p.018

सद्गति

दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके, तो चमारित ने कहा -- तो जाके पडिंत बाबा से कह आओ न? ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।

दुखी -- हाँ जाता हूँ; लेकिन यह सोच, बैठेंगे किस चीज़ पर?

झुरिया -- कहीं से खटिया न मिल जाएगी? ठकुराने से माँग लाना।

दुखी -- तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुरानेवाले मुझे खटिया देंगे! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खठिया देंगे! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला, खटिया कौन देगा! हमारे उपले, सेंठे भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहें उठा ले जाएँ। ला, अपनी खटोली धोकर रख दें। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जाएगी।

झुरिया -- वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं, कितने नेम-धरम से रहते हैं।

दुखी ने ज़रा चिंतित होकर कहा -- हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाए पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवितर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ तोड़ लूँ।

झुरिया -- पत्तल मैं बना लूँगी। तुम जाओ; लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ!

दुखी -- कहीं ऐसा ग़ज़ब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे। बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी किरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधी भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत। झूरी गोंड़ की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आध सेर चावल, पाव भर दाल, आध पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की न मिले, तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं ग़ज़ब हो जाएगा।

p.019

इन बातों की ताक़ीद करके दुखी ने लकड़ी उठायी और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज़ करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता? नज़राने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था? उसे खाली हाथ देखकर तो बाबा दूर ही से दुतकारते।

पंडित घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी था। उसके बाद आध घंटे तक चंदन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चंदन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरीं की बिंदी होती थी। फिर छोती पर, बाँहों पर चदन की गोल-गोल मुद्रिकाएँ बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चंदन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते। ईशोपासन का तत्काले फल मिल जाता। यही उनकी खेती थी।

आज वह पूजनगृह से निकले तो देखा, दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हुआ। वह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया। कितनी दिव्य मूर्ति थी! छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आँखें। रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले-आज कैसे चला रे दुखिया?

दुखी ने सिर झुकाकर कहा -- बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज! कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्ज़ी होगी?

p.020

घासी -- आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ, साँझ तक आ जाऊँगा।

दुखी -- नहीं महाराज, जल्दी मर्ज़ी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ?

घासी -- इस गाय के समाने डाल दे और ज़रा झाड़ू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर ज़रा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौल में रख देना।

दुखी फ़ौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाड़ू लगायी, बैठक को गोबर से लीपा। तब तक बारह बज गए। पंडितजी भोजन करने चले गए। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की भूख लगी; पर वहाँ खाने को क्या धरा था? घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाए तो पंडितजी बिगड़ जाएँ। बेचारे ने भूख दबायी और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी, जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना ज़ोर आज़मा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीरकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अब्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता। फिर उठता था; हाथ उठाए न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर सीधी न होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किए जाता था। अगर एक चिलम तंबाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती। उसने सोचा, यहाँ चिलम और तंबाकू कहाँ मिलेगी? ब्राह्मनों का पूरा है। ब्राह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तमाखू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ ज़रूर चिलम-तमाखू होगी! तुरंत उसके घर दौड़ा। ख़ैर, मेहनत सुफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा -- आग की चिंता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी।

p.021

यह् कहता हुआ वह दोनों चीजें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला -- मालिक, रचिक आग मिल जाय, तो चिलम पी लें।

पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा -- यह कौन आदमी आग माँग रहा है?

पंडित -- अरे, वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है, थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।

पंडिताइन ने भवें चढ़ाकर कहा -- तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रों के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाए घर में चला आये। हिंदू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाए, नहीं तो इसी लुआठी से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं!

पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा -- भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। ज़रा-सी आग दे क्यों नहीं देतीं, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लानियाँ यही लाकड़ी फाड़ता, तो कम से कम चार आने लेता।

पंडिताइन ने गरजकर कहा -- वह घर में आया क्यों?

पंडित ने हारकर कहा -- ससुरे का अभाग था और क्या!

पंडिताइन -- अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ; लेकिन फिर जो इस तरह कोई घर में आएगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।

दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये? बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूछता है, तभी तो इतना मान है। भर चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आयी।

इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर ज़मीन पर माथा टेकता हुआ बोला -- पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी! इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते?

p.022

पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लायी थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ़ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हटकर सिर को झोटे देने लगा। उसके मन ने कहा -- यह एक पवित्तर बराह्मन के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितने जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं, बराह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले। घर भर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल-गलकर गिरने लगें।

बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाज़ें आने लगीं।

उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं -- इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।

पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से समझकर पूछा -- रोटियाँ हैं?

