहम उठी। दोनों आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। नथने फड़क रहे थे। पिंडलियाँ काँप रही थीं। यह कहने की हिम्मत न पड़ी कि गुलनार के घर जाती हूँ। गुलनार का नाम सुनते ही शायद यह मेरी गर्दन पर सवार हो जाएँगे -- इस भय से वह काँप उठी। आत्मरक्षा का भाव प्रबल हो गया। बोली -- ज़रा अम्माँ के मज़ार तक जाऊँगी।

रामेंद्र ने डाँटकर कहा -- कोई ज़रूरत नहीं वहाँ जाने की।

सुलोचना ने कातर स्वर में कहा -- क्यों, अम्माँ के मज़ार तक जाने की भी रोक है?

रामेंद्र ने उसी ध्वनि में कहा -- हाँ।

सुलोचना -- तो फिर अपना घर सँभालो, मैं जाती हूँ।

रामेंद्र -- जाओ, तुम्हारे लिए क्या, यह न सही, दूसरा घर सही!

अभी तक तस्मा बाक़ी था, वह कट गया। यों शायद सुलोचना वहाँ से कुँवर साहब के बँगले पर जाती, दो-चार दिन रूठी रहती, फिर रामेंद्र उसे मना लाते और मामला तय यो जाता; लेकिन इस चोट ने समझौते और संधि की जड़ काट दी। सुलोचना दरवाज़े तक पहुँची थी, वहीं चित्रि-लिखित-सी खड़ी रह गई। मानो किसी ऋषि के शाप ने उसके प्राण खींच लिये हों। वहीं बैठ गई। न कुछ बोल सकी, न कुछ सोच सकी। जिसके सिर पर बिजली गिर पड़ी हो, वह क्या सोचे, क्या रोए, क्या बोले। रामेंद्र के यह शब्द बिजली से कहीं अधिक घातक थे।

सुलोचना कब तक वहाँ बैठी रही, उसे कुछ ख़बर न थी। जब उसे कुछ होश आया, तो घर में सन्नाटा छाया हुआ था। घड़ी की तरफ़ आँख उठी, एक बज रहा था। सामने आरामकुर्सी पर कुँवर साहब नवजात शिशु को गोद में लिये सो गए थे। सुलोचना ने उठकर बरामदे में झाँका, रामेंद्र अपने पलँग पर लेते हुए थे। उसके जी में आया, इसी वक़्त इन्हीं के सामने लाकर कलेजे में छुरी मार लूँ और इन्हीं के सामने तड़प-तड़पकर मर जाऊँ। वह घातक शब्द याद आ गए। इनके मुँह से ऐसे शब्द निकले क्योंकर! इतने चतुर, इतने उदार और इतने विचारशील होकर भी वह ज़बान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके?

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उसका सारा सतीत्व, भारतीय आदर्शों की गोद में पली हुई, भूमि पर आहत पड़ी हुई, अपनी दीनता पर रो रहा था। वह सोच रही थी, अगर मेरे नाम पर यह दाग़ न होता, मैं भी कुलीन होती, तो क्या यह शब्द इनके मुँह से निकल सकते थे? लेकिन मैं बदनाम हूँ, दलित हूँ, त्याज्य हूँ, मुझे सब कुछ कहा जा सकता है। उफ़्, इतना कठोर हृदय! क्या वह किसी दशा में भी रामेंद्र पर इतना कठोर प्रहार कर सकती थी?

बरामदे में बिजली की रोशनी थी। रामेंद्र के मुख पर क्षोभ या ग्लानि का नाम भी न था। क्रोध की कठोरता अब तक उनके मुख को विकृत किए हुए थी। शायद इन आँखों में आँसू देखकर अब भी सुलोचना के आहत हृदय को तसकीन होती; लेकिन वहाँ तो अभी तक तलवार खिंची हुई थी। उसकी आँखों में सारा संसार सूना हो गया।

सुलोचना फिर अपने कमरे में आयी। कुँवर साहब की आँखें अब भी बंद थीं। इन चंद घंटों ही में उनका तेज़स्वी मुख कांतिहीन हो गया था। गालों पर आँसुओं की रेखाएँ सूख गई थीं। सुलोचना ने उनके पैरों के पास बैठ सच्ची भक्ति के आँसू बहाए। हाय! मुझ अभागिनी के लिए इन्होंने कौन-कौन-से कष्ट नहीं झेले, कौन-कौन-से अपमान नहीं सहे, अपना सारा जीवन ही मुझ पर अर्पण कर दिया और उसका यह हृदय-विदारक अंत।

सुलोचना ने फिर बच्ची को देखा; मगर उसका गुलाब का-सा विकसित मुख देखकर भी उसके हृदय में ममता की तरंग न उठी। उसने उसकी तरफ़ से मुँह फेर लिया। यही उस अपमान की मूर्तिमान वेदना है, जो इतने दिनों मुझे भोगनी पड़ी। मैं इसके लिए क्यों अपने प्राण संकट में डालूँ? अगर उसके निर्दयी पिता को उसका प्रेम है; तो उसको पाले। और एक दिन वह भी इसी तरह रोए, जिस तरह आज मेरे पिता को रोना पड़ रहा है। ईश्वर अबकी अगर जन्म देना, तो किसी भले आदमी के घर जन्म देना ॰॰॰॰

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जहाँ जुहरा का मज़ार था, उसी के बगल में एक दूसरा मज़ार बना हुआ है। जुहरा के मज़ार पर घास जम आई है, जगह-जगह से चूना गिर गया है; लेकिन दूसरा मज़ार साफ़-सुथरा और सजा हुआ है। उसके चारों तरफ़ गमले रखे हुए हैं और मज़ार तक जाने के लिए गुलाब के बेलों की रविशें बनी हुई हैं।

शाम हो गई है। सूर्य की क्षीण, उदास, पीली किरणों मानो उस मज़ार पर आँसू बहा रही हैं। एक आदमी एक तीन-चार साल की बालिका को गोद लिये हुए आया और उस मज़ार को रूमाल से साफ़ करने लगा। रविशों में में जो पत्तियाँ पड़ी थीं, उन्हें चुनकर साफ़ कीं और मज़ार पर सुगंध छिड़कने लगा। बालिका दौड़-दौड़कर तितलियों को पकड़ने लगी।

यह सुलोचना का मज़ार है। उसकी आख़िरी नसीहत थी कि मेरी लाश जलाई न जाए, मेरी माँ की बगल में मुझे सुला दिया जाए। कुँवर साहब तो सुलोचना के बाद छः महीने से ज़्यादा न चल सके। हाँ, रामेंद्र अपने अन्याय का पश्चात्ताप कर रहे हैं।

शोभा अब तीन साल की हो गई है और उसे विश्वास है कि एक दिन उसकी माँ इसी मज़ार से निकलेगी।