पंडिताइन -- दो-चार बच जाएँगी।

पंडित -- दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।

पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं -- अरे, बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो।

पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा -- कुछ भूसी-चोकर हो, तो आटे में मिला कर दो ठो लिट्ट ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्ट चाहिए।

पंडिताइन ने कहा -- अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।

दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से ज़रा हाथों में ताक़त आ गई थी। कोई आध घंटे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़के बैठ गया।

p.023

इतने में गोंड़ आ गया। बोला -- क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।

दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा -- अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई।

गोंड़ -- कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं?

दुखी -- कैसी बात करते हो चिखुरी, बाम्हन की रोटी हमको पचेगी।

गोंड़ -- पचने को पच जाएगी; पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोए, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। ज़मींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी-बहुत मजूरी दे देता है। यह उनसे भी बढ़ गए, उस पर धर्मात्मा बनते हैं!

दुखी -- धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें, तो आफ़त आ जाए।

यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आयी। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आध घंटे ख़ूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलायी; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया -- तुम्हारे फ़ाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाए।

दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो पड़ती नहीं। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा? अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक न एक चीज़ घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता? चलूँ, जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा! आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा।

उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलाँग से कम न था। अगर झौवा ख़ूब भर-भरकर लाता तो काम जल्द ख़त्म हो जाता; लेकिन फिर झौवे को उठाता कौन? अकेला भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा ख़त्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान ख़ाया और बाहर निकले! देखा, तो दुखी झौवे पर सिर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले -- अरे, दुखिया, तू सो रहा है? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी। उस पर सो रहा है! उठा, ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे ज़रा-सी लकड़ी नहीं फटती! फिर साइत भी वैसी निकलेगी, मुझे दोष मत देना। इसी से कहा है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली।

p.024

दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठायी। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धँसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना भी पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था; पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें तो फिर सत्यानाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहें बियाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर खड़े हो गए और बढ़ावा देने लगे -- हाँ, मार कसके, और मार -- कसके मार -- अब ज़ोर से मार -- तेरे हाथ में तो जैसे दम हि नहीं है -- लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है -- हाँ -- बस, फटा ही चाहती है! दे उसी दरार में।

दुखी अपने होश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्त शक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकन, भूख, कमज़ोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आध घंटे तक वह इसी तरह उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक की लकड़ी बीच से फट गई -- और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।

पंडितजी ने पुकारा -- उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतलि-पतली चैलियाँ हो जाएँ।

दुखी न उठा। उन्होंने भी अब उसे दिक करना उचित न समझा। पंडितजी ने भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गए, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले। दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा --अरे, क्या पड़े ही रहोगे दुखी? चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न?

p.025

दुखी फिर न उठा।

अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे और पंडिताइन से बोले -- दुखिया तो जैसे मर गया।

पंडिताइन हकबकाकर बोलीं -- वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न!

पंडित -- हाँ, लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा?

पंडिताइन ने शांत होकर कहा -- होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो, मुर्दा उठा ले जाएँ।

एक क्षण में गाँव भर में ख़बर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने उधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएँ का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाए। चमार की लाश के पास से हो कर पानी भरने कौन जाए। एक बुढ़िया ने पंडितजी से कहा -- अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं? कोई गाँव में पानी पीएगा या नहीं?

इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया -- ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहक़ीक़ात होगी। दिल्लगी है कि एक ग़रीब की जान ले ली। पंडित होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे।

इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ। हाँ, देखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करतीं वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उसके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पंडितजी ने चमारों को बहुत धमकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आख़िर निराश होकर औट आए।

आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया; पर लाश उठाने कोई चमार न आया; और बाम्हन चमार की लाश कैसे उठाते! भला, ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है? कहीं कोई दिखा दे।

p.026

पडिताइन ने झुँझलाकर कहा -- इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं थकता।

पंडित ने कहा -- रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोएँगी? जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सबकी सब आ पहुँचीं।

पंडिताइन -- चमार का रोना मनहूस है।

पंडित -- हाँ, बहुत मनहूस।

पंडिताइन -- अभी से दुर्गंध उठने लगी।

पंडित -- चमार था ससुरा कि नहीं। खाध-अखाध किसी का विचार है इन सबों को?

पंडिताइन -- इन सबों को घिन भी नहीं लगती।

पंडित -- भ्रष्ट हैं सब।

रात तो किसी तरह कटी, मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गंध कुछ-कुछ फैलने लगी।

पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फंदा बनाकर मुर्दे के पैर में डाला, और फंदे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधला था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गए। वहाँ से आकर तुरंत स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।

उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यंत की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था